दिगेंद्र कुमार
दिगेन्द्र कुमार MVC, SM | |
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जन्म | साँचा:br separated entries |
देहांत | साँचा:br separated entries |
निष्ठा | साँचा:flagicon Republic of India |
सेवा/शाखा | Indian Army |
सेवा वर्ष | 1985 - 2005 |
युद्ध/झड़पें | कारगिल युद्ध |
सम्मान | Maha Vir Chakra |
नायक दिगेन्द्र कुमार (परस्वाल) (३ जुलाई १९६९) महावीर चक्र विजेता, भारतीय सेना की 2 राज राइफल्स में थे। उन्होंने कारगिल युद्ध के समय जम्मू कश्मीर में तोलोलिंग पहाड़ी की बर्फीली चोटी को मुक्त करवाकर १३ जून १९९९ की सुबह चार बजे तिरंगा लहराते हुए भारत को प्रथम सफलता दिलाई जिसके लिए उन्हें भारत सरकार द्वारा १५ अगस्त १९९९ को महावीर चक्र से अलंकृत किया गया।
जीवन परिचय
बहादुर बालक दिगेन्द्र का जन्म राजस्थान के सीकर जिले की नीम का थाना तहसील के गाँव झालरा में शिवदान सिंह परसवाल के घर श्रीमती राजकौर उर्फ़ घोटली के गर्भ से ३ जुलाई १९६९ को हुआ।[१] वे स्वयं भी क्रांतिकारी परिवार की संतान थीं। राजकौर के पिता बुजन शेरावत स्वतंत्रता सेनानी थे। वे हरियाणा प्रान्त में महेंद्रगढ़ जिले की नारनौल तहसील में सिरोही भाली गाँव के रहने वाले थे। बुजन शेरावत सुभाषचंद्र बोस की आजाद हिंद फौज के सिपाही थे जो द्वितीय विश्वयुद्ध के दौरान बसरा-बगदाद की लडाई में वीरगति को प्राप्त हुए।[१] दिगेंद्र के पिता शिवदान आर्य समाज के सदस्य थे। देश की स्वतंत्रता एवं जनजागृति के लिए गाँव-गाँव जाकर प्रचार करते थे। वे भजनोपदेशक भी थे। रहबरे आजम दीनबंधु सर छोटूराम के आव्हान पर वे रेवाडी में जाकर सेना में भरती हो गए। १९४८ में पाकिस्तान के साथ युद्ध में पीर बडेसर की पहाड़ी पर साँस की नाली में ताम्बे की गोलियाँ घुस गई जो जीते जी वापिस नहीं निकलवाईं। उनके जबड़े में ११ गोलियां लगी थीं।[१] पिता की प्रेरणा से दिगेंद्र 2 राज राइफल्स में भरती हो गए। सेना में वह हर गतिविधि चाहे दौड़ हो, निशानेबाजी हो, या कोई अन्य कार्य हमेसा प्रथम रहे, तथा उनको भारतीय सेना के सर्वश्रेष्ठ कमांडो के रूप में ख्याति मिली।[१]
जम्मू-कश्मीर में
१९९३ में दिगेंद्र की सैनिक टुकड़ी जम्मू-कश्मीर के अशांत इलाके कुपवाडा में तैनात थी। पहाड़ी इलाका होने और स्थानीय लोगों में पकड़ होने के कारण उग्रवादियों को पकड़ना कठिन था। मजीद खान एक दिन कंपनी कमांडर वीरेन्द्र तेवतिया के पास आया और धमकाया कि हमारे खिलाफ कोई कार्यवाही की तो उसके गंभीर दुष्परिणाम होंगे। कर्नल तेवतिया ने सारी बात दिगेंद्र को बताई। दिगेंद्र यह सुन तत्काल मजीद खान के पीछे दौड़े। वह सीधे पहाड़ी पर चढा़ जबकि मजीद खान पहड़ी के घुमावदार रस्ते से ३०० मीटर आगे निकल गया था। दिगेंद्र ने चोटी पर पहुँच कर मजीद खान के हथियार पर गोली चलाई। गोली से उसका पिस्टल दूर जाकर गिरा। दिगेंद्र ने तीन गोलियां चलाकर मजीद खान को ढेर कर दिया। उसे कंधे पर उठाया और मृत शरीर को कर्नल के सम्मुख रखा। कुपवाडा में इस बहादुरी के कार्य के लिए दिगेंद्र कुमार को सेना मैडल दिया गया।[१] दूसरी घटना में जम्मू-कश्मीर में मुसलमानों की पावन स्थली मस्जिद हजरत बल दरगाह पर आतंकवादियों ने कब्जा करलिया था तथा हथियारों का जखीरा जमा कर लिया था। भारतीय सेना ने धावा बोला। दिगेंद्र कुमार और साथियों ने बड़े समझ से ऑपरेशन को सफल बनाया। दिगेंद्र ने आतंकियों के कमांडर को मार गिराया व १४४ उग्रवादियों के हाथ ऊँचे करवाकर बंधक बना लिया। इस सफलता पर १९९४ में दिगेंद्र कुमार को बहादुरी का प्रशंसा पत्र मिला।[१]
श्रीलंका शान्ति अभियान में
अक्टूबर 1987 में श्रीलंका में जब उग्रवादियों को खदेड़ने का दायित्व भारतीय सेना को मिला। इस अभियान का नाम था 'ऑपरेशन ऑफ़ पवन' जो पवनसुत हनुमान के पराक्रम का प्रतीक था। इस अभियान में दिगेंद्र कुमार सैनिक साथियों के साथ तमिल बहुल एरिया में पेट्रोलिंग कर रहे थे। पॉँच तमिल उग्रवादियों ने दिगेंद्र की पेट्रोलिंग पार्टी के पाँच सैनिकों को फायर कर मौत के घाट उतार दिया और भाग कर एक विधायक के घर में घुस गए। दिगेंद्र ने बाकी साथियों के साथ पीछा किया और विधायक के घर का घेरा डलवा दिया। लिटे समर्थक विधायक ने बाहर आकर इसका विरोध किया। दिगेंद्र के फौजी कमांडो ने हवाई फायर किया तो अन्दर से गोलियाँ चलने लगी। एक फौजी ने हमले पर उतारू विधायक को गोली मार दी और पाँचो उग्रवादियों को ढेर कर दिया। एक अन्य घटना में भारतीय सेना के ३६ सैनिकों को तमिल उग्रवादियों ने कैद कर लिया। उन्हें छुडाना बड़ा मुश्किल काम था। टेन पैरा के इन ३६ सैनिकों को कैद में ७२ घंटे हो चुके थे लेकिन बचाव का कोई उपाय नहीं सूझ रहा था। अफसरों की अनेक बैठकें हुईं और जनरल ने दिगेंद्र को बुलाकर उसकी योजना सुनी। दिगेंद्र ने दुशमनों से नजर बचाकर नदी से तैर कर पहुँचने की योजना सुझाई। नदी में १३३ किलोवॉट का विद्युत तरंग बह रहा था, फ़िर भी दुस्साहस कर दिगेंद्र ने पीठ पर ५० किलो गोला बारूद, हथियार और साथियों के लिए बिस्कुट पैकेट लिए जो ७२ घंटे से भूखे थे। हिम्मत कर उन्होंने नदी में गोता लगाया। कटर निकाला और विद्युत तारों को काट कर आगे पार हो गया। .[१] दिगेंद्र ने वायरलेस से सूबेदार झाबर सही स्थान पता किया। गोलाबारूद और खाने का सामान सूबेदार झाबर को दिया और साथियों को पहुचाने के निर्देश देकर चलता बना। दिगेंद्र से उग्रवादियों के ठिकाने छुपे न थे। वह नदी के किनारे एक पेड़ के पीछे छुप गया और बिजली की चमक में उग्रवादियों के आयुध डिपो पर निशाना साधा। दोनों संतरियों को गोली से उड़ा दिया एवं ग्रेनेड का नाका दांतों से उखाड़ बारूद के ज़खीरे पर फेंक दिया। जोर-जोर से सैंकडों धमाके हुए, उग्रवादियों में हड़कंप मच गया। दिगेंद्र की हिम्मत देख बाकी कमांडो भी आग बरसाने लगे. थोड़े ही समय में ३९ उग्रवादियों को ढेर कर दिया गया।[१] जनरल कलकट ने दिगेंद्र को खुश होकर अपनी बाँहों में भर लिया उन्हें बहादुरी का मैडल दिया गया और रोज दाढ़ी बनाने से छूट दी गई।.[१]
कारगिल संघर्ष में
कारगिल युद्ध में सबसे महत्वपूर्ण काम तोलोलिंग की चोटी पर कब्जा करना था। 2 राजपुताना राइफल्स को यह काम सौंपा गया। जनरल मलिक ने अपनी टुकड़ी से तोलोलिंग पहाड़ी को मुक्त कराने का योजना के विषय में बात की। दिगेंद्र ने १०० मीटर का रूसी रस्सा चाहिये जिसका वजन ६ किलो होता है और १० टन वजन झेल सकता है तथा इसके साथ रूसी कीलों की माँग की जो चट्टानों में आसानी से ठोकी जा सकती थीं। रास्ता विकट और दुर्गम था पर दिगेंद्र कुमार द्वारा दूरबीन से अच्छी तरह जाँचा परखा हुआ था।[१] दिगेंद्र उर्फ़ कोबरा १० जून १९९९ की शाम अपने साथी और सैन्य साज सामान के साथ आगे बढे। कीलें ठोकते गए और रस्से को बांधते हुए १४ घंटे की कठोर साधना के बाद मंजिल पर पहुंचे १२ जून १९९९ को दोपहर ११ बजे जब वे आगे बढ़े तो उनके साथ कमांडो टीम में मेजर विवेक गुप्ता, सूबेदार भंवरलाल भाकर, सूबेदार सुरेन्द्र सिंह राठोर, लांस नाइक जसवीर सिंह, नायक सुरेन्द्र, नायक चमनसिंह, लांसनायक बच्चूसिंह, सी.ऍम.एच. जशवीरसिंह, हवालदार सुल्तानसिंह नरवारिया एवं दिगेंद्र कुमार थे। पाकिस्तानी सेना ने तोलोलिंग पहाड़ी की चोटी पर ११ बंकर बना रखे थे। दिगेंद्र ने प्रथम बंकर उड़ाने की हाँ भरी, ९ सैनिकों ने बाकी के ९ बंकर उड़ाने की सौगंध खाई। ११ वां बंकर दिगेंद्र ने ख़त्म करने का बीड़ा उठाया। कारगिल घटी में बर्फीली हवा, घना अँधेरा था, दुरूह राहों और बार बार दुश्मन के गोलों के धमाकों से निडर वे पहाड़ी की सीधी चढान पर बंधी रस्सी के सहारे चढ़ने लगे और अनजाने में वहाँ तक पहुँच गए जहाँ दुश्मन मशीनगन लगाये बैठा था। वे पत्थरों को पकड़ कर आगे बढ़ रहे थे। अचानक दुश्मन की मशीनगन का बैरल हाथ लगा जो लगातार गोले फेंकते काफी गर्म हो गया था। सच्चाई का भान होते ही उन्होंने बैरल को निकाल कर एक ही पल में हथगोला बंकर में सरका दिया जो जोर के धमाके से फटा। दिगेंद्र का तीर सही निशाने पर लगा था। प्रथम बंकर राख हो गया और धूं-धूं कर आग उगलने लगा। पीछे से २५० कमांडो और आर्टिलरी टैंक गोलों की वर्षा कर अपनी उपस्थिति दर्ज करवा रहे थे। कोबरा के साथियों ने जमकर फायरिंग की लेकिन गोलों ने इधर से उधर नहीं होने दिया। आग उगलती तोपों का मुहँ एक मीटर ऊपर करवाया और आगे बढे। दिगेंद्र बुरी तरह जख्मी हो चुके थे। उनकी दिगेंद्र की अल.ऍम.जी. भी हाथ से छूट गई। पर उन्होंने हिम्मत नहीं हारी। प्राथमिक उपचार कर बहते खून को रोका। पीछे देखा तो पता लगा सूबेदार भंवरलाल भाकर, लांस नाइक जसवीर सिंह, नायक सुरेन्द्र, नायक चमनसिंह, अन्तिम साँस ले चुके थे। लांसनायक बच्चनसिंह, सुल्तानसिंह, राठोर और मेजर विवेक गुप्ता बहादुरी से दुश्मन का सामना करते हुए वीरगति को प्राप्त हो गए।[१] अपने सभी साथियों को खो देने के बाद दिगेंद्र ने फ़िर हिम्मत की और ११ बंकरों में १८ हथगोले फेंके। मेजर अनवर खान अचानक सामने आ गया। दिगेंद्र ने छलांग लगाई और अनवर खान पर झपट्टा मारा। दोनों लुढ़कते-लुढ़कते काफी दूर चले गए। अनवर खान ने भागने की कोशिश की तो उसकी गर्दन पकड़ ली। दिगेंद्र जख्मी था पर मेजर अनवर खान के बाल पकड़ कर डायगर सायानायड से गर्दन काटकर भारत माता की जय-जयकार की। दिगेंद्र पहाड़ी की चोटी पर लड़खडाता हुआ चढा और १३ जून १९९९ को सुबह चार बजे वहां तिरंगा झंडा गाड़ दिया..[१]
सन्दर्भ
- ↑ अ आ इ ई उ ऊ ए ऐ ओ औ क ख साँचा:cite book सन्दर्भ त्रुटि:
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