विक्रमादित्य
इस लेख में सन्दर्भ या स्रोत नहीं दिया गया है। कृपया विश्वसनीय सन्दर्भ या स्रोत जोड़कर इस लेख में सुधार करें। स्रोतहीन सामग्री ज्ञानकोश के उपयुक्त नहीं है। इसे हटाया जा सकता है। साँचा:find sources mainspace |
सम्राट विक्रमादित्य उज्जैन के राजा थे, जो अपने ज्ञान, वीरता और उदारशीलता के लिए प्रसिद्ध थे जो राजपूत क्षत्रिय वंश से संबंध रखते थे | इनके पिता का नाम राजा गर्दभिल्ल था[१][२]। सम्राट विक्रमादित्य ने शको को पराजित किया था। उनके पराक्रम को देखकर ही उन्हें महान सम्राट कहा गया और उनके नाम की उपाधि कुल 14 भारतीय राजाओं को दी गई। "विक्रमादित्य" की उपाधि भारतीय इतिहास में बाद के कई अन्य राजाओं ने प्राप्त की थी, जिनमें गुप्त सम्राट चन्द्रगुप्त द्वितीय और सम्राट हेमचन्द्र विक्रमादित्य (जो हेमु के नाम से प्रसिद्ध थे) उल्लेखनीय हैं। राजा विक्रमादित्य नाम, 'विक्रम' और 'आदित्य' के समास से बना है जिसका अर्थ 'पराक्रम का सूर्य' या 'सूर्य के समान पराक्रमी' है।उन्हें विक्रम या विक्रमार्क (विक्रम + अर्क) भी कहा जाता है (संस्कृत में अर्क का अर्थ सूर्य है)।
विक्रमादित्य की पौराणिक कथा
अनुश्रुत विक्रमादित्य, संस्कृत और भारत के क्षेत्रीय भाषाओं, दोनों में एक लोकप्रिय व्यक्तित्व है। उनका नाम बड़ी आसानी से ऐसी किसी घटना या स्मारक के साथ जोड़ दिया जाता है, जिनके ऐतिहासिक विवरण अज्ञात हों, हालांकि उनके इर्द-गिर्द कहानियों का पूरा चक्र फला-फूला है। संस्कृत की सर्वाधिक लोकप्रिय दो कथा-श्रृंखलाएं हैं वेताल पंचविंशति या बेताल पच्चीसी ("पिशाच की 25 कहानियां") और सिंहासन-द्वात्रिंशिका ("सिंहासन की 32 कहानियां" जो सिहांसन बत्तीसी के नाम से भी विख्यात हैं)। इन दोनों के संस्कृत और क्षेत्रीय भाषाओं में कई रूपांतरण मिलते हैं।
पिशाच (बेताल) की कहानियों में बेताल, पच्चीस कहानियां सुनाता है, जिसमें राजा बेताल को बंदी बनाना चाहता है और वह राजा को उलझन पैदा करने वाली कहानियां सुनाता है और उनका अंत राजा के समक्ष एक प्रश्न रखते हुए करता है। वस्तुतः पहले एक साधु, राजा से विनती करते हैं कि वे बेताल से बिना कोई शब्द बोले उसे उनके पास ले आएं, नहीं तो बेताल उड़ कर वापस अपनी जगह चला जाएगा| राजा केवल उस स्थिति में ही चुप रह सकते थे, जब वे उत्तर न जानते हों, अन्यथा राजा का सिर फट जाता| दुर्भाग्यवश, राजा को पता चलता है कि वे उसके सारे सवालों का जवाब जानते हैं; इसीलिए विक्रमादित्य को उलझन में डालने वाले अंतिम सवाल तक, बेताल को पकड़ने और फिर उसके छूट जाने का सिलसिला चौबीस बार चलता है। इन कहानियों का एक रूपांतरण कथा-सरित्सागर में देखा जा सकता है।
सिंहासन के क़िस्से, विक्रमादित्य के उस सिंहासन से जुड़े हुए हैं जो खो गया था और कई सदियों बाद धार के परमार राजा भोज द्वारा बरामद किया गया था। स्वयं राजा भोज भी काफ़ी प्रसिद्ध थे और कहानियों की यह श्रृंखला उनके सिंहासन पर बैठने के प्रयासों के बारे में है। इस सिंहासन में 32 पुतलियां लगी हुई थीं, जो बोल सकती थीं और राजा को चुनौती देती हैं कि राजा केवल उस स्थिति में ही सिंहासन पर बैठ सकते हैं, यदि वे उनके द्वारा सुनाई जाने वाली कहानी में विक्रमादित्य की तरह उदार हैं। इससे विक्रमादित्य की 32 कोशिशें (और 32 कहानियां) सामने आती हैं और हर बार भोज अपनी हीनता स्वीकार करते हैं। अंत में पुतलियां उनकी विनम्रता से प्रसन्न होकर उन्हें सिंहासन पर बैठने देती हैं।
विक्रम और शनि
शनि से संबंधित विक्रमादित्य की कहानी को अक्सर कर्नाटक राज्य के यक्षगान में प्रस्तुत किया जाता है। कहानी के अनुसार, विक्रम नवरात्रि का पर्व बड़े धूम-धाम से मना रहे थे और प्रतिदिन एक ग्रह पर वाद-विवाद चल रहा था। अंतिम दिन की बहस शनि के बारे में थी। ब्राह्मण ने शनि की शक्तियों सहित उनकी महानता और पृथ्वी पर धर्म को बनाए रखने में उनकी भूमिका की व्याख्या की। समारोह में ब्राह्मण ने ये भी कहा कि विक्रम की जन्म कुंडली के अनुसार उनके बारहवें घर में शनि का प्रवेश है, जिसे सबसे खराब माना जाता है। लेकिन विक्रम संतुष्ट नहीं थे; उन्होंने शनि को महज लोककंटक के रूप में देखा, जिन्होंने उनके पिता (सूर्य), गुरु (बृहस्पति) को कष्ट दिया था। इसलिए विक्रम ने कहा कि वे शनि को पूजा के योग्य मानने के लिए तैयार नहीं हैं। विक्रम को अपनी शक्तियों पर, विशेष रूप से अपने देवी मां का कृपा पात्र होने पर बहुत गर्व था। जब उन्होंने नवरात्रि समारोह की सभा के सामने शनि की पूजा को अस्वीकृत कर दिया, तो शनि भगवान क्रोधित हो गए। उन्होंने विक्रम को चुनौती दी कि वे विक्रम को अपनी पूजा करने के लिए बाध्य कर देंगे। जैसे ही शनि आकाश में अंतर्धान हो गए, विक्रम ने कहा कि यह उनकी खुशकिस्मती है और किसी भी चुनौती का सामना करने के लिए उनके पास सबका आशीर्वाद है। विक्रम ने निष्कर्ष निकाला कि संभवतः ब्राह्मण ने उनकी कुंडली के बारे में जो बताया था वह सच हो; लेकिन वे शनि की महानता को स्वीकार करने के लिए तैयार नहीं थे। विक्रम ने निश्चयपूर्वक कहा कि "जो कुछ होना है, वह होकर रहेगा और जो कुछ नहीं होना है, वह नहीं होगा" और उन्होंने कहा कि वे शनि की चुनौती को स्वीकार करते हैं।
एक दिन एक घोड़े बेचने वाला उनके महल में आया और कहा कि विक्रम के राज्य में उसका घोड़ा खरीदने वाला कोई नहीं है। घोड़े में अद्भुत विशेषताएं थीं - जो एक छलांग में आसमान पर, तो दूसरे में धरती पर पहुंचता था। इस प्रकार कोई भी धरती पर उड़ या सवारी कर सकता है। विक्रम को उस पर विश्वास नहीं हुआ, इसीलिए उन्होंने कहा कि घोड़े की क़ीमत चुकाने से पहले वे सवारी करके देखेंगे. विक्रेता इसके लिए मान गया और विक्रम घोड़े पर बैठे और घोड़े को दौडाया. विक्रेता के कहे अनुसार, घोड़ा उन्हें आसमान में ले गया। दूसरी छलांग में घोड़े को धरती पर आना चाहिए था, लेकिन उसने ऐसा नहीं किया। इसके बजाय उसने विक्रम को कुछ दूर चलाया और जंगल में फेंक दिया। विक्रम घायल हो गए और वापसी का रास्ता ढूंढ़ने का प्रयास किया। उन्होंने कहा कि यह सब उनका नसीब है, इसके अलावा और कुछ नहीं हो सकता; वे घोड़े के विक्रेता के रूप में शनि को पहचानने में असफल रहे। जब वे जंगल में रास्ता ढ़ूढ़ने की कोशिश कर रहे थे, डाकुओं के एक समूह ने उन पर हमला किया। उन्होंने उनके सारे गहने लूट लिए और उन्हें खूब पीटा. विक्रम तब भी हालत से विचलित हुए बिना कहने लगे कि डाकुओं ने सिर्फ़ उनका मुकुट ही तो लिया है, उनका सिर तो नहीं। चलते-चलते वे पानी के लिए एक नदी के किनारे पहुंचे। ज़मीन की फिसलन ने उन्हें पानी में पहुंचाया और तेज़ बहाव ने उन्हें काफ़ी दूर घसीटा.
किसी तरह धीरे-धीरे विक्रम एक नगर पहुंचे और भूखे ही एक पेड़ के नीचे बैठ गए। जिस पेड़ के नीचे विक्रम बैठे हुए थे, ठीक उसके सामने एक कंजूस दुकानदार की दुकान थी। जिस दिन से विक्रम उस पेड़ के नीचे बैठे, उस दिन से दुकान में बिक्री बहुत बढ़ गई। लालच में दुकानदार ने सोचा कि दुकान के बाहर इस व्यक्ति के होने से इतने अधिक पैसों की कमाई होती है और उसने विक्रम को घर पर आमंत्रित करने और भोजन देने का निर्णय लिया। बिक्री में लंबे समय तक वृद्धि की आशा में, उसने अपनी पुत्री को विक्रम के साथ शादी करने के लिए कहा. भोजन के बाद जब विक्रम कमरे में सो रहे थे, तब पुत्री ने कमरे में प्रवेश किया। वह बिस्तर के पास विक्रम के जागने की प्रतीक्षा करने लगी। धीरे- धीरे उसे भी नींद आने लगी। उसने अपने गहने उतार दिए और उन्हें एक बत्तख के चित्र के साथ लगी कील पर लटका दिया। वह सो गई। जागने पर विक्रम ने देखा कि चित्र का बत्तख उसके गहने निगल रहा है। जब वे अपने द्वारा देखे गए दृश्य को याद कर ही रहे थे कि दुकानदार की पुत्री जग गई और देखती है कि उसके गहने गायब हैं। उसने अपने पिता को बुलाया और कहा कि वह चोर है।
विक्रम को वहां के राजा के पास ले जाया गया। राजा ने निर्णय लिया कि विक्रम के हाथ और पैर काट कर उन्हें रेगिस्तान में छोड़ दिया जाए. जब विक्रम रेगिस्तान में चलने में असमर्थ और ख़ून से लथपथ हो गए, तभी उज्जैन में अपने मायके से ससुराल लौट रही एक महिला ने उन्हें देखा और पहचान लिया। उसने उनकी हालत के बारे में पूछताछ की और बताया कि उज्जैनवासी उनकी घुड़सवारी के बाद गायब हो जाने से काफी चिंतित हैं। वह अपने ससुराल वालों से उन्हें अपने घर में जगह देने का अनुरोध करती है और वे उन्हें अपने घर में रख लेते हैं। उसके परिवार वाले श्रमिक वर्ग के थे; विक्रम उनसे कुछ काम मांगते हैं। वे कहते हैं कि वे खेतों में निगरानी करेंगे और हांक लगाएंगे ताकि बैल अनाज को अलग करते हुए चक्कर लगाएं. वे हमेशा के लिए केवल मेहमान बन कर ही नहीं रहना चाहते हैं।
एक शाम जब विक्रम काम कर रहे थे, हवा से मोमबत्ती बुझ जाती है। वे दीपक राग गाते हैं और मोमबत्ती जलाते हैं। इससे सारे नगर की मोमबत्तियां जल उठती हैं - नगर की राजकुमारी ने प्रतिज्ञा कि थी कि वे ऐसे व्यक्ति से विवाह करेंगी जो दीपक राग गाकर मोमबत्ती जला सकेगा। वह संगीत के स्रोत के रूप में उस विकलांग आदमी को देख कर चकित हो जाती है, लेकिन फिर भी उसी से शादी करने का फैसला करती है। राजा जब विक्रम को देखते हैं तो याद करके आग-बबूला हो जाते हैं कि पहले उन पर चोरी का आरोप था और अब वह उनकी बेटी से विवाह के प्रयास में है। वे विक्रम का सिर काटने के लिए अपनी तलवार निकाल लेते हैं। उस समय विक्रम अनुभव करते हैं कि उनके साथ यह सब शनि की शक्तियों के कारण हो रहा है। अपनी मौत से पहले वे शनि से प्रार्थना करते हैं। वे अपनी ग़लतियों को स्वीकार करते हैं और सहमति जताते हैं कि उनमें अपनी हैसियत की वजह से काफ़ी घमंड था। शनि प्रकट होते हैं और उन्हें उनके गहने, हाथ, पैर और सब कुछ वापस लौटाते हैं। विक्रम शनि से अनुरोध करते हैं कि जैसी पीड़ा उन्होंने सही है, वैसी पीड़ा सामान्य जन को ना दें। वे कहते हैं कि उन जैसा मजबूत इन्सान भले ही पीड़ा सह ले, पर सामान्य लोग सहन करने में सक्षम नहीं होंगे। शनि उनकी बात से सहमत होते हुए कहते हैं कि वे ऐसा कतई नहीं करेंगे। राजा अपने सम्राट को पहचान कर, उनके समक्ष समर्पण करते हैं और अपनी पुत्री की शादी उनसे कराने के लिए सहमत हो जाते हैं। उसी समय, दुकानदार दौड़ कर महल पहुंचता है और कहता है कि बतख ने अपने मुंह से गहने वापस उगल दिए हैं। वह भी राजा को अपनी बेटी सौंपता है। विक्रम उज्जैन लौट आते हैं और शनि के आशीर्वाद से महान सम्राट के रूप में जीवन व्यतीत करते हैं।
नौ रत्न और उज्जैन में विक्रमादित्य का दरबार
भारतीय परंपरा के अनुसार धन्वन्तरि, क्षपनक, अमरसिंह, शंकु, खटकरपारा, कालिदास, वेतालभट्ट (या (बेतालभट्ट), वररुचि और वराहमिहिर उज्जैन में विक्रमादित्य के राज दरबार का अंग थे। कहते हैं कि राजा के पास "नवरत्न" कहलाने वाले नौ ऐसे विद्वान थे।
कालिदास प्रसिद्ध संस्कृत राजकवि थे। वराहमिहिर उस युग के प्रमुख ज्योतिषी थे, जिन्होंने विक्रमादित्य की बेटे की मौत की भविष्यवाणी की थी। वेतालभट्ट एक धर्माचार्य थे। माना जाता है कि उन्होंने विक्रमादित्य को सोलह छंदों की रचना "नीति-प्रदीप" ("आचरण का दीया") का श्रेय दिया है।
विक्रमार्कस्य आस्थाने नवरत्नानि
- धन्वन्तरिः क्षपणकोऽमरसिंहः शंकूवेताळभट्टघटकर्परकालिदासाः।
- ख्यातो वराहमिहिरो नृपतेस्सभायां रत्नानि वै वररुचिर्नव विक्रमस्य॥
नौ रत्नों के चित्र
मध्यप्रदेश में स्थित उज्जैन-महानगर के महाकाल मन्दिर के पास विक्रमादित्य टिला है। वहाँ विक्रमादित्य के संग्रहालय में नवरत्नों की मूर्तियाँ स्थापित की गई हैं।
विक्रम संवत्
स्क्रिप्ट त्रुटि: "main" ऐसा कोई मॉड्यूल नहीं है। भारत और नेपाल की हिंदू परंपरा में व्यापक रूप से प्रयुक्त प्राचीन पंचाग हैं विक्रम संवत् या विक्रम युग। कहा जाता है कि ईसा पूर्व 56 में शकों पर अपनी जीत के बाद राजा ने इसकी शुरूआत की थी।
सन्दर्भ
- द कथा सरित सागर, या ओशन ऑफ़ द स्ट्रीम्स ऑफ़ स्टोरी, सी.एच टॉने द्वारा अनूदित, 1880
- विक्रम एंड द वैम्पायर रिचर्ड आर. बर्टन द्वारा अनूदित, 1870
- द इनरोड्स ऑफ़ द स्काइथियंस इनटू इंडिया, एंड द स्टोरी ऑ कलकाचार्य, रॉयल एशियाटिक सोसायटी की मुंबई शाखा की पत्रिका, VVol. IX, 1872
- विक्रमाज़ एडवेंचर्स ऑर द थर्टी-टू टेल्स ऑफ़ द थ्रोन, संस्कृत मूल के चार अलग संपादित पाठ संशोधन (विक्रम-चरित या सिंहासन-द्वात्रिंशिका), फ्रेंकलिन एजरटॉन द्वारा अनूदित, हार्वर्ड यूनिवर्सिटी प्रेस, 1926.