बंगाल का गिद्ध
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बंगाल का गिद्ध | |
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Scientific classification | |
Binomial name | |
जिप्स बैंगालॅन्सिस (ग्मॅलिन, 1788)
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लाल रंग में बंगाल के गिद्ध का फैलाव क्षेत्र | |
Synonyms | |
स्यूडो बैंगालॅन्सिस |
बंगाल का गिद्ध एक पुरानी दुनिया का गिद्ध है, जो कि यूरोपीय ग्रिफ़न गिद्ध का संबन्धी है। एक समय यह अफ़्रीका के सफ़ेद पीठ वाले गिद्ध का ज़्यादा करीबी समझा जाता था और इसे पूर्वी सफ़ेद पीठ वाला गिद्ध भी कहा जाता है। १९९० के दशक तक यह पूरे दक्षिणी तथा दक्षिण पूर्वी एशिया में व्यापक रूप से पाया जाता था और इसको विश्व का सबसे ज़्यादा आबादी वाला बड़ा परभक्षी पक्षी माना जाता था[१] लेकिन १९९२ से २००७ तक इनकी संख्या ९९.९% तक घट गई[२] और अब यह घोर संकटग्रस्त जाति की श्रेणी में पहुँच गया है और अब बहुत कम नज़र आता है।[३]
विवरण
यह एक मध्यम आकार का गिद्ध है जिसके सिर और गर्दन पर बाल नहीं होते हैं। इसके पंख बहुत चौड़े होते हैं और पूँछ छोटी होती है। यह ग्रिफ़न गिद्ध से काफ़ी छोटा होता है और इसकी गर्दन में सफ़ेद पंखों का गुच्छा होता है। वयस्क के सफ़ेद पीठ, पुट्ठे और पंखों की अन्दरुनी सफ़ेदी उसके बाकी के गहरे रंग के परों से भिन्न होते हैं जो कि साफ़ दिखते हैं। शरीर काला होता है और छोटे पर चांदीनुमा स्लेटी होते हैं। सिर गुलाबी लिए हुए होता है और चोंच चांदी के रंग की होती है जिसके किनारे गहरे रंग के होते हैं। नाक के छेद पतले से होते हैं। अवयस्क गहरे रंग के होते हैं और वयस्क के पंख आने में उनको चार से पाँच साल तक लग सकते हैं। उड़ान के समय वयस्क के पंखों का अग्रिम भाग गहरा नज़र आता है और पंख निचली तरफ़ अगले भाग में सफ़ेद होते हैं। पूँछ का निचला भाग भी काला होता है।[४]
यह जिप्स गिद्धों की प्रजाति में सबसे छोटा होता है लेकिन फिर भी एक बड़ा पक्षी है। इसका वज़न ३.५ से ७.५ कि. होता है और लंबाई क़रीब ७५ से ९३ से. मी. तक होती है।[५][६]
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व्यवहार तथा पर्यावरण
यह उत्तरी और मध्य भारत, पाकिस्तान, नेपाल तथा दक्षिण पूर्वी एशिया में ऊँचे पेड़ों में, प्रायः इन्सानी बस्तियों के नज़दीक, अपना घोंसला बनाता है और एक बार में केवल एक ही अण्डा देता है। प्रजनन काल में यह बस्तियाँ बनाकर रहता है और इसकी आबादी प्रायः एक ही स्थान में निवास करती है और प्रवास नहीं करती है।
अन्य गिद्धों की ही तरह यह भी मुर्दाखोर होता है और मृत जानवरों को खाता है जिनको यह गर्म हवा की लहरों में उड़ते हुए ऊँची उड़ान के दौरान ढूँढ लेता है या उस ऊँचाई से अन्य मुर्दाखोरों को दावत खाते हुए देख लेता है।[४]
जिप्स प्रजाति के अंतर्गत एशियाई, अफ़्रीकी तथा यूरोपीय गिद्ध आते हैं और यह तय पाया गया है कि उनमें से यह जाति आधारीय है जबकि अन्य गिद्धों का जातीय विभाजन हाल का है।[७][८]
सुबह के वक़्त जब तक सूरज की गर्मी से प्रचुर मात्रा में गर्म वायु ऊपर नहीं उठने लगती है, तब तक यह उड़ान नहीं भरता है क्योंकि यह गर्म हवा की लहरों के सहारे ही ऊँची उड़ान भरने में सक्षम होता है। यह गोल-गोल चक्कर मारकर उठती हुई गर्म हवा का सहारा लेकर बिना पंख फड़फड़ाए ऊपर चढ़ता जाता है और एक गर्म हवा के घेरे से दूसरे में केवल पंख फैलाए ही पहुँच जाता है। एक समय भारतीय आकाश में सुबह के समय इनके बड़े-बड़े झुण्ड देखे जा सकते थे[९] लेकिन अब नहीं क्योंकि इनकी आबादी काफ़ी घट गई है।
मुर्दा जानवर दिखने पर यह जल्दी से नीचे उतरकर पेट भरकर खाता है और पास के किसी पेड़ पर बैठकर विश्राम करता है और कभी-कभी इसको रात को भी पेड़ों से नीचे उतर कर भोजन करते हुए देखा गया है। खाते समय प्रायः यह देखा गया है कि इस पर लाल सिर वाला गिद्ध हावी रहता है[१०] और उसके खाने के पश्चात् ही इसकी बारी आती है। इसके एक झुण्ड द्वारा एक पूरे बैल को लगभग २० मिनट में चट करते हुए देखा गया है।[११] जंगल में जब यह ऊँची उड़ान भरता था तो पता चल जाता था कि किसी बाघ ने शिकार किया है।[१२][१३]
यह हड्डियों के टुकड़े भी निगलने में सक्षम हैं।[१४] जहाँ पानी प्रचुर मात्रा में उपलब्ध होता है वहाँ यह नियमित रूप से नहाते हैं और पेट भर पानी पीते हैं।[११]
ए ओ ह्यूम ने "सैकड़ों घोसलों" के आकलन से यह पता किया कि यह इन्सानी आबादी के पास बड़े तथा घने पेड़ों पर रहना पसन्द करते हैं जबकि पास ही खड़ी चट्टानें मौजूद थीं। यह बरगद, पीपल, अर्जुन और नीम के वृक्षों में घोंसला बनाना पसन्द करते हैं। मुख्य प्रजनन काल नवम्बर से मार्च का होता है और अण्डे जनवरी में दिए जाते हैं। नर टहनियाँ लाता है और मादा उनको में सलीखे से लगाकर घोंसला बनाती है। प्रणय निवेदन के दौरान नर मादा के सिर, पीठ तथा गर्दन को अपनी चोंच से सहलाता है। मादा के सहवास के लिए राज़ी होने पर नर उस पर चढ़ता है और मादा को सिर के पीछे अपनी चोंच से पकड़ लेता है।[१५]कई जोड़े आसपास ही घोंसले बनाते हैं और अकेले घोंसले प्रायः जवान पक्षियों के ही होते हैं। एकाकी घोंसले कभी भी नियमित रूप से इस्तेमाल में नहीं लाए जाते हैं और उन पर लाल सिर वाले गिद्ध या बड़े उल्लू अपना कब्ज़ा जमा लेते हैं। घोंसले लगभग ३ फ़ुट व्यास के और आधे फ़ुट मोटे होते हैं। अण्डे देने से पूर्व घोंसले की ज़मीन पर हरी पत्तियाँ बिछा दी जाती हैं। मादा केवल एक अण्डा देती है जो कि तूतिया रंग लिए हुए सफ़ेद होता है। यह भी देखा गया है कि यदि अण्डा नष्ट हो जाता है तो मादा घोंसले को ही नष्ट कर देती है।[५] ३० से ३५ दिन सेने के बाद अण्डे फूट जाते हैं। चूज़ा स्लेटी परों वाला होता है। माता-पिता उसे मांस के छोटे-छोटे टुकड़े खिलाते हैं। घोंसले में चूज़ा लगभग ३ माह तक रहता है।[१५]
यह देखा गया है कि जिन पेड़ों पर यह अपना घोंसला बनाते हैं वह अक्सर अम्लता बढ़ने के कारण मर जाते हैं।[१६] इसीलिए इनका बाग़ और बागीचों में ज़्यादा स्वागत नहीं होता है।[११] जंगली हालात में तो इनकी उम्र का आकलन नहीं हुआ है लेकिन बन्दी अवस्था में एक पक्षी लगभग १२ वर्ष तक जीवित रहा।[१७] एक अनूठा प्रकरण देखने को मिला है जिसमें पक्षी का सिर मरणासन्न बछड़े के मुँह में फँस गया और दम घुटने से उसकी मौत हो गई।[१८] जंगली कौवों को इनके घोंसले से खाना चुराते हुए देखा गया है जो बाद में कौवे अपने चूज़ों के सामने उगल देते हैं।[१९]
कभी-कभी यह अपनी ही जाति के मरे हुए गिद्ध को खा जाता है।[२०]
स्थिति एवं पतन
एक समय यह जाति ख़ासकर गंगा के मैदानी क्षेत्रों में प्रचुर मात्रा में पाई जाती थी और इस इलाके के कई बड़े शहरों में यह सड़क के किनारे के पेड़ों में अपना घोंसला भी बनाया करते थे। ह्यू व्हिस्लर ने भारत के पक्षियों की अपनी गाइड में इसका उल्लेख किया है कि यह भारत के सारे गिद्धों में सबसे ज़्यादा संख्या वाले हैं।[२१] १९९० से पहले इनको सिरदर्द माना जाता था जो विमानों के साथ भिड़न्त के अपराधी होते हैं।[२२][२३] १९९० में ही आंध्र प्रदेश में यह जाति दुर्लभ हो गई थी। जब इस वर्ष एक चक्रवात आया था तो वहाँ के मृत मवेशियों को खाने के लिए यह गिद्ध नदारद थे।[२४] भारत में इस जाति और भारतीय गिद्ध तथा लंबी चोंच के गिद्ध की संख्या में १९९२ से लेकर २००७ तक ९९ प्रतिशत की गिरावट देखी गई है।[२५] पड़ोसी देशों में भी ९० की दशक की शुरुआत से ही हालात कुछ ऐसे ही हैं।[२६] इसका मूलतः कारण पशु दवाई डाइक्लोफिनॅक है जो कि पशुओं के जोड़ों के दर्द को मिटाने में मदद करती है। जब यह दवाई खाया हुआ पशु मर जाता है और उसको मरने से थोड़ा पहले यह दवाई दी गई होती है और उसको भारतीय गिद्ध खाता है तो उसके गुर्दे बंद हो जाते हैं और वह मर जाता है।[२७] यह दवाई अन्य जिप्स प्रजाति के पक्षियों के लिए भी हानिकारक सिद्ध हुई।[२८][२९] दर्द की और दवाएँ भी जिप्स प्रजाति के पक्षियों तथा अन्य पक्षियों जैसे सारस आदि के लिए भी हानिकारक सिद्ध हुयीं।[३०] एक विचारधारा के अनुसार इस पतन का कारण पक्षियों का मलेरिया भी हो सकता है।[३१] एक अन्य विचारधारा के अनुसार इसका कारण दीर्घकालीन मौसमी बदलाव है।[३२] अब नई दवाई मॅलॉक्सिकॅम प्रचलन में आ गई है और यह गिद्धों के लिये हानिकारक भी नहीं हैं। मवेशियों के इलाज में इसके इस्तेमाल को बढ़ावा दिया जा रहा है।[३३][३४] जब इस दवाई का उत्पादन बढ़ जायेगा तो सारे पशु-पालक इसका इस्तेमाल करेंगे और शायद गिद्ध बच जायें।
इन्हें भी देखें
सन्दर्भ
- ↑ साँचा:cite web
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- ↑ अ आ साँचा:cite book
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- ↑ Raptors of the World by Ferguson-Lees, Christie, Franklin, Mead & Burton. Houghton Mifflin (2001), ISBN 0-618-12762-3
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- ↑ साँचा:cite journalसाँचा:category handlerसाँचा:main otherसाँचा:main other[dead link]
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