सिंधिया

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मराठा वंश
'शिंदे(सिंधिया)|
उपनाम शिंदे (सिंधिया, राजेसेंद्रक)
जाति [१] कूर्मि मराठा क्षत्रिय
कुल सूर्यवंश (सर्प या शेशवंशी शाखा)
शीर्षक प्रभाकरवर्मा
धर्म हिन्दू.
मूल राज्य रणथंबौर और् पत्तदकल
अन्य राज्य ग्वालियर, उज्जैन, बादामी.
राजधानी सातारा गाँव
रंग लाल
निशान ध्वज पर सर्प[२][३]
कुल देव ज्योतिबा (महादेव) kolhapur, Maharashtra.
कुल देवी तुलजा-भवानी (तुलजापुर, महाराष्ट्र), काली, महागौरी, रामवर्दायिनी.
देवक मृगवेल/मरिदकाचावेल या आगादा (महाराष्ट्र में पाया जाने वाला एक पौधा), कलंब, रूई और मोरवेल[४]
गुरु कौन्डिन्य
गोत्र कौन्डिन्य
वेद् ॠगवेद्
मंत्र यजुर्वेद् - मध्यंदिन, गायत्री मंत्र
प्रवर अंगीरस, बृहस्पती और कौंडीन्य
विजय हथियार तलवार्
गुह्यसूत्र परक्ष
स्थान महाराष्ट्र, कर्नाटक, मध्य प्रदेश, गुजरात और गोवा
भाषा मराठी, गुजराती, हिन्दी, कन्नड, संस्कृत.

सिंधिया राजवंश राणोजी सिंधिया, जो महाराष्ट्र के सातारा जिले में कान्हेरखेड गांव के पाटिल जानकोजीराव के पुत्र थे, द्वारा स्थापित किया गया था।

इतिहास

रणोजी सिंधिया

सिंधिया राजवंश राणोजी सिंधिया, जो महाराष्ट्र के सातारा जिले में कान्हेरखेड गांव के पाटिल जानकोजीराव के पुत्र द्वारा स्थापित किया गया था। १८१८ के तीसरे आंग्ल-मराठा युद्ध में अंग्रेजों के हाथों मराठा राज्यों की हार के बाद, दौलतराव सिंधिया ब्रिटिश भारत के भीतर एक रियासत के रूप में स्थानीय स्वायत्तता स्वीकार करने और अजमेर को अंग्रेज़ो को देने के लिए मजबूर हो गये। दौलतराव की मृत्यु के बाद, महारानी बैज़ा बाई ने साम्राज्य चलाया और ब्रिटिश सत्ता से बची रही, उसके बाद उनके गोद लिए हुए जानकोजी राव ने सत्ता संभाली। जानकोजी की मृत्यु १८४३ में हुई और उनकी विधवा ताराबाई राजे सिंधिया ने सफलतापूर्वक स्थिति को यथावत बनाए रखा और जयाजीराव नामक बालक को गोद लिया।
सिंधिया परिवार ने १९४७ तक भारत की स्वतंत्रता तक ग्वालियर पर शासन किया। तब महाराजा जीवाजिराव सिंधिया ने भारत मे विलय के लिये स्वीकृति दे दी। ग्वालियर अन्य रियासतों के साथ विलय के साथ मध्य भारत का नया राज्य बन गया। जॉर्ज जीवाजिराव ने राज्यप्रमुख के रूप में २८ मई १९४८ से ३१ अक्टूबर १९५६ तक कार्य किया, तब मध्य भारत का मध्य प्रदेश में विलय कर दिया गया।
१९६२ में महाराजा जीवाजिराव की विधवा, राजमाता विजयाराजे सिंधिया लोकसभा के लिए निर्वाचित हुईं और इस प्रकार सिंधिया परिवार की चुनावी राजनीति में जीवन - यात्रा प्रारंभ हुई। वे शुरू मे कांग्रेस पार्टी की सदस्य थी, परन्तु बाद में भारतीय जनता पार्टी की एक प्रभावशाली सदस्य बन कर उभरीं। उनके पुत्र माधवराव सिंधिया १९७१ में कांग्रेस पार्टी का प्रतिनिधित्व करते हुए लोकसभा के लिए निर्वाचित हुए और २००१ मे मृत्यु तक लोकसभा के सदस्य रहे। उनके पुत्र ज्योतिरादित्य सिंधिया भी अपने पिता की लोक सभा सीट पर कांग्रेस पार्टी के टिकट पर २००४ चुने गये।
विजयाराजे की बेटियों ने भारतीय जनता पार्टी का समर्थन किया है। वसुंधरा राजे सिंधिया ने मध्य प्रदेश और राजस्थान से पाँच संसदीय चुनावों मे विजय पाई। १९९८ के बाद के वाजपेयी सरकार के शासनकाल मे वसुंधरा ने कई अलग अलग मंत्रालयों का प्रभार संभाला। २००३ मे उन्होने राजस्थान में भारतीय जनता पार्टी का नेतृत्व करते हुये भारी बहुमत हासिल और राज्य की मुख्यमंत्री बनी। उसकी दूसरी बेटी, यशोधरा राजे सिंधिया ने मध्य प्रदेश के शिवपुरी से विधानसभा चुनाव लड़ा और १९९८ और २००३ में विजय प्राप्त की। मध्य प्रदेश विधान सभा चुनावो में भाजपा की जीत पर, वे पर्यटन, खेल और युवा मामलों के लिए राज्य मंत्री बनी। वसुंधरा के पुत्र दुष्यंत सिंह ने २००४ में राजस्थान से लोकसभा में प्रवेश किया।

उतपत्ति

सिंधिया परिवार को परंपरागत रूप से राजा (सेंद्रक) सिंधिया और पुराने मराठा वंश का वंशज माना जाता है। सिंधिया ने छत्रपती शिवाजी महाराज के वंशजो की रक्षा की है और डेक्कन के बहमनी सल्तनत के रिश्तेदार भी रहे।

शाखाएं

आपटेकर, भुसे, देसाई, कुल्हर, कोल्हे, कुर्वासिन्दे, जटायु, जद्बुद्धे, जादे, जयसिन्धिया, डाबले, डोरगे, दुर्देसिन्धिया, नगवाडे, नेकुलसिन्धिया, नेकनामदार, नेभले, प्रतापसिन्धिया, भागलकर, भुरे, भोरे, भेड, मुंग, घाटे, मुके, मुंगेकर, मुगूल, टिङरे, विजयसिन्धिया, वालेकर, वाबले, शिशुपालसिन्धियया, सक्तपालसिन्धिया, सिताजासिन्धियया, भैरवसिन्धियया, महाकालसिन्धिया, मुलसिन्धियया, मुडे, पाइगुडे, घुले, जेधे और मते आदि।

उपवंश

  • पायगुडे - पुणे प्रान्त के ३५ गाँवों के देशमुख व करंजवणे देशमुख
  • देसाई - सतारा जिले के पाटन में कई गाँवों के देशमुखों का उपनाम
  • सिंधिया - तोरगल का एक वंश, जिन्होने कोल्हापुर के छत्रपती भोंसले वंश के साथ वैवाहिक संबंध स्थापित किये
  • सिंधिया - मलणगांव का एक वंश, जो बीजापुर की सल्तनत के जमाने से मलणगांव का सरनजामदार थे
  • सिंधिया - पुणे जिले में सूबेदार, खोर, तालुका, धौंड/दौंड, श्रीगोंदा (अहमदनगर)
  • वाबले - कोपरगाँव (अहमदनगर) जिले के देशमुख

उपाधि

  • १७४५ - श्रीमंत सरदार (नाम) सिंधिया बहादुर
  • १७४५-१७८७ - मेहरबान श्रीमंत सरदार (नाम) सिंधिया बहादुर
  • १७८७-१७९० - हिज़ हायनेस महाराजाधिराज महाराजा साहिब सूबेदार श्रीमंत (नाम) सिंधिया बहादुर महाराजा सिंधिया ऑफ़ ग्वालियर
  • १७९०-१७९४ - हिज़ हायनेस आली जाह, उमदत उल-उमारा, फ़रज़ांद-ए-अर्जुमंद, महाराजाधिराज महाराजा साहिब सूबेदार श्रीमंत (नाम) सिंधिया बहादुर, श्रीनाथ, मंसूर-ए-ज़मान, नायब उल-इस्तिक़लाल-ए-महाराजाधिराज सवाई माधव राव नारायण, महाराजा सिंधिया ऑफ़ ग्वालियर
  • १७९४-१८२७ - हिज़ हायनेस आली जाह, नायब वकी़ल-ए-मुतलाक़, आमीर उल-उमारा, मुख़्तार उल-मुल्क, महाराजाधिराज महाराजा श्रीमंत (नाम) सिंधिया बहादुर, महाराजा सिंधिया ऑफ़ ग्वालियर
  • १८२७-१८४५ - हिज़ हायनेस आली जाह, उमदत उल-उमारा, हिसाम उस-सल्तनत, मुख़्तार उल-मुल्क, महाराजाधिराज महाराजा श्रीमंत (नाम) सिंधिया बहादुर, श्रीनाथ, मंसूर-ए-ज़मान, महाराजा सिंधिया ऑफ़ ग्वालियर
  • १८४५-१८६१ - हिज़ हायनेस आली जाह, उमदत उल-उमारा, हिसाम उस-सल्तनत, मुख़्तार उल-मुल्क, अज़ीम उल-इक़्तिदार, रफ़ी-एस-शान, वाला शिको़ह, मुहतशम-ए-दौरान, महाराजाधिराज महाराजा श्रीमंत (नाम) सिंधिया बहादुर, श्रीनाथ, मंसूर-ए-ज़मान
  • १८६१-१९०१ - हिज़ हायनेस आली जाह, उमदत उल-उमारा, हिसाम उस-सल्तनत, मुख़्तार उल-मुल्क, अज़ीम उल-इक़्तिदार, रफ़ी-एस-शान, वाला शिको़ह, मुहतशम-ए-दौरान, महाराजाधिराज महाराजा श्रीमंत (नाम) सिंधिया बहादुर, श्रीनाथ, मंसूर-ए-ज़मान, फ़िदवी-ए-हज़रत-ए-मलिका-ए-मुआज़मा-ए-रफ़ी-उद-दर्जा-ए-इंगलिस्तान
  • १९०१-१९५२ - हिज़ हायनेस आली जाह, उमदत उल-उमारा, हिसाम उस-सल्तनत, मुख़्तार उल-मुल्क, अज़ीम उल-इक़्तिदार, रफ़ी-एस-शान, वाला शिको़ह, मुहतशम-ए-दौरान, महाराजाधिराज महाराजा श्रीमंत (नाम) सिंधिया बहादुर, श्रीनाथ, मंसूर-ए-ज़मान, फ़िदवी-ए-हज़रत-ए-मलिका-ए-मुआज़म-ए-रफ़ी-उद-दर्जत-ए-इंगलिस्तान
  • १९५२-१९६९ - हिज़ हायनेस आली जाह, उमदत उल-उमारा, हिसाम उस-सल्तनत, मुख़्तार उल-मुल्क, अज़ीम उल-इक़्तिदार, रफ़ी-एस-शान, वाला शिको़ह, मुहतशम-ए-दौरान, महाराजाधिराज महाराजा श्रीमंत (नाम) सिंधिया बहादुर, श्रीनाथ, मंसूर-ए-ज़मान, फ़िदवी-ए-हज़रत-ए-मलिका-ए-मुआज़मा-ए-रफ़ी-उद-दर्जा-ए-इंगलिस्तान

महाराष्ट्र के शिंदे/सिंधिया महाराज वंशज

१.विठोजी शिंदे (१६३८-७४) २.जनकोजी शिंदे (१६६३-१७२१) ३.राणोजी शिंदे (१६९९-१७४५) ४.अ.जय्याप्पाजी शिंदे (१७२०-५५)

 *ब.दत्ताजी शिंदे* (१७२३-६०)
  क.जनकोजी शिंदे (१७२६-६०)
  ड.तुकोजी शिंदे (१७२७-६१)
  इ.महादजी शिंदे (१७२९-९४)

४.(ब) दत्ताजी वंशज ⬇ ५.मानाजीराव शिंदे (१७४४-६८) ६.कृष्णाजी शिंदे (१७६७-१८०९) ७.व्यंकोजीराव शिंदे (१७८९-१८५३)

  • पुत्र प्रेम विरह दुःख निधन*

८.जयसिंगजी शिंदे (१८१२-५२) ९.रघुनाथराव शिंदे (१८३६-८९)

  • (कोल्हापूर संस्थानाचे शिवाजी ४थे महाराज यांचे मल्ल गुरु)*

१०.गणोजीराव शिंदे (१८६१-१९२६) ११.तुकारामजी/मारुतीराव शिंदे (१८८६-१९६२) १२.विठ्ठलराव शिंदे (१९१०-९३)

  • (गोवा मुक्ती संग्रामात सहभागी)*

१३.रोहिदासराव शिंदे (१९६१-"*") १४.रविंद्र/आबासाहेब शिंदे (१९९०-"*")


  • "शिंदे आडनाव बदल विषयी"*

राजेसेंद्रिक ~ शिंदे ~ सिंधिया

  • "दत्ताजीराव शिंदे/सिंधिया विशेष"*
  • "श्रीमंत मेहेरबान जहॉंगीरदार राजेसेंद्रक/शिंदे/सिंधिया सरदार"*

दत्ताजी शिंदे हे मराठ्यांचे शूर सरदार होते. पानिपतच्या युद्धात नजीबखानाने त्यांना ठार मारले.. मरण्याच्या आगोदर नजीबने त्यांना विचारले होते *'क्यूँ पाटील लढोगे?' त्यावर दत्ताजींनी दिलेले उत्तर 'क्यूँ नही, बचेंगे तो और भी लढेंगे* हे उत्तर अजरामर झाले.

दत्ताजी शिंदे हे राणोजी शिंद्याचे द्वितीय सुपुत्र, जयाप्पा यांचा सख्खा व महादजींचा सावत्र भाऊ. जयाप्पाजी मेल्यानंतर (१७५५) शिंदे घराण्याची सरदारकी जयाप्पाजींचे पुत्र जनकोजी यास मिळाली. परंतु तो लहान होता म्हणून दत्ताजीच कारभार पाही. या चुलत्या-पुतण्यांनी अनेक पराक्रम केले व उत्तर हिंदुस्थानांतील पुष्कळ प्रांत मराठा साम्राज्यांत समाविष्ट केले.

कुकडीच्या (आत्ताचे ता.खेड, पुणे) लढाईत ज्या अकरा शूर असामींनी थेट निजामाच्या हत्तीवर चाल करून त्याची डोलाची अंबारी खालीं पाडली. त्यांपैकीं दत्ताजी हे एक होते. (१७५१) त्यानंतर पुन्हा निजामानें उपसर्ग दिल्याने पेशव्यांनी दत्ताजी यांस मुख्य सेनापती करुन व बरोबर विश्वासरावास देऊन निजामावर पाठविलें. त्यानें शिंदखेड येथें निजामाला गांठून त्याचा पूर्ण मोड केला व पंचवीस लक्षांचा प्रांत व नळदुर्ग किल्ला मिळविला (१७५७). जयाप्पा यांचा ज्या बिजसिंगाच्या (मारवाडावरील) मोहिमेत खून झाला, त्या मोहिमेतही दत्ताजी होते; खून झाल्यावर दत्ताजीनीं तें दुःख एकीकडे ठेवून बिजेसिंगाचा मोड केला व (जून १७५५). पुढें दत्ताजींनी सर्व मारवाडचें राज्य घेऊन त्याचा तिसरा हिस्सा मराठा साम्राज्यांत दाखल करुन पांच कोट रु. खंडणी मिळविली (१७५६). नंतर बुंदीच्या राणीस मदत करुन व तिचा मुलगा गादीवर बसवून, दत्ताजींनी ४० लाख रुपये मिळविले व सरकारचें बरेंच कर्ज फेडले (१७५६). पुढील सालीं दादासाहेब (?) अबदालीवर गेला असतां व मल्हारराव होळकर, राजेबहाद्दर वगैरे मंडळी त्यांना मदत करण्यांत कुचराई करीत असतां, त्यानें दत्ताजी यांस धाडण्याबद्दल पेशव्यांस अनेक पत्र लिहिली आहेत.

यावेळी दत्ताजींनी आपलें दुसरे लग्न उरकून घेतले. (१७५८ त्यांच्या दुसऱ्या पत्नीचें नांव भागीरथीबाई) त्यांच्या पहिल्या पत्नी यशोदाबाई विवाहानंतर काही वर्षांतच (१७४६) स्वर्गवासी गेल्यामुळे त्यांनी हे दुसरे लग्न केले [यशोदाबाईं कडून दत्ताजीरावांना मानाजी नावाचा एक पुत्र प्राप्त झाला (१७४४), परंतु संगोपनासाठी मानाजीस वानवडी (पुणे) याठिकाणी ठेवण्यात आले, काही काळानंतर दत्ताजीरावांच्या मातोश्रींनी मानाजीस श्रीगोंद्यात आपल्या बरोबर ठेवून घेतलं.] दुसरे लग्न उरकून दत्ताजीराव उज्जयिनीस आले. तेथें मल्हाररावानें त्यांचा भोळा स्वभाव पाहून त्यास दादासाहेबाने सांगितलेल्या नजीबखानाचें पारिपत्य करण्याच्या कामगिरीपासून परावृत्त केलें. याचवेळी मल्हाररावानें "नजीब खळी राखावा, न राखल्यास पेशवे तुम्हां आम्हांस धोत्रे बडविण्यास लावितील" असे उद्‍गार काढिले. जनकोजी लहान पण मुत्सद्दी असल्याने, त्याने हा सल्ला फेटाळला, पण भोळ्या दत्ताजीनी तो स्वीकारुन नजीबास राखलें, मात्र त्याच नजीबानें दत्ताजीचा विश्वासघातानें प्राण घेतला.

उज्जैनहून निघून दत्ताजी, जनकोजी दिल्लीस आले. पेशव्यानें(?) त्यांना नजीबाचें पारिपत्य, बंगाल काबीज करणे, लाहोर सोडविणे, काशी प्रयाग घेणे व पुष्कळ पैसा घेऊन दादासाहेबाने (?) केलेंले स्वारी कर्ज फेडणें वगैरे कामें सांगितली होती. *पेशव्यांना दत्ताजी हे जे चित्तावर धरील ते करील असा भरंवसा होता*, मध्यंतरी तोफांच्या प्रकरणावरून दत्ताजीचें व गाजीउद्दीनाचें भांडण झालें होते. नंतर त्यांनी अबदालीच्या सुभेदारापासून लाहोर घेतलें (एप्रिल १७५८) व परत यमुनाकाठी रामघाटास दाखल झाले. यावेळीं सरकारी कर्जाची ५० लाखांची वर्गत त्यांच्यावर आली होती.

यावेळी दिल्ली मराठ्यांच्या ताब्यांत कायमची गेल्यासारखी झाल्याने नजीबाने व बादशहाने गुप्‍तपणें पत्रे लिहून अबदालीस ताबडतोब बोलाविलें व दत्ताजी यांस भागीरथीवर पूल बांधून देण्याच्या गुळचट थापा देऊन स्वस्थ बसविलें. याप्रमाणें नजीबाने सहा महिने (एप्रिल ते आक्टोबर) पुलाच्या थापेवर त्यांना झुलविलें व त्यांच्या विरुद्ध आपली सर्व तयारी चालविली आणि आंतून सर्व मुसुलमानांशी कारस्थानें करुन नोव्हेंबरांत अबदालीस दत्ताजी यांच्यावर आणवून त्यांस कैचीत पकडले.

आतां दत्ताजीस नजीबाचे कपट उमगले; परंतु आतां त्याचा कांही उपयोग नव्हता. गंगेचा पूल नजीबाच्या ताब्यांत होता आणि तो तर अबदालीला उघड मदत करीत होता. अशा वेळींहि दत्ताजींनी एकाएकीं नजीबावर स्वारी करुन त्याला शुक्रतालाहून हांकलून गंगेपलीकडे रेटलें. ही लढाई मातब्बर होऊन तींत जनकोजी व दत्ताजी दोघेहि जखमी परंतु विजयी झाले (आक्टोबर). यावेळीं नजीबानें त्यांच्याशी तात्पुरता तह केला; सुजाने हरिद्वाराच्या गंगेचे नाकें दाबून धरल्याने व अबदाली कुरुक्षेत्रास आल्याने, दत्ताजीनें गंगापार जाण्याचें रहित करुन कुरुक्षेत्री अबदालीची गांठ घेतली (२२ डिसेंबर). याप्रमाणें दत्ताजी हा घेरला गेला व हें सर्व कृत्य नजीबाने केले. त्याचप्रमाणें सुजानेहि एक कोट रु. खंडणी देण्याची थाप देऊन दत्ताजी यांस शुक्रतालास अबदाली येईपर्यंत अडकवून ठेविलें.

यावेळीं दत्ताजी मागें अहमदशहा अबदाली व पुढें रोहिले अशा कैचींत सांपडले होते. जर मागे सरून ते जयपूरकडे वळते तर प्रसंग टळता; परंतु मागे सरणे त्या शूर पुरुषास आवडेना. त्यानें जनकोजी व कबिले यांनी दिल्लीस पाठवून दिले शुक्रताल सोडून कुंजपुर्‍यास यमुना उतरून अहमदहहा अबदालीची गांठ घेतली, व त्या दिवशीं त्यांचा पराभव केला (२४ डिसेंबर १७५९). परंतु लागलीच अबदाली कुंजपुर्‍यास यमुनापार होऊन नजीब, सुजा व अहंमद बंगश यांस मिळाला. याप्रमाणें एकंदर सर्व मुसुलमान एक झाले व दत्ताजी एकटे पडले. हें समजल्यावर मल्हाररावास त्याच्या मदतीस जाण्याबद्दल पेशव्यांनी अनेकदां हुकूम पाठविले, परंतु तो मुद्दामच जयपूरकडे रेंगाळत राहिला. तसेच पेशव्यांकडून मदत मिळेना परंतु माघार घ्यावयाचीच नाहीं या वाण्याने दत्ताजींनी लढायचे ठरवले . शेवटी दत्ताजी दिल्लीस येऊन (जाने. १७६०) जनकोजीस मिळाले. तेव्हांहि जनकोजीने व पदरच्या सर्व मंडळीने त्यांना परत फिरण्याचा सल्ला दिला पण अपेश घेऊन श्रीमंतांस काय तोंड दाखविणे, असें म्हणून त्यांनी तो नाकारला. नंतर युद्धाचा मुकाबला निश्चित करुन, पार होण्यासाठीं यमुनेचा ठाव पहातां तो लागेना व गिलच्यांचे लोक तर उलट नदी उतरून अलीकडे येऊन हल्ले करुं लागले हें पाहून दत्ताजी चिडले. शेवटी संक्रांतीच्या दिवशी तिळगूळ वाटून, तयारी करुन हत्ती यमुनेंत घालून व त्यांच्या पायांत अंदू घालून, तीन घटका दिवसास दत्ताजीनी गिलच्यांशी युद्ध सुरू केलें (१० जानेवारी १७६०). गिलच्यानें आपल्या तोंडावर असलेल्या जानराव वाबळे, बयाजी शिंदे व गोविंदपंत बुंदेले या सर्वांनां मागे रेटून यमुना उतरून व पांच घटकांत पांचशें मराठे ठार मारुन थेट जरीपटक्यावरच चाल केली. तेव्हां सर्वत्र धुंद झाली. गिलच्यांच्या तोफांचा व बंदुकांचा मारा फार होऊ लागला. तेव्हां जिवाची तमा सोडून उभयतां पाटीलबावा निशाण बचावण्यासाठी झोंंबू लागले. जागा फार अडचणीची, नदीतीर, शेरणीची बेटे; त्यांत मराठे अडकले. हत्तीवरील आठवी घटका वाजली. तो जनकोजीच्या दंडास गोळी लागून तो बेशुद्ध झाला. तें पहातांच दत्ताजींनी जोरानें गिलच्यांवर घोडे घातले. इतक्यांत यशवंत जगदाळे पडला. त्याचें प्रेत काढण्यास दत्ताजी गेले, तों उजव्या बरगडींत गोळी लागून ते घोड्याखाली आले. त्यावेळीं अबदालीकडील शहानें त्याला विचारिलें कीं, क्यो पाटील, हमारे साथ लढेंगे?' त्यास त्या शूर पुरुषाने उत्तर दिलें कीं, *"क्यो नही बचेंगे तो और भी लढेंगे".* परंतु याच वेळी त्याचा प्राण निघून गेला. ही बदाऊंघाटाची लढाई होय.

मराठ्यांच्या इतिहासांत जे हृदयद्रावक व शौर्याचे प्रसंग घडले, त्यांपैकीं दत्ताजी यांचा हा प्रसंग होय. शिंदे घराण्यांत विठोजी, दत्ताजी, जनकोजी, जयाप्पा, महादजींसारखे एक एक पुरुष मराठा साम्राज्याचे अभिमानी होऊन गेले.

वेडात वीर दौडले सात मधील *"विठोजी शिंदे/राजेसेंद्रक"* यांचेच दत्ताजी वंशज..

गर्व आहे आम्हाला आम्ही दत्ताजीराव शिंदे यांच्या कुळातील आहोत.

  • रथोंम्बर/सातारा/पुणे/ग्वाल्हेर/श्रीगोंदा/बुंदेलखंड/जावळी~संस्थान*

सन्दर्भ

  1. साँचा:cite book
  2. स्क्रिप्ट त्रुटि: "citation/CS1" ऐसा कोई मॉड्यूल नहीं है।
  3. https://commons.wikimedia.org/wiki/File:Gwalior_Coat_of_arms.png
  4. साँचा:cite book

इन्हें भी देखें