चीन-नेपाल युद्ध
तिब्बती विरुद्ध प्रथम अभियान | |||||||
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चित्र:Battle of Jhunga.jpg स्थान: झुँगा, प्रथम नेपाल-तिब्बत युद्धके प्रथम चरणके युद्ध; शाही नेपाली सैनिक (काले रंग और कमाण्डर सफेद रंग) तिब्बती (लालपिंंला)को घायल करते हुए | |||||||
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योद्धा | |||||||
साँचा:flagicon तिब्बत किंगको शासनमा | नेपाल अधिराज्य | ||||||
सेनानायक | |||||||
साँचा:flagicon दलाई लामा | रणबहादुर शाह बहादुर शाह | ||||||
शक्ति/क्षमता | |||||||
१०,००० | १०,००० | ||||||
मृत्यु एवं हानि | |||||||
अज्ञात |
नेपाली विरुद्धको दोस्रो अभियान | |||||||
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चित्र:Battle of Betrawati.jpg स्थान: बेत्रावती, पहिलो नेपाल-तिब्बत युद्धको दोस्रो चरणको युद्ध, शाही नेपाली सैनिक (काले रंग और कमाण्डर सफेद रंग) चीनियों (लालपिंंला) को नदी के तट तक खदेड़्ते हुए | |||||||
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योद्धा | |||||||
साँचा:flagicon किंग साम्राज्य | नेपाल अधिराज्य | ||||||
सेनानायक | |||||||
साँचा:flagicon कियानलोंग साँचा:flagicon फुकागन |
रणबहादुर शाह बहादुर शाह दामोदर पाँडे | ||||||
शक्ति/क्षमता | |||||||
७०००० | २००००-३०००० | ||||||
मृत्यु एवं हानि | |||||||
अज्ञात |
चीन-नेपाल युद्ध या गोरखा-चीन युद्ध (चीनी: 平 定 廓 爾 喀, pacification of Gorkha) नेपालीयों द्वारा 1788-1792 में तिब्बत के ऊपर एक चढाई थी। यह युद्ध पुरी तरह नेपाली और तिब्बती आर्मीयों के बीच सिक्का के विवाद को लेकर लड़ा गया। नेपालीयों द्बारा सस्ते धातुओं के मिश्रण को ढालकर बनाये गये सिक्के जो लम्बे समय से तिब्बत के लिए परेशानी का सबब बना हुआ था। नेपालियों ने तिब्बतियों को वश में कर रखा था, जो चीन के अधिन थें। तिब्बत ने केरुङकि सन्धि की और शान्ति सम्झौता के अनुरूप वार्षिक सलामी देनेका वादा किया। [१] बाद में तिब्बत ने झूठ बोला और चीन के राजा को न्यौता दिया। कमाण्डर फुकागन नेपालके बेत्रावती तक आगए लेकिन जबरदस्त काउन्टरअटैक के कारण चीन ने शान्ति सम्झौता के प्रस्ताव स्वीकार किया। [१]
पृष्ठभूमि
नेपाल के मल्ल राजवंश के समय से ही तिब्बत में नेपाली चाँदी के सिक्कों का चलन था। जब पृथ्वी नारायण शाह ने अपने एकीकरण काल में काठमान्डु घाटी में आर्थिक लेन-देन बंद कर दिया तब काठमान्डू के राजा जय प्रकाश मल्ल को बहुत बड़े आर्थिक संकट का सामना करना पड़ा, इस संकट को दूर करने के लिए उन्होनें ताँबा को दूसरे धातु के साथ गलाकर निम्न स्तर के सिक्के बनाने कि कोशिश की। बाद में पृथ्वी नारायण शाह ने 1769 में सफलता पूर्वक काठमान्डू घाटी पर कब्जा कर लिया और पूरी तरह से नेपाल में शाह राजवंश को स्थापित कर लिया, उन्होने पुन: शुद्ध चाँदी के सिक्कों को चलन में लाना शुरू कर दिया। लेकिन तब तक नेपाली सिक्कों पर से भरोसा उठ चुका था। तिब्बतियों की माँग थी कि उन सिक्कों को शुद्ध चाँदी के सिक्कों के साथ बदला जाए जो पहले ही चलन में आ चुके थे और शुद्ध चाँदी के नहीं थे, यह एक ऐसी माँग थी जो नये स्थापित शाह वंश के लिए बहुत बड़े वितीय वित्त घाटे का सौदा थी। पृथ्वी नारायण शाह इस बात के लिए जिम्मेदार नहीं थे इतने बड़े घाटे को सहने के इच्छुक नहीं थे लेकिन वह नये चाँदी के सिक्के की शुद्धता के लिए विश्वसनीयता के इच्छुक थे। इस प्रकार दो तरह के सिक्के बाजार में चलन में थें। यह मामला बिना सुलझे 1775 के अंत तक युं ही चलता रहा और यह समस्या उत्तराधिकार में नेपाल के क्रमिक शासक को मिलती गयी।. 1788 में पृथ्वी नारायण शाह के बड़े पुत्र बहादुर शाह और उनके चाचा और राज्य-प्रतिनिधि राणा बहादुर शाह को सिक्के की गम्भीर समस्या विरासत में मिली। नकली सिक्को की दलील पर, तिब्बतियों ने यह अफवाह फैलाना शुरु कर दिया कि नेपाल आक्रमण करने कि स्थिति में है; और तिब्बत में रह रहे ब्यापारियों को तिब्बत परेशान करने लगे। नेपाल-तिब्बत सम्बन्ध का दूसरा दु:खद बिन्दु था 10वीं शमर्प लामा, मिपाम चद्रुप ग्याम्त्सो और उनके 14 अनुयायियों को देने से मना कर देना। वह धार्मिक और राजनैतिक कारणो से तिब्बत से भाग कर नेपाल चला गया था। संघर्ष की दूसरी कड़ी थी निम्न गुण का नमक जो तिब्बत द्वारा नेपाल को वितरण किया जाता था। उस समय नेपाल में नमक तिब्बत से ही आया करता था। नेपाल से एक प्रतिनिधि मंडल इस विवाद को सुलझाने के लिए तिब्बत भेजा गया था, लेकिन प्रतिनिधि मंडल की माँग को तिब्बत ने नकार दिया। इस तरह नेपाल को तिब्बत के साथ सम्बन्ध रखने में कोई इच्छा नहीं रही और नेपाल ने कई दिशाओं से तिब्बत पर हमला बोल दिया।.
प्रथम आक्रमण
1789 में बहादूर शाह ने दामोदर पांडे और बम शाह के संयुक्त नेतृत्व में तिब्बत पर आक्रमण करने के लिए गोरखा सैनिक को तिब्बत भेजा। गोरखा सैनिक कुटी के रास्ते तिब्बत में प्रवेश कियें और ताशिलहुन्बो (कुटी से लगभग 410 किलोमीटर) तक पहुँच गये। एक उग्र दल शिकारजोंग में लड़ा जहाँ तिब्बत को बुरी तरह से हार माननी पड़ी। तब तेसु लामा और शाकिया लामा ने गोरखा दल से शांति वार्ता के लिए अनुरोध किया। तब गोरखा दल ने उन्हे छोड़ दिया और कुटी और केरुंग (गेरोंग) कि ओर प्रस्थान किया। जब चीन के सम्राट ने यह सुना कि गोरखा सैनिकों ने तिब्बत के ऊपर हमला बोल दिया है तो जनरल चंचु के निर्देष पर चीनी सैनिकों कि एक बड़ी टुकड़ी भेजी गई। जनरल चंचु स्थिती का जायजा लेने खुद तिब्बती लामा के पास पहुँचा। उसने निश्चय किया कि जब तक यह विवाद सुलझ नहीं जाता वह यहीं रहेगा। तिब्बत और नेपाल के प्रतिनिधी शांती वार्ता के लिए केरुंग में 1790 में मिले। इस वार्ता में यह नतिजा निकला कि इस झगड़े का जिम्मेदार तिब्बत था औ इसलिए युद्ध में हुए क्षति का हरजाना भी तिब्बत ही भरेगा और सम्मान हरजाने के रूप में तिब्बत सलाना नेपाल को 50,001 रुपया बतौर देगा और नेपाल भी युद्ध में आर्जित किये गये क्षेत्र को तिब्बत को वापस दे देगा। नेपाली प्रतिनिधी को प्रथम भुगतान के रूप में तिब्बत द्बारा 50,001 रुपये दिये गये ताकि उनका आर्जित क्षेत्र उन्हे वापस मिल जाए। और नेपाल ने तिब्बत का क्षेत्र - केरुंग, कुटी, लोंगा, झुंगा और फलक उन्हे वापस कर दिया। पर तिब्बत संधि के इस शर्त पर अधिक दिनों तक नहीं चल सका। उसने दुसरे साल में ही हर्जाने के 50,001 रुपये देने से इनकार कर दिया। और यही इनकार नेपाल-तिब्बत युद्ध 2 का नतिजा बना।
द्बितीय आक्रमण
जैसे हि तिब्बत ने हर्जाने के 50.001 रुपये देने से इनकार कर दिया वैसे हि बहादूर साह ने अभिमान सिंह बस्नेत के नेतृत्व में सैनिक कि एक टुकड़ी केरुंग भेजा और दूसरी टुकड़ी दामोदर सिंह के नेतृत्व में 1791 में कुटी भेजा। दामोदर पांडे ने दिगार्चा पर हमला बोला और राजा कि सम्पति को अपने अधिन कर लिया। उसने ल्हासा के मंत्री धोरेन काजी को भी बंदी बना लिया और उसे लेकर नेपाल वापस लौट आया। जैसे हि यह खबर चीन के सम्राट के कानों में पड़ी उसने फुकागन (चीनी: 福 康 安) के नेतृत्व में सैनिक कि एक विशाल टोली जिसमें 70,000 सैनिक थें को तिब्बत के बचाव में भेजा। इस प्रकार 1792 में नेपाल–तिब्बत युद्ध चीन–नेपाल युद्ध में बदल गया। सम्राट किंग (Qing) ने नेपाल से दिगार्चा में लुटे गये तिब्बती सम्पत्ति को वापस तिब्बत को देने के लिए कहा। उन्होने शमर्पा लामा जो नेपाल के शरण में था को भी वापस देने के लिए कहा। पर नेपाल ने इस माँग को पुरा करने से मना कर दिया। सम्राट किंग के शाही सेनाओं ने मिलेट्री प्रतिक्रियओं द्वारा नेपाल को उत्तर दिया। किंग के सैनिक त्रिशुली नदी के किनारे तब तक चलते रहे जब तक कि वे नुवाकोट नहीं पहुँच गये। नेपाली सेना ने किंग सेना के आक्रमण पर धावा बोलने कि कोशिश कि लेकिन, वे पहले हि विषम परिस्थितियों का सामना कर चुके थें। दोनों तरफ बहुत बड़ा नुक्सान हुआ। और चीनी सेनाओं ने गोरखालीयों को वापस नेपाल कि राजधानी के करीब भितरी तराई तक खदेड़ा। यद्यपि एक विस्तृत हार गोरखाली सेना वापस नहीं पा सकें। उसी समय नेपाल दो और जगहों से मिलेट्री शक्तीयों का सामना कर रहा था। सिक्कीम राष्ट्र पुर्वी सीमा के तरफ से नेपाल के प्रति आक्रमण शुरु कर दिया था तो दूसरी तरफ दूर पश्चिम में गढ़वाल के साथ नेपाल लगातार अपने ही सीमा पर लगा हुआ था, राज्य अछाम, डोटी और जुम्ला खुल कर नेपाल का विद्रोह कर रहें थें। इस प्रकार बहादूर शाह को चीन के सम्राट किंग से बचाव करने में नेपाल को बहुत मुश्किल का सामना करना पड़ रहा था। चिन्तित राजा बहादूर शाह ने अंग्रेजों से 10 होवित्जर पर्वतिय बन्दुक के लिए कहा। जनरल क्रिक पैट्रीक काठमान्डु पहुँचा, पर उसने हथियार के बदले एक ऐसे सन्धि को स्वीकार करने के लिए कहा जिसके अनुसार अंग्रेज नेपाल में अपना व्यापार करना चाहते थें। वाह रे अंग्रेज के होशियार रुची, अंग्रेजों से हथियार नहीं लिये गये और युद्ध कि स्थिती बहादूर शाह के लिए बहुत ही नाजुक बन गया। क्रमश: एक के बाद एक लड़ाई में सफलता के बाद, चीनी सेनाओं को एक बहुत ही मुख्य घटना का सामना करना पड़ा जिससे उन्हे वापस पिछे हटने के लिए मजबुर होना पड़ा जब वे बेत्रावती नदी जो नुवाकोट में गोरखा महल के पास है पार करने कि कोशिश कर रहें थें वर्षा ऋतु में बाढ़ीत नदी पानी से लबालब भरा हुआ था। जैसे ही चीनी सेना नुवाकोट के नजदीक बेत्रावती नदी के दक्षिण पहुँची, नेपाली सेना के लिए काठमान्डु में उनका इन्तजार करना बहुत ही मुश्किल हो रहा था। 19 सितम्बर 1792, जब चीनी सेना बेत्रावती नदी के किनारे आराम कर रही थी तब नेपालीयों कि लगभग 200 से भी कम संख्या वाली सेना ने जीतपुर फेदी जहाँ सैनिकों का पड़ाव था पर प्रतिआक्रमण कर दिया। नेपाली सेनाओं ने एक युक्ती अपनाई वे अपने हाथों में मशाल जलाकर उनके कैम्प कि ओर चल पड़े। वहाँ उन्होने मशाल को पेड़ कि शाखाओं से बाँधा और जलती हुई मशाल जानवरों के सिंग से बाँध कर दुश्मनों कि ओर दौड़ा दिया। इस तरह किंग के सेना हार गये और इस तरह से नेपाल को ज्यादा क्षति भी नहीं उठाना पड़ा। एक गतिरोध तो उभर हि आया था और पश्चिमी सीमा पर कम या उभरते अनिश्चितता पर वे कितने देर तक अपने युक्ति से अभियान जारी रख पाते इसलिए गोरखालियों ने चीन के शर्त पर एक सन्धि पर हस्ताक्षर किया जिसमें दूसरे माँग के साथ एक माँग यह भी था कि हर पाँच साल पर नेपाल चीन को सम्मान भुगतानी भी भेजेगा।।
परिणाम
- गोरखा अभियान (नेपाल) १७९२ - ९३ में विजय प्राप्त आर्मियों के लिए विजय-भोज
किंग कमान्डर जनरल फुकागन ने नेपाल सरकार को एक प्रस्ताव भेजा जिसमें शांति सन्धि के अनुमोदन के लिए कहा गया था। बहादूर शाह खुद भी चीन के साथ सौहार्दपुर्ण सम्बन्ध रखना चाहते थें। वह प्रस्ताव स्वीकार करने के लिए तैयार हो गये और 1792 में बेट्रावल में मैत्री सन्धि का निष्कर्ष निकाला गया। इस सन्धि में निम्नलिखित शर्तें थीं:
- नेपाल और तिब्बत दोनों चीन के अधिपत्य को स्वीकार करेंगे।
- ल्हासा में तिब्बतियों द्वारा लुटे गये नेपाली व्यापारीयों को तिब्बत सरकार हर्जाना देगी।
- नेपाली नागरिकों को तिब्बत या चीन के किसी भी क्षेत्र में जाकर व्यापार या उद्योग स्थापित करने का अधिकार होगा।
- नेपाल और तिब्बत के बीच यदि किसी भी प्रकार का विवाद उत्पन्न होगा तो चीन बीच में हस्तक्षेप करेगा और दोनों देशों के अनुरोध पर विवाद का निपटारा करेगा।
- नेपाल के ऊपर यदि कोई बाहरी आक्रमण होगा तो चीन उसका बचाव करेगा।
- नेपाल और तिब्बत दोनो हर पाँच साल में एक बार अपने प्रतिनिधी को सम्मान भुगतानी के लिए चीन भेजेगा।
- प्रतिनिधी जो सम्मान भुगतानी करने चीन जाएगा उसे विशेष मेहमान का दर्जा दिया जाएगा और उसकी हर खातिरदारी कि जाएगी और लौटते समय चीन सरकार दोनों देशों को विशेष भेंट भी प्रदान करेगी।
इस युद्ध के तुरंत बाद तिब्बत चीन के अधिन आ गया जबकि नेपाल फिर भी स्वायत्त और स्वतन्त्र रहा। 19वी सदी के दौरान किंग राजवंश इस तरह से कमजोर हो गया था कि उसने इस सन्धी की उपेक्षा भी कि। उदाहरण के लिए, नेपाल-अंग्रेज युद्ध 1814-16 के दौरान, जब ब्रिटिश ईस्ट इंडिया कम्पनि ने नेपाल के विरुद्ध युद्ध कि घोषणा कि, तब वह उस संघर्ष में अपने सामन्त कि मदद करने में ही नाकाम न रहा, वल्कि वह नेपाली क्षेत्र ब्रिटिश द्वारा छिनने से भी बचाने में नाकाम रहा। उसी तरह दूसरे नेपाल-तिब्बत युद्ध 1855-56 में स्पष्ट रूप से अनुपस्थित रहा।
इन्हें भी देखें
ध्यान योग्य
References
- F.W. Mote. (1999). Imperial China 900-1800. Cambridge, MA: Harvard University Press, pp. 936–939.
- Rose, Leo E. (1971). Nepal; strategy for survival. University of California Press.
- Regmi, Mahesh C. (ed.). (1970). An official Nepali account of the Nepal-China War, Regmi Research Series, Year 2, No. 8, 1970. pp. 177–188.
- Norbu, Thubten Jigme and Turnbull, Colin. (1968). Tibet: Its History, Religion and People. Reprint: Penguin Books, 1987, p. 272.
- Stein, R. A. (1972). Tibetan Civilization, p. 88. Stanford University Press. ISBN 0-8047-0806-1 (cloth); ISBN 0-8047-0901-7 (pbk)