एझावा
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कुल जनसंख्या | |
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7,300,000 (22.91% of Malayali population)साँचा:category handler[<span title="स्क्रिप्ट त्रुटि: "string" ऐसा कोई मॉड्यूल नहीं है।">citation needed] | |
विशेष निवासक्षेत्र | |
भाषाएँ | |
Malayalam | |
धर्म | |
Hinduism | |
सम्बन्धित सजातीय समूह | |
Villavar, Billava, Nadar साँचा:main other |
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ईळवा (साँचा:lang-ml) केरल के हिन्दू समुदायों के बीच में सबसे बड़ा समूह है। उन्हें प्राचीन तमिल चेर राजवंश के विलावर संस्थापकों का वंशज माना जाता है, जिनका कभी दक्षिण भारत के कुछ हिस्सों पर शासन हुआ करता था। मालाबार में उन्हें थिय्या कहा जाता है, जबकि तुलु नाडू में वे बिल्लवा नाम से जाने जाते हैं। उन्हें पहले 'ईलवर' नाम से जाना जाता था। वे आयुर्वेद के वैद्य, योद्धा, कलारी प्रशिक्षणकर्ता, सैनिक, किसान, खेत मजदूर, सिद्ध चिकित्सक और व्यापारी हुआ करते थे। कुछ लोग कपड़ा बनाने, शराब के व्यापार और ताड़ी निकालने के कामों में भी शामिल थे। इझाथु मन्नानर जैसे एझावा (थिय्या) राजवंशों का भी केरल में अस्तित्व है।[१][२][३][४] इस समुदाय के अंतर्गत का योद्धा वर्ग[५][६] चेकावरस्थानीय सरदारों और राजाओं की सेना का एक अंग हुआ करता था। उनके लोग प्रसिद्ध कलारी पयट्टू विशेषज्ञ भी थे।[७][८] उत्तरी केरल के इस समुदाय के सदस्यों के बीच सर्कस एक विशेष आकर्षण रखता है और भारत के अनेक प्रसिद्ध कलाबाज़ इस समुदाय से आते हैं।
उत्पत्ति के सिद्धांत
इतिहासकारों का मानना है कि केरल के एझावा विल्लावर जनजाति के सैनिक थे, जिन्होंने चेर साम्राज्य की स्थापना की। त्रावणकोर के विल्लावारों को 'इलावर' (अब एझावा से ज्ञात) नाम से जाना जाता था। इलावर शब्द विल्लावर से व्युत्पन्न है, जिसका मतलब तीरंदाज होता है, जो उन द्रविड़ों की योद्धा जाति थी जिनका शासन अधिकांश दक्षिण भारत पर था।[९][१०][११]
इतिहासकार सी.वी.कुंजुरमण के अनुसार, बौद्ध एझावा के सित्तन और अरत्तन नामक दो देवता, दरअसल बौद्ध धर्म के बौद्ध सिधन तथा अर्हतन हैं। कुछ अन्य लोगों का कहना है कि एझावा देवता अरत्तन खुद भगवान बुद्ध हैं।[१२] द त्रावणकोर स्टेट मैनुअल के लेखक टी. के. वेलुपिल्लई का मानना है कि केरल में बौद्ध प्रभाव के दौरान, तुलु ब्राह्मणों के आगमन से पहले, "एझावा लोग काफी समृद्ध और प्रभुताशाली थे" (द्वितीय, 845). हालांकि, उन्होंने यह भी कहा कि इसकी कोई संभावना नहीं है कि एझावा श्रीलंका से आये और केरल में फ़ैल गए; इसके बजाय वे मुंडा-द्रविड़ आप्रवासियों की मुख्यधारा के लोग थे, अपने राजनीतिक शत्रुओं के उत्पीड़न से बचने के लिए जिन्होंने पांचवीं, छठी और सातवीं सदी में तमिलनाडु छोड़ दिया था।[१३]
महाकवि कुमारानासन, जिनके नलिनी, लीला, करुणा और चांडाल भिक्षुकी जैसे लेखनों में बौद्ध आदर्शों की स्तुति की गयी है, ने उस समय अपने छंदों में सिंहलियों या श्रीलंका के निवासियों के पूर्व गौरव पर शोक प्रकट किया है, जिन्हें वे मौजूदा एझावा लोगों के पूर्वज मानते थे।[१४]
इस बौद्ध परंपरा और इसे छोड़ने से उनके इंकार के कारण वृहद ब्राह्मणवादी समाज में एझावाओं को जाति बहिष्कृत कर दिया गया।[१५][१६] फिर भी, यह परंपरा अब भी स्पष्टतः जारी है क्योंकि एझावा आध्यात्मिकता के बजाय धर्म के नैतिक, गैर-कर्मकांडी और गैर-रुढ़िवादी पहलुओं में बहुत अधिक दिलचस्पी लिया करते हैं।[१५]
आनुवंशिक अध्ययन बताते हैं कि एक द्वि-आयामी क्षेत्र में एझावाओं का (तदनुरूप विश्लेषण एचएलए-ए (HLA-A), -बी और -सी आवृत्तियों पर आधारित है), एक ही भूखंड में मंगोल आबादी की निकटता के कारण, युग्मविकल्पी वितरण का कहीं मजबूत यूरेशियाई तत्व है।[१७]
सबसे व्यापक रूप से स्वीकार किया जाने वाला सिद्धांत यह है कि एझावाओं और थियाओं की प्रथाएं और मान्यताएं बहुत अधिक प्राचीन हैं तथा प्राचीन तमिल संगम- पूर्व दिनों के लगभग अंधकारपूर्ण दिनों में उनका मूल पाया जाता है। उनकी तमिल पृष्ठभूमि ने उन्हें भगवान मुरुगा (सुब्रमण्य) और देवी काली तथा चथन, चिथन और अरथन जैसे अनेक अन्य ग्रामीण देवी-देवता दिए। यद्यपि इसके पर्याप्त सबूत नहीं हैं कि एझावा उत्तरी श्रीलंका से आये हैं, लेकिन ईसा पूर्व पहली सदियों में श्रीलंका में उनके अस्तित्व (एझाम/एलाम) के सिद्धांत को नजरअंदाज नहीं किया जा सकता है।
व्युत्पत्ति और प्रारंभिक संदर्भ
इतिहासकारों का कहना है कि इलावर शब्द विल्लावर से व्युत्पन्न है जिसका मतलब हुआ तीरंदाज जो उन द्रविड़ लोगों के बीच की योद्धा जाति थी, जिनका शासन भारत के अधिकांश हिस्से में हुआ करता था। उन्हें केरल में एझिनार के नाम से भी जाना जाता है, जो सुनने में 'एझावा' (एझावार भी कहा जाता है) जैसा लगता है।
कुछ लोगों द्वारा यह भी माना जाता है कि एझावा शब्द एझाम/इलम से व्युत्पन्न है। माना जाता है कि ये शब्द भाषायी या सामाजिक-भाषायी रूप से एलु/हेला/सीहाला/सिम्हाला/सिंहाला/सलाई/सीलादिबा/सेरेनदीब जैसे शब्द समूह से सम्बंधित हैं, जो श्रीलंका द्वीप की ओर इशारा करते हैं। वे सभी मुख्यतः एक द्वीप या श्रीलंका की भौगोलिक पहचान कराते हैं। लेकिन मूल शब्द, इसकी व्युत्पत्ति, इसका अर्थ और कैसे यह मूल शब्द इस द्वीप का नाम बन गया, इस पर चर्चा जारी होने के बावजूद इसे अब तक जाना नहीं जा सका है।
विल्लावर के वंशज
एझावा चेर राजवंश के संस्थापक विल्लावारों के वंशज हैं। 'इलावर' (एझावा/एझावर) शब्द विल्लावर से व्युत्पन्न है। त्रावणकोर के विल्लावरों को 'इलावर' (अब एझावा नाम से) नाम से जाना जाता था। विल्लावरों को चेर (अभी केरल में) और तमिल देशों में क्रमशः एझिनार या एयिनार नामसे भी जाना जाता था। 'एझिनार' शब्द सुनने में बड़े हद तक 'एझावा' जैसा लगता है, जिन्हें 'एझावर' भी कहा जाता है। विल्लावर का अर्थ होता है तीरंदाज. वे उन द्रविड़ों के बीच के योद्धा थे, जो प्राचीन काल में अपने सहयोगी मीनावरों (मछुआरों) के साथ भारत के अधिकांश भाग में शासन किया करते थे। (आद्य द्रविड़ शब्द विल्लू का अर्थ है धनुष) विल्लावरों ने चेर साम्राज्य की स्थापना की थी और चेरराजा को विलावर राजा कहा जाता था। चेर साम्राज्य की स्थापना करने वाले केरल की विल्लावर जाति को विलावर कहा जाता है।[९][१०][११]
विल्लावर की एक उपजाति है बिल्लव. कर्नाटक में रहनेवाले बिल्लव भी एझावा की ही तरह श्री नारायण गुरु के अनुयायी थे। नस्लीय रूप से बिल्लव भी केरल के एझावा समुदाय जैसे ही हैं। बिल्लव पहले मार्शल आर्ट्स, ताड़ी निकालने, आयुर्वेद और शराब के व्यापार में संलग्न थे। बिल्लवों के मार्शल आर्ट्स केन्द्रों को गरडी नाम से जाना जाता है। केरल के इलावा (अब एझावा नाम से ज्ञात) के कुछ कलारी अभ्यासों की ही तरह इस गरडी की मुख्य गतिविधियों में पढना, लिखना और तीर-धनुष तथा मार्शल आर्ट्स सिखाना शामिल हैं। दक्षिण कनारा जिले में बिल्लवों के ऐसे भी समूह हैं जिन्हें थिय्याबिल्लास या मलाय्लाली बिल्लव कहा जाता है, जिन्हें मलयाली समुदाय का हिस्सा माना जाता है।
श्रीलंका को संदर्भित करता ईझाम शब्द
श्रीलंका के इलावा, जिनसे ईलाम या हेलादिपा का नाम पड़ा, विल्लावरों और एझावाओं के रिश्तेदार हैं। मलयालम/तमिल पुस्तकों/आलेखों में इन दिनों ईझाम शब्द का प्रयोग श्रीलंका के पूरे द्वीप की भौगोलिक पहचान के लिए होता है। इस शब्द का सबसे पहला प्रयोग तमिल ब्राह्मी शिलालेख और संगम साहित्य में भी पाया जाता है, दोनों ही बातें ईसाई युग की शुरुआत से जरा पहले के समय की हैं। तमिलनाडु के मथुरई के करीब तमिल में लिखित थिरुप्परंग-कुनरम शिलालेख पाया गया, पैलियोग्राफी के आधार पर जो ईसा पूर्व पहली सदी का है, जिसमें ईझम (ईझा-कुदुम्पिकन) के गृहस्थ के रूप में एक व्यक्ति का उल्लेख है।
विलियम लोगान (मालाबार मैनुअल) के अनुसार एझावा शब्द सिम्हाला (सिम्हाला, सिहाला, इहाला) से व्युत्पन्न है।[१]
स्वर्ण से संबंधित एझावा शब्द
ई.सं. आठवीं सदी के तमिल और मलयालम शब्दकोशों (निखंडू), थिवाकरम, पिंग्कलम और चूडामणि में ईझाम शब्द को स्वर्ण के बराबर रखा गया है। इझा कासु और इझाक्कारुंग कासु त्रावणकोर मथुराई, मालाबार आदि के मध्यकालीन अभिलेखों में सिक्कों के उल्लेख हैं।[१८][१९]
गार्ड या चौकीदार या सैनिक के रूप में इलावन का उल्लेख
एक तमिल शब्दकोश के अनुसार, इलावन एक गार्ड या चौकीदार या सशस्त्र सैनिक को कहा जाता था, जो तलवार या लाठी या फरसा जैसे हथियार के साथ राजा के महल की ड्योढ़ी पर तैनात रहा करता था। यह दिलचस्प बात है कि मलयालम क्षेत्र के सभी महत्वपूर्ण राजाओं के सशस्त्र बलों में एझावा रहे हैं, जैसे कि कालीकट के ज़मोरिन और त्रावणकोर तथा कोचीन के राजाओं के यहां.[२०][२१][२२]
ताड़ी के लिए इला शब्द
इस शब्द का उपयोग, एक विशेषण की तरह (शायद इझा का सजातीय), पल्लव काल से तमिल अभिलेखों में किया जाता रहा है, जिनमें इला का संबंध ताड़ी से भी है; उदाहरण के लिए ताड़ी निकालने वालों के घर (इलाचेरी), ताड़ी निकालने के कर (इलापुड्ची), ताड़ी निकालने वाला वर्ग (इलावन-चानरान या चन्नान), आदि। [१८][१९]
शिलालेखों में इसी प्रकार के शब्द
एझावा शब्द का पहला उल्लेख मदुरै के करीब ईसा पूर्व तीसरी सदी के अरित्तापत्ति शिलालेखों में पाया गया, जिसमें कहा गया है 'नेल्वेली के प्रमुख ईलावा पेरूमल की वजह से यह शुभ गुफा की नक्काशी हुई'. ईसा पूर्व तीसरी सदी के प्रसिद्ध किलावलावु जैन गुफा के शिलालेख में वहां बौद्ध मठ बनाने वाले एक एझावन का उल्लेख है। अलाकर्मालाई के पास पाए गये ईसा पूर्व दूसरी शताब्दी के एक अन्य शिलालेख में एक एझावा व्यापारी 'एझाथु थीवन अठन' का जिक्र है।[१८][१९][२३]
पौराणिक कथा
एक किंवदंती के अनुसार, आली नामक एक पंड्या राजकुमारी ने कर्नाटिक के राजा नरसिंह से शादी की। शाही जोड़ा सीलोन चला गया और वहां शासक के रूप में बस गया। हालांकि विलुप्त होने के खतरे को देख उनके रिश्तेदार और अनुयायी मुख्य भूमि को लौट गए। कहा जाता है कि वे एझावओं के पूर्वज थे। इस सिद्धांत के समर्थन में, यह कहा जाता है कि, दक्षिण त्रावणकोर में, एझावाओं को मुदलियार के नाम से जाता है, जो कि जाफना के वेल्लालों के एक प्रभाग का भी उपनाम है; यह कि वट्टी और मन्नान उन्हें मुदलियार कहते हैं; और यह कि पुलाया को सिर्फ मुथा तम्पुरण के नाम से जाना जाता रहा था। लेकिन यह भली-भांति माना जा सकता है कि राज्य की सराहनीय सेवाओं के लिए यह खिताब जाति के एझावा परिवारों को प्रदान किया गया था।[२४]
एक अन्य पौराणिक कथा और कुछ मलयालम लोक गीतों के अनुसार, पहली सदी ईसवी में चेर राजा भास्कर रवि वर्मा के अनुरोध पर श्रीलंका के राजा द्वारा केरल भेजे गये चार अविवाहित पुरुषों की संतान हैं एझावा. जाहिरा तौर पर, इन लोगों को केरल में नारियल की खेती को व्यवस्थित करने के लिए भेजा गया था। कहानी के दूसरे वर्णन में कहा गया है कि केरल में अपने खिलाफ शुरू हुए गृह युद्ध को दबाने के लिए चेर राजा के अनुरोध पर श्रीलंकाई राजा ने मार्शल आर्ट्स के आठ परिवारों को केरल भेजा.[२५][२६][२७]
अतीत के व्यवसाय
एझावा प्रसिद्ध योद्धा, कलारी प्रशिक्षक और व्यापारी थे। केरल में उच्च जाति का दबदबा कायम होने के बाद भी कुछ एझावा धनी बने रहे और कुछ अन्य ने मार्शल आर्ट्स के विभिन्न क्षेत्रों (कलारिपयाट्टू, मर्म कलारी, आदि) में महारत हासिल की। दूसरों ने ताड़ी निकालने, शराब बनाने आदि काम शुरू किये। इनके अलावा, शराब बेचने, पारंपरिक विष चिकित्सा विद्या, शराब भट्ठी, ताड़ी की चुलाई, मछली पकड़ने के जाल बनाने आदि के क्षेत्रों में भी इन्होने प्रवेश किया।[२१][२२][२८]
मार्शल परंपराएं
लोकगीत और लिखित रिकॉर्ड दर्शाते हैं कि एझावा योद्धा वर्ग के भी थे।[२१][२२][२८] लगभग 400 साल पहले रचित वदक्कन पत्तुकल नामक एझावा लोक गीत में एझावा वीरों के सैनिक पराक्रम के वर्णन हैं। क्षेत्र के सभी महत्वपूर्ण राजाओं की सशस्र सेना में एझावा हुआ करते थे, जैसे कि कालीकट के ज़मोरिन और त्रावणकोर तथा कोचीन के राजाओं की सेना में.[२०][२१][२२] कोचीन और त्रावणकोर के महलों में अनेक को गार्ड या प्रहरी के रूप में नियुक्त किया गया था।[२९] अनेक लोग मार्शल आर्ट कलारिपयाट्टू के प्रशिक्षक थे।[३०] जे हेनिगेर के होर्टस मालाबरिकस के अनुसार एझावा (वैसे उन्हें सिल्गोस कहा गया है) पेड़ों पर चढ़ने वाले लोग थे, इसके अलावा युद्ध और हथियारों से भी जुड़े रहे थे। अनेक एझावा कई कलारिपयाट्टू के विशेषज्ञ थे और नायरों को कलारी (तलवारबाजी विद्या) भी सिखाया करते थे।[३०] माना जाता है कि दक्षिण भारतीय हिंदू भगवान, भगवान अय्यप्प चीराप्पंचिरा परिवार की एझावा कलारी में प्रशिक्षित थे। कुलाथूर के एझावा थेरावद कलारी पणिक्कर प्रसिद्ध एत्तुवीटिल पिलामारों के प्रशिक्षक थे और उनके वंशज तिरुवनंतपुरम के थोझुवानकोड के चामुंडी देवी (कलारी देवी) मन्दिर के प्रबन्धन में लगे हुए हैं।[२१][२२][२८] हिंदू नेताओं द्वारा अपनी निजी सेना रखने की अनुमति देने के बाद सीरियाई ईसाईयों ने इस परंपरा के भाग के रूप में एझावा लोगों की भर्ती की। [३१] उन्नियर्चा और अरोमल चेकावर जैसे प्रसिद्ध योद्धा एझावा थे।
चेकावर
इस समुदाय के योद्धाओं को चेकावर/चेकावन/चेवाकन/चेकोन कहा जाता था।[५] वदक्कन पत्तुकल ने स्थानीय सरदारों और राजाओं की सेना का गठन करने वाले चेकोरों की प्रतिभा का वर्णन किया है। कलारी पयट्टू के विशेषज्ञों को भी यह खिताब दिया गया था। एलाम्कुलम पी.एन. कुंजन पिल्लई के स्टडीज इन केरला हिस्ट्री साँचा:category handlerसाँचा:main otherसाँचा:main other[dead link] के अनुसार वे विलोरों या विलावारों या बिलावारों के वंशज थे, जो कि योद्धा और वीर थे। एक द्रविड़ योद्धा समुदाय मरवारों से उन्होंने प्रशिक्षण लिया था, जिन्होंने बाद में बौद्ध धर्म स्वीकार कर लिया था। विल्लू (तमिल और मलयालम में) या बिल्लू (तुलु में) का अर्थ होता है धनुष और यह चेर साम्राज्य का प्रतीक था। इस प्रकार, उनकी राय के अनुसार, चेर राजा वास्तव में विलावर थे। हालांकि, ब्राह्मणों के आगमन और वर्ण व्यवस्था की स्थापना के बाद वे पदावनत हुए. इसके बाद, उन्हें चेकावर या चेवाकर के रूप में मान्यता प्राप्त हुई। मध्ययुगीन मूल के बारे में मलयालम गाथागीतों के संग्रह वदक्कन पत्तुकल में चेकवा नायकों की गाथा प्रस्तुत की गयी है।[३२]
आयुर्वेदिक वैद्याचार्य
दरअसल अनेक बहुप्रशंसित एझावा आयुर्वेदिक विद्वान रहे हैं। 1675 में डच द्वारा प्रकाशित होर्टस इंडिकस मालाबरिकस नामक पहली मलयालम पुस्तक की प्रस्तावना में इत्ती अचुदन (वर्तमान अलप्पुझा जिला) के वैद्य कराप्पुरम कदक्काराप्पल्ली कोल्लाट्टू वीत्तिल के बारे में कहा गया है, समुदाय के ये प्रतिष्ठित वैद्य इस पुस्तक की मुख्य प्रेरणा थे और मौजूदा रूप में पेश इस पुस्तक का सम्पादन भी उन्होंने ही किया था। आयुर्वेद पर संस्कृत के प्रख्यात ग्रंथ अष्टांग हृदय का मलयालम में प्रारंभिक अनुवाद एक एझावा चिकित्सक कयिक्कारा गोविंदन वैद्यर ने किया था। त्रिशूर और कालीकट के क्रमशः कुझुप्पुल्ली और पोक्कांचेरी परिवार आयुर्वेद आचार्यों के पारंपरिक परिवार हैं। केरल में चोलायिल परिवार सबसे प्रसिद्ध और आदरणीय एझावा आयुर्वेदिक परिवारों में से एक है। कोल्लम के चवरकोड परिवार के एझावा चिकित्सक, 18वीं और 19वीं सदी के दौरान त्रावणकोर शाही परिवार के प्रमुख आयुर्वेदिक चिकित्सक थे। पाली भाषा से आयुर्वेद सीखने और साथ ही संस्कृत से आयुर्वेदिक ज्ञान प्राप्त करने वालों में वेंमनाक्कल परिवार के चिकित्सक पहले थे। हर्मन गुंडर को संस्कृत और आयुर्वेद के क्षेत्र में निर्देश देने वाले उराचेरिल गुरुक्कल तथा योगामृतम (अष्टवैद्यन द्वारा संस्कृत में आयुर्वेदिक ग्रंथ) की व्याख्या करने वाले उप्पोत कन्नन भी प्रसिद्ध एझावा आयुर्वेदिक विद्वान थे। केलिक्कोडन अय्यप्पन वैद्यर (कोट्टाक्कल) अग्रणी पारंपरिक आयुर्वेदिक चिकित्सकों में एक थे, जो मर्म चिकित्सा के एक प्रतिष्ठित व्यक्तित्व थे। चंद्रिका के संस्थापक प्रसिद्ध एझावा श्री सी. आर.केशवन वैद्यर को 1953 में कोझिकोड के ज़मोरिन के. सी. मनविक्रमण द्वारा वैद्यरत्नम की उपाधि प्रदान की गयी थी। 19वीं और 20वीं सदी में एझावा चिकित्सकों द्वारा अनेक आयुर्वेदिक अस्पतालों की स्थापना की गयी थी।[२१][२२][२८] समुदाय से अनेक लोग क्षेत्र के महत्वपूर्ण राजाओं के कोट्टरम वैद्यन (शाही चिकित्सक) थे।
परंपरागत विष विज्ञान
कई एझावा परिवार दशकों से विष चिकित्सा के चिकित्सक रहे हैं, वे सांपों, बिच्छुओं आदि के दंश से इलाज किया करते थे। इनमें से अनेक परिवारों ने अब इसे बंद कर दिया है।[३३]
खेती, नारियल व्यापार, ताड़ी दोहन और शराब बनाना
समुदाय के अन्य परंपरागत व्यवसायों में नारियल व्यापार, खेती जहाज बनाना, बुनाई आदि शामिल हैं। नाडी एझुवा या वादुवान (वादुकन) के नाम से जाने जाने वाले समुदाय का एक भाग ताड़ी निकालने के काम में लगा रहा था, जिसका उपयोग नशापान करने तथा आयुर्वेद दावा के रूप में भी किया जाता था। इन परिवारों को किझकुडी (निचली) जाति में रखा गया था। समुदाय के कुछ लोग शराब बनाने के काम में भी लगे हुए थे।[३४]
श्री नारायण गुरु द्वारा ताड़ी दोहन और मदिरा बनाने के खिलाफ प्रवचन देने के परिणामस्वरूप अनेक लोगों ने इन्हें बंद कर दिया। [३५][३६] हालांकि एझावाओं का एक हिस्सा अब भी ताड़ी निकालने और शराब बनाने के काम में हावी है।
संस्कृति
थेय्यम या कालियात्तम या थेय्यातोम
उत्तरी केरल में, थेय्यम एक लोकप्रिय रस्मी नृत्य है। इस विशेष नृत्य शैली को कालियात्तम के नाम से भी जाना जाता है। एझावाओं के मुख्य देवताओं में वयानात्तु कुलवन, कथिवंनुर वीरन, पूमरुथन, मुथप्पन शामिल हैं।[३७][३८]
अर्जुन नृत्यम या मायिलपीली ठूक्कम
"अर्जुन नृत्यम" (अर्जुन का नृत्य) या मायिलपीली ठूक्कम एझावा समुदाय के पुरुषों द्वारा प्रदर्शित की जानेवाली एक आनुष्ठानिक कला है और मुख्य रूप से दक्षिण केरल के कोल्लम, अलप्पुझा और कोट्टयम जिलों के भगवती मंदिरों में इसका प्रचलन है। अर्जुन नृत्यम को "मायिलपीली ठूक्कम" भी कहा जाता है, क्योंकि मायिलपीली (मोर पंख) जड़े विशेष किस्म के परिधान इसमें शामिल हैं। कथकली के "उदुथूकेत्तु" की तरह इसमें भी यह परिधान कमर में पहना जाता है। इसकी विभिन्न नृत्य गतिविधियां बहुत कुछ कलारिप्पयत्तु जैसी ही हैं। कलाकारों के चेहरे हरे रंग से रंगे होते हैं और उनके सिर पर विशिष्ट प्रकार की पगड़ी होती है। रात भर चलने वाले नृत्य प्रदर्शन आमतौर पर एकल या जोड़ों में हुआ करते हैं।[३९]
पूराक्कली
पूराक्कली एक लोक नृत्य है जो मालाबार के एझावाओं में प्रचलित है, आम तौर पर मीनम महीने (मार्च-अप्रैल) में एक अनुष्ठान के रूप में भगवती मंदिरों में इसका प्रदर्शन हुआ करता है। पूराक्कली में विशेष रूप से प्रशिक्षित और उच्च अनुभवी नर्तकों की आवश्यकता होती है, जो कलारिपयाट्टू में प्रशिक्षित होते हैं, शारीरिक व्यायाम की यह प्रणाली केरल में पहले प्रचलित थी। एक पारंपरिक दीपक के चारों ओर खड़े होकर, कलाकार अठारह विभिन्न चरणों में नृत्य किया करते हैं, प्रत्येक चरण को निरम कहा जाता है।[३७]
परिचामुत्तु काली
परिचामुत्तु काली एक सामरिक लोक-नृत्य है, जो अलाप्पुझा, कोल्लम, पथानमथीट्टा, कोट्टयम, एर्नाकुलम, पालघाट और मलप्पुरम के आसपास के एझावाओं के बीच प्रचलित है। ईसाइयों और कुछ अन्य हिन्दू समुदायों द्वारा भी इसे प्रदर्शित किया जाता है। तलवारबाजी और आत्मरक्षा का शारीरिक व्यायाम कलारिपयाट्टू जब केरल में प्रचलित था, उस जमाने में इसकी उत्पत्ति हुई थी। कलाकार अपने हाथों में तलवार और ढाल लेकर नृत्य किया करते हैं, इस दौरान वे तलवारबाजी की गतिविधियों का अनुसरण किया करते हैं; आगे बढ़ना, पीछे हटना और चारों ओर चक्कर लगाना, हर वक्त तलवार से वार करना और ढाल से बचाव करते हुए नृत्य करते रहते हैं।[३७]
मकाचुत्तु
मकाचुत्तु कला तिरुवनन्तपुरम और चिरयिन्किझु तालुका तथा किल्मानूर, पझायाकुंनुम्मल और थात्ताथुमाला के एझावाओं में लोकप्रिय है। इसमें आठ कलाकारों का एक समूह जोड़ी में दूसरी जोड़ियों के चारों ओर सांपों की तरह चक्कर लगाता हुआ उठता है और लाठियों से लड़ाई करता है। ये तकनीक कई बार दोहरायी जाती हैं। माथे पर चंदन का तिलक, सिर पर लिपटा हुआ एक लाल गमछा, कमर पर रेशम का पहनावा और एड़ियों से लिपटे घुंघरू इसकी वेशभूषा हैं। यह सांप की पूजा और कलारिप्पयाट्टू का एक संयोजन है।[३९][४०]
ऐवर कली
शब्दशः, ऐवरकली का मतलब पांच सेटों में प्रदर्शन करना होता है। केरल के सभी लगभग महत्वपूर्ण मंदिरों में एक कर्मकांडों कला लगभग प्रदर्शन फार्म का था। आजकल यह मध्य केरल में पाया जाता है। इसे पांडवरकली के नाम से भी जाना जाता है, जिसका अर्थ हुआ पांडवों (महाभारत के पांच नायक) का नृत्य. इसके अलावा असारी, मूसरी, करुवन, थत्तन और कलासरी समुदाय भी इसे किया करते हैं। यह कर्मकांडी नृत्य सजे हुए एक शामियाने में किया जाता है, जिसके बीच में एक निलाविलाक्कू होता है। आनुष्ठानिक स्नान के बाद माथे पर चन्दन का लेप लगाकर, सफ़ेद धोती पहनकर और सिर पर गमछा लपेटकर पांच या उससे अधिक कलाकार कलियाचन नामक अपने अगुआ के साथ प्रदर्शन क्षेत्र में प्रवेश करते हैं।[३७]
रीति-रिवाज
परिवार प्रणाली
साँचा:main साँचा:main एझावाओं के बीच तरवाडु पद्धति का चलन है, कुछ मलयाली समुदायों में संयुक्त परिवार की यह प्रणाली जारी है। मां के साथ उनके भाई और छोटी बहनें तथा उनके बच्चे परिवार में एक साथ रहा करते हैं। करानावर या मूप्पर नामक सबसे वयोवृद्ध पुरुष सदस्य और 'कर्नोथी' या 'मूपथी' नामक सबसे वृद्ध महिला गृहस्थी की मुखिया होती हैं और पारिवारिक संपत्ति की देखभाल करती हैं। प्रत्येक तरवाडु का एक खास नाम होता है। संयुक्त परिवारों के बढ़ने और स्वतंत्र रूप से अलग बसने के बावजूद शाखाओं के नाम इस तरह से रखे जाते हैं कि उससे मुख्य तरवाडु की पहचान बनी रहे। जबकि प्रत्येक शाखा (ताझावी या तय वाझी का अर्थ है मां के जरिये) का एक विशिष्ट नाम होता है।
त्रावणकोर और मालाबार के एझावाओं के तरवाडु के नाम उनकी माता के घर (तावाझी) के जरिये पहचाने जाते हैं, लेकिन कोचीन क्षेत्र (कन्नानूर तालुका को छोड़कर) के कुछ परिवार अपने पिता के तरवाडु के जरिये पहचाने जाते हैं। विरासत की प्रणाली मातृसत्तात्मक थी और उसे मरुमक्काथायम कहा जाता था, जिसकी जगह अब मक्काथायम या पितृसत्तात्मक विरासत ने ले ली है।
सर्प पूजा
सर्प पूजा (नागाराधना) पूरे केरलसाँचा:category handler[<span title="स्क्रिप्ट त्रुटि: "string" ऐसा कोई मॉड्यूल नहीं है।">citation needed] के अनेक एझावा परिवारों में प्रचलित थी, लेकिन उत्तरी मालाबार और तुलु नाडु के मलयाली और तुलु बिल्लावों के बीच बहुत आम थी। हरियाली से भरे एक पारंपरिक छोटे से जंगल (अधिकतर मानव निर्मित) "सर्प कवु" (अर्थात सर्प देवता का आवास) में पूजा के लिए सर्प देवता की मूर्तियां रखी जाती थीं। एझावाओं, बिल्लवों और इसी तरह के अन्य समुदायों के तरवाडु के परिसर के पूर्वी कोने को छोड़कर किसी भी कोने में ये पवित्र वन पाए जा सकते हैं, जबकि नायर जैसे अन्य समुदायों के वन दक्षिण-पश्चिम कोने में हुआ करते हैं।[४१][४२]
अन्य जातिसूचक नाम और उपनाम
एझावा आमतौर पर कोई विशिष्ट उपनाम का प्रयोग नहीं करते हैं। हालांकि, पणिक्कर, असान, चन्नार, वैद्यर, मुदलाली, चेकवर, चेकवन, चेकोन, वालियाचन, मानन्गाथ, अचान, चनात्ति, पनिक्कथी, चेकोथी, थानपत्ति, अम्मा, करनवार, कुट्टी, थंदन (ज्यादातर मालाबार में), थंडर जैसे व्यावसायिक उपनाम 20वीं सदी के प्रारभिक चरण तक बहुत आम हुआ करते थे। हालांकि दुर्लभ है लेकिन कुछ पणिक्कर के उपनाम पिल्लई भी होते थे, दक्षिण केरल के एझावाओं द्वारा अब भी थंडर का प्रयोग होता है। असान, वैद्यर, मुदलाली, वालियाचन, अचन, अम्मा जैसे उपनामों का प्रयोग केरल के अन्य अनेक हिन्दू तथा ईसाई समुदायों द्वारा भी किया जाता है। दक्षिण भारत के विभिन्न भागों में अपनी पहचान के लिए ज्यादातर एझावा/थिय्या द्वारा इनमें से अधिकांश उपनामों का इस्तेमाल होता है। केरल, तमिलनाडु और कर्नाटक में समुदाय के सदस्यों के सन्दर्भ में चेगो, एलावन, विल्लोन, बिल्लावन, विरुवन, मुथलियार, नाडर आदि का भी उपयोग हुआ करता था। इनमें से अधिकांश नाम जाति में निहित स्थानीयकरण के कारण पैदा हुए हैं। माना जाता है कि थिय्या या एझावा शब्द स्वतः ग्रहित नाम नहीं है, बल्कि जाति व्यवस्था में शामिल होने के बाद केरल के बौद्धों पर इसे थोप दिया गया था। एझावाओं के जाति इतिहास में एक अन्य नाम जो प्रासंगिक है वह है वरुण, जिसका वरुण के वैदिक चरित्र के साथ कोई संबंध नहीं है।
उपजातियां
दक्षिण केरल के एझावाओं के उप-प्रभाग थे कोल्लाक्कर या चान्नर एझावा, मलयालम एझावा (केरल के प्रारंभिक), नाडी एझावा, पचिली एझावा (जिन्होंने मछुआरा समुदाय में शादी की) और पुझाक्कर एझावा (मलयालम इझावा के घरेलू सेवक). चान्नर एझावा अन्य उप-जातियों से श्रेष्ठ होने का दावा करते हैं। मालाबार के एझावाओं की मुख्यतः तीन उप-जातियां थीं, चोने (चोवन), पंडी चोन (इझुवन) और वेलन कंडी चोन.[४३] दक्षिण मालाबार के थिय्या तीन उप-जातियों में बंटे थे, थिय्या चोन, वैश्य थिय्या (थेक्कन चोन) और पंडी चोन (इझुवन).
इल्लम और किरियम
एझावा के घर का नाम इल्लम (इलावर का घर) हुआ करता था, जो बाद में केरल के सिर्फ नम्बूदिरी घरों के लिए इसका उल्लेख किया जाने लगा। दक्षिण केरल में, एझावाओं के चार इल्लम थे, जबकि मालाबार में उनके आठ इल्लम और 32 किरियम थे। दक्षिण केरल में मूत्तिल्लम, कोझी इल्लम, माय्यानात्तु इल्लम और मदम्बी इल्लम नामक इल्लम थे। मालाबार में पुल्लांजी इल्लम, वरका इल्लम, नेल्लिक्का इल्लम, थेनान्कुदी इल्लम, कोझिक्कला इल्लम, थालाक्कोदन इल्लम आदि इल्लम थे। एक ही इल्लम में विवाह को निषिद्ध माना जाता था। केरल में अब इल्लम का अस्तित्व नहीं रहा। हालांकि, दक्षिण तमिलनाडु के इल्लाथु पिल्लैर और तुलुनाडू के मलयाली बिल्लव अब भी इन इल्लमों का उपयोग करते हैं।[४४] मालाबार के नेल्लिक्का परिवार धनी बने रहे और कुछ दूसरों ने आयुर्वेद, मार्शल आर्ट्स (कलारिपयाट्टू, मर्म कलारी, आदि), ज्योतिष, सिद्ध, मंत्रवादम, अध्यात्म, व्यापार आदि में महारत हासिल की थी। वे समाज के उच्च स्तर से आते हैं और किसी शासक का जीवन जीते हैं।[४५]
समाज में स्थान
पुरोहित वर्ग और शासक अभिजात वर्ग द्वारा एझावाओं को अवर्ण माना जाता था, जबकि उनके पूर्वज विल्लावर क्षत्रीय वर्ण के रहे हैं। उन्हें अवर्ण इसलिए माना जाता था क्योंकि उनमें से कुछ ने बौद्ध धर्म स्वीकार कर लिया था और बाद में वे फिर से हिन्दू बन गये।[४६] उन्हें सवर्ण जातियों द्वारा नीचा समझा जाने लगा। [४७] ब्राह्मणों के अलावा केरल की सामान्य हिंदू आबादी के शरीर के ऊपरी हिस्से को ढंकने की जरुरत नहीं समझी जाती थी। केरल में अन्य गैर-ब्राह्मण जातियों की तरह एझावा पुरुषों और महिलाओं को शरीर के ऊपरी भाग को ढंकने की अनुमति नहीं थी, उन्हें कुछ ख़ास तरह के गहने और जूते-चप्पल पहनने की भी इजाजत नहीं थी। हालांकि चेकवर, चन्नर, पणिक्कर और थंदन जैसे सम्मानित या धनि परिवारों की महिलाएं ऊपरी वस्त्र पहना करती थीं।
ईसाई धर्म के लिए धर्मांतरण
जाति-आधारित भेदभाव के कारण ब्रिटिश शासन के दौरान एझावा समुदाय, विशेषकर त्रावणकोर और ऊंचे स्थानों के अनेक लोगों ने ईसाई धर्म को अपना लिया। कन्नूर में, जब डॉ॰ एच. गुंडर द्वारा बेसल जर्मन एवांजेलिकल मिशन की स्थापना की गयी, तब 19वीं सदी के प्रथमार्ध में प्रोटेस्टेंट मिशनों ने काम करना शुरू किया। धर्मान्तरित होने वालों में अधिकांश थिय्या समुदाय से थे।
सीएसआई (CSI) चर्च से संबंधित एक स्वतंत्र समिति ने 1921 में अलाप्पुझा के तटीय क्षेत्रों और पथानामथित्ता के पर्वतीय क्षेत्रों के एक हजार एझावा परिवारों तक पहुंचने का एक व्यापक प्रयास शुरू किया। इसाबेल बेकर (सीएमएस (CMS) मिशनरी) के उदार योगदान से कराप्पुरम मिशन नाम से शेरतेल्लाई क्षेत्र में एक स्कूल, अस्पताल और एक नारियल-रेशे की फैक्टरी की स्थापना की गयी और इसके परिणामस्वरूप अलाप्पुझा और पथानामथित्ता क्षेत्रों के हजारों परिवारों ने ईसाई धर्म में धर्मांतरण कर लिया।[४८]
धर्मांतरण के बारे में श्री नारायण गुरु का कहना है कि भौतिकवादी या अस्थायी लाभों, सुविधाओं के लिए अथवा भेदभाव और धार्मिक उत्पीड़न से बचने के लिए ऐसा किया गया। इन सिद्धांतों ने धर्मांतरण तथा पुनः-धर्मांतरण के लिए मापदंड की स्थापना की। [४८]
मध्य केरल में सिख धर्म के लिए धर्मांतरण
1922 में अस्पृश्यता के खिलाफ महात्मा गांधी के वाईकॉम सत्याग्रह आंदोलन के दौरान सशस्र सिखों की एक शाखा कुछ अकाली प्रदर्शनकारियों के समर्थन में वाईकॉम आई. सत्याग्रह के सफलतापूर्वक पूरा करने और मंदिर प्रवेश की उद्घोषणा के बाद कुछ अकाली वहां रह गये। एझावा समुदाय के कुछ युवक सिख धर्म की अवधारणा के प्रति आकर्षित हुए और परिणामस्वरुप उन्होंने उस धर्म को अपना लिया। अम्बेडकर द्वारा की गयी टिप्पणियों के बाद भी अनेक एझावाओं ने सिख धर्म को स्वीकार कर लिया। हालांकि, एझावा आंदोलन में उल्लेखनीय विकास के बाद, अनेक परिवार फिर से हिंदू धर्म में चले आये और सिख एझावाओं की तादाद घट गयी।
आध्यात्मिक और सामाजिक आंदोलन
श्री नारायण गुरु बड़े पैमाने पर निर्विवाद रूप से एझावा समुदाय के आध्यात्मिक, सामाजिक और बौद्धिक गुरु रहे हैं और आज भी समुदाय की एकता और पहचान के लिए एक बड़े और एकीकरणीय पहलू की मार्गदर्शक भावना बने हुए हैं।[२७][४९] गुरुदेवन और उसके सहयोगियों ने एझावाओं को अस्पृश्यता की प्रथा छोड़ देने और निचली जाति के लोगों के प्रति सम्मानजनक व्यवहार करने को समझाया और सभी के प्रवेश के लिए अनेक मंदिरों की स्थापना की। [५०]
1896 में, एझावाओं को सरकारी नौकरियों में प्रवेश के अधिकार प्रदान करने की मांग करते हुए एक बहुत लंबी याचिका (13,000 से अधिक लोगों के हस्ताक्षर के साथ) सरकार को दी गयी; राज्य के सवर्ण हिन्दूओं ने महाराजा को अनुरोध को अस्वीकार करने के लिए कहा. सकारात्मक परिणाम आता न देख एझावाओं ने हिन्दू समाज का गुलाम बने रहने के बजाय सामूहिक रूप से धर्मांतरण की धमकी दी। दीवान सर सी. पी. रामस्वामी अय्यर ने आसन्न खतरे को महसूस किया, उन्होंने महाराजा को मंदिर प्रवेश की घोषणा करने के लिए प्रेरित किया, जिससे त्रावणकोर राज्य के हिन्दू मंदिरों में निचली जाति के लोगों के प्रवेश पर लगा प्रतिबन्ध हटा दिया गया।[५१]
वाईकॉम सत्याग्रह (1924-1925) हिन्दू समाज में अस्पृश्यता के विरुद्ध त्रावणकोर में एक सत्याग्रह आन्दोलन था। कोट्टयम के पास वाईकॉम के शिव मन्दिर को केंद्र बनाकर यह आन्दोलन चलाया गया था। वाईकॉम के श्री महादेवर मन्दिर में सार्वजनिक प्रवेश के जरिये समाज के सभी वर्गों के लिए गतिविधि की स्वतंत्रता हासिल करना इस सत्याग्रह का लक्ष्य था। एसएनडीपी योगम इस आंदोलन में अग्रणी थे।
श्री नारायण गुरु की नैतिक शिक्षा और धर्म के प्रचार-प्रसार के लिए एसएनडीपी (SNDP) संगठन की स्थापना की गयी है। श्री नारायण के एक भक्त डॉ॰ पी. पलपू इसके एक संस्थापक थे।[५२]
इन्हें भी देखें
- एज्हावा की सूची
- विल्लावर
- तिवारू
- बिल्लावा
- चेकावन
- नादर
- नामाधरी नाइक
- एडिगा
- गौड़
- जी कमलम्मा
सन्दर्भ
बाहरी कड़ियाँ
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