हरबर्ट स्पेंसर
हर्बर्ट स्पेंसर | |
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७३ की उम्र में स्पेंसर की तस्वीर | |
जन्म |
साँचा:birth date डर्बी, डर्बीशायर, इंग्लैंड |
मृत्यु |
8 December 1903साँचा:age) ब्राइटन, ससेक्स, इंग्लैंड | (उम्र
राष्ट्रीयता | ब्रिटिश |
हस्ताक्षर |
हरबर्ट स्पेंसर (27 अप्रैल 1820-8 दिसम्बर 1903) विक्टोरिया काल के एक अंग्रेज़ दार्शनिक, जीव-वैज्ञानिक, समाजशास्री और प्रसिद्ध पारंपरिक उदारवादी राजनैतिक सिद्धांतकार थे। स्पेंसर ने भौतिक विश्व, जैविक सजीवों, मानव मन, तथा मानवीय संस्कृ्ति व समाजों की क्रमिक विकास के रूप में उत्पत्ति की एक सर्व-समावेशक अवधारणा विकसित की. एक बहुश्रुत व्यक्ति के रूप में, उन्होंने विषयों की एक व्यापक श्रेणी में अपना योगदान दिया, जिनमें नीतिशास्र, धर्म, मानविकी, अर्थशास्र, राजनैतिक सिद्धांत, दर्शनशास्र, जीव-विज्ञान, समाजशास्र व मनोविज्ञान शामिल हैं। अपने जीवनकाल के दौरान उन्होंने अत्यधिक प्रभुत्व प्राप्त किया, विशेषतः अंग्रेज़ी-भाषी शैक्षणिक समुदाय के बीच. सन 1902 में, उन्हें साहित्य में नोबेल पुरस्कार के लिये नामित किया गया.[१] वास्तव में, यूनाइटेड किंगडम व संयुक्त राज्य अमेरिका में "एक समय था, जब स्पेंसर के शिष्य उनकी तुलना अरस्तु के साथ करने से भी नहीं चूके!"[२]
वे "सर्वश्रेष्ठ की उत्तरजीविता (Survival of the fittest)" की अवधारणा प्रस्तुत करने के लिये सबसे ज्यादा जाने जाते हैं, जो कि उन्होंने चार्ल्स डार्विन की ऑन द ओरिजिन ऑफ स्पीसीज़ पढ़ने के बाद प्रिंसिपल्स ऑफ बायोलॉजी (1864) में प्रस्तुत की थी।[३] यह शब्दावली दृढ़तापूर्वक प्राकृतिक चयन का सुझाव देती है, लेकिन फिर भी जब स्पेंसर ने उत्पत्ति का विस्तार समाजशास्र और नीति-शास्र के क्षेत्रों में किया, तो उन्होंने लेमार्कवाद का प्रयोग भी किया।
जीवन
विलियम जॉर्ज स्पेंसर (जिन्हें सामान्यतः जॉर्ज कहा जाता था) के पुत्र हरबर्ट स्पेंसर का जन्म 27 अप्रैल 1820 को डर्बी, इंग्लैंड में हुआ था। स्पेंसर के पिता एक धार्मिक भिन्नमतावलंबी थे, जिनका झुकाव मेथोडिज़्म (Methodism) से क्वेकरिज़्म (Quakerism) तक बदलता रहा और ऐसा प्रतीत होता है कि सत्ता के सभी रूपों का विरोध अपने पुत्र में उन्होंने ही संचारित किया। वे जोहान हेनरिच पेस्टालोज़ी की विकासपरक शिक्षा विधियों के अनुसार स्थापित एक विद्यालय चलाया करते थे और डर्बी फिलासॉफिकल सोसाइटी के सचिव के रूप में भी कार्य किया करते थे, जो कि सन 1790 के दशक में एरास्मस डार्विन, चार्ल्स के दादा, द्वारा स्थापित एक वैज्ञानिक संस्था थी।
स्पेंसर ने अपने पिता से प्रयोगाश्रित विज्ञान की शिक्षा प्राप्त की, जबकि डर्बी फिलासॉफिकल सोसाइटी के सदस्यों ने जैविक-उत्पत्ति की पूर्व-डार्विनियन अवधारणाओं, विशिष्टतः एरास्मस डार्विन और जीन-बाप्टिस्टे लेमार्क की अवधारणाओं, से उनका परिचय करवाया. उनके चाचा, रेवरेंड थॉमस स्पेंसर, बाथ के निकट हिंटन चार्टरहाउस के पादरी, ने स्पेंसर को कुछ गणित और भौतिक-शास्र, तथा थोड़ी लैटिन, जिससे वे सरल पाठ्य का अनुवाद कर पाने में सक्षम हो गए थे, पढ़ाकर उनकी सीमित औपचारिक शिक्षा पूर्ण करवा दी. थॉमस स्पेंसर ने अपने भतीजे पर अपने स्वयं के दृढ़ मुक्त-व्यापार और सांख्यिकी-विरोधी राजनैतिक दृष्टिकोण की छाप भी छोड़ी. अन्यथा, स्पेंसर एक स्वशिक्षक (Autodidact) थे, जिन्होंने अपना अधिकांश ज्ञान सूक्ष्म-केंद्रित अध्ययनों और अपने मित्रों व सहयोगियों के साथ हुए वार्तालापों से हासिल किया था।[४]
एक किशोर और युवा पुरुष दोनों के रूप में, स्पेंसर ने किसी भी बौद्धिक या व्यावसायिक क्षेत्र में स्थिर होने में कठिनाई महसूस की. सन 1830 के दशक के दौरान रेल परिवहन के क्षेत्र में आए उछाल के दौरान उन्होंने एक सिविल इंजीनियर के रूप में कार्य किया और साथ ही अपना अधिकांश समय प्रान्तीय पत्रिकाओं के लिखने में भी लगाया, जो कि अपने धर्म में गैर-अनुसारक व अपनी राजनीति में प्रजातंत्रवादी थीं। सन 1848 से 1853 तक, उन्होंने मुक्त-व्यापार पत्रिका द इकानॉमिस्ट के सहायक-संपादक के रूप में कार्य किया, जिस दौरान उन्होंने अपनी पहली पुस्तक सोशल स्टैटिक्स (1851) प्रकाशित की, जिसमें यह पूर्वानुमान व्यक्त किया गया था कि अंततः मानवता को समाज-जीवन की आवश्यकताओं के अनुसार पूरी तरह अपना लिया जाएगा और इसके परिणामस्वरूप राज्य की अवधारणा नष्ट हो जाएगी.
इसके प्रकाशक, जॉन चैपमैन, ने उन्हें अपनी संगोष्ठी से मिलवाया, जिसमें जॉन स्टुअर्ट मिल, हैरिएट मार्टिन्यू, जॉर्ज हेनरी लेविस और मैरी एन इवान्स (जॉर्ज इलियट), जिनके साथ उनका संक्षिप्त रूमानी जुड़ाव रहा, सहित राजधानी के अनेक प्रमुख प्रजातंत्रवादी व प्रगतिशील विचारक शामिल हुआ करते थे। स्वयं स्पेंसर ने जीव-विज्ञानी थॉमस हेनरी हक्सले का परिचय करवाया, जो कि बाद में 'डार्विन'स बुलडॉग' के रूप में प्रसिद्ध हुए और जो आजीवन उनके मित्र बने रहे. हालांकि इवान्स और लेविस की मित्रता के कारण उनका परिचय जॉन स्टुअर्ट मिल के अ सिस्टम ऑफ लॉजिक से तथा ऑगस्टे कॉम्टे के प्रत्यक्षवाद से हुआ और इसी ने उन्हें उनके जीवन-कार्य के पथ पर आगे बढ़ाया. वे कॉम्टे से पूरी तरह असहमत थे।[५]
इवान्स और लेविस से उनकी मित्र का पहला प्रतिफल स्पेंसर की अगली पुस्तक, सन 1855 में प्रकाशित प्रिंसिपल्स ऑफ साइकोलॉजी, थी, जिसमें मनोविज्ञान के लिये एक शारीरिक आधार की खोज की गई थी। यह पुस्तक इन बुनियादी मान्यताओं पर आधारित थी कि मानव मन प्राकृतिक नियमों के अनुसार कार्य करता है तथा यह कि इन्हें सामान्य जीव-विज्ञान के ढांचे के भीतर खोजा जा सकता था। इसने न केवल व्यक्ति के संदर्भ में (जैसा कि पारंपरिक मनोविज्ञान में होता है), बल्कि प्रजातियों व नस्ल के संदर्भ में भी, एक विकासपरक दृष्टिकोण को अपनाने की अनुमति दी. इस प्रतिमान के माध्यम से, स्पेंसर का लक्ष्य मिल के लॉजिक के साहचर्यवादी मनोविज्ञान, यह धारणा कि मानव-मन विचारों के साहचर्य के नियमों द्वारा एक साथ रखी गई आण्विक संवेदनाओं से निर्मित था, तथा अधिक 'वैज्ञानिक' प्रतीत होने वाले कपाल-विज्ञान के सिद्धांत, जिसमें विशिष्ट मानसिक कार्यों का मूल मस्तिष्क के विभिन्न भागों में ढूंढा जाता था, के बीच सामंजस्य स्थापित करन था।
स्पेंसर ने तर्क दिया कि, ये दोनों सिद्धांत सत्य का आंशिक वर्णन करते थे: विचारों के दोहरावपूर्ण साहचर्य मस्तिष्क के ऊतकों में विशिष्ट रेशों के निर्माण में सम्मिलित थे, तथा इन्हें प्रयोग-उत्तराधिकार की लेमार्कवादी क्रियाविधि के माध्यम से एक से दूसरी पीढ़ी में भेजा जा सकता था। उनका विनम्रतापूर्वक मानना था कि साइकोलॉजी मानव-मन के लिये वही कार्य करेगी, जो आइज़ैक न्यूटन ने पदार्थ के लिये किया था।[६] हालांकि, यह पुस्तक प्रारंभ में सफल नहीं थी और इसके प्रथम संस्करण की अंतिम 251 प्रतियां जून 1861 तक नहीं बिक सकीं.
मनोविज्ञान में स्पेंसर की रुचि प्राकृतिक नियम की सार्वभौमिकता को स्थापित करने की एक अधिक बुनियादी चिंता से व्युत्पन्न थी।[७] अपनी पीढ़ी के अन्य लोगों, चैपमैन की संगोष्ठी के सदस्यों सहित, की ही तरह वे भी इस बात को प्रदर्शित करने के विचार से ग्रसित थे कि इस ब्रह्मांड में समस्त बातों-मानव संस्कृति, भाषा और नश्वरता सहित-की व्याख्या सार्वभौमिक वैधता के नियमों द्वारा की जा सकती थी। यह उस समय के अनेक धर्मशास्रियों के दृष्टिकोण के विपरीत था, जिन्होंने इस बात पर ज़ोर दिया कि रचना के कुछ भाग, विशिष्टतः मानव आत्मा, वैज्ञानिक अनुसंधान के क्षेत्र से बाहर थे। कॉम्टे की सिस्टीम डी फिलोसॉफी पॉज़िटिव (Systeme de Philosophie Positive) प्राकृतिक नियम की सार्वभौमिकता को प्रदर्शित करने के लक्ष्य से लिखी गई थी और अपने लक्ष्य की पूर्ति के लिये स्पेंसर को कॉम्टे का अनुसरण करना था। हालांकि, स्पेंसर कॉम्टे के इस विश्वास से सहमत नहीं थे कि सार्वभौमिक अनुप्रयोग का एक नियम ढूंढ पाना संभव था, जिसे उन्होंने प्रगतिशील विकास में ढूंढा और उत्पत्ति का सिद्धांत कहा.
सन 1858 में, स्पेंसर ने एक रूपरेखा तैयार की, जो बाद में कृत्रिम दर्शनशास्र की प्रणाली (System of Synthetic Philosophy) बनी. यह विशाल कार्य, अंग्रेज़ी भाषा में जिसके समकक्ष बहुत थोड़ी-सी रचनाएं ही हैं, का लक्ष्य यह प्रदर्शित करना था कि उत्पत्ति का सिद्धांत जीव-विज्ञान, मनोविज्ञान, समाजशास्र (स्पेंसर ने इस नए विषय के लिये कॉम्टे द्वारा प्रयुक्त शब्द की प्रशंसा की) और नश्वरता पर लागू होता है। स्पेंसर का विचार था कि दस खण्डों की इस रचना को पूर्ण होने में बीस वर्ष लगेंगे; अंत में उन्हें इससे दुगुना समय लगा और इसने उनके लंबे जीवन की लगभग पूरी अवधि ले ली.
एक लेखक के रूप में स्वयं को स्थापित करने के स्पेंसर के प्रारंभिक संघर्ष के बावजूद, सन 1870 के दशक तक वे अपने समय के सर्वाधिक प्रसिद्ध दार्शनिक बन चुके थे।[८] उनके जीवन-काल के दौरान उनकी रचनाओं को व्यापक तौर पर पढ़ा गया और सन 1869 तक वे अपना जीवन-यापन पूरी तरह पुस्तकों से होने वाले लाभ और विक्टोरियाई पत्रिकाओं में उनके नियमित योगदान, जिन्हें एसेज़ (Essays) के तीन खण्डों के रूप में संग्रहित किया गया, से होने वाली आय के द्वारा कर पाने में सक्षम हो चुके थे। उनकी कृतियों का जर्मन, इतालवी, स्पैनिश, फ्रांसीसी, रूसी, जापानी और चीनी, तथा अनेक अन्य भाषाओं में अनुवाद किया गया और उन्हें पूरे यूरोप व उत्तरी अमेरिका में सम्मान व पुरस्कार प्रदान किये गए। वे एथेनियम, जो कि लंदन में भद्रजनों का एक विशिष्ट क्लब था, जिसमें कलाओं व विज्ञान में विशिष्ट कार्य करने वालों को ही प्रवेश दिया जाता था, तथा एक्स क्लब (X Club), जो कि टी.एच. हक्सले द्वारा स्थापित एक डाइनिंग क्लब था, जिसके सदस्य प्रतिमाह मिलते थे और जिनमें विक्टोरियाई काल के अधिकांश प्रमुख विचारक शामिल थे (जिनमें से तीन रॉयल सोसाइटी के अध्यक्ष बने), के भी सदस्य थे।
सदस्यों में भौतिकविद-दार्शनिक जॉन टिंडॉल तथा डार्विन के चचेरे भाई, बैंकर व जीव-विज्ञानी सर जॉन ल्युबॉक शामिल थे। इसके अलावा कुछ उल्लेखनीय अनुचर भी थे, जैसे वेस्टमिन्सटर के डीन, उदारवादी पादरी आर्थर स्टैनली; और चार्ल्स डार्विन व हर्मैन वॉन हेल्महोल्ट्ज़ जैसे मेहमानों को समय-समय पर आमंत्रित किया जाता था। ऐसे संपर्कों के माध्यम से, वैज्ञानिक समुदाय के हृदय में स्पेंसर की सशक्त उपस्थिति थी और वे अपने दृष्टिकोण के लिये एक प्रभावी श्रोता-वर्ग तैयार कर पाने में सक्षम हुए. अपनी बढ़ती हुई संपत्ति व प्रसिद्धि के बावजूद उन्होंने कभी भी अपना स्वयं का घर नहीं लिया।
स्पेंसर के जीवन के अंतिम दशक बढ़ते मोहभंग और अकेलेपन से भरे हुए थे। उन्होंने कभी भी विवाह नहीं किया और सन 1855 के बाद वे एक अनवरत रोगभ्रमी बन गए तथा लगातार ऐसे दर्द व रोगों की शिकायत करने लगे, जिनका निदान किसी भी चिकित्सक के पास नहीं था।साँचा:category handler[<span title="स्क्रिप्ट त्रुटि: "string" ऐसा कोई मॉड्यूल नहीं है।">citation needed] सन 1890 के दशक तक आते-आते, उनके पाठक उन्हें छोड़ने लगे और उनके अनेक निकटवर्ती मित्रों की मृत्यु हो गई तथा उनके मन में विकास की उस आत्मविश्वासपूर्ण श्रद्धा को लेकर संशय उत्पन्न हो गया, जिसे उन्होंने अपनी दार्शनिक प्रणाली केंद्र बनाया था। उनके अंतिम वर्षों में उनके राजनैतिक विचार रूढ़िवादी होते गए। हालांकि सोशल स्टैटिक्स (Social Statics) एक ऐसे मूलतः प्रजातंत्रवादी की रचना थी, जो महिलाओं को (और बच्चों को भी) मतदान का अधिकार दिये जाने में तथा सामंतशाही की शक्ति को तोड़ने के लिये भूमि के राष्ट्रीयकरण में विश्वास रखता था, लेकिन सन 1880 के दशक तक आते-आते वे महिला मताधिकार के कट्टर विरोधी बन चुके थे और उन्होंने लिबर्टी एंड प्रॉपर्टी डिफेन्स लीग के भू-स्वामियों के साथ मिलकर एक साझा कार्यक्रम में उसके खिलाफ योगदान किया, जिसे वे विलियम एवर्ट ग्लैडस्टोन के नेतृत्व में (सर विलियम हारकोर्ट जैसे) तत्वों का 'समाजवाद' की ओर झुकाव मानते थे-मुख्यतः स्वयं ग्लैडस्टोन की राय के खिलाफ. स्पेंसर के इस काल के राजनैतिक विचार द मैन वर्सेस द स्टेट (The Man versus the State) में व्यक्त किये गए थे, जो कि उनकी सर्वश्रेष्ठ रचना बन चुकी है।
स्पेंसर के बढ़ते रूढ़िवादी रुझान का एक अपवाद यह था कि आजीवन वे सैन्यवाद और साम्राज्यवाद के तीव्र विरोधी बने रहे. बोअर युद्ध की उनके द्वारा की गई आलोचना विशेष रूप से हानिकारक रही और इसने ब्रिटेन में उनकी लोकप्रियता को घटाने में योगदान दिया.[९]
स्पेंसर ने आधुनिक पेपर क्लिप के एक पूर्ववर्ती का आविष्कार भी किया, हालांकि यह आधुनिक कॉटर पिन की तरह अधिक दिखाई देता था। इस “बाइंडिंग पिन” का वितरण एकरमैन एंड कम्पनी (Ackermann & Company) द्वारा किया गया. अपनी आत्मकथा के परिशिष्ट आई (I) (परिशिष्ट एच (H) के बाद) में स्पेंसर इस पिन के चित्र को प्रदर्शित करते हैं व साथ ही इसके प्रयोगों के प्रकाशित वर्णन भी देते हैं।
सन 1902 में, अपनी मृत्यु से कुछ समय पूर्व, स्पेंसर को साहित्य के नोबेल पुरस्कार के लिये नामित किया गया. उन्होंने आजीवन लेखन-कार्य जारी रखा, अपने जीवन के अंतिम वर्षों में अक्सर श्रुतलेख के द्वारा, जब तक कि 83 वर्ष की आयु में वे अस्वस्थता से परास्त नहीं हो गए। उनके मृत शरीर को लंदन के हाईगेट कब्रिस्तान में कार्ल मार्क्स की कब्र की ओर मुंह करके दफनाया गया है। स्पेंसर की अंत्येष्टि पर, भारतीय राष्ट्रवादी नेता श्यामजी कृष्णवर्मा ने स्पेंसर व उनके कार्यों के प्रति श्रद्धांजलि के रूप में ऑक्सफोर्ड यूनिवर्सिटी में एक व्याख्याता के पद की स्थापना के लिए £1,000 दान करने की घोषणा की.[१०]
कृत्रिम दर्शनशास्र
अपनी पीढ़ी के अनेक लोगों के मन में स्पेंसर के प्रति आकर्षण का आधार यह था कि वे विश्वास की एक ऐसी पूर्व-निर्मित प्रणाली प्रस्तुत करते हुए प्रतीत होते थे, जो एक ऐसे समय पर पारंपरिक धार्मिक विश्वासों का स्थान ले सकती थी, जब रूढ़िवादी मत आधुनिक विज्ञान की उन्नति के सामने टूटकर बिखर रहे थे। स्पेंसर की दार्शनिक प्रणाली यह दर्शाती हुई प्रतीत होती थी कि उन्नत वैज्ञानिक अवधारणाओं, जैसे उष्मागतिकी के प्रथम नियम और जैविक उत्पत्ति, के आधार पर मानवता की अंतिम पूर्णता पर विश्वास कर पाना संभव था।
संक्षेप में, स्पेंसर का दार्शनिक दृष्टिकोण देववाद और प्रत्यक्षवाद के एक संयोजन से मिलकर बना था। एक ओर, उन्होंने अपने पिता तथा डर्बी फिलासॉफिकल सोसाइटी के अन्य सदस्यों से व जॉर्ज कॉम्बे की अत्यधिक लोकप्रिय द कॉन्स्टीट्यूशन ऑफ मैन (1828) जैसी पुस्तकों से अठारहवीं सदी के देववाद का कुछ अंश ग्रहण किया था। इसमें विश्व को सदभावपूर्ण रचना वाला एक ब्रह्मांड और प्रकृति के नियमों को ‘भावातीत रूप से दयालु’ माना गया था। इस प्रकार प्राकृतिक नियम सुसंचालित ब्रह्मांड की प्रतिमाएं थीं, जिन्हें सृष्टिकर्ता द्वारा मानवीय प्रसन्नता को प्रचारित करने के उद्देश्य से निर्मित किया गया था। हालांकि स्पेंसर ने किशोरावस्था में ही अपने ईसाई मत का त्याग कर दिया था और बाद में देवत्व की किसी भी ‘मानवरूपी’ अवधारणा को अस्वीकार कर दिया, लेकिन इसके बावजूद एक लगभग अवचेतन स्तर पर वे इस अवधारणा को दृढ़तापूर्वक जकड़े हुए थे। हालांकि वे प्रत्यक्षवाद को जितना श्रेय देते, वे उससे बहुत अधिक ग्रहण कर चुके थे, विशेष रूप से वैज्ञानिक ज्ञान की विभिन्न शाखाओं के एकीकरण के रूप में एक दार्शनिक प्रणाली के इसके निर्माण में. वे अपने इस आग्रह में भी प्रत्यक्षवाद का पालन कर रहे थे कि तथ्यों का ही वास्तविक ज्ञान प्राप्त कर पाना संभव है और इसलिये अंतिम सत्य के स्वरूप के बारे में अनुमान लगाना व्यर्थ था। प्रत्यक्षवाद और उनके शेष देववाद के बीच यह तनाव कृत्रिम दर्शनशास्र की पूरी प्रणाली में बना रहा.
वैज्ञानिक सत्य के एकीकरण के लक्ष्य में स्पेंसर ने कॉम्टे का अनुसरण किया; इसी अर्थ में उनका दर्शनशास्र 'कृत्रिम' होने पर केंद्रित था। कॉम्टे की ही तरह, वे भी प्राकृतिक नियम की सार्वभौमिकता के प्रति प्रतिबद्ध थे, जिसके अनुसार प्रकृति के नियम बिना किसी अपवाद के जैविक क्षेत्र पर भी उतने ही लागू होते हैं, जितने की अजैव क्षेत्र पर और मानव के मन पर भी उतने ही लागू होते हैं, जितने कि शेष सृष्टि पर. इस प्रकार कृत्रिम दर्शनशास्र का पहला उद्देश्य यह प्रदर्शित करना था कि प्राकृतिक नियमों के रूप में, ब्रह्मांड के सभी तथ्यों के वैज्ञानिक अन्वेषण को खोज पाने में सक्षम होने के लिये कोई भी अपवाद नहीं है। जीव-विज्ञान, मनोविज्ञान और समाजशास्र पर स्पेंसर द्वारा लिखे गए सभी ग्रंथों का उद्देश्य इन विशिष्ट क्षेत्रों में प्राकृतिक नियमों के अस्तित्व को प्रदर्शित करना ही था। यहां तक कि नैतिकता पर उनके लेखन में भी, उन्होंने यह विचार रखा कि नश्वरता के 'नियमों' को खोज पाना संभव था, जिनमें नियमात्मक सामग्री होने के बावजूद भी जिनकी अवस्था प्रकृति के नियमों की ही थी, यह एक ऐसी अवधारणा है, जिसका मूल कॉम्बे के कॉन्स्टीट्यूशन ऑफ मैन में देखा जा सकता है।
कृत्रिम दर्शनशास्र का दूसरा उद्देश्य यह दर्शाना था कि यही नियम अनवरत रूप से विकास की ओर ले जाते हैं। केवल वैज्ञानिक विधि की एकता पर बल देने वाले कॉम्टे के विपरीत, स्पेंसर ने सभी प्राकृतिक नियमों को एक बुनियादी नियम, उत्पत्ति के नियम, में विघटित करके वैज्ञानिक ज्ञान के एकीकरण का प्रयास किया। इस संदर्भ में, उन्होंने एडिनबर्ग के प्रकाशक रॉबर्ट चेम्बर्स द्वारा उनकी अनाम रचना वेस्टिजेस ऑफ नैचुरल हिस्ट्री ऑफ क्रियेशन (1844) में प्रस्तावित किये गए प्रतिमान का पालन किया। हालांकि अक्सर इसे चार्ल्स डार्विन की द ओरिजिन ऑफ स्पीसिज़ का एक प्रभावहीन अग्रदूत कहकर खारिज कर दिया जाता है, लेकिन वास्तव में चेम्बर्स की पुस्तक विज्ञान के एकीकरण के लिये एक कार्यक्रम थी, जिसका लक्ष्य यह दर्शाना था कि सौर मंडल की उत्पत्ति के लिये लाप्लास (Laplace) की निहारिका परि्कल्पना और लेमार्क (Lamarck) का प्रजाति रूपांतरण का सिद्धांत दोनों ही (लेवीस के वाक्यांश) 'प्रगतिशील विकास का एक अदभुत सामान्यीकरण' के उदाहरण थे। चेम्बर्स चैपमैन की संगोष्ठी से जुड़े हुए थे और उनका कार्य कृत्रिम दर्शनशास्र के लिये एक अनभिज्ञात सांचा बना.
क्रमिक विकास
स्पेंसर के विकासवादी दृष्टिकोण की स्पष्ट अभिव्यक्ति पहली बार उनके निबंध, 'प्रोग्रेस: इट्स लॉ एंड कॉज़ (Progress: Its Law and Cause)' में हुई, जो कि सन 1857 में चैपमैन के वेस्टमिन्स्टर रिव्यू में प्रकाशित हुआ था और जो बाद में फर्स्ट प्रिंसिपल्स ऑफ अ न्यू सिस्टम ऑफ फिलासॉफी (First Principles of a New System of Philosophy) (1862) का आधार बना. इसमें उन्होंने विकास के सिद्धांत की व्याख्या की, जिसमें सैम्युअल टेलर कोलेरिज के निबंध 'द थियरी ऑफ लाइफ (The Theory of Life)'-जो कि स्वयं फ्रीडरिच वॉन शेलिंग के नेचरफिलोसोफी (Naturphilosophie) से व्युत्पन्न था-से प्राप्त जानकारी व भ्रूणीय विकास के वॉन बेयर के नियम के सामान्यीकरण को संयोजित किया गया था। स्पेंसर ने यह विचार व्यक्त किया कि ब्रह्मांड की सभी संरचनाएं एक सरल, समान, समरूपता से एक जटिल, भिन्न, विविधता में विकसित होते हैं और विभिन्न भागों के बड़े एकीकरण की प्रक्रिया भी इसके साथ ही चलती रहती है। स्पेंसर का मानना था कि यह विकासवादी प्रक्रिया पूरे ब्रह्मांड में कार्य करती हुई देखी जा सकती है। यह एक सार्वभौमिक नियम था, जो कि तारों और आकाशगंगाओं पर भी उतना ही लागू होता था, जितना कि जैविक प्राणियों पर और मानवीय सामाजिक व्यवस्था पर भी उतना ही लागू होता था, जितना की मानव-मन पर. यह केवल अपनी व्यापक सामान्यता के द्वारा ही वैज्ञानिक नियमों से भिन्न था और इस सिद्धांत के उदाहरण के रूप में विशेष विज्ञान के नियम प्रदर्शित किए जा सकते थे।
जटिलता के विकास की व्याख्या करने का यह प्रयास दो वर्षों बाद प्रकाशित हुई डार्विन की ओरिजिन ऑफ स्पीसिज़ में मिलने वाले प्रयास से पूर्णतः भिन्न था। अक्सर काफी, गलत तरीके से, यह माना जाता है कि स्पेंसर ने प्राकृतिक चयन पर डार्विन द्वारा किये गए कार्य को केवल हथिया लिया और सामान्यीकृत कर दिया. लेकिन, भले ही डार्विन के कार्य को पढ़ने के बाद उन्होंने डार्विन की अवधारणा के लिये अपनी स्वयं की शब्दावली के रूप में वाक्यांश 'सर्वश्रेष्ठ की उत्तरजीविता (survival of the fittest)' को प्रस्तुत किया[३] और अक्सर गलत तरीके से उन्हें एक ऐसा विचारक मान लिया जाता है, जिसने डार्विनियन सिद्धांत को समाज पर केवल लागू किया, लेकिन फिर भी उन्होंने अपने संपूर्ण मौजूदा तंत्र में प्राकृतिक चयन को अनिच्छा से ही शामिल किया था। प्रजाती रूपांतरण की उनके द्वारा पहचानी गई प्राथमिक कार्यविधि लेमार्कवादी प्रयोग-उत्तराधिकार की थी, जिसने यह प्रतिपादित किया कि अंग प्रयोग या अपप्रयोग के द्वारा विकसित अथवा नष्ट होते हैं और यह कि ये परिणामित परिवर्तन भावी पीढ़ियों में भी संचारित हो सकते हैं। स्पेंसर का मानना था कि क्रमिक विकास की यह कार्य-विधि 'उच्चतर' क्रमिक विकास की व्याख्या करने के लिये भी आवश्यक थी, विशेषतः मानवता के सामाजिक विकास के लिये. इसके अलावा, डार्विन के विपरीत, उनका मानना था कि क्रमिक विकास की एक दिशा और एक अंतिम-बिंदु था, जो कि समतुल्यता की प्राप्ति की अंतिम अवस्था है। उन्होंने जैविक क्रमिक विकास के सिद्धांत को समाजशास्र पर लागू करने का प्रयास किया। उन्होंने प्रतिपादित किया कि समाज निम्नतर से उच्चतर रूपों में परिवर्तन का परिणाम है, ठीक वैसे ही जैसे यह कहा जाता है कि जैविक क्रमिक विकास के सिद्धांत के अनुसार जीवन के निम्नतम रूप उचचत रूपों में विकसित होते हैं। स्पेंसर का दावा था कि इसी प्रकार मानव का मन भी निम्नतर पशुओं की सरल स्वचालित प्रतिक्रियाओं से लेकर विचारशील मनुष्य में तर्क-शक्ति की प्रक्रिया तक क्रमिक रूप से विकसित हुआ था। स्पेंसर के अनुसार ज्ञान के दो प्रकार थे: व्यक्ति द्वारा प्राप्त किया गया ज्ञान तथा प्रजाति द्वारा प्राप्त किया गया ज्ञान. अंतर्ज्ञान, या अचेतन रूप से सीखा गया ज्ञान, प्रजाति का वंशागत अनुभव था।
समाजशास्र
स्पेंसर ने बहुत उत्साह के साथ ऑगस्टे कॉम्टे के मूल प्रत्यक्षवादी समाजशास्र का अध्ययन किया। विज्ञान के एक दार्शनिक, कॉम्टे ने सामाजिक-सांस्कृतिक क्रमिक विकास का एक सिद्धांत प्रतिपादित किया था, जिसके अनुसार समाज का विकास तीन चरणों के एक सामान्य नियम के द्वारा होता है। हालांकि, जीव-विज्ञान में विभिन्न परिवर्तनों के बाद लिखते हुए, स्पेंसर ने कॉम्टे के प्रत्यक्षवाद के विचारात्मक पहलुओं को खारिज करते हुए सामाजिक विज्ञान को क्रमिक विकास के जीव-विज्ञान के संदर्भ में पुनर्निरूपित करने का प्रयास किया। मोटे तौर पर स्पेंसर के समाजशास्र का वर्णन सामाजिक तौर पर डार्विनवादी के रूप में किया जा सकता है (हालांकि सच्चे अर्थों में वे डार्विनवाद के बजाय लेमार्कवाद के समर्थक थे).
स्पेंसर ने तर्क दिया कि समाज का विकास सरल, समान, समरूपता से जटिल, भिन्न, विविधता तक के क्रमिक विकास का उदाहरण है। उन्होंने समाज के दो प्रकारों, आतंकवादी तथा औद्योगिक, का एक सिद्धांत विकसित किया, जो कि क्रमिक विकासवादी प्रगति के अनुरूप था। आतंकवादी समाज, जिसकी संरचना पदानुक्रम और आज्ञापालन के संबंधों से मिलकर बनी थी, सरल और एक समान था; औद्योगिक समाज, जो कि स्वैच्छिक, संविदात्मक रूप से स्वीकृत सामाजिक दायित्वों पर आधारित था, जटिल और भिन्न था। समाज, जिसे स्पेंसर ने एक 'सामाजिक प्राणी' माना था, क्रमिक विकास के सार्वभौमिक नियम के अनुसार सरलतर अवस्था से अधिक जटिल अवस्था में क्रमिक रूप से विकसित हुआ। इसके अलावा, औद्योगिक समाज सोशल स्टैटिक्स में विकसित आदर्श समाज का प्रत्यक्ष वंशज था, हालांकि स्पेंसर ने अब इस बात को स्पष्ट रूप से व्यक्त नहीं किया कि क्या समाज का परिणाम अराजकतावाद के रूप में मिलेगा (जैसा कि वे पहले मानते थे) या क्या यह राज्य की एक निरंतर भूमिका को सूचित करता है, हालांकि एक ऐसी भूमिका, जो कि संविदाओं के प्रवर्तन और बाह्य सुरक्षा के न्यूनतम कार्यों तक सीमित हो चुकी होगी.
हालांकि स्पेंसर ने प्रारंभिक समाजशास्र में कुछ मूल्यवान योगदान दिये, जो कि संरचनात्मक व्यावहारिकता पर उनके प्रभाव से कम नहीं थे, लेकिन सामाजिक विज्ञान के क्षेत्र में लेमार्कवादी या डार्विनियन विचारों को प्रस्तुत करने का उनका प्रयास विफल रहा. यहां तक कि कुछ लोगों ने तो इसे सक्रिय रूप से खतरनाक भी माना. उस समय के व्याख्यावादी (Hermeneutician), जैसे विल्हेम डिल्थी, प्राकृतिक विज्ञानों (नेचरविस्सेन्शाफ्टन [Naturwissenschaften]) और मानवीय विज्ञानों (गीस्तेविस्सेन्शाफ्टन [Geisteswissenschaften]) के बीच विभेद के प्रवर्तक बने. सन 1890 के दशक में, एमिल दर्खिम ने औपचारिक अकादमिक समाजशास्र की स्थापना की, जिसमें व्यावहारिक सामाजिक अनुसंधान पर दृढ़तापूर्वक बल दिया गया था। बीसवीं सदी के मोड़ पर, जर्मन समाजशास्रियों की पहली पीढ़ी, सर्वाधिक उल्लेखनीय रूप से मैक्स वेबर, ने विधिपरक अप्रत्यक्षवाद (methodological antipositivism) को प्रस्तुत किया था।
नीतिशास्र
जैसा कि स्पेंसर की पहली पुस्तक में पूर्वानुमान किया गया है, 'आदर्श समाज में आदर्श मनुष्य' का निर्माण क्रमिक विकास की प्रक्रिया का अंतिम बिंदु होगा, जिसमें मनुष्य सामाजिक जीवन को पूरी तरह अपना चुके होंगे. इस प्रक्रिया के संदर्भ में स्पेंसर की शुरुआती और बाद वाली अवधारणाओं के बीच मुख्य अंतर इनमें शामिल क्रमिक विकास का समय-माप था। मनोवैज्ञानिक-और अतः नैतिक भी-संरचना, जो कि हमारे पूर्वजों द्वारा वर्तमान पीढ़ी को विरासत में दी गई है, तथा जो आगे हम अपनी भावी पीढ़ियों को देंगे, समाज में निवास की आवश्यकताओं को क्रमिक रूप से अपनाए जाने की प्रक्रिया में थी। उदाहरण के लिए, आक्रामकता उत्तरजीविता से जुड़ा एक अंतर्ज्ञान था, जो जीवन की प्राथमिक स्थितियों को आवश्यक था, लेकिन उन्नत समाजों में इसे अपनाना अनावश्यक हो गया. चूंकि मानवीय अंतर्ज्ञान का मस्तिष्क के ऊतकों के रेशों में विशिष्ट स्थान था, अतः वह प्रयोग-उत्तराधिकार की लेमार्कवादी क्रियाविधि के अधीन था, ताकि क्रमिक परिवर्तन भावी पीढ़ियों में स्थानांतरित किये जा सकें. अनेक पीढ़ियों के बीतने के साथ ही, क्रमिक विकास की प्रक्रिया यह सुनिश्चित करेगी कि मनुष्य कम आक्रामक और वृद्धिशील रूप से परहितवादी बने, जिसके परिणामस्वरूप अंततः एक संपूर्ण समाज का निर्माण होगा, जिसमें कोई भी व्यक्ति किसी अन्य व्यक्ति को दुःख नहीं पहुंचाएगा.
हालांकि क्रमिक विकास के द्वारा एक पूर्ण व्यक्ति का निर्माण करने के लिये यह आवश्यक था कि वर्तमान और भावी पीढ़ियां अपने व्यवहार के 'स्वाभाविक' परिणामों का अनुभव करें. केवल इसी तरीके से व्यक्तियों को आत्म-सुधार का कार्य करने और इस प्रकार अपने उत्तराधिकारियों को एक उन्नत नैतिक गठन प्रदान करने के लिये आवश्यक प्रेरणा प्राप्त होगी. अतः व्यवहार के 'स्वाभाविक' संबंध और इसके परिणाम के बीच व्यवधान उत्पन्न करने वाली किसी भी बात को रोका जाना चाहिये और इसमें गरीबी मिटाने, सार्वजनिक शिक्षा प्रदान करने, या अनिवार्य टीकाकरण को आवश्यक बनाने की राज्य की प्रतिरोधी शक्ति का प्रयोग भी शामिल था। हालांकि, धर्मार्थ दान को प्रोत्साहित किया जाना था, लेकिन उसे भी इस विचार के द्वारा सीमित किया जाना था कि मनुष्यों को दुःख अक्सर उनके कार्यों के परिणामस्वरूप ही प्राप्त होते हैं। अतः व्यक्तियों का 'अयोग्य गरीबों' की ओर निर्देशित अत्यधिक परोपकारिता व्यवहार और परिणाम के बीच उस कड़ी को तोड़ देगी, जिसे स्पेंसर इस बात को सुनिश्चित करने के लिये बुनियादी आवश्यकता मानते थे कि विकास के उच्चतर स्तर पर मानवता का क्रमिक विकास जारी रहे.
स्पेंसर ने अंतिम मूल्य का एक उपयोगवादी मानक अपनाया-सर्वाधिक संख्या की सर्वाधिक प्रसन्नता-और उनके अनुसार क्रमिक विकास की प्रक्रिया का चरमबिन्दु उपयोगिता का महत्तम मूल्यांकन होगा. आदर्श समाज में रहने वाले व्यक्ति न केवल पर्यायवाद ('सकारात्मक उपकारिता') के अभ्यास से आनंद प्राप्त करेंगे, बल्कि वे दूसरों को दुःख़ पहुंचाने ('नकारात्मक उपकारिता') से बचने का भी प्रयास करेंगे. वे सहज रूप से दूसरों के अधिकारों का सम्मान भी करेंगे, जिसके परिणामस्वरूप न्याय के सिद्धांत का वैश्विक स्तर पर पालन किया जाएगा-प्रत्येक व्यक्ति के पास स्वतंत्रता की वह अधिकतम मात्रा होगी, जो दूसरों को प्राप्त स्वतंत्रता की समान मात्रा के साथ सुसंगत हो. 'स्वतंत्रता' से आशय अवपीड़न की अनुपस्थिति से था और यह निजी संपत्ति के अधिकार से गहराई से जुड़ी हुई थी। स्पेंसर ने आचरण के इस नियम को 'परम नीतिशास्र' कहा, जिसने नीति-शास्र की एक वैज्ञानिक आधार वाली प्रणाली प्रदान की, जो अतीत की अलौकिकता-आधारित नीति-शास्र प्रणालियों का स्थान ले सकेगी. हालांकि, उन्होंने इस बात को स्वीकार किया कि हमारे द्वारा विरासत में प्राप्त किया गया नैतिक गठन अभी हमें परम नीतिशास्र के नियमों के साथ पूर्ण अनुरूपता से व्यवहार करने की अनुमति नहीं देता और यही कारण है कि हमें 'सापेक्ष नीतिशास्र' के एक नियम की आवश्यकता है, जिसमें हमारी वर्तमान अपूर्णता के विकृतिशील कारकों पर भी विचार किया गया हो.
संगीतशास्र पर स्पेंसर का विशिष्ट दृष्टिकोण भी उनके नीतिशास्र से जुड़ा हुआ था। स्पेंसर ने सोचा कि संगीत का उदगम जोशपूर्ण वक्तृत्व कला में ढूंढा जा सकता है। वक्ता प्रत्ययकारी प्रभाव डालते हैं, न केवल उनके शब्दों की तर्कशीलता के द्वारा, बल्कि उनके लहजे और स्वराघात के द्वारा भी-जैसा कि स्पेंसर ने इसे व्यक्त किया, उनके स्वर के संगीतमय गुण "बुद्धि के वाक्यों पर भावनाओं की टिप्पणी" के रूप में कार्य करते हैं।
संगीत, जिसे वक्तृता की उनकी विशेषता का एक उन्नत विकास माना गया, प्रजातियों की नीति-शास्र की शिक्षा और विकास में योगदान देता है। "हमारे भीतर धुन और लय से प्रभावित होने की जो विचित्र क्षमता है, में शायद ये दोनों बातें निहित हैं कि उन अतीव प्रसन्नताओं का अहसास कर पाना हमारे स्वभाव की संभावनाओं के भीतर है, तथा यह कि किसी न किसी तरीके से वे उनकी प्रस्तुति से संबंधित हैं। यदि ऐसा है, तो संगीत की शक्ति और अर्थ बोधगम्य बन जाते हैं; लेकिन अन्यथा वे एक रहस्य हैं।" [११]
स्पेंसर के अंतिम वर्षों में उनका प्रारंभिक आशावाद को नष्ट होता हुआ दिखाई दिया और इसका स्थान मानव के भविष्य के प्रति एक निराशावाद ने ले लिया। इसके बावजूद, उन्होंने अपना अधिकतम प्रयास अपने तर्कों का समर्थन करने और गैर-हस्तक्षेप के उनके महत्वपूर्ण सिद्धांत की गलत-व्याख्या को रोकने हेतु समर्पित कर दिया.
अज्ञेयवाद
विक्टोरियाई लोगों के बीच स्पेंसर की प्रतिष्ठा का बहुत बड़ा श्रेय उनके अज्ञेयवाद को है। उन्होंने धर्मशास्र को 'धर्मनिष्ठा का दिखावा करने वालों की नास्तिकता' का प्रतिनिधि कहकर अस्वीकार कर दिया. परंपरागत धर्म को अस्वीकार कर देने के कारण उन्हें अत्यधिक कुप्रसिद्धि मिली और अक्सर धार्मिक चिंतकों ने अनीश्वरवाद व भौतिकवाद का समर्थक होने का आरोप लगाकर उनकी निंदा की. इसके बावजूद हक्सले, जिनका अज्ञेयवाद 'विश्वास के एक अक्षम्य पाप' (एड्रियन डेस्मंड के शब्दों में) की ओर एक केंद्रित आतंकी संप्रदाय था, के विपरीत स्पेंसर ने इस बात पर बल दिया कि वे विज्ञान के नाम पर धर्म का अवमूल्यन किये जाने से नहीं, बल्कि इन दोनों के बीच सामंजस्य स्थापित करने को लेकर चिंतित थे।
स्पेंसर का तर्क था कि हम चाहे धार्मिक विश्वास से प्रारंभ करें या विज्ञान से, अंततः हमें कुछ अनिवार्य, लेकिन शाब्दिक रूप से कल्पनातीत धारणाओं को स्वीकार करना ही पड़ता है। चाहे हम किसी निर्माता के प्रति चिंतित हों या उस अधःस्तर के प्रति, जो तथ्यों के हमारे अनुभव के नीचे स्थित है, हम इसकी संकल्पना का कोई खाका नहीं खींच सकते. स्पेंसर का निष्कर्ष था कि इसीलिये, धर्म और विज्ञान इस परम सत्य को स्वीकार करते हैं कि मानवीय समझ केवल 'सापेक्ष' ज्ञान को समझ पाने में ही सक्षम है। ऐसा इसलिये है क्योंकि, मानव के मन की अंतर्निहित सीमाओं के कारण, केवल तथ्यों का ज्ञान प्राप्त कर पाना ही संभव है, तथ्यों के नीचे स्थित वास्तविकता ('परम') का नहीं. अतः विज्ञान और धर्म दोनों को यह बात स्वीकार कर लेनी चाहिये कि 'समस्त तथ्यों में यह सर्वाधिक निश्चित है कि ब्रह्मांड में हमें जो शक्ति दिखाई देती है, व पूर्णतः अगम्य है।' इसे उन्होंने 'अज्ञेय' का बोध कहा और उन्होंने अज्ञेय की उपासना को पारंपरिक धर्म का स्थान लेने में सक्षम सकारात्मक विश्वास के रूप में प्रस्तुत किया। वास्तव में, उनका विचार था कि धर्म के क्रमिक विकास में अज्ञेय अंतिम चरण, इसके अंतिम मानवरूपी अवशेषों के अंतिम निष्कासन, का प्रतिनिधित्व करता है।
राजनैतिक दृष्टिकोण
इक्कीसवीं सदी में प्रचलित स्पेंसेरियन (Spencerian) विचार उन्नीसवीं सदी के अंतिम दौर के उनके राजनैतिक सिद्धांतों और सुधारवादी आंदोलनों पर उनके द्वारा किये गये स्मरणीय आक्रमणों से व्युतपन्न हैं। इच्छास्वातंत्र्यवादियों तथा राज्यविहीन-पूंजीवाद (anarcho-capitalism) द्वारा उन्हें अगुआ ठहराया गया है।[१२] अर्थशास्री मुरे रॉथबार्ड ने सोशल स्टैटिक्स को " इच्छास्वातंत्र्यवादी दर्शनशास्र की सार्वकालिक महानतम रचना" कहा है।[१३] स्पेंसर का तर्क था कि राज्य कोई "आवश्यक" संस्था नहीं है और स्वैच्छिक बाज़ार संगठन द्वारा राज्य के अवपीड़क पहलुओं का स्थान ले लिये जाने पर इसका "क्षय" हो जाएगा.[१४] उन्होंने यह तर्क भी दिया कि व्यक्ति के पास "राज्य को अनदेखा करने का अधिकार था।"[१५] इस परिप्रेक्ष्य के परिणामस्वरूप, स्पेंसर देशभक्ति के कठोर आलोचक थे। जब उन्हें बताया गया कि द्वितीय अफगान युद्ध के दौरान ब्रिटिश सेनाएं सन्कट की स्थिति में हैं, तो प्रतिक्रियास्वरूप उन्होंने कहा: "जब लोग दूसरों के आदेश पर अन्य लोगों को, उनके आंदोलन के औचित्य के बारे में कुछ भी पूछे बिना, गोली मारने के लिये स्वयं को किराये पर दे देते हैं और यदि स्वयं उन्हें ही गोली मार दी जाए, तो मैं इस बात की चिंता नहीं करता."[१६]
विक्टोरियाई ब्रिटेन के अंतिम भाग में राजनीति उन दिशाओं की ओर बढ़ी, जिन्हें स्पेंसर नापसंद करते थे और उनके तर्कों ने यूरोप और अमेरिका के उदारवादियों और व्यक्तिवादियों के लिये इतना अधिक गोला-बारूद प्रदान किया, कि उनका प्रयोग इक्कीसवीं सदी में भी किया जाता है। अभिव्यक्ति 'देअर इज़ नो आल्टरनेटिव (There Is No Alternative)’ (टीना [TINA]), जिसे प्रधानमंत्री मार्गारेट थेचर ने प्रसिद्धि दिलाई, का मूल स्पेंसर द्वारा इसके ज़ोरदार प्रयोग में ढूंढा जा सकता है।[१७]
सन 1880 के दशक तक आते-आते, वे "नव अपरिवर्तनवाद (new Toryism)' (अर्थात लिबरल पार्टी की "सामाज सुधारवादी शाखा"-यह शाखा कुछ हद तक प्रधानमंत्री विलियम एवार्ट ग्लैडस्टोन के प्रतिकूल थी, स्पेंसर ने लिबरल पार्टी के इस गुट की तुलना कंज़र्वेटिव पार्टी के पूर्व प्रधानमंत्री बेंजामिन डिज़राइली जैसे लोगों के हस्तक्षेपवादी "अपरिवर्तनवाद" से की) की निंदा करने लगे. द मैन वर्सेज़ द स्टेट (1884) में,[१८] उन्होंने अपने सही मिशन से भटक जाने के लिये ग्लैडस्टोन तथा लिबरल पार्टी की आलोचना की (उन्होंने कहा कि उन्हें व्यक्तिगत स्वतंत्रता की रक्षा करनी चाहिये) और इसके बजाय पितृवादी सामाजिक कानून (जिसे स्वयं ग्लैडस्टोन ने आधुनिक लिबरल पार्टी में एक ऐसे तत्व का "निर्माण" कहा था, जिसका वे विरोध करते थे) के प्रचार पर बल दिया. स्पेंसर ने आयरिश भूमि-सुधार, अनिवार्य शिक्षा, कार्य-स्थल पर सुरक्षा के नियमन के लिये बने कानूनों, निषेधाज्ञा और मिताचार कानूनों, कर द्वारा वित्त-पोषित पुस्तकालयों और कल्याणकारी सुधारों की निंदा की. प्रमुख रूप से उन्हें तीन बातों को लेकर आपत्ति थी: सरकार की अवपीड़क शक्तियों का प्रयोग, स्वैच्छिक स्व-सुधार को हतोत्साहित किया जाना और "जीवन के नियमों" की अवहेलना. उन्होंने कहा कि सुधार "समाजवाद", उनके अनुसार इसे वे मानवीय स्वतंत्रता को सीमित करने के संदर्भ में "दासता" के बराबर मानते थे, के समतुल्य थे। स्पेंसर ने उपनिवेशों के समामेलन और साम्राज्यवादी विस्तार के प्रति व्यापक रूप से फैले उत्साह पर ज़ोरदार ढंग से आक्रमण किया, जिसने 'आतंकवादी' से 'औद्योगिक' समाजों और राज्यों तक होने वाले क्रमिक विकास को लेकर उनके द्वारा व्यक्त किये गये समस्त पूर्वानुमान को ध्वस्त कर दिया.[१९]
स्पेंसर ने, विशेष रूप से उनके "समान स्वतंत्रता के नियम", भविष्यसूचक ज्ञान की सीमाओं के प्रति उनके आग्रह, एक स्वाभाविक सामाजिक व्यवस्था के उनके मॉडल और समूहवादी सामाजिक सुधारों के "अनभिप्रेत परिणामों" के बारे में उनकी चेतावनियों में, फ्रीडरिच हयाक जैसे उत्तरकालीन उदारवादी सिद्धांतकारों के अनेक विश्लेषणात्मक दृष्टिकोणों का पूर्वानुमान कर लिया था।[२०]
सामाजिक डार्विनवाद
कभी-कभी स्पेंसर को समाज के सर्वश्रेष्ठ की उत्तरजीविता के नियम पर लागू होने वाले सामाजिक डार्विनवादी मॉडल का श्रेय दिया जाता है। मानवतावादी प्रवर्तनों को रोकना आवश्यक था क्योंकि प्रकृति के नियमों में हस्तक्षेप करने की अनुमति, अस्तित्व के लिये सामाजिक संघर्ष सहित, किसी को भी नहीं दी जानी चाहिए.
जेएसटीओआर (JSTOR) अंग्रेज़ी भाषा के डेटाबेस की समीक्षा के अनुसार, शब्दावली "सामाजिक डार्विनवाद" का प्रयोग सर्वप्रथम हार्वर्ड के अर्थशास्री फ्रैंक टॉसिग द्वारा सन 1895 की एक पुस्तक समीक्षा में अंग्रेज़ी भाषा की एक अकादमिक पत्रिका में किया गया था (यूरोप में इसका प्रयोग सन 1877 से ही किया जा रहा था). जेएसटीओआर (JSTOR) का डेटा यह सूचित करता है कि सन 1931 से पूर्व इस शब्दावली का प्रयोग केवल 21 बार किया गया था। सन 1937 में लियो रॉजिन द्वारा की गई एक पुस्तक-समीक्षा में पहली बार स्पेंसर को "सामाजिक डार्विनवाद" के साथ जोड़ा गया था। हालांकि सामान्यतः रिचर्ड हॉफ्स्टैडर को अपनी पुस्तक "सोशल डार्विनिज़्म इन अमेरिकन लाइफ" मे इस शब्दावली को लोकप्रिय बनाने का श्रेय दिया जाता है, लेकिन वास्तव में, टैल्कॉट पार्सन्स ने हॉफ्स्टैडर के लिये राह बनाई थी। अपनी अत्यधिक प्रभावशाली पुस्तक "द स्ट्रक्चर ऑफ सोशल ऐक्शन" (1937) में पार्सन्स ने लिखा कि "स्पेंसर समाप्त हो चुके हैं" और इसके बाद उन्होंने सामाजिक डार्विनवाद को लापरवाही से परिभाषित किया। "सामाजिक विज्ञानों में जैविक विचारों को लागू करने वाले किसी भी व्यक्ति सहित सामाजिक डार्विनवाद की पार्सन्स की विस्तृत परिभाषा ने स्पेंसर था (कुछ हद तक) समनर को [सामाजिक डार्विनवाद की श्रेणी में] स्थान देने में सहायता की…".(उपरोक्त अनुच्छेद का स्रोत है- [१]
सन 1944 में हॉफ्स्टैडर की पुस्तक प्रकाशित होने पर इस शब्दावली का प्रयोग बहुत तेज़ी से बढ़ा और अक्सर द्वितीयक साहित्य में अक्सर हॉफ्स्टैडर का उल्लेख कृत्रिम दर्शनशास्र के एक प्रामाणिक विवरण के रूप में किया जाता है। प्रिंस्टन यूनिवर्सिटी के अर्थशास्री टिम लियोनार्ड ने अपने लेख ओरिजिन्स ऑफ द मिथ ऑफ सोशल डार्विनिज़्म में तर्क दिया है कि स्पेंसर का हॉफ्स्टैडर द्वारा प्रभावी चरित्र-चित्रण दोषपूर्ण है।[२१] लियोनार्ड का विचार है कि सतत दोहराव के द्वारा, हॉफ्स्टैडर के स्पेंसर का अपना स्वयं का एक अस्तित्व बन गया है, उनके विचार व तर्कों का प्रतिनिधित्व कुछ चुनिंदा परिच्छेदों द्वारा किया जाता है और इनका उल्लेख सामान्यतः सीधे ही स्रोत न करके हॉफ्स्टैडर के अधिक चयनात्मक उद्धरणो से किया जाता है। जहां स्पेंसर मनुष्यों के बीच प्रतिस्पर्धा में "सर्वश्रेष्ठ की उत्तरजीविता" का समर्थन किया करते थे, वहीं लियोनार्ड ने इस बात पर बल दिया कि स्पेंसर को एक सामाजिक डार्विनवादी कहा जाना गलत है क्योंकि वास्तव में उन्होंने लेमार्कवादी दृष्टिकोण प्रस्तुत किया: उनका मानना था कि अभिभावक स्वैच्छिक प्रयास के माध्यम से लक्षणों को प्राप्त करते हैं और फिर उन्हें अपनी संतानों तक पहुंचाते हैं।
स्पेंसर के एक सामाजिक डार्विनवादी होने का मूल प्रतिस्पर्धा के लिये उनके समर्थन की एक दोषपूर्ण समझ में हो सकता है। हालांकि जीव-विज्ञान में विभिन्न जीवों की प्रतिस्पर्धा का परिणाम एक प्रजाति या जीव की मृत्यु के रूप में मिल सकता है, लेकिन स्पेंसर ने जिस प्रकार की प्रतिस्पर्धा का समर्थन किया था, वह अर्थशास्रियों द्वारा प्रयुक्त प्रतिस्पर्धा के अधिक निकट थी, जिसमें प्रतिस्पर्धी मनुष्य या संस्थाएं शेष समाज के कुशलक्षेम में सुधार करती हैं। इसके अलावा, स्पेंसर दान व पर्यायवाद को सकारात्मक दृष्टिकोण से देखते थे क्योंकि वे स्वैच्छिक साहचर्य में विश्वास रखते थे।
सामान्य प्रभाव
एक ओर जहां अधिकांश दार्शनिक अपने व्यावसायिक साथियों की अकादमी के बाहर बहुत बड़ा अनुयायी-वर्ग हासिल कर पाने में विफल रहते हैं, वहीं दूसरी ओर 1870 के दशक और 1880 के दशक तक आते-आते स्पेंसर ने अद्वितीय लोकप्रियता हासिल कर ली थी, जैसा कि उनकी पुस्तकों की बिक्री की मात्रा से स्पष्ट था। वे संभवतः इतिहास के पहले और शाअद एकमात्र दार्शनिक थे, जिनके जीवन-काल में ही उनकी कृतियों की दस लाख से अधिक प्रतियां बिक चुकीं थीं। संयुक्त राज्य अमेरिका में, जहां नकली संस्करण आज भी आम हैं, उनके अधिकृत प्रकाशक, ऐपलटन (Appleton), ने सन 1860 और 9103 के बीच 368, 755 प्रतियां बेचीं. यह आंकड़ा उनके मूल देश ब्रिटेन में हुई बिक्री से बहुत अलग नहीं था और शेष विश्व में बिके संस्करणों का आंकड़ा इसमें जोड़ा जाने पर यह एक रूढ़िवादी अनुमान की तरह प्रतीत होता है। जैसी कि विलियम जेम्स ने टिप्पणी की, स्पेंसर ने "असंख्य चिकित्सकों, अभियंताओं और वकीलों के, अनेक भौतिकशास्रियों व रसायनशास्रियों के और विचारशील सामान्य जनों की कल्पानाओं को विस्तार प्रदान किया और चिंतनशील मन को मुक्त किया।"[२२] उनके विचार का वह पहलू, जो व्यक्ति के आत्म-सुधार पर बल देता था, के लिये कुशल श्रमिक-वर्ग में तत्पर दर्शक गण मिले.
विचारक नेताओं के बीच भी स्पेंसर का गहन प्रभाव था, हालांकि अक्सर इसकी अभिव्यक्ति स्पेंसर के विचारों के प्रति उनकी प्रतिक्रिया और अस्वीकरण, के रूप में होती थी। जैसा कि उनके अमेरिकी अनुयायी जॉन फिस्के ने पाया, स्पेंसर के विचार विक्टोरिया विचारधारा के "समस्त भटकाव के बीच एक ताने-बाने के समान प्रवाहित" होते थे।[२३] हेनरी सिजविक, टी.एच. ग्रीन, जी.ई. मूर, विलियम जेम्स, हेनरी बर्गसन और एमिल दर्खिम जैसे विभिन्न तरह के विचारक अपने विचारों को स्पेंसर के विचारों के संदर्भ में परिभाषित किया करते थे। दर्खिम का डिविजन ऑफ लेबर इन सोसायटी बहुत बड़ी सीमा तक स्पेंसर के साथ एक विस्तारित विवाद था, जिनके समाजशास्र से, जैसा कि अब अनेक टिप्पणीकार स्वीकार करते हैं, दर्खिम ने बहुत बड़े पैमाने पर विचार ग्रहण किये.[२४] सन 1863 के विद्रोह के बाद के पोलैंड में, स्पेंसर के अनेक विचार प्रबल विचारधारा, "पोलिश प्रत्यक्षवाद (Polish Positivism)" के अभिन्न अंग बन गए। उस काल के प्रख्यात पोलिश लेखक, बोलेस्लॉ प्रुस, ने जीव-के रूप में-समाज की स्पेंसर की उपमा को अपना लिया और सन 1884 की अपनी कथा "मोल्ड ऑफ द अर्थ (Mold of the Earth)" में इसकी एक विलक्षण काव्यात्मक प्रस्तुति दी, तथा अपने सर्वाधिक वैश्विक उपन्यास, फैरो (Pharaoh) (1895) की प्रस्तावना में इस अवधारणा को विशेष महत्व दिया.
बीसवीं सदी स्पेंसर की विरोधी थी। उनकी मृत्यु के शीघ्र बाद एक दार्शनिक के रूप में उनकी प्रतिष्ठा में तीव्र गिरावट आई. उनकी मृत्यु के आधी सदी बाद उनके कार्य को "दार्शनिकता की नकल (parody of philosophy)" कहकर खारिज कर दिया गया,[२५] और इतिहासकार रिचर्ड हॉफ्स्टैडर (Richard Hofstadter) ने उन्हें "स्वनिर्मित बुद्धि का तत्ववादी और क्रैकर-बैरल अज्ञेयवादी (cracker-barrel agnostic) पैगम्बर करार दिया."[२६] फिर भी, स्पेंसर के विचार विक्टोरियाई काल में इतनी गहराई तक उतर चुके थे कि उनका प्रभाव पूरी तरह समाप्त नहीं हुआ। हालांकि बीसवीं सदी के अंतिम भाग में बहुत अधिक सकारात्मक अनुमान उत्पन्न हुए हैं।[२७] हॉफ्स्टैडर ने सन 1955 की अपनी पुस्तक "सोशल डार्विनिज़्म इन अमेरिकन थॉट (Social Darwinism in American Thought)" में टिप्पणी की कि स्पेंसर के विचारों ने एंड्र्यु कारनेगी और विलम ग्राहम समर्स की पूंजीवाद की अवधारणा को प्रेरणा दी. ([२])</ref>
राजनैतिक प्रभाव
एक सामाजिक डार्विनवादी के रूप में उनकी छवि के बावजूद, स्पेंसर के राजनैतिक विचारों की अनेक प्रकार से व्याख्या की गई है। उनका राजनैतिक दर्शनशास्र, दोनों प्रकार के लोगों, एक जो यह मानते थे कि व्यक्ति स्वयं अपने भाग्य के स्वामी होते हैं, व उन्हें एक हस्तक्षेपवादी राज्य के किसी दखल को नहीं सहना चाहिये, तथा दूसरे वे जो ये मानते थे कि सामाजिक विकास के लिये एक शक्तिशाली केंद्रीय शक्ति का होना आवश्यक है, को प्रेरणा दी. लॉशनर बनाम न्यूयॉर्क में यूनाइटेड स्टेट्स सुप्रीम कोर्ट के रूढ़िवादी न्यायविदों ने स्पेंसर के लेखन से मिली प्रेरणा के आधार पर न्यूयॉर्क के एक कानून, जो एक सप्ताह में एक बेकर के कार्य के घंटों की संख्या को सीमित करता था, को इस आधार पर अस्वीकृत कर दिया कि यह कानून अनुबंध की स्वतंत्रता को सीमित करता है। बहुमत के इस विचार, कि "मुक्त अनुबंध का अधिकार" चौदहवें संशोधन (Fourteenth Amendment) की उपयुक्त प्रक्रिया धारा में उपलक्षित है, के खिलाफ तर्क देते हुए ओलिवर वेंडेल होम्स जूनियर ने लिखा: "चौदहवां संशोधन श्री हरबर्ट स्पेंसर के सोशल स्टैटिक्स को पूरा नहीं करता." स्पेंसर का वर्णन एक अर्ध-अज्ञेयवादी और साथ ही एक पूर्ण-अज्ञेयवादी के रूप में भी किया जाता रहा था। मार्क्सवादी सिद्धांतकार जॉर्जी प्लेखानोव (Georgi Plekhanov) ने अपनी 1909 की पुस्तक एनार्किज़्म एंड सोशलिज़्म (Anarchism and Socialism) में स्पेंसर को एक "रूढ़ीवादी अज्ञेयवादी (conservative Anarchist)" कहा.[२८]
चीन और जापान में स्पेंसर के विचार बहुत प्रभावी बन गए, जिसका एक बड़ा कारण यह था कि वे सुधारकों की एक ऐसे शक्तिशाली राष्ट्र-राज्य की स्थापना की इच्छा को आकर्षित करते थे, जिसकी सहायता से पश्चिमी शक्तियों के साथ प्रतिस्पर्धा की जा सके. उनके विचारों से परिचय चीनी विद्वान येन फू ने करवाया, जिन्हें उनका लेखन क्विंग राज्य के सुधार का एक नुस्खा महसूस हुआ।[२९] स्पेंसर ने जापानी पाश्चात्यवादी तुकोतुमी सोहो को भी प्रभावि किया, जिनका मानना था कि जापान एक "आतंकवादी समाज" से एक "औद्योगिक समाज" की ओर संक्रमण की कगार पर था और यह आवश्यक था वह शीघ्र ही सभी जापानी बातों को फेंक दे और पश्चिमी नीतिशास्र व शिक्षा को अपना ले.[३०] उन्होंने कनेको केंटारो से भी संपर्क किया और उन्हें साम्राज्यवाद के खतरों के प्रति चेतावनी दी.[३१] सावरकर ने अपनी पुस्तक इनसाइड द एनिमी कैंप में स्पेंसर की समस्त कृतियों को पढ़ने के बारे में, उन पर उनके विलक्षण प्रभाव के बारे में, मराठी में उनके अनुवाद के बारे में और तिलक व आगरकर जैसे लोगों पर उनके प्रभाव के बारे में तथा महाराष्ट्र में उन्हें प्रेमपूर्वक दी गई उपाधि-हरभात पेंडसे-के बारे में लिखा है।[३२]
साहित्य पर प्रभाव
स्पेंसर ने साहित्य और वक्तृत्व-कला पर भी अत्यधिक प्रभाव डाला. उनके सन 1852 के निबंध, "द फिलोसॉफी ऑफ स्टाइल" में लेखन के रूपवादी प्रकार की बढ़ती हुई प्रवृत्ति की खोज की गई थी। किसी अंग्रेज़ी वाक्य के भागों के उपयुक्त स्थान व क्रम पर अत्यधिक केंद्रित रहते हुए उन्होंने प्रभावी लेखन के लिये एक मार्गदर्शिका की रचना की. स्पेंसर का उद्देश्य गद्य लेखन को यथासंभव "घर्षण व निष्क्रियता" से मुक्त करना था, ताकि उपयुक्त संदर्भ तथा किसी वाक्य के अर्थ के संबंधित श्रमसाध्य विचार-विमर्श के कारण पाठक की गति धीमी न पड़ जाए. स्पेंसर ने तर्क दिया कि लेखक का आदर्श "विचारों को इस प्रकार प्रस्तुत करना है, ताकि पाठक उन्हें न्यूनतम संभव मानसिक प्रयास के द्वारा समझ सके."
उन्होंने तर्क दिया कि अर्थ को यथासंभव अभिगम्य बनाकर, लेखक उच्चतम संभव संवादात्मक दक्षता हासिल कर सकेगा. स्पेंसर के अनुसार, ऐसा सभी उपवाक्यों, वस्तुओं और वाक्यांशों को एक वाक्य के कर्ता के पूर्व रखकर किया जा सकता है, ताकि जब पाठक कर्ता तक पहुंचें, तब तक उनके पास इसके महत्व को पूरी तरह समझने के लिये आवश्यक समस्त जानकारी आ चुकी हो. हालांकि वक्तृत्व-कला के क्षेत्र पर "शैली के दर्शनशास्र" का सकल प्रभाव अन्य क्षेत्रों में उनके योगदान जितना व्यापक नहीं था, लेकिन स्पेंसर के स्वर ने वक्तृत्व-कला के रूपवादी दृष्टिकोणों को प्रभावी समर्थन प्रदान किया।
स्पेंसर का साहित्य पर भी प्रभाव था और अनेक उपन्यासकारों व लघु-कथा लेखकों ने उनके विचारों को अपनी कृतियों में स्थान दिया. जॉर्ज इलियट, लियो टॉल्सटॉय, थॉमस हार्डी, बोलेस्लॉ प्रुस, एब्राहम काहन, डी.एच. लॉरेन्स, मैकेडो डी एसिस, रिचर्ड ऑस्टिन फ्रीमैन और जॉज लुईस बॉर्गेस सभी ने स्पेंसर का संदर्भ दिया. अर्नाल्ड बेनेट ने फर्स्ट प्रिंसिपल्स की अत्यधिक प्रशंसा की और बेनेट पर इसके प्रभाव को उनके अनेक उपन्यासों में देखा जा सकता है। जैक लंडन ने तो मार्टिन एडन नामक के पात्र का ही निर्माण कर दिया, जो कि एक कट्टर स्पेंसरवादी था। यह भी कहा गया है कि एन्टोन चेखोव के नाटक द थ्री सिस्टर्स में "वर्शिनिन" का पात्र एक समर्पित स्पेंसरवादी है। एच.जी. वेल्स ने स्पेंसर के विचारों को अपने लघु-उपन्यास, द टाइम मशीन, की विषय-वस्तु के रूप में प्रयोग किया और दो प्रजातियों के रूप में मनुष्य के क्रमिक विकास की व्याख्या करने के लिये उन्हें लागू किया गया. संभवतः स्पेंसर के विचारों और लेखन के प्रभाव का सर्वश्रेष्ठ उदाहरण यही है कि उनकी पहुंच इतनी विविधतापूर्ण थी। उन्होंने न केवल अपने समाज के आंतरिक क्रियाकलापों को आकार प्रदान करने वाले प्रशासकों को प्रभावित किया, बल्कि उन समाजों के आदर्शों व विश्वासों को आकार देने में सहायता करने वाले कलाकारों को भी प्रभावित किया।
प्राथमिक स्रोत
- सीनेट हाउस लाइब्रेरी, लंदन यूनिवर्सिटी में हरबर्ट स्पेंसर के शोध-पत्र
- स्पेंसर की अधिकांश पुस्तकें ऑनलाइन उपलब्ध हैं
- "ऑन द प्रॉपर स्फियर ऑफ गवर्नमेंट (On The Proper Sphere of Government)" (1842)
- सोशल स्टैटिक्स: ऑर द कंडीशन्स एसेन्शियल टू ह्युमन हैपीनेस स्पेसीफाइड, एंड द फर्स्ट ऑफ देम डेवलप्ड (Social Statics: or, The Conditions Essential to Human Happiness Specified, and the First of Them Developed) (1851)
- "द राइट टू इग्नोर द स्टेट (The Right to Ignore the State)", सोशल स्टैटिक्स (p) के पहले संस्करण का अध्याय उन्नीस
- सोशल स्टैटिक्स: संक्षिप्त व पुनरीक्षित (1892)
- "अ थियरी ऑफ पॉप्युलेशन (A Theory of Population)" (1852)
- प्रिंसिपल्स ऑफ साइकोलॉजी (Principles of Psychology) (1855), प्रथम संस्करण, एक खंड में जारी
- एज्युकेशन (Education) (1861)
- सिस्टम ऑफ सिंथैटिक फिलासॉफी' (System of Synthetic Philosophy'), दस खंडों में
- फर्स्ट प्रिंसिपल्स (First Principles) आईएसबीएन (ISBN) 0-89875-795-9 (1862)
- प्रिंसिपल्स ऑफ बायोलॉजी (Principles of Biology) (1864, 1867; पुनरीक्षित व अभिवर्धित: 1898), दो खंडों में
- खंड एक — भाग एक: द डेटा ऑफ बायोलॉजी (The Data of Biology); भाग दो: द इंडक्शन्स ऑफ बायोलॉजी (The Inductions of Biology) ; भाग तीन- द इवॉल्यूशन ऑफ लाइफ (The Evolution of Life) ; परिशिष्ट
- खंड दो — भाग चार: मॉर्फोलॉजिकल डेवलपमेंट (Morphological Development) ; भाग पांच: फिज़ियोलॉजिकल डेवलपमेंट (Physiological Development) ; भाग छह: लॉज़ ऑफ मल्टिप्लिकेशन (Laws of Multiplication) ; परिशिष्ट
- प्रिंसिपल्स ऑफ साइकोलॉजी (1870, 1880), दो खंडों में
- खंड एक — भाग एक: द डेटा ऑफ साइकोलॉजी (The Data of Psychology) ; भाग दो: द इन्क्लूजन्स ऑफ साइकोलॉजी (The Inductions of Psychology) ; भाग तीन: जनरल सिंथेसिस (General Synthesis) ; भाग चार: स्पेशल सिंथेसिस (Special Synthesis) ; भाग पांच: फिज़िकल सिंथेसिस (Physical Synthesis) ; परिशिष्ट
- खंड दो — भाग छह: स्पेशल एनालिसिस (Special Analysis) ; भाग सात: जनरल एनालिसिस (General Analysis) ; भाग आठ: कॉन्ग्रुइटीज़ (Congruities) ; भाग नौ: कोरोलरिज़ (Corollaries)
- प्रिंसिपल्स ऑफ सोशियोलॉजी (Principles of Sociology), तीन खंडों में
- खंड एक (1874–75); अभिवर्धित 1876, 1885) — भाग एक: डेटा ऑफ सोशियोलॉजी (Data of Sociology) ; भाग दो: इंडक्शन्स ऑफ सोशियोलॉजी (Inductions of Sociology) ; भाग तीन: डोमेस्टिक इन्स्टीट्यूशन्स (Domestic Institutions)
- खंड दो — भाग चार: सेरेमोनियल इन्स्टीट्यूशन्स (Ceremonial Institutions) (1879); भाग पांच: पॉलिटिकल इन्स्टीट्यूशन्स (Political Institutions) (1882); भाग छह: [कुछ संस्करणों में यहां प्रकाशित]: ऐक्लेसियास्टिकल इन्स्टीट्यूशन्स (Ecclesiastical Institutions) (1885)
- खंड तीन — भाग छह [कुछ संस्करणों में यहां प्रकाशित]: ऐक्लेसियास्टिकल इन्स्टीट्यूशन्स (Ecclesiastical Institutions) (1885); भाग साथ: प्रोफेशनल इन्स्टीट्यूशन्स (Professional Institutions) (1896); भाग आठ: इंडस्ट्रीयल इन्स्टीट्यूशन्स (Industrial Institutions) (1896); संदर्भ
- द प्रिंसिपल्स ऑफ एथिक्स (The Principles of Ethics) (1897), दो खंडों में
- खंड एक — भाग एक: द डेटा ऑफ एथिक्स (The Data of Ethics) (1879); भाग दो: द इंडक्शन्स ऑफ एथिक्स (The Inductions of Ethics) (1892); भाग तीन: द एथिक्स ऑफ इंडीविजुअल लाइफ (The Ethics of Individual Life) (1892); संदर्भ
- खंड दो — भाग चार: द एथिक्स ऑफ सोशल लाइफ: जस्टिस (The Ethics of Social Life: Justice) (1891); भाग पांच: द एथिक्स ऑफ सोशल लाइफ: निगेटिव बेनेफिसन्स (The Ethics of Social Life: Negative Beneficence) (1892); भाग छह: द एथिक्स ऑफ सोशल लाइफ: पॉज़िटिव बेनेफिसन्स (The Ethics of Social Life: Positive Beneficence) (1892); परिशिष्ट
- द स्टडी ऑफ सोशियोलॉजी (The Study of Sociology) (1873, 1896)
- एन ऑटोबायोग्राफी (An Autobiography) (1904), दो खंडों में
- इसे भी देखें साँचा:cite book
- डेविड डंकन द्वारा वी1 लाइफ एंड लेटर्स ऑफ हरबर्ट स्पेंसर (v1 Life and Letters of Herbert Spencer by David Duncan) (1908)
- डेविड डंकन द्वारा वी2 लाइफ एंड लेटर्स ऑफ हरबर्ट स्पेंसर (v2 Life and Letters of Herbert Spencer by David Duncan) (1908)
- डिस्क्रिप्टिव सोशियोलॉजी (Descriptive Sociology); या ग्रुप्स ऑफ सोशियोलॉजिकल फैक्ट्स (Groups of Sociological Facts), भाग 1-8, स्पेंसर द्वारा वर्गीकृत एवं क्रमबद्ध, डेविड डंकन, रिचर्ड शेपिंग और जेम्स कॉलियर द्वारा संकतिल व संक्षेपित (लंदन, विलियम्स व नॉर्गेट, 1873-1881).
निबंध संग्रह:
- इलस्ट्रेशन्स ऑफ यूनिवर्सल प्रोग्रेस: अ सीरिज़ ऑफ डिस्कशन्स (Illustrations of Universal Progress: A Series of Discussions) (1864, 1883)
- द मैन वर्सेस द स्टेट (The Man Versus the State) (1884)
- एसेज़: साइंटिफिक, पॉलिटिकल, एंड स्पेक्युलेटिव (Essays: Scientific, Political, and Speculative) (1891), तीन खंडों में:
- खंड एक (इसमें "द डेवलपमेंट हाइपोथिसिस [The Development Hypothesis]," "प्रोग्रेस: इट्स लॉ एंड कॉज़ [Progress: Its Law and Cause]," "द फैक्टर्स ऑफ ऑर्गेनिक इवॉल्यूशन [The Factors of Organic Evolution]" व अन्य सम्मिलित हैं)
- खंड दो (इसमें "द क्लासिफिकेशन ऑफ द साइंसेज़ [The Classification of the Sciences]", द फिलोसॉफी ऑफ स्टाइल [The Philosophy of Style] (1852), द ओरिजिन एंड फंक्शन ऑफ म्यूज़िक [The Origin and Function of Music]," "द फिज़ियोलॉजी ऑफ लाफ्टर [The Physiology of Laughter]," व अन्य सम्मिलित हैं)
- खंड तीन (इसमें "द एथिक्स ऑफ कांट [The Ethics of Kant]", "स्टेट टैम्परिंग्स विथ मनी एंड बैंक्स [State Tamperings With Money and Banks"], "स्पेशलाइज़्ड एडमिनिस्ट्रेशन [Specialized Administration]", "फ्रॉम फ्रीडम टू बॉन्डेज [From Freedom to Bondage]", "द अमेरिकन्स [The Americans]", व अन्य सम्मिलित हैं)
- वेरियस फ्रैग्मेंट्स (Various Fragments) (1897, अभिवर्धित 1900)
- फैक्ट्स एंड कमेंट्स (Facts and Comments) (1902)
दार्शनिकों द्वारा की गईं समीक्षाएं
- जोसिया रॉयसी द्वारा हरबर्ट स्पेंसर: एन एस्टीमेट एंड रीव्यू (Herbert Spencer: An Estimate and Review) (1904)
- हेनरी सिजविक द्वारा लेक्चर्स ऑन द एथिक्स ऑफ टी.एच.ग्रीन, मिस्टर हरबर्ट स्पेंसर, एंड जे. मार्टिन्यू (Lectures on the Ethics of T.H. Green, Mr. Herbert Spencer, and J. Martineau) (1902)
- लेस्टर एफ. वार्ड द्वारा स्पेंसर-स्मैशिंग ऐट वॉशिंगटन (Spencer-smashing at Washington) (1894)
- हेनरी जॉर्ज द्वारा अ पर्प्लेक्स्ड फिलासॉफर (A Perplexed Philosopher) (1892)
- पॉल लाफार्गे द्वारा अ फ्यू वर्ड्स विथ मिस्टर हरबर्ट स्पेंसर (A Few Words with Mr Herbert Spencer) (1884)
- विलियम जेम्स द्वारा रिमार्क्स ऑन स्पेंसर्स डेफीनिशन ऑफ माइंड ऐज़ करसपॉन्डेंस (Remarks on Spencer's Definition of Mind as Correspondence) (1878)
इन्हें भी देखें
- औबेरोन हरबर्ट
- शास्त्रीय उदारतावाद
- सांस्कृतिक विकास
- युजनिक्स
- उदारतावाद
- उदार सिद्धांत को योगदान
- लिबरटैरियानिस्म
- "मोल्ड ऑफ़ द अर्थ" (बोल्सलॉ प्रूस द्वारा एक कहानी, स्पेंसर के धारणा से प्रेरित)
- फिरौन (बोल्सलॉ प्रूस द्वारा एक उपन्यास, स्पेंसर के धारणा से आंशिक रूप से प्रेरित)
- साइंटिज़्म और पॉसिटिविज़्म
नोट्स
सन्दर्भ
- कैमिरो, रॉबर्ट एल. और पेरिन, रॉबर्ट जी. "हरबर्ट स्पेंसर के 'समाजशास्त्र का सिद्धांत:' एक सौ साल का सिंहावलोकन और मूल्यांकन." एनल्स ऑफ़ साइंस 2002 59(3): 221-261 एब्स्को में ऑनलाइन
- डंकन, डेविड. द लाइफ एंड लेटर्स ऑफ़ हरबर्ट स्पेंसर (1908) ऑनलाइन संस्करण स्क्रिप्ट त्रुटि: "webarchive" ऐसा कोई मॉड्यूल नहीं है।
- इलियट, ह्यूग. हरबर्ट स्पेंसर. लंदन: कांस्टेबल और कंपनी, लिमिटेड, 1917
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स्पेंसर द्वारा
- स्पेंसर, हरबर्ट. जॉन ऑफर (1993) द्वारा स्पेंसर: राजनीतिक लेखन (राजनीतिक विचार के इतिहास में कैम्ब्रिज ग्रंथ) एक्सर्पट एंड टेक्स्ट सर्च स्क्रिप्ट त्रुटि: "webarchive" ऐसा कोई मॉड्यूल नहीं है।
- स्पेन्सर, हरबर्ट. सोशल स्टैटिक्स: द मैन वर्सेस द स्टेट
- स्पेन्सर, हरबर्ट.' समाजशास्त्र का अध्ययन एक्सर्पट एंड टेक्स्ट सर्च स्क्रिप्ट त्रुटि: "webarchive" ऐसा कोई मॉड्यूल नहीं है।; फुल टेक्स्ट ऑनलाइन फ्री स्क्रिप्ट त्रुटि: "webarchive" ऐसा कोई मॉड्यूल नहीं है।
- स्पेन्सर, हरबर्ट. मनोविज्ञान के सिद्धांत एक्सर्पट एंड टेक्स्ट सर्च स्क्रिप्ट त्रुटि: "webarchive" ऐसा कोई मॉड्यूल नहीं है।; फुल टेक्स्ट ऑनलाइन स्क्रिप्ट त्रुटि: "webarchive" ऐसा कोई मॉड्यूल नहीं है।
- स्पेन्सर, हरबर्ट. सोशल स्टैटिक्स, एब्रिज एंड रिवाइस्ड: टुगेदर विद द मैन वर्सेस द स्टेट (1896), लिबर्टेरियंस के बीच अत्यधिक प्रभावशाली फुल टेक्स्ट ऑनलाइन फ्री स्क्रिप्ट त्रुटि: "webarchive" ऐसा कोई मॉड्यूल नहीं है।
- स्पेन्सर, हरबर्ट. शिक्षा: बौद्धिक, नैतिक और शारीरिक (1891) 283 पीपी फुल टेक्स्ट ऑनलाइन स्क्रिप्ट त्रुटि: "webarchive" ऐसा कोई मॉड्यूल नहीं है।
- स्पेन्सर, हरबर्ट. एक आत्मकथा (1905, खंड 2) फुल टेक्स्ट ऑनलाइन स्क्रिप्ट त्रुटि: "webarchive" ऐसा कोई मॉड्यूल नहीं है।
- स्पेन्सर की ऑनलाइन लेखन
बाहरी कड़ियाँ
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- साँचा:sep entry
- विलियम स्वीट द्वारा दार्शनिक के इंटरनेट विश्वकोश में हरबर्ट स्पेंसर का प्रवेश
- हरबर्ट स्पेंसर के अध्ययन के लिए समीक्षा सामग्री
- स्क्रिप्ट त्रुटि: "template wrapper" ऐसा कोई मॉड्यूल नहीं है।
स्रोत
- ऑनलाइन लाइब्रेरी ऑफ़ लिबर्टी में स्पेंसर हरबर्ट द्वारा कार्य (एचटीएमएल (HTML), प्रतिकृति पीडीएफ (PDF), रीडिंग पीडीएफ (PDF))
- इंटरनेट पुरालेख में हरबर्ट स्पेंसर के द्वारा और बारे में कार्य (स्कैन्ड बुक्स ऑरिजनल एडिशंस कलर इलस्ट्रेटेड)
- साँचा:gutenberg author (प्लेन टेक्स्ट और एचटीएमएल (HTML))
- साँचा:worldcat id
- ऑन मोरल एजुकेशन , Left and Right: A Journal of Libertarian Thought में पुनःप्रकाशित (स्प्रिंग 1966)
- फर्स्ट प्रिंसिपल्स स्क्रिप्ट त्रुटि: "webarchive" ऐसा कोई मॉड्यूल नहीं है। इलेक्ट्रॉनिक टेक्स्ट सेंटर, वर्जीनिया पुस्तकालय के विश्वविद्यालय.
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- ↑ फ्रांसिस (2007) देखें
- ↑ प्लेखानोव, जॉर्जी वैलेंटिनोविच (1912), ट्रांस. अवेलिंग, एलेअनोर मार्क्स. अराजकतावाद और समाजवाद, पृष्ठ 143. शिकागो: चार्ल्स एच. एंड केर कंपनी. (यहां देखें स्क्रिप्ट त्रुटि: "webarchive" ऐसा कोई मॉड्यूल नहीं है।)
- ↑ श्वार्ट्ज, बेंजामिन इन सर्च ऑफ़ वेल्थ एंड पॉवर (द बेल्कनैप प्रेस ऑफ़ हॉर्वर्ड यूनिवर्सिटी प्रेस, कैम्ब्रिज मैसाचुसेट्स, 1964).
- ↑ पाइल, केनेथ द न्यू जेनरेशन इन मीजी जापान (स्टैनफोर्ड यूनिवर्सिटी प्रेस, स्टैनफोर्ड, कैलिफोर्निया, 1969)
- ↑ द लाइफ एंड लेटर्स ऑफ़ हर्बट स्पेंसर सं. में कनेको केंटारो को स्पेंसर, 26 अगस्त 1892 डेविड डंकन, 1908 पृष्ठ 296
- ↑ स्क्रिप्ट त्रुटि: "citation/CS1" ऐसा कोई मॉड्यूल नहीं है।
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