अंतरराष्‍ट्रीय न्यायालय

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'संयुक्त राष्ट्र'
अन्तरराष्‍ट्रीय न्यायालय
संयुक्त राष्ट्र अन्तरराष्‍ट्रीय न्यायालय
संयुक्त राष्ट्र अन्तरराष्‍ट्रीय न्यायालय
मुख्यालय शान्ति महल (पीस पैलस), हेग
सदस्य वर्ग 193 सदस्य देश
अधिकारी भाषाएं अंग्रेजी, फ़्रांसीसी
अध्यक्ष जोआन डोनोग,अमेरिका
जालस्थल http://www.un.org

अन्तरराष्‍ट्रीय न्यायालय (ISO 15919: Antararāṣtrīya Nyāyālaya ) संयुक्त राष्ट्र का प्रधान न्यायिक अंग है और इस संघ के पाँच मुख्य अंगों में से एक है। इसकी स्थापना संयुक्त राष्ट्र संघ के घोषणा पत्र के अन्तर्गत हुई है। इसका उद्घाटन अधिवेशन 18 अप्रैल 1946 ई॰ को हुआ था। इस न्यायालय ने अन्तरराष्ट्रीय न्याय का स्थायी न्यायालय का स्थान ले लिया। न्यायालय हेग में स्थित है और इसका अधिवेशन छुट्टियों को छोड़ सदा चालू रहता है। न्यायालय के प्रशासन व्यय का भार संयुक्त राष्ट्र संघ पर है।

1980 तक अन्तरराष्ट्रीय समाज इस न्यायालय का अधिक प्रयोग नहीं करता था, पर जब से अधिक देशों ने, विशेषतः विकासशील देशों ने, न्यायालय का प्रयोग करना शुरू किया है। फिर भी, कुछ अहम राष्ट्रों ने, जैसे कि संयुक्त राज्य, अन्तरराष्ट्रीय न्यायालय के निर्णयों को निभाना नहीं समझा हुआ है। ऐसे देश प्रत्येक निर्णय को निभाने का स्वयं निर्णय लेते हैं। अन्तर्राष्ट्रीय न्यायलय में भारतीय प्रथम न्यायधीश पेनिकल रामाराम थे|

इतिहास

स्थायी अन्तरराष्ट्रीय न्यायालय की कल्पना उतनी ही सनातन है जितनी अन्तरराष्ट्रीय विधि, परन्तु कल्पना के फलीभूत होने का काल वर्तमान शताब्दी से अधिक प्राचीन नहीं है। सन् 1899 ई॰ में, हेग में, प्रथम शान्ति सम्मेलन हुआ और उसके प्रयत्नों के फलस्वरूप स्थायी विवाचन न्यायालय की स्थापना हुई। सन् 1907 ई॰ में द्वितीय शान्ति सम्मेलन हुआ और अन्तरराष्ट्रीय पुरस्कार न्यायालय (इण्टरनेशनल प्राइज़ कोर्ट) का सृजन हुआ जिससे अन्तरराष्ट्रीय न्याय प्रशासन की कार्य प्रणाली तथा गतिविधि में विशेष प्रगति हुई। तदोपरान्त 30 जनवरी 1922 ई॰ को लीग ऑफ़ नेशंस के अभिसमय के अन्तर्गत अन्तरराष्ट्रीय न्यायालय का विधिवत् उद्घाटन हुआ जिसका कार्यकाल राष्ट्र संघ (लीग ऑफ़ नेशंस) के जीवनकाल तक रहा। अन्त में वर्तमान अन्तरराष्ट्रीय न्यायालय की स्थापना संयुक्त राष्ट्र संघ की अन्तरराष्ट्रीय न्यायालय संविधि के अन्तर्गत हुई।

सदस्य

अन्तरराष्ट्रीय न्यायालय में महासभा द्वारा 15 न्यायाधीश चुने जाते हैं। यह न्यायाधीश नौ वर्ष के लिए चुने जाते हैं तथा फिर से भी चुने जा सकते हैं। प्रत्येक तीसरे वर्ष इन 15 न्यायाधीशों में से पाँच चुने जा सकते है। इनकी सेवानिवृत्ति की आयु, कोई भी दो न्यायाधीश एक ही राष्ट्र के नहीं हो सकते है और किसी न्यायाधीश की मौत पर उनकी जगह किसी समदेशी को दी जाती है। इन न्यायाधीशों को किसी और पद रखना मना है। किसी एक न्यायाधीश को हटाने के लिए बाकी के न्यायाधीशों का सर्वसम्मत निर्णय आवश्यक है। न्यायालय द्वारा सभापति तथा उपसभापति का निर्वाचन और रजिस्ट्रार की नियुक्ति होती है।

न्यायालय में न्यायाधीशों की कुल संख्या 15 है, गणपूर्ति संख्या नौ है। निर्णय बहुमत निर्णय के अनुसार लिए जाते है। बहुमत से सहमती न्यायाधीश मिलकर एक विचार लिख सकते है, या अपने विचार अलग से लिख सकते है। बहुमत से विरुद्ध न्यायाधीश भी अपने खुद के विचार लिख सकते है।

तदर्थ न्यायाधीश

जब किसी दो राष्ट्रों के बीच का संघर्ष अन्तरराष्ट्रीय न्यायालय के सामने आता है, वे राष्ट्र चाहे तो किसी समदेशी तदर्थ न्यायाधीश को मनोनीत कर सक्ती हैं। इस प्रक्रिया का कारण था कि वह देश जो न्यायालय में प्रतिनिधित्व नहीं है भी अपने संघर्षों के निर्णय अन्तरराष्ट्रीय न्यायालय को लेने दे।

क्षेत्राधिकार

अन्तरराष्ट्रीय न्यायालय संविधि में सम्मिलित समस्त राष्ट्र अन्तरराष्ट्रीय न्यायालय में वाद प्रस्तुत कर सकते हैं। इसका क्षेत्राधिकार संयुक्त राष्ट्र संघ के घोषणापत्र अथवा विभिन्न; सन्धियों तथा अभिसमयों में परिगणित समस्त मामलों पर है। अन्तरराष्ट्रीय न्यायालय संविधि में सम्मिलत कोई राष्ट्र किसी भी समय बिना किसी विशेष प्रसंविदा के किसी ऐसे अन्य राष्ट्र के सम्बन्ध में, जो इसके लिए सहमत हो, यह घोषित कर सकता है कि वह न्यायालय के क्षेत्राधिकार को अनिवार्य रूप में स्वीकार करता है। उसके क्षेत्राधिकार का विस्तार उन समस्त विवादों पर है जिनका सम्बन्ध सन्धिनिर्वचन, अन्तरराष्ट्रीय विधि प्रश्न, अन्तरराष्ट्रीय आभार का उल्लंघन तथा उसकी क्षतिपूर्ति के प्रकार एवं सीमा से है।

अन्तरराष्ट्रीय न्यायालय को परामर्श देने का क्षेत्राधिकार भी प्राप्त है। वह किसी ऐसे पक्ष की प्रार्थना पर, जो इसका अधिकारी है, किसी भी विधिक प्रश्न पर अपनी सम्मति दे सकता है।

अन्तरराष्ट्रीय न्यायालय के अभियोग दो तरह के होते है : विवादास्पद विषय तथा परामर्शी विचार।

विवादास्पद विषय

इस तरह के मुकदमों में दोनो राज्य के लिए न्यायालय का निर्णय निभाना आवश्यक होता है। केवल राज्य ही विवादास्पद विषयों में शामिल हो सक्ते हैं : व्यक्यियाँ, गैर सरकारी संस्थाएँ, आदि ऐसे मुकदमों के हिस्से नहीं हो सकते हैं। ऐसे अभियोगों का निर्णय अन्तरराष्ट्रीय न्यायालय द्वारा तब ही हो सकता है जब दोनो देश सहमत हो। इस सहमति को जताने के चार तरीके हैं :

  • 1. विशेष संचिद : ऐसे मुकदमों में दोनो देश अपने आप निर्णय लेना अन्तरराष्ट्रीय न्यायालय को सौंपते हैं।
  • 2. माध्यमार्ग  : आज-कल की सन्धियों में अक्सर एक शर्त डाली जाती है जिसके अनुसार, अगर उस सन्धि के बारे में कोई संघर्ष उठे, तो अन्तरराष्ट्रीय न्यायालय को निर्णय लेने का अधिकार है।
  • 3. ऐच्छिक घोषणा : राज्यों को अधिकार है कि वे चाहे तो न्यायालय के प्रत्येक निर्णय को पहले से ही स्वीकृत करें।
  • 4. अन्तरराष्ट्रीय न्याय के स्थायी न्यायालय का अधिकार : क्योंकि अन्तरराष्ट्रीय न्यायालय ने अन्तरराष्ट्रीय न्याय के स्थायी न्यायालय की जगह ली थी, जो भी मुकदमें अन्तरराष्ट्रीय न्याय के स्थायी न्यायालय के अधिकार-क्षेत्र में थे, वे सब अन्तरराष्ट्रीय न्यायालय के अधिकार-क्षेत्र में भी हैं।

परामर्शी विचार

परामर्शी विचार दूसरा तरीका है किसी मुकदमें को अन्तरराष्ट्रीय न्यायालय तक पहुँचाने का। यह निर्णय सिर्फ न्यायालय की राय होते है, पर इन विचारों के सम्मान के कारण वह बहुत प्रभावशाली होते हैं।

प्रक्रिया

अन्तरराष्ट्रीय न्यायालय की प्राधिकृत भाषाएँ फ्रेंच तथा अंग्रेजी है। विभिन्न पक्षों का प्रतिनिधित्व अभिकर्ता द्वारा होता है; वकीलों की भी सहायता ली जा सकती है। न्यायालय में मामलों की सुनवाई सार्वजनिक रूप से तब तक होती है जब तक न्यायालय का आदेश अन्यथा न हो। सभी प्रश्नों का निर्णय न्यायाधीशों के बहुमत से होता है। सभापति को निर्णायक मत देने का अधिकार है। न्यायालय का निर्णय अन्तिम होता है, उसकी अपील नहीं हो सकती किन्तु कुछ मामलों में पुनर्विचार हो सकता है। (अन्तरराष्ट्रीय न्यायालय संविधि, अनुच्छेद 39-64)।

प्रवर्तन

संयुक्त राष्ट्र के सदस्य देशों का कर्तव्य है कि वे अन्तरराष्ट्रीय न्यायालय के निर्णय के अनुसार आगे बढ़ें। अगर कोई देश इन निर्णयों को स्वीकृत न करे, तो प्रवर्तन का उत्तरदायित्व सुरक्षा परिषद पर पड़ती है। फिर सुरक्षा परिषद जैसे चाहे वैसे निर्णय या सिफ़ारिश घोषित कर सकता है।

संयुक्त राष्ट्र के 72 सदस्य राष्ट्र (1 दिसम्बर 2015 तक) जिन्होने अन्तरराष्ट्रीय न्यायालय के अनिवार्य क्षेत्राधिकार को स्पष्ट रूप से स्वीकार कर लिया है।

सन्दर्भ