पंचाल
पांचाल भारतीय हस्तशिल्पकार जाति समूहों के लिए उपयोग किया जाने वाला सामूहिक शब्द है।
सनातन संस्कृति में पांचाल एक शिल्पी ब्राह्मण जाति है जो विश्वकर्मा ब्राह्मण कुल से है ग्रामीण क्षेत्रों में इन्हे लोहार, बढ़ई के नाम से भी बुलाया जाता है परंतु ये एक व्यवसाय है जाति नही
कुछ लोगो द्वारा विश्वकर्मा पांचाल समाज के ब्राह्मण होने पर सवाल भी उठाए जाते है परंतु वेदों और पुराणों में ऐसे प्रमाण मिले है जो यह प्रमाणित करते है की विश्वकर्मा समाज ब्राह्मण है
लुई ड्यूमॉन्ट के अनुसार, यह पंच शब्द से लिया गया है, जिसका अर्थ है पाँच, और उन समुदायों को संदर्भित करता है, जिन्होंने पारंपरिक रूप से लोहार, बढ़ई, सुनार के रूप में काम किया है। इन समूहों में दक्षिण भारत के लोहार और सुथार शामिल हैं।[१] डेविड मैंडेलबौम ने उल्लेख किया कि यह नाम दक्षिण भारत के लोहारों, बढ़ई, सुनारों द्वारा माना गया है कि यह उनका सामाजिक उत्थान प्राप्त करने की दिशा में एक साधन हैं। वे खुद को पांचल कहते हैं और दावा करते हैं कि वे विश्वकर्मा अवतरित ब्राह्मण हैं।
पाँचाल उत्तर प्रदेश, राजस्थान, गुजरात आदि राज्यो में तेजी से विकसित होने वाली जाती है इनका व्यवसाय मुख्य रूप से कृषि होता है यह एक स्वाभिमानी, साहसी और निडर जाती है महाभारत के समय में भी इनका गौरवशाली इतिहास रहा है
कश्मीर में सन 1003 ईस्वीई० मेंसे 1159 ई० तक पाँचाल लोहार वंश का शासन रहा है इन्हें सर्वश्रेष्ठ ब्राह्मण की संज्ञा दी गयी है
वेदों में भी लिखा है -
विश्वकर्मा कुलोजातः गर्भस्था ब्राह्मणः
अर्थात - विश्वकर्मा कुल में जन्म लेने वाला बालक गर्भ से ही ब्राह्मण होता है
एक किवदंती के अनुसार-
महाराज परीक्षित के पुत्र जनमेजय ने सरपेस्ट्ठि यज्ञ करवाया था जिसे करने से इन्होंने मना कर दिया था और कहा था जिसमें जीव हिंसा होती है हम वह यज्ञ नहीं करवाएंगे तो उन्होंने पाँचाल ब्राह्मणों को अपने राज्य से निकाल दिया और जान-माल के भय से आत्मरक्षा की वजह से इन्होंने कर्मकांड त्यागा।
हालाँकि, वे मानते हैं कि वे आपस में समान हैं और वे अपने विभिन्न व्यावसायिक समूहों के बीच अंतर को समझते हैं।[२]
सन्दर्भ.
- वाराही संहिता अ.२,श्लोक ६) अर्थात – वास्तुकला ज्योतिष शास्त्र का विषय है। वास्तुकला के अन्तर्गत घर , मकान , कुँवा, बावड़ी , पुल , नहर , किला , नगर, देवताओं के मंदिर आदि शिल्पादि पदार्थो की रचना की उत्तम विधि होती है। ब्राह्मणो के इष्टकर्म और पूर्तकर्म ब्राह्मणो के दो प्रकार के कर्मो से परिचय कराएंगे। एक है ‘ इस्ट ‘ कर्म और दूसरा है ‘ पूर्त ‘ कर्म। इस्ट कर्म से ब्राह्मणो को स्वर्गप्राप्ति होती है और पूर्त कर्मो से मोक्ष की प्राप्ति होती है। अर्थात जो ब्राह्मण इस्ट कर्म ही सिर्फ करके पूर्त कर्म ना करें उसे मोक्ष नहीं मिल सकता है जो सनातन धर्म में मनुष्यों का अंतिम लक्ष्य है। इसके प्रमाण स्वरूप कुछ धर्मशास्त्र से प्रमाण निम्न है , इस्टापूर्ते च कर्तव्यं ब्राह्मणेनैव यत्नत:। इस्टेन लभते स्वर्ग पूर्ते मोक्षो विधियते॥
- (अत्रि स्मृति)
- (अष्टादशस्मृति ग्रन्थ पृष्ठ – ६ – पं.श्यामसुंदरलाल त्रिपाठी) अर्थात – इष्टकर्म और पूर्तकर्म ये दोनों कर्म ब्राह्मणो के कर्तव्य है इसे बड़े ही यत्न से करना चाहिए है। ब्राह्मणो को इष्टकर्म से स्वर्ग की प्राप्ति होती है और पूर्तकर्म से मोक्ष की प्राप्ति होती है। इसी प्रकार की व्याख्या यम ऋषि ने भी धर्मशास्त्र यमस्मृति में की है जो निम्न है ; इस्टापूर्ते तु कर्तव्यं ब्राह्मणेन प्रयत्नत:। इस्टेन लभते स्वर्ग पूर्ते मोक्षं समश्नुते
- (यमस्मृति)
- (अष्टादशस्मृति ग्रन्थ पृष्ठ १०६ – पं.श्यामसुंदरलाल त्रिपाठी) अब अत्रि ऋषि की अत्रि स्मृति नामक धर्मशास्त्र के आगे के श्लोक से इष्ट कर्म और पूर्त कर्मो के अन्तर्गत कौन से कर्म आते है उसकी व्याख्या निम्न है ; अग्निहोत्रं तप: सत्यं वेदानां चैव पालनम्। आतिथ्यं वैश्यदेवश्य इष्टमित्यमिधियते॥ वापीकूपतडागादिदेवतायतनानि च। अन्नप्रदानमाराम: पूर्तमित्यमिधियते॥
- (अत्रि स्मृति)
- (अष्टादशस्मृति ग्रन्थ पृष्ठ – ६ – पं.श्यामसुंदरलाल त्रिपाठी) अर्थात – ब्राह्मणो को अग्निहोत्र(हवन), तपस्या , सत्य में तत्परता , वेद की आज्ञा का पालन, अतिथियों का सत्कार और वश्वदेव ये सब इष्ट कर्म के अन्तर्गत आते है। ब्राह्मणो को बावड़ी, कूप, तालाब इत्यादि तालाबो का निर्माण, देवताओं के मंदिरों की प्रतिष्ठा जैसे शिल्पादि कर्म , अन्नदान और बगीचों को लगाना जिससे मोक्ष की प्राप्ति होती है ऐसे कर्म पूर्त कर्म है। उपर्युक्त सभी अकाट्य प्रमाणो से ये सिद्ध होता है कि ब्राह्मणो के सिर्फ षटकर्म जैसे इष्टकर्म ही नहीं है अपितु शिल्पकर्म जैसे पूर्तकर्म भी है जिनमें बावड़ी, कूप, तालाब इत्यादि तालाबो का निर्माण, देवताओं के मंदिरों के निर्माण एवं प्रतिष्ठा जैसे कर्म शिल्पकर्म के अन्तर्गत आते है जिसके करने से मोक्ष की प्राप्ति होती है जो सनातन धर्म का अंतिम और सर्वोच्च लक्ष्य है। पूर्तकर्म (शिल्पादि कर्म) का उल्लेख अथर्ववेद में भी आया है। महर्षि पतंजलि ने शाब्दिक ज्ञान को मिथ्या कहा है। कल्प के व्यावहारिक ज्ञाता को ही ब्राह्मण कहा जाता है। क्योंकि उसी वेदांग कल्प के शुल्व सूत्र से शिल्पकर्म की उत्पत्ति हुई है। ब्रह्मा जी ये सृष्टि को अपनी सर्जना से कल्पित अर्थात निर्मित करते है उन्हीं ब्रह्मा जी की सृजनात्मक कल्पना शक्ति जिसमें होती है वहीं ब्राह्मण कहलाता है। सर्जनात्मक विधा ही निर्माण अर्थात शिल्पकर्म कहलाती है। ब्रह्मा जी का प्रमुख कर्म है सृजन अर्थात निर्माण किसी एक इसी के कारण इनका पद ब्रह्मा है। ब्रह्मा जी एक दिन और रात को ‘ कल्प ‘ कहते हैं। कल्प का अर्थ होता है यज्ञ। वेदांग कल्प के शुल्व सूत्र से शिल्पकर्म की उत्पत्ति हुई हैं। वेदांग कल्प से निर्मित होने के कारण शिल्पकर्म भी यज्ञ सिद्ध होता हैं। निर्माण से संदर्भ में यज्ञशाला या शाला का निर्माण का उल्लेख वेदो के साथ-साथ अन्य शास्त्रों में भी बहुत से स्थानों पर है हम आपके समझ अथर्ववेद का एक ऐसा ही उदाहरण देते हैं जिसमें शाला के निर्माण को ब्राह्मणों द्वारा बताया गया है ; ब्रह्मणा शालां निमितां कविभिर्निमितां मिताम् । इन्द्राग्नी रक्षतां शालाममृतौ सोम्यं सदः ॥