ज़कात

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ज़कात (साँचा:lang-ar zakāt, "पाक या शुद्धी करने वाला", और ज़कात अल-माल साँचा:lang, "सम्पत्ती पर ज़कात ",[१] या "ज़काह"[२]) इस्लाम में एक प्रकार का "दान देना" है, जिसको धार्मिक रूप से ज़रूरी और कर के रूप में देखा और माना जाता है। [३][४] कुरआन में सलात (नमाज़) के बाद ज़कात ही का मक़ाम है. [५] शरीयत में ज़कात उस माल को कहते हैं जिसे इंसान अल्लाह के दिए हुए माल में से उसके हकदारों के लिए निकालता है।

इस्लाम धर्म के अनुसार पांच मूल स्तंभों में से एक माना जाता है, और हर मुस्लमान को अपने धन में से ज़कात की अदायगी ज़रूरी है। यह दान धर्म नहीं बल्कि धार्मिक कर या टैक्स माना जाता है और फ़र्ज़ भी है.[६][७] शरीयत में ज़कात उस माल को कहते हैं जिसे इंसान अल्लाह के दिए हुए माल में से उसके हकदारों के लिए निकालता है। इस्लाम की शरीयत के मुताबिक हर एक समर्पित मुसलमान को साल (चन्द्र वर्ष) में अपनी आमदनी का 2.5 % हिस्सा ग़रीबों को दान में देना चाहिए। इस दान को ज़कात कहते हैं।

क़ुरआन में ज़कात :

क़ुरआन में शब्द "ज़कात" 33 बार इस्तेमाल हुआ है और ज़्यादातर नमाज़ के साथ साथ ज़कात का ज़िक्र हुआ है। ज़कात के स्थान पर सदक़ा लफ्ज़ का भी जगह जगह प्रयोग किया गया है। और क़ई जगह इंफाक़ का लफ़्ज़ भी इस्तेमाल हुआ है।

"निस्संदेह जो लोग ईमान लाए और उन्होंने अच्छे कर्म किए और नमाज़ क़ायम की और ज़कात दी, उनके लिए उनका बदला उनके रब के पास है, और उन्हें न कोई भय हो और न वे शोकाकुल होंगे" (क़ुरआन 2:277)
"जब ये चीज़े फलें तो उनका फल खाओ और उन चीज़ों के काटने के दिन ख़ुदा का हक़ (ज़कात) दे दो और ख़बरदार फज़ूल ख़र्ची न करो - क्यों कि वह (ख़ुदा) फुज़ूल ख़र्चे से हरगिज़ उलफत नहीं रखता" (क़ुरआन 6:141)

हदीस में ज़कात

नबी ने कहा: पाँच औकिया (52 तोला 6 मासा) से कम चाँदी पर ज़कात नहीं है, और पाँच ऊंट से कम पर ज़कात नहीं है और पाँच अवाक (खाद्यान्नों का एक विशेष माप,34 मन गल्ला) से कम पर ज़कात नहीं है। ( सही बुखारी , हदीस नंबर 1447)
"नबी करीम सल्लल्लाहू अलैही वसल्लम ने फरमाया कि मैं तुम्हें चार कामों का हुक्म देता हूं और चार कामों से रोकता हूं। मैं तुम्हें ईमान बिल्लाह का हुक्म देता हूं तुम्हें मालूम है कि ईमान बिल्लाह क्या है? उसकी गवाही देना है कि अल्लाह के सिवा कोई पूज्य नहीं और नमाज कायम करना और ज़कात देने और गनीमत में पांचवा हिस्सा देने का हुक्म देता  हूं" (सही बुख़ारी, 7556)

ज़कात का मक़सद

ज़कात का मक़सद ये है कि ज़रूरतमंदों की मदद करके उन्हें भी ज़कात देने के लायक़ और क़ाबिल बनाना.

ज़कात कौन देता है?, किसको देना है?, किसको नहीं देना है?

ज़कात कौन देता है

ज़कात हर मुसलमान का फ़र्ज़ है।

  • बालिग़ हो
  • कमाने के लायक़ हो

ज़कात किसको दे सकते हैं

ज़कात इनको दे सकते हैं

  • क़रीबी (रिश्तेदार,पड़ोसी,दोस्त
  • यतीम
  • मिस्कीन
  • फ़क़ीर (गरीब और मजबूर)
  • ज़कात और सदक़ात की वसूली करने वाले
  • तालीफ़े क़ल्ब (जिनका मन मोहना हो)
  • क़ैदियों को छुड़ाने के लिए
  • क़र्ज़दारों की मदद करने में
  • अल्लाह के रास्ते में (अल्लाह के दीन को फैलाने के लिए
  • मुसाफ़िर
  • सवाल करने वाले (मांगने वाले)

(देखें सूरह 002 अल बक़रह आयत 177 और सूरह 009 अत तौबा आयत 60) (अबु अदीम फ़लाही)

ज़कात किसको नहीं दे सकते

ज़कात इन लोगों को नहीं दे सकते, क्योंकि इन को देखभाल करने की ज़िम्मेदारी होती है, इनकी देखभाल करना बेटों, पति और बाप की होती है, इस लिए व्यक्ती को निम्न लोगों को ज़कात देने की अनुमती नहीं है।

  • बाप
  • माँ
  • बीवी
  • बच्चे

सन्दर्भ

  1. साँचा:cite web
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  3. साँचा:cite journal
  4. साँचा:cite journal
  5. साँचा:cite book
  6. Muḥammad ibn al-Ḥasan Ṭūsī (2010), Concise Description of Islamic Law and Legal Opinions, ISBN 978-1904063292, pp. 131–135
  7. साँचा:cite journal

बाहरी कड़ियाँ