स्वामी गोविंदानंद तीर्थ
This article has multiple issues. Please help improve it or discuss these issues on the talk page. (Learn how and when to remove these template messages)
साँचा:ambox
|
स्वामी गोविंदानंद तीर्थ जी महाराज (जन्म - अक्टूबर 29, १९२३) शक्तिपात परम्परा के सिद्ध गुरु हैं। स्वामीजी महान गुरु एवं लेखक स्वामी शिवोम् तीर्थ जी महाराज के शिष्य तथा योग श्री पीठ आश्रम, ऋषिकेश के संचालक हैं। भूतकाल में प्रिंसिपल रह चुके स्वामीजी ने अब तक लगभग आठ सौ लोगो को शक्तिपात परम्परा में दीक्षित करके उनका जीवन बदल दिया है।
बचपन
२९ अक्टूबर सन १९२३ (हिंदी कैलेंडर के अनुसार करवाचौथ का दिन) को सोमवार के दिन चंद्रमा ज़मीन पर उतर आया था। मध्य प्रदेश के मुरैना डिस्ट्रिक्ट में एक गाँव है - कसमडा गाँव कसमडा अम्बाह तहसील के अंतर्गत आता है। इस गाँव में एक ब्राहमण परिवार रहा करता था जिसके मुखिया थे श्री माता प्रसाद मिश्रा. २९ अक्टूबर को माता प्रसाद जी की पत्नी ने एक पुत्र रत्न को जन्म दिया। जन्म के समय बच्चे के मुख पर एक अलौकिक तेज चमक रहा था। बच्चे का नाम भगवन श्री कृष्ण के नाम पर कृष्ण गोविन्द रखा गया।
कृष्ण गोविन्द बचपन से ही एक होनहार तेजस्वी बालक था। एक बार माता प्रसाद जी के घर कुछ संन्यासी आए। उन्होंने इस तेजस्वी बालक को देखा तो देखते ही रह गए। उन्होंने भविष्यवाणी की कि ये बच्चा बड़ा होकर एक महान संन्यासी बनेगा. इसके बाद उन्होंने बच्चे की माँ से प्रार्थना की कि ये बच्चा हमे दे दो। ये सुनकर कृष्ण की माँ इतना डर गई कि वह बच्चे को घर के अन्दर ले कर चली गई। उन्होंने बच्चे को देने से स्पष्ट इंकार कर दिया।
जब कृष्ण बड़ा हुआ तो उसके साथ आश्चर्यजनक घटनाएँ होने लगी। जब कृष्ण बी. ए. में पढता था तब भी एक बार ऐसे ही घटना घटी. रात का समय था। कृष्ण ने ज़मीन पे बिस्तर लगाया हुआ था। सर्दी के दिन चल रहे थे और मौसम बहुत ही ठंडा था। कृष्ण रजाई ओढे सो रहा था, उन दिनों बिजली तो हुआ नहीं करती थी। सो कमरे में पूरी तरह से अँधेरा था। तभी उसकी रजाई में एक सांप घुस गया। सांप उसके पैर से चढ़ कर पेट से होते हुए उसकी गर्दन पर जा चढा. परन्तु उसके मुख का तेज़ वह सहन नहीं कर सका। वह उसकी गर्दन से दुसरे कंधे पर होते हुए वापस पैर की तरफ़ जाने लगा। इसी दौरान बालक कृष्ण की नींद टूट गई। उसको लगा की ये क्या चीज़ उसके शरीर पर चल रही है। उसने उसको उठाकर हाथ में ले लिया। जब उसने देखा की ये तो सांप है तो उसने सांप को उठाकर खिड़की से बाहर फेंक दिया।
शिक्षा
बालक कृष्ण एक मेघावी छात्र था, उसने अपनी प्रारंभिक शिक्षा अम्बाह से ही प्राप्त की। पर उन दिनों अम्बाह में कोई हाई स्कूल नहीं था। सो हाई स्कूल की पढाई करने के लिए उन्हें ग्वालियर आना पड़ा. ग्वालियर से सन १९४४ में उन्होंने हाई स्कूल की परीक्षा उत्तीर्ण की। हाई स्कूल करने के बाद उसके बाद उसके माता पिता की इच्छा थी की वह नौकरी कर ले. उनके चचेरे भाई संस्कृत के प्राध्यापक थे, एक बार वो अम्बाह आये तो कृष्ण को भी अपने साथ अहमदाबाद ले गए। कृष्ण गोविन्द अनिच्छा से वहां नौकरी करने चले गए। पर किस्मत को तो कुछ और ही मंज़ूर था। अहमदाबाद में उन्होंने सिर्फ़ एक रात ही काटी थी। वही रात उनकी जिंदगी की यादगार रात बन गई। जो बिस्तर उन्हें सोने के लिए दिया गया था उसमे खटमल भरे हुए थे। पूरी रात खटमल उन्हें काटते रहे। अब ये भगवन की लीला ही कही जा सकती है कि सांप जैसा विषैला प्राणी भी जब उनके तेज़ को सहन नहीं कर पाया तो तुच्छ खटमल ने उन्हें कैसे काट लिया? जैसे-तैसे उन्होंने वो रात गुजारी और सुबह होते ही वापस घर के लिए चल दिए। नौकरी करने का विचार उन्होंने त्याग दिया। अहमदाबाद से ट्रेन द्वारा आगरा होते हुए वो वापस घर पहुँच गए। उसके बाद उन्होंने उच्च शिक्षा प्राप्त करने की सोची.
घर आने के बाद कृष्ण की शादी कर दी गई। उनकी पत्नी श्रीमती रेवती देवी साक्षात् लक्ष्मी और सरस्वती का रूप थी। उन्होंने कृष्ण को उच्च शिक्षा के लिए प्रोत्साहित किया। कृष्ण आगे की पढ़ाई करने के लिए ग्वालियर आ गए। ग्वालियर में रह कर उन्होंने ने हिन्दी में M.A. (स्नातकोत्तर) की पढ़ाई पुरी की। उसके बाद B.Ed. किया। उच्च शिक्षा कि पढाई के लिए पैसों कि आवश्यकता थी। परन्तु उनके पास इतने ज्यादा पैसे नहीं थे कि पढाई के खर्चे पूरे हो सकें.
स्कूल प्रबंधन
अपनी पढ़ाई पुरी करने के बाद सन 1951 में वे वापस घर आ गए। उन दिनों अम्बाह में शिक्षा के हालत बहुत ख़राब थे। वहां कोई स्कूल नहीं था। कृष्ण ने वहां स्कूल शुरू करने का बीड़ा उठाया. उन्होंने वहां पर एक हाई स्कूल की स्थापना की। सन 1952 में इस स्कूल के पहले बैच ने हाई स्कूल की परीक्षा उत्तीर्ण की। कृष्ण पढ़ाई में तो मेघावी थे ही, उनमे प्रबंधन की भी अच्छी क्षमता थी। उनके स्कूल के प्रथम बैच के सभी विद्यार्थी अच्छे नम्बरों से उत्तीर्ण हुए.
इस स्कूल के मेनेजर श्री रामनिवास शर्मा थे। शर्मा जी से कृष्ण के सम्बन्ध बहुत अच्छे थे। परन्तु किस्मत में तो कुछ और ही लिखा था। सन 1957 में विधान सभा के चुनाव होने थे। रामनिवास शर्मा ने भी चुनाव का टिकट भरा था। पर राजनीती को लेकर कृष्ण तथा रामनिवास के विचार भिन्न थे। इसलिए कृष्ण ने रामनिवास के बदले दुसरे उम्मीदवार शुक्ला को समर्थन दिया। कृष्ण शुक्ला के चुनाव प्रचार में भी शामिल हुए. रामनिवास को यह बात पसंद नहीं आई. उन्होंने स्कूल के मेनेजर की हैसियत से कृष्ण को 'कारण बताओ' नोटिस दे दिया। कृष्ण ने कहा की वोट देना तथा किसी को सपोर्ट करना व्यक्तिगत मामला है। तथा स्कूल मेनेजर की हैसियत से रामनिवास को यह पूछने का कोई अधिकार नहीं है। इन्ही मतभेदों के चलते कृष्ण ने सन 1958 में स्कूल से त्यागपत्र दे दिया।
लेकिन यह अच्छा ही हुआ। इस घटना ने उनके शिक्षा अभियान को और भी ज्यादा तेज कर दिया। उन्होंने और ज्यादा स्कूल खोल कर ज्यादा से ज्यादा बच्चों को शिक्षित करने का काम शुरू कर दिया, उन्होंने जिला मुरैना के धरमगढ़ में दो नए स्कूल खोले. इसके बाद जिला भिंड में भी दो नए स्कूल खोले. उनके स्कूलों के संख्या बढती जा रही थे। प्रबंधन में माहिर कृष्ण के स्कूल लगातार तरक्की किए जा रहे थे। उनके स्कूल के मेघावी बच्चे आगे जाकर बड़े स्कूल में दाखिला ले लेते. उन्होंने पांडरी (भिण्ड्) में भी एक स्कूल खोला.
इस तरह से दस साल बीत गए। कृष्ण के स्कूल लगातार तरक्की किए जा रहे थे। स्कूल का परिणाम हमेशा ही अच्छा रहता था। रामनिवास उनकी तरक्की को बहुत दिनों से देख रहे थे। एक दिन रामनिवास ने उन्हें मिलने के लिए बुलाया। कृष्ण जब उनसे मिलने गए तो रामनिवास ने उनसे अपने स्कूल का प्रधानाध्यापक बनाने का प्रस्ताव रखा। कृष्ण को तो सिर्फ़ बच्चों की शिक्षा से ही मतलब था। उस स्कूल का प्रबंधन उन दिनों अच्छा नहीं था। बच्चों को भी अच्छी शिक्षा नहीं दी जा रही थी। सो उन्होंने प्रस्ताव स्वीकार कर लिया। लेकिन उन्होंने शर्त रखी की वो आवेदन नहीं करेंगे। यदि उनको सर्वसम्मती से प्रधानाध्यापक नियुक्त किया जाएगा तभी वो यह पद स्वीकार करेंगे। रामनिवास तथा स्कूल ट्रस्ट के अन्य सदस्यों ने यह बात स्वीकार कर ली। इस तरह से कृष्ण प्रिंसिपल बन गए।
अध्यात्म पथ
एक दिन कृष्ण बाज़ार में कपड़े की दुकान पर बैठे थे। तभी वहां से मास्टर माधव सिंह बड़ी तेजी से साथ जाते हुए दिखाई दिए। उन्होंने पूछा की क्या बात है? इतनी तेज कहाँ भागे जा रहे हो? माधव सिंह ने बताया की उनके गुरु स्वामी श्री शिवोम् तीर्थ जी महाराज आए हुए हैं। वे उनसे मिलने ही जा रहे थे। कृष्ण ने कहा की हमें भी उनसे मिलवा दो। राम निवास ने उन्हें भी आपने साथ ले लिया। दोनों गुरूजी के पास पहुंचे। कृष्ण को मालूम था की स्वामीजी शक्तिपात परम्परा के बहुत ही सिद्ध गुरु हैं। स्वामीजी के पास पहुंचकर कृष्ण एक कोने में बैठ गए। स्वामीजी एक पलंग पर बैठे हुए कुछ पढ़ रहे थे। लोग वहां आते, स्वामीजी के पैर छूकर बैठ जाते. स्वामीजी से थोडी से बात करते और फिर चले जाते.
कृष्ण काफी देर तक वहां बैठे रहे। जब सब चले गए तो स्वामीजी फिर पढने लगे। बहुत समय व्यतीत हो जाने के बाद स्वामीजी ने कृष्ण को वहां बैठे हुए देखा. उन्होंने पूछा की आप यहाँ क्यों बैठे हुए हैं। कृष्ण ने कहा की मुझे भी "आपका अनुग्रह चाहिए". स्वामीजी स्वामीजी थोड़ी देर तक कृष्ण को ध्यान से देखते रहे। फिर कहा कि माधव सिंह से बात कर लो. ये घटना देखने में तो सामान्य लगती है किंतु इस घटना के गर्भ में क्या छुपा था ये किसी को भी नहीं मालूम था। इस सामान्य से घटना ने अनेक लोगो का जीवन बदल कर रख दिया। कृष्ण ने माधव सिंह के पास जाकर कहा की स्वामीजी ने आप से बात करने के लिए कहा है। माधव सिंह समझ गए कि स्वामीजी ने दीक्षा के लिए कहा है। माधव सिंह ने सारे प्रबंध कर दिए। और सन इस तरह 1973 में कृष्ण की शक्तिपात परम्परा में दीक्षा हो गई। इसके बाद 15 साल तक कृष्ण अपने स्कूल चलाते रहे तथा साथ में स्वामीजी द्वारा बताई गई रीती से साधन भी करते रहे।
सन 1986 में 63 वर्ष की आयु में कृष्ण सेवा निवृत हो गए। उनके गुरु स्वामी शिवोम् तीर्थ जी महाराज उन दिनों ऋषिकेश की पावन भूमि में स्थित योग श्री पीठ आश्रम में निवास करते थे। कृष्ण उनसे मिलने ऋषिकेश आए। स्वामीजी ने उनसे कहा की तुम एक कुशल प्रबंधक हो। मैं कुछ समय के लिए देवास जा रहा हूँ अतः तुम आश्रम की कार्य व्यवस्था संभल लो. कृष्ण ने स्वामीजी के आदेश का पालन कर आश्रम की व्यवस्था देखनी शुरू कर दी। थोड़े समय के बाद कृष्ण को घर की याद आने लगी। वह स्वामीजी के आने का इंतजार करने लगे ताकि उनसे आज्ञा लेकर घर जा सकें. परन्तु स्वामीजी दो वर्षों तक नहीं आए।
दो वर्षों के बाद सन 1988 में जब स्वामीजी वापस आए तो उन्होंने कृष्ण को आज्ञा दी की घर के इच्छा त्याग कर सन्यास ले लो. कृष्ण के लिए गुरु की आज्ञा सर्वोपरि थी। उन्होंने तुंरत ही अपनी घर जाने की इच्छा का त्याग करके सन्यास ले लिया। 13 जून सन 1988 को गंगा दशहरा के पवन अवसर पर कृष्ण के सन्यास की प्रक्रिया पुरी हुई। यह दिन एक महान परिवर्तन का दिन था। हिंदू परम्परा के अनुसार सन्यास के बाद नाम बदल जाता है। सो, कृष्ण का नाम बदल कर अब स्वामी गोविंदानंद तीर्थ महाराज हो गया। स्वामी गोविंदानंद तीर्थ महाराज के लिए ये सिर्फ़ नाम का बदलाव ही नहीं था। उनकी सोच, क्रिया कलाप सब कुछ बदल गया। अब उनका अधिकांश समय साधन करने तथा आश्रम सँभालने में व्यतीत होने लगा। सन्यास के समय ही स्वामी शिवोम् तीर्थ जी महाराज ने उन्हें मंत्र दीक्षा प्रदान करने की शक्ति भी दे दी थी।
सन 1992 में उन्हें शक्तिपात दीक्षा देने की अनुमति भी महाराज जी (स्वामी श्री शिवोम् तीर्थ जी महाराज) से मिल गई। तब से आज तक स्वामीजी ऋषिकेश स्थित योग श्री पीठ आश्रम में विराजमान हैं। स्वामीजी ने अनेक शिष्यों को शक्तिपात की दीक्षा देकर उनके जीवन को बदल दिया है।
वीरेन्द्र उपाध्याय ने एक पुस्तक लिखी की है - "श्री गोविन्दम्रतभजन भागीरथी". यह पुस्तक स्वामीजी को समर्पित है। पुस्तक के लेखक कहते हैं कि स्वामीजी के आशीर्वाद से ही उन्होंने यह पुस्तक पूरी की है।[१]
'Links:
External Links
- [१] Linage of Tirth Order (तीर्थ परंपरा)
- [२] Swami Vishnu Tirth
- [३] Swami Shivom Tirth Ji Maharaj
- [४]साँचा:category handlerसाँचा:main otherसाँचा:main other[dead link] Linage of Tirth Order
- [५]साँचा:category handlerसाँचा:main otherसाँचा:main other[dead link] Yog Shri Peeth Ashram
- [६] Rishikesh Ashram
- [७] Gannaur Ashram
- [८] स्वामी मृत्युंजय तीर्थ
References
- ↑ श्री गोविन्दम्रतभजन भागीरथी, वीरेन्द्र उपाध्याय, लीलावती प्रकाशन, ग्वालियर.