अज्ञेयवाद
अज्ञेयवाद (एग्नॉस्टिसिज़्म / English: Agnosticism) ज्ञान मीमांसा का विषय है, यद्यपि उसका कई पद्धतियों में तत्व दर्शन से भी संबंध जोड़ दिया गया है। इस सिद्धांत की मान्यता है कि जहाँ विश्व की कुछ वस्तुओं का निश्चयात्मक ज्ञान संभव है, वहाँ कुछ ऐसे तत्व या पदार्थ भी हैं जो अज्ञेय हैं, अर्थात् जिनका निश्चयात्मक ज्ञान संभव नहीं है। अज्ञेयवाद, संदेहवाद से भिन्न है; संदेहवाद या संशयवाद के अनुसार विश्व के किसी भी पदार्थ का निश्चयात्मक ज्ञान संभव नहीं है।
भारतीय दर्शन के संभवतः किसी भी संप्रदाय को अज्ञेयवादी नहीं कहा जा सकता। वस्तुतः भारत में कभी भी संदेहवाद एवं अज्ञेयवाद का व्यवस्थित प्रतिपादन नहीं हुआ। नैयायिक सर्वज्ञेयवादी हैं और नागार्जुन तथा श्रीहर्ष जेसे मुक्तिवादी भी पारिश्रमिक अर्थ में संशयवादी अथवा अज्ञेयवादी नहीं कहे जा सकते।
एग्नास्टिसिज्म शब्द का सर्वप्रथम आविष्कार और प्रयोग सन् 1870 में टॉमस हेनरी हक्सले (1825-1895) द्वारा हुआ। अंग्रेजी जीवविज्ञानी थॉमस हेनरी हक्सले ने 1869 में "अज्ञेय" शब्द का उच्चारण किया था। पहले के विचारकों ने हालांकि लिखा था कि 5 वीं शताब्दी ई.पू. में संजय बेलाथथापुत्त जैसे अज्ञानी विचारों को बढ़ावा देने वाले कार्यों को बढ़ावा दिया गया था। भारतीय दार्शनिक जिन्होंने किसी भी जीवित जीवन के बारे में अज्ञेयवाद को व्यक्त किया था; और प्रोटगोरस, एक 5 वीं शताब्दी ईसा पूर्व, ग्रीक दार्शनिक जिन्होंने "देवताओं" के अस्तित्व के बारे में अज्ञेयवाद को व्यक्त किया। ऋग्वेद में नासदीय सूक्तः ब्रह्मांड की उत्पत्ति के बारे में अज्ञेयवादी है।
परिचय
यूरोपीय दर्शन में जहाँ संशयवाद का जन्म यूनान में ही हो चुका था, वहाँ अज्ञेयवाद आधुनिक युग की विशेषता है। अज्ञेयवादियों में पहला नाम जर्मन दार्शनिक कांट (1724-1804) का है। कांट की मान्यता है कि जहाँ व्यवहार जगत् (फिनामिनल वर्ल्ड) बुद्धि या प्रज्ञा की धारणाओं (कैटेगीरीज ऑव अंडरस्टैंडिंग) द्वारा निर्धार्य, अतएव ज्ञेय नहीं है। तत्व दर्शन द्वारा अतींद्रिय पदार्थों का ज्ञान संभव नहीं है। फ्रेंच विचारक कास्ट (1798-1857) का भी, जिसने भाववाद (पाजिटिविज्म) का प्रवर्तन किया, यह मत है कि मानव ज्ञान का विषय केवल गोचर जगत् है, अतींद्रिय पदार्थ नहीं। सर विलियम हैमिल्टन (1788-1856) तथा उनके शिष्य हेनरी लांग्यविल मैंसेल (1820-1871) का मत है कि हम केवल सकारण अर्थात् कारणों द्वारा उत्पादित अथवा सीमित एवं सापेक्ष पदार्थों को ही जान सकते हैं, असीम, निरपेक्ष एवं कारणहीन (अन्कंडिशंड) तत्वों को नहीं। तात्पर्य यह कि हमारा ज्ञान सापेक्ष है, मानवीय अनुभव द्वारा सीमित है और इसीलिए निरपेक्ष असीम को पकड़ने में असमर्थ है। ऐसा ही मंतव्य हर्बर्ट स्पेंसर (1820-1903) ने भी प्रतिपादित किया है। सब प्रकार का ज्ञान संबंधमूलक अथवा सापेक्ष होता है; ज्ञान का विषय भी संबंधों वाली वस्तुएँ हैं। किसी पदार्थ को जानने का अर्थ है उसे दूसरी वस्तुओं से तथा अपने से संबंधित करना, अथवा उन स्थितियों का निर्देश करना जो उसमें परिवर्तन पैदा करती है। ज्ञान सीमित वस्तुओं का ही हो सकता है। चूँकि असीम तत्व संबंधहीन एवं निरपेक्ष है, इसलिए वह अज्ञेय है। तथापि स्पेंसर का एक ऐसी असीम शक्ति में विश्वास है जो गोचर जगत् को हमारे सामने उत्क्षिप्त करती है। सीमा की चेतना ही असीम की सत्ता का प्रमाण है। यद्यपि स्पेंसर असीम तत्व को अज्ञेय घोषित करता है, फिर भी उसे उसकी सत्ता में कोई संदेह नहीं है। वह यहाँ तक कहता है कि बाह्य वस्तुओं के रूप में कोई अज्ञात सत्ता हमारे सम्मुख अपनी शक्ति की अभिव्यंजना कर रही है।
इन्हें भी देखें
सन्दर्भ
बाहरी कड़ियाँ
- Discussion Agnosticism
- What Is An Agnostic? by Bertrand Russell, [1953].
- Why I am Not a Christian by Bertrand Russell (March 6, 1927)।
- Why I Am An Agnostic by Robert G. Ingersoll, [1896].
- Dictionary of the History of Ideas: Agnosticism
- Stanford Encyclopedia of Philosophy entry
- Agnosticism from INTERS - Interdisciplinary Encyclopedia of Religion and Science
- Agnosticism - from ReligiousTolerance.org
- What do Agnostics Believe? - A Jewish perspective
- – the relationship between faith and reason Karol Wojtyla [1998]
- For a utilitarian analysis of religion, see The (F)Utility of Religion: Who Needs God(s)?–A Prospective Bible for Non-Believers at https://web.archive.org/web/20080807154403/http://bradmusil.kramernet.org/