मध्यकालीन केरल

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केरल का मध्य कालीन इतिहास भी स्वर्ण रहा। कुलशेखर साम्राज्य के पतन काल अर्थात् 12 वीं सदी से लेकर यूरोपीय औपनिवेशिक राज्य के आधिपत्य जमने के काल अर्थात् 17 वीं सदी तक का काल केरलीय इतिहास में मध्यकाल के नाम से जाना जाता है। यही वह काल था - अनेक रियासतों में बंटा हुआ केरल पश्चिम के अधीन हो गया। इस अवधि में केरल का सामाजिक एवं सांस्कृतिक दृष्टि से भी महत्वपूर्ण परिवर्तन और विकास हुआ।

चोल शासन

इस काल में चोल राज्य के साथ कुलशेखर साम्राज्य का युद्ध हुआ। यही युद्ध कुलशेखर साम्राज्य के पतन का कारण बना। केरल अनेक रियासतों में बंट गया। इन रियासतों के नाम हैं - वेणाट, एलयिटत्तु स्वरूपम्, आट्टिन्गल, देशिंगनाडु (कोल्लम), करुनागप्पल्लि, कार्तिकपल्लि, कायमकुलम (ओटनाडु), परक्काट (चेम्पकश्शेरि), पन्तलम, तेक्कुमकूर, वटक्कुमकूर, पूंञार, कराप्पुरम (चेर्त्तला), एरणाकुलम प्रदेश (जो कैमलों के अधीन था), इटप्पल्लि, कोच्चि, परवूर, कोडुन्गल्लूर, अयिरूर, तलप्पिल्लि, वळ्ळुवनाड, पालक्काड, कोल्लन्कोड, कवलप्पारा, वेट्टत्तुनाड, परप्पनाड, कुरुम्पुरनाट (कुरुम्परानाट), कोष़िक्कोड, कटत्तनाड, कोलत्तुनाड (वडक्कन कोट्टयम), कुरुन्गोड, रण्डुतरा, आलि राजा का कण्णूर, नीलेश्वरम, कुम्बला आदि। इनमें से सर्वाधिक शक्तिशाली रियासतें थीं - वेणाड, कोच्चि, कोषिक्कोड और कोलत्तुनाड। शासन का अधिकार भी उपर्युक्त चारों रियासतों को ही प्राप्त था। शेष रियासतों के शासक या तो उनके आश्रित थे या छोटे सामंती थे जो माटम्बी कहलाते थे। वे क्षत्रिय, ब्राह्मण और नायर जाति के थे। उन्हीं में से एक था कण्णूर का अरक्कल राजवंश जो इस्लाम धर्म को मानता था।

ब्रिटिश युग

मध्यकाल में केरल की सामाजिक एवं राजनैतिक दृष्टि से नई तस्वीर सामने आयी। 18 वीं सदी में जब केरल पर ब्रिटिशों का अधिकार जमा तब मध्ययुग का अंत हो गया। 16 वीं और 17 वीं सदियाँ मध्यकाल का प्रमुख कालखण्ड था। तत्कालीन सामाजिक संरचना सामंती शासन व्यवस्था पर निर्भर थी। इस राज्य का अधिकार सामंतों के हाथ में था तथापि शासन की बागडोर नायर माटम्पियों के हाथ में थी। उनके पास अपने निजी सैनिक थे। वे सामाजिक व्यवस्था के अभिन्न अंग थे। इस काल में अनेक प्रकार के समर कलाओं का प्रशिक्षण दिया जाता था, उनमें से प्रमुख थीं - कलरिकल, अंकम, पोयत आदि। इनका प्रयोग आपसी युद्ध के वक्त किया जाता था। कुटिप्पका का अर्थ है पीढियों तक चलने वाली बदले की भावना। इन समर कलाओं का प्रयोग इन्हीं कुटिप्पका युद्धों में किया जाता था। उत्तर केरल में प्रचलित वडक्कन पाट्टुकल नामक लोकगीतों में इन सब का वर्णन मिलता है।

इस काल में न्याय पालन की व्यवस्था संबन्धी कोई लिखित सामग्री नहीं थी। प्रायः ब्राह्मणों को अपराध करने पर भी दण्ड नहीं दिया जाता था। अपराध को प्रमाणित करने केलिए 'सत्य परीक्षा' चलाई जाती थी। आरोपित व्यक्ति को उबले तेल में हाथ डुबोकर सत्य सिद्ध करना होता था। हाथ जल गया तो वह अपराधी माना जाता था। इस प्रकार उबले तेल में हाथ डलवाने की परीक्षा की व्यवस्था कतिपय मंदिरों में की गयी थी, जिनमें शुचीन्द्रम्, एट्टुमानूर, तिरुवलयनाटु और चेन्गन्नूर मंदिरों का नाम लिया जाता है।

इस काल में मातृसत्तात्मक दाय प्रथा का प्राधान्य था। जाति व्यवस्था का सर्वाधिक महत्त्व था। ज्ञान और अधिकार ब्राह्मणों की बपौती थी। नायर वर्ग प्रभावशाली था जो संख्या और सामरिक दृष्टि से महत्त्वपूर्ण था। मध्ययुगीन केरल समाज में अस्पृश्यता संबन्धी कुरीतियाँ और सामाजिक भेद भावना थी। दास प्रथा भी प्रचलित थी। मुसलमान और ईसाई दोनों धर्मावलंबियों का समाज में ऊँचा स्थान था। हिन्दू इतर धर्मावलंबियों में मलबार में मुसलमान प्रमुख थे तो दक्षिण केरल में ईसाई लोग।

जिस मध्यकाल में सामाजिक अनाचार, भीषण भेदभाव एवं ब्राह्मणों का आधिपत्य था उसी काल में सांस्कृतिक विकास भी हुआ। ज्योतिष गणित आदि वैज्ञानिक क्षेत्रों में नवजागरण हुआ। संगम ग्राममाधवन, वडश्शेरि परमेश्वरन आदि महान गणितज्ञ इसी काल में हुए। यही नहीं, इसी युग में मलयालम साहित्य की आधार शिला रखी गयी। मलयालम के आदिकाव्य 'रामचरितम' के कवि चीरामन, कण्णश्श कवि से लेकर तुंचत्तु एष़ुत्तच्छन तक के कवि इस काल में हुए।

वेणाड

वेणाड मध्यकालीन केरल का सबसे अधिक शक्तिशाली राज्य था। कुलशेखर साम्राज्य की दक्षिणी सीमा पर स्थित वेणाड 9 वीं शताब्दी में तिरुवनन्तपुरम और कोल्लम के बीच का छोटा सा इलाका मात्र था। तिरुवनन्तपुरम से दक्षिण की ओर का यह भूभाग आय राज्य के अंतर्गत आता था। 12 वीं शती में वेणाड को स्वतंत्र राज्य का पद मिला। राजा 'चिरवामूप्पन' और युवराजा 'तृप्पाप्पूर मूप्पन' कहलाते थे। कोल्लम का पनन्काव नामक स्थान चिरवामूप्पन का केन्द्र था। तिरुवनन्तपुरम के समीपवर्ती इलाके तृप्पाप्पूर को केन्द्र स्थान बनाकर युवराज ने श्री पद्मनाभ स्वामी मंदिर सहित सभी मंदिरों का शासन संभाला था। कहा जाता है कि वेणाड के प्रथम शासक अय्यनडिकल तिरुवटिकल थे। उन्होंने कोल्लम के तरीसा गिरजाघर में 849 ईं में एक ताम्रपत्र लेख लिखा। वह तरिसापळ्ळि चेप्पेड नाम से प्रसिद्ध है। लेकिन वेणाड के आरंभ के शासकों की बहुत कम जानकारी मिली है। अय्यनटिकल के पश्चात् श्री वल्लभन् कोता, गोवर्द्धन मार्ताण्डन आदि इस प्रदेश के शासक बने।

जब चोल सैनिकों ने युद्ध में राजधानी महोदयपुरम को जला दिया तब रामवर्मा कुलशेखरन् नामक कुलशेखर सम्राट उनका सामना करने के लिए कोल्लम गये। चोल सैनिकों के पीछे हटने पर उन्होंने वहीं डेरा डाल दिया। इसलिए उन्हें वेणाड राज्य का संस्थापक माना जा सकता है, ऐसा कुछ इतिहासकारों का कहना है कि पहले वेणाड तथा बाद में तिरुवितांकूर के राजाओं ने कुलशेखर पेरुमाल पदनाम स्वीकार किया था। वेणाड राजाओं की आगे की परंपरा इस प्रकार थी - कोता वर्मा (1102 - 1125), कोता केरल वर्मा अथवा वीर केरल वर्मा (1125 - 1155), वीर रवि वर्मा (1155 - 1165), आदित्य वर्मा (1165 - 1175), उदय मार्त्ताण्ड वर्मा (1175 - 1195), वीर राम वर्मा (1195 - 1205), वीर राम केरल वर्मा अथवा देवधरन केरल वर्मा (1205 - 1215), रवि केरल वर्मा (1215 - 1240), पद्मनाभ मार्ताण्ड वर्मा (1240 - 1253) और रवि वर्मा कुलशेखरन् (1299 - 1314)।

उपर्युक्त सभी राजाओं की राजधानी कोल्लम थी। उस युग में कोल्लम बहुत ही व्यस्त बन्दरगाह था। रवि वर्मा कुलशेखरन के शासन काल में वेणाड का अभूतपूर्ण विकास हुआ। उनके काल तक राज-परम्परा पितृसत्तात्मक प्रणाली का पालन करती थी। रवि वर्मा कुलशेखरन के बाद राज-परम्परा मातृ सत्तात्मक हो गई। इस परम्परा में सत्ता में आए प्रथम शासक थे वीर उदय मार्त्ताण्ड वर्मा (1314 - 1344)। इस राजवंश के शासकों के नाम इस प्रकार हैं - कुन्नुम्मेल वीर केरल वर्मा तिरुवटि (1344 - 1350), इरवि इरवि वर्मा (1350 - 1383), आदित्य वर्मा सर्वांगनाथन (1376 - 1388), चेरउदय मार्त्ताण्ड वर्मा (1383 - 1444), रवि वर्मा (1444 - 1458), वीरराम मार्त्ताण्ड वर्मा कुलशेखरन् (1458 - 1469), कोता आदित्य वर्मा (1469 - 1484), रवि रवि वर्मा (1484 - 1512), रवि केरल वर्मा (1512 - 1514), जयसिंह केरल वर्मा (1514 - 1516), भूतल वीर उदय मार्त्ताण्ड वर्मा (1516 - 1536), भूतलवीर रवि वर्मा, श्री वीर रवि वर्मा, आदित्य वर्मा (तीनों का शासन काल अज्ञात है), श्री वीर केरल वर्मा (1544 - 1545), रवि वर्मा (1545 - 1556), उण्णि केरल वर्मा, श्री वीर उदय मार्ताण्ड वर्मा, श्री वीर रवि वर्मा, आदित्य वर्मा, रामवर्मा, रवि वर्मा (1611 - 1863) इत्यादि। इस परम्परा के राजा रवि वर्मा (1611 - 1663) के शासन काल में तमिलनाडु के मधुरा के शासक तिरुमला नायक्कन ने वेणाड पर आक्रमण किया। यह आक्रमण वेणाड के नांचिनाड भूभाग पर किया गया था जो आज तमिलनाडु का हिस्सा है। यहाँ 'इरविक्कुट्टिप्पिळ्ळपोरू' नामक वेणाड के वीर राजा का प्रशस्ति गान किया गया है जिसने मधुरा के सैनिकों के विरुद्ध युद्ध किये वीर मृत्यु को प्राप्त हुए। रविवर्मा के काल में ही ब्रिटिश ईस्ट इंडिया कंपनी ने विष़िन्जम में एक व्यापारिक संस्था की स्थापना की।

रविवर्मा के शासन काल के उपरान्त शासक बने रवि वर्मा (1663 - 1672) और आदित्य वर्मा (1672 - 1677) अत्यंत दुर्बल थे। इन राजाओं का श्री पद्मनाभस्वामी मंदिर के राजा एट्टरयोगम से मत भेद हो गया। एट्टरयोगम ने मंदिर के अधिकारवाली भूमि का कर वसूल करने का अधिकार अष्ट दिशाओं के आठ नायर माटम्पियों (एट्टुवीट्टिल् पिळ्ळमार) को सौंप दिया। धार्मिक अधिकार प्राप्त एट्टरयोगम और राजनैतिक अधिकार प्राप्त एट्टुवीटर ने मिलकर के राजा को कडी चुनौती दी। राज्य गृहयुद्ध के कगार पर पहुँच गया। उस समय वेणाड की राजधानी कलक्कुळम् थी जो आज तमिलनाडु के अंतर्गत है।

रविवर्मा के बाल्यकाल में उनकी छोटी माँ उमयम्मा रानी ने सन् 1677 से सन् 1684 तक शासन किया। इसी काल में एक साहसी मुगल सरदार (मुकिलन्) ने वेणाड के दक्षिणी हिस्से पर आक्रमण किया। जब मुगल सरदार ने तिरुवनन्तपुरम को अधीन कर लिया तब रानी ने नेडुमन्गाड राजमहल में शरण ली। उस समय वडक्कन कोट्टयम् के केरल वर्मा ने सहायता पहुँचायी। बदले में रानी ने उन्हें वेणाड का दत्तक पुत्र बनाकर इरणियल राजकुमार को मान्यता प्रदान की। तिरुवट्टार के युद्ध में केरल वर्मा ने मुगल सरदार का वध किया। इस युद्ध के उपरान्त केरल वर्मा रानी उमयम्मा के परामर्शदाता बने। उनकी नीतियों से नायर समुदाय के लोग रुष्ट हुए। अतः 1696 में उन्होंने षड़यंत्र रचकर केरल वर्मा को मरवा दिया। वेणाड में केरल वर्मा ने ही पुलप्पेटि और मण्णाप्पेटि जैसी कुरितियाँ बंद कर दी गयी थी।

वेणाद वंश अस्त

उमयम्मा रानी के बाद शासन करनेवाले राजा थे रवि वर्मा (1684 - 1718), आदित्य वर्मा (1718 - 1721) और राम वर्मा (1721 - 1729)। मधुरा के नायक्कर वंश के राजाओं के आक्रमण से वेणाड शिथिल हो गया। 1697 में मधुरा सैनिकों ने वेणाड को बुरी तरह हराया। उसने वेणाड पर कई बन्धन डाले, कई नियम थोप दिये। नान्चिनाड के कृषकों को इसका दुष्परिणाम भुगतना पडा। कर वसूल करनेवाले अधिकारियों ने भूमिहीन कृषकों का खून ही चूस लिया। रामवर्मा के शासन काल में अधिकारी और भूमिहीन कृषकों के बीच अनेक झगड़े हुए। एट्टरयोगम और एट्टुवीट्टिल पिळ्ळै दोनों राजा के विरुद्ध खडे हो गये। अपने अधिकार को बनाये रखने के लिए राजा ने ब्रिटिश ईस्ट इंडिया कंपनी (1723) तथा मधुरा के नायक्करों (1726) के साथ समझौता कर लिया। ये घटनाएँ मार्ताण्ड वर्मा द्वारा अधिकार ग्रहण करने तथा तिरुवितांकूर के बनने का कारण बनीं।

कोज़ीकोड राज्य

कोजीकोड या कोष़िक्कोड' मध्यकालीन केरल के बड़े प्रांतों में से एक था। कोष़िक्कोड के राजा सामूतिरि नाम से जाने जाते थे। सन् 1498 में पुर्तगाली नाविक वास्को द गामा कोष़िक्कोड़ के पास काप्पाड में जहाज़ से उतरा। यही काल था जब सामूतिरि का शासन था। इस घटना से भारत में दीर्घकालीन यूरोपीय शासन का श्रीगणेश हुआ। केरलीय संस्कृति को कोष़िक्कोड और सामूतिरि की महत्वपूर्ण देन है।

ईसा की तेरहवीं शताब्दी से ही कोष़िक्कोड शक्तिशाली राज्य के रूप में विकसित हुआ। कुलशेखर साम्राज्य काल में कोष़िक्कोड और उसके आस पास का स्थान पोलनाड का भूभाग था, जिस पर पोरलातिरियों का शासन चल रहा था। उस काल में मलप्पुरम जिले के नेटियिरुप्पु के एराडियों ने समुद्र व्यापार पर कब्ज़ा करने के लिए पोरलातिरियों के साथ कई बार लडाईयाँ लडीं। एराडियों ने पोलनाड पर अधिकार जमाकर नेटियिरुप्प छोड़कर कोष़िक्कोड को अपना केन्द्र बनाया। नेटियिरुप्पु से कोष़िक्कोड के इस सम्बंध का परिणाम था कि कोष़िक्कोड राजवंश को नेटियिरुप्प स्वरूपम नाम मिला। 14 वीं शताब्दी तक कोष़िक्कोड मज़बूत राज्य बन चुका था।

कोष़िक्कोड बन्दरगाह के विकास से सामूतिरियों के शासन को बल दिया। कोष़िक्कोड से विदेशों में मसाले व कपडे का निर्यात होता था। विदेशी जहाज़ निर्बाध रूप से कोष़िक्कोड आते जाते थे। अरब व चीनी लोग ही वैदेशिक व्यापारियों में प्रमुख थे। व्यापारों का एकाधिकार अरबों को प्राप्त था। इन व्यापारिक संबन्धों ने कोष़िक्कोड को आर्थिक व सैनिक क्षेत्र में उन्नत बनाया।

मामान्कम

सामूतिरि साम्राज्य के विकास होने पर सामूतिरियों ने बेप्पूर, परप्पनाड, वेट्टत्तुनाड, कुरुम्ब्रनाड आदि पडोसी राज्यों को अपने अधीन कर लिया, लेकिन वल्लुवनाड के राजा (वल्लुवक्कोनातिरि) ने सामूतिरि के आधिपत्य को मान्यता नहीं दी। उन दिनों भारतप्पुष़ा नामक नदी के तट पर स्थित तिरुनावाया में आयोजित महोत्सव मामांकम (माघमकम्) के संरक्षक का पद वल्लुवनाट्ट राजा को ही प्राप्त था। इस पद का बड़ा राजनैतिक महत्त्व था, अतः इसे प्राप्त करने के लिए सामूतिरि ने वल्लुवनाड पर धावा बोल दिया। पन्नियूर और चोव्वरा नामक नंबूतिरि ग्रामों के बीच के प्रतिद्वन्द्व में सामूतिरि ने चोव्वरा का साथ देकर पन्नियूर से युद्ध किया। वल्लुवक्कोनातिरि ने पन्नियूर का पक्ष लिया। सामूतिरि ने वल्लुवनाड को परास्त कर मामांकम् के संरक्षक का पद ले लिया। तत्पश्चात् सामूतिरि ने कोच्चि राज्य में चल रहे छोटे - बडों के विवाद में हस्तक्षेप किया। सन् 1498 में जब पुर्तगाली केरल पहुँचे तब सामूतिरि उत्तर केरल के सर्वाधिक शक्तिशाली राजा थे। सामूतिरि ने अपने सबसे बड़े शत्रु कोलत्तनाड को भी अपना अनुयायी बना लिया था।

पुर्तगाली आगमन

सन् 1498 में जब वास्को द गामा केरल पहुँचे तब सामूतिरि ने उनका हार्दिक स्वागत किया। सन् 1500 में दूसरा पुर्तगाली दल पहुँचा जिसके नेता थे पेद्रो आलवरस कब्राल। सामूतिरि ने उन्हें कोष़िक्कोड में व्यापार केन्द्र स्थापित करने की अनुमति दी। लेकिन पुर्तगलियों ने अरब व्यापारियों के एकाधिकार को समाप्त करने के उद्देश्य से उन पर चढाई की जिससे सामूतिरि पुर्तगलियों का विरोध करने लगे। प्रांतीय लोगों ने पुर्तगालियों का व्यापार केन्द्र ध्वस्त कर दिया तो कब्राल कोच्चि पहुँचा। कोच्चि में व्यापार सम्बन्ध सुदृढ करने के बाद कब्राल कण्णूर की ओर बढा तो कोष़िक्कोड की नाविक सेना ने कब्राल के दल पर आक्रमण किया।

पुर्तगाली जीत

जब वास्को द गामा सन् 1502 में पुनः भारत पहुँचा तब उन्होंने सामूतिरि से भेंट की। किन्तु सामूतिरि के मन में पुर्तगालियों के प्रति जो वैरभाव था वह कुछ कम नहीं हुआ था। उन्होंने कोष़िक्कोड से अरब व्यापारियों को निकाल देने की गामा की माँग पर सामूतिरि ने ध्यान नहीं दिया। लेकिन कोच्चि का पुर्तगाली प्रेम सामूतिरि को खटकता था, इसलिए उन्होंने कोच्चि से पुर्तगालियों को राज्य से निकाल देने की माँग की। किन्तु कोच्चि के महाराजा ने सामूतिरि की माँग को अनसुना कर दिया। परिणाम स्वरूप सन् 1503 के मार्च को कोष़िक्कोड सेना ने कोच्चि की तरफ प्रस्थान किया। पुर्तगालियों से सहायता मिलने पर भी कोच्चि को हार का सामना करना पड़ा। कोच्चि के महाराजा ने भागकर इलंकुन्नप्पुष़ा मंदिर में शरण ली। सितम्बर में पुर्तगाली सेना सहायता के लिए पहुँच गयी। उसने कोष़िक्कोड को परास्त कर कोच्चि राजा को पुनः गद्दी पर बिठाया। सामूतिरि ने 1504 में पुनः आक्रमण किया किन्तु इस बार उसे पराजित होना पड़ा। सामूतिरि के अधीन कोडुंगल्लूर प्रान्त को पुर्तगलियों ने जीत लिया।

मध्ययुगीन केरल में यदि कोई पुर्तगालियों का सामना कर सका तो वह मात्र सामुतिरि ही थे। पुर्तगालियों के अधीनस्थ प्रदेशों के प्रतिनिधि बनकर 1505 में फ्रान्सिस्को अलमेयदा पहुँचे। उन्होंने कण्णूर और कोच्चि में किले बनवाये। राजा कोलत्तिरि ने पुर्तगालियों से मित्रता की। परंतु सामूतिरि की प्रेरणा से कोलत्तिरि पुर्तगालियों के विरुद्ध हो गये। सामूतिरि के सैनिकों ने कई बार पुर्तगालियों का सामना किया।

सामीतिरि की इस शक्ति के पीछे वह नाविक सेना थी जिसका नेतृत्व कुंजालि मरक्कार कर रहे थे। कुंजालि द्वारा किया गया युद्ध केरल के इतिहास का स्वर्णिम अध्याय है। सन् 1531 में वेट्टत्तुनाड के चालियम में पुर्तगालियों द्वारा बनवाया गया किला सामूतिरि के सामने कड़ी चुनौती बन गया। सन् 1540 में सामूतिरि और पुर्तगालियों के बीच अस्थाई रूप में युद्ध बन्द करने केलिए संधि हुई। लेकिन कोच्चि और वडक्कुमकूर के बीच हुए विवादों में पुर्तगालियों के हस्तक्षेप के कारण पुनः युद्ध (1550) छिड गया। जब सामूतिरि के मित्र वडक्कुमकूर महाराजा का वध किया गया तो सामूतिरि ने कोच्चि पर आक्रमण किया। पुर्तगाली सैनिकों ने कोच्चि का पक्ष लिया और सामूतिरि पर आक्रमण किया। 1555 में पुनः शान्ति कायम हुई लेकिन अगले वर्ष कोलत्तिरि ने सामूतिरि की सहायता से पुर्तगालियों के कण्णूर दुर्ग पर कब्ज़ा कर लिया।

शासन की वापसी

सामूतिरि ने बीजापुर और अहमदनगर के सुल्तानों से मैत्री स्थापित कर सन् 1570 में पुर्तगालियों पर चढाई की। सन् 1571 में कोष़िक्कोड की सेना ने कुंजालियों के नेतृत्व में चालियम दुर्ग को अधीन कर लिया। नौ सैनिक युद्ध में कुंजालियों ने पुर्तगलियों को कई बार हराया। इस तरह वे अप्रतिम शक्तिशाली बन गये। पराजित पुर्तगलियों ने सन् 1571 में सामूतिरि से पोन्नानि में व्यापार गृह बनाने की अनुमति प्राप्त कर ली। कुंजालियों की बढ़ती शक्ति देखकर सामूतिरि असंतुष्ट हो गये थे। अतः सन् 1588 में सामूतिरि ने पुर्तगलियों को अपना केन्द्र स्थापित करने की अनुमति दी। सन् 1600 ईं में पुर्तगलियों के सहयोग से सामूतिरि ने कुंजालि के दुर्ग पर आक्रमण कर दिया। क्षमा दान देने के वचन के उपरान्त कुंजालि ने पराजय स्वीकार की। लेकिन सामूतिरि ने वचन का उल्लंघन कर कुंजालि को पुर्तगलियों के सुपुर्द कर दिया। पुर्तगलियों ने कुंजालि और उनके अनुयायियों को गोवा ले जाकर मार डाला। लेकिन कुंजालियों को खात्मा किए जाने पर भी केरल पर पुर्तगाली अधीशत्व समाप्त हो गया। डचों ने उन्हें सत्ता से बाहर कर अपनी प्रभुता स्थापित की। तदनन्तर डचों से सामूतिरियों की कई लडाइयाँ हुईं। 1755 ईं में सामूतिरि ने डचों के अधीनस्थ कोच्चि प्रदेश पर अधिकार जमा लिया।

टीपू सुल्तान

यद्यपि अब तक कोष़िक्कोड राज्य अत्यंत शक्तिशाली हो गया था, किन्तु 18 वीं शताब्दी में मैसूर के आक्रमण से कोष़िक्कोड राज्य धराशायी हो गया। हैदर अली और पुत्र टीपू सुलतान के आक्रमण के सामने सामूतिरि टिक नहीं सके। 1766 में हैदर के सिपाहियों ने उत्तरी केरल में प्रवेश कर कटत्तनाट और कुरुम्बनाट को अपने अधीन कर लिया। जब मैसूर सैनिक कोष़िक्कोड की तरफ आगे बढ़े तो सामूतिरि ने परिजनों को पोन्नानि भेजकर आत्महत्या कर ली।

इस तरह टीपू सुलतान के हाथ में कोष़िक्कोड आ गया। लेकिन जब टीपू को श्रीरंग पट्टणम् संधि (1792) के तहत ब्रिटिशों के सामने हथियार डालना पडा तब कोष़िक्कोड समेत संपूर्ण मलबार क्षेत्र ब्रिटिशों के अधीन हो गया। सन् 1956 तक मलबार ब्रिटिश निर्मित मद्रास राज्य का एक जिला मात्र था। जब केरल राज्य का गठन हुआ (सन् 1956 में) तब मलबार को केरल राज्य में मिलाया गया।

कोलत्तुनाड

उत्तरी मलबार को कोलत्तुनाड कहा जाता था। संघमकाल में यह प्रदेश नन्ना राजवंश के अधीन था जिसकी राजधानी एष़िमला थी। नौवीं शती से बारहवीं शती तक उत्तरी मलबार के वयनाड, तलश्शेरि आदि क्षेत्र जब कुलशेखर राजाओं के अधीन थे तब कासरकोड और चिराक्कल क्षेत्र मूषक वंश द्वारा शासित था जिसकी राजधानी एष़िमला के समीप थी। नन्ना राजवंश को मूषक वंश का उत्तराधिकारी कहा जाता है। कतिपय इतिहासकारों के अनुसार मूषक राज्य कुलशेखरों के राज्यकाल में ही एक स्वतंत्र राज्य रहा होगा। बताया जाता है कि कुलशेखर साम्राज्य के पतन के बाद ही मूषक स्वतंत्र राज्य बना था। 14 वीं शताब्दी में कोलत्तुनाड नाम से जो भूभाग विख्यात हुआ वह मूषक राज्य था। राजाओं के लिए कोलत्तिरि (यूरोपियों के अनुसार कोलस्त्री) संबोधन था। संस्कृत में 'कोलम' से तात्पर्य है 'नाव'। कोलत्तिरियों ने नाव को अपना राज्य चिह्न बनाया था। मारको पोलो ने (13 वीं शती) अपने यात्रावृत्त में कोलत्तुनाड को 'एलि राज्य' (मूषिका राज्य) नाम से प्रस्तुत किया है। यही राज्य उत्तर में नेत्रावती नदी से लेकर दक्षिण में कोराप्पुष़ा (नदी) तक तथा पूर्व में कुटक पहाडी से पश्चिम अरब सागर तक फैल गया। कुम्बला, नीलेश्वरम, वटक्कन कोट्टयम, कटत्तनाड इत्यादि क्षेत्र कोलत्तुनाड के अंतर्गत आ गये।

सन् 1725 में फिरंगियों ने मय्यष़ि (माहि) को अपने अधीन कर लिया। 1732 में जब कर्नाटक के इक्कोरिनायकों ने कोलत्तुनाड पर आक्रमण किया तो ब्रिटिशों ने धर्मपट्टणम पर अधिकार जमा कर ही किया था। अरक्कल अलि राजा का निमंत्रण पाकर हैदर अली सेना समेत पहुँचा और सन् 1766 में हैदर अली की सेना ने कोलत्तुनाड पर चढाई की। इस युद्ध में राजा मारा गया। राजपरिवार ने पहले तलश्शेरि (जहाँ ब्रिटिशों का कारखाना और दुर्ग है) में और बाद में तिरुवितांकूर में शरण ली। सन् 1766 में कर देने की व्यवस्था में हैदर अली ने निकटस्थ उत्तराधिकारी को कोलत्तिरि पद पर बिठाया। कोलत्तिरि ने ब्रिटिशों के अधीनस्थ धर्मटम पर आक्रमण (1788) किया और आक्रमण के दौरान वह मारा गया।

मार्च 1792 को जब मलबार ब्रिटिशों के अधीन हो गया तब ब्रिटिशों ने कोलत्तिरि को पेंशन प्रदान की। कोलत्तुनाड के राजाओं का क्रमबद्ध इतिहास प्राप्त नहीं हो पाया है। कुछ प्रसिद्ध कोलत्तिरियों के जो नाम साहित्यिक कृतियों में आये हैं वे इस प्रकार हैं - राघवन (14 वीं शती), केरल वर्मा (1423 - 1446), रामवर्मा (1443 में मृत्यु), उदय वर्मन (1446 - 1475), रविवर्मा (16 वीं शती)।

18 कृष्णगाथा के रचयिता चेरुश्शेरि उदयवर्मन के आश्रित कवि थे। चेरुश्शेरि ने लिखा है कि उदयवर्मन के आदेशानुसार ही उन्होंने 'कृष्णगाथा' की रचना की थी। 16 वीं शती में जिस समय केरल में पुर्तगलियों का अधिकार जम रहा था उस समय कोलत्तिरि राजवंश सामूतिरि के अधीन था।

17 वीं सदी के अंत तक कोलत्तुनाड के अंतर्गत कई रियासतों का उदय हुआ। इनमें कडत्तुनाड, (वडक्कन) कोट्टयम्, अराक्कल, नीलेश्वरम्, रण्डुतरा आदि प्रमुख थे। कुछ कोलत्तिरि शासकों ने मातृ सत्तात्मक प्रथा का पालन न करके अपने राज्य को अपनी पत्नी तथा संतानों में बाँट दिया। इसी कारण अनेक रियासतें बनीं। कोलत्तिरि राजवंश की विभाजित शाखाएँ निम्नलिखित थीं - पल्लिक्कोविलकम, उदयमंगलम कोविलकम्, चिरक्क्ल कोविलकम् आदि।

1498 में जब वास्को द गामा कोष़िक्कोड से लौटने लगा तो वे कोलत्तिरि से मिले और उनके क्षेत्र में व्यापार का एकाधिकार प्राप्त कर लिया। 1502 में वास्को द गामा जब दुबारा भारत आया तो कोलत्तिरि ने कण्णूर प्रान्त में भण्डार गृह बनवाने की अनुमति दे दी। सन् 1505 में पुर्तगलियों ने कोलत्तिरि से अनुमति लेकर कण्णूर दुर्ग (सेन्ट अंजलो दुर्ग) का निर्माण किया। सामूतिरि के प्रति शत्रुता के कारण कोलत्तिरि ने पुर्तगलियों से अच्छा संबन्ध स्थापित किया। परिणामतः कोलत्तिरि का अरबों के साथ व्यापारिक संबन्ध टूट गया। किन्तु जब उन्होंने देखा कि पुर्तगली अत्याचार कर रहे हैं और लोगों को धर्म परिवर्तन केलिए विवश कर रहे हैं, तो कोलत्तिरि ने सामूतिरि और कुंजालि मरक्कारों से संधि कर ली और पुर्तगलियों के विरुद्ध लड़ने को सन्नद्ध हुए। सन् 1663 में डच्चों ने कण्णूर दुर्ग को अपने अधीन कर कोलत्तुनाड के साथ स्नेह संबन्ध स्थापित किया।