हिंदी रंगमंच

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साँचा:asbox हिंदी रंगमंच से अभिप्राय हिंदी और उसकी बोलियों के रंगमंच से है। हिन्दी रंगमंच की जड़ें रामलीला और रासलीला से आरम्भ होती हैं। हिन्दी रंगमंच पर संस्कृत नाटकों का भी प्रभाव है। भारतेन्दु हरिश्चंद्र हिन्दी रंगमंच के पुरोधा हैं।

इतिहास

हिंदी रंगमंच संस्कृत नाटक, लोक रंगमंच एवं पारसी रंगमंच की पृष्ठभूमि का आधार लेकर विकसित हुआ है। ध्यातव्य है कि भरतमुनि ने नाट्यशास्त्र में ‘नाट्य ‘ शब्द का प्रयोग केवल नाटक के रूप में न करके व्यापक अर्थ में किया है जिसके अंतर्गत रंगमंच , अभिनय , नृत्य , संगीत , रस , वेशभूषा , रंगशिल्प , दर्शक आदि सभी पक्ष आ जाते हैं।

भारत में संस्कृत रंगमंच के पृष्ठभूमि में चले जाने के बाद भी लोक रंगमंचों की परम्परा अत्यन्त सुदृढ़ रही। नौटंकी , रासलीला ,रामलीला , स्वांग , नकल , खयाल , यात्रा , यक्षगान , नाचा , तमाशा आदि लोकप्रिय लोक-नाट्य रूप रहे हैं। इसी प्रकार पारसी रंगमंच की भी हिंदी रंगमंच के विकास में ऐतिहासिक भूमिका है।

हिंदी रंगमंच का प्रारम्भ 1853 ईसवी में नेपाल के माटगांव में अभिनीत ‘ विद्याविलाप ‘ नाटक से माना जाता है। किन्तु यह नेपाल तक ही सीमित रह गया। वस्तुतः हिंदी रंगमंच का नवोत्थान 1871 ईसवी में स्थापित ‘अल्फ्रेड नाटक मंडली ‘ से हुआ जिसने भारतेन्दु और राधाकृष्ण दास के नाटकों का मंचन प्रस्तुत किया। राधेश्याम कथावाचक इस मंडली के प्रमुख नाटककार थे। इस मंडली के मंच पर स्त्री चरित्रों की भूमिका पुरुष पात्र ही किया करते थे। इसी बीच कोलकाता के ‘ मॉर्डन थिएटर ‘ ने मुंबई की ‘ पारसी रंगमंच ‘ की ‘ इम्पीरियर ‘ आदि अनेक नाटक कंपनियों को खरीदकर कोलकाता को रंगमंच का केंद्र बना दिया। इन संस्थाओं के एकीकरण के कारण नारायण बेताब , आगा हश्र , तुलसीदत्त शैदा , हरिकृष्ण जौहर आदि अनेक नाटककारों का संगम-स्थल कलकाता का ‘ मॉडर्न थिएटर ‘ हो गया। मुंबई और कोलकाता के इन रंगमंच के एकीकरण में हिंदी रंगमंच के विकास में अभूतपूर्व योगदान दिया।

हिंदी में अव्यवसायिक रंगमंच का सूत्रपात 1868 ईस्वी में बनारस थिएटर के साथ हुआ। 1884 में बनारस में ‘नेशनल थियेटर‘ की स्थापना हुई। भारतेन्दु के अंधेर नगरी का प्रथम मंचन नेशनल थियेटर में ही किया था।

हिंदी रंगमंच के विकास में ‘भारतेन्दु नाटक मंडली ‘ (1906) की भूमिका महत्वपूर्ण मानी जाती है। इस मंडली ने लगभग डेढ़ दर्जन नाटकों का मंचन किया जिसमें ‘सत्य हरिश्चंद्र‘ , ‘सुभद्रा हरण‘ , ‘चंद्रगुप्त ‘ , ‘ स्कंदगुप्त ‘ , ‘ ध्रुवस्वामिनी ‘ प्रमुख है। इस नाटक मंडली ने भारतेन्दुयुगीन नाटकों के साथ–साथ प्रसाद के नाटकों को भी सफलतापूर्वक मंचित कर हिंदी के अपने स्वतंत्र रंगमंच के विकास का मार्ग प्रशस्त किया। जयशंकर प्रसाद के नाटकों को मंचित कर इस संस्था ने सिद्ध किया कि प्रसाद के नाटक पूर्णतः अभिनेय है।

आगे चलकर काशी हिंदू विश्वविद्यालय की ‘ विक्रम परिषद ‘ की स्थापना 1939 ईस्वी में हुई थी। इसने नाटकों में स्त्री पात्र के लिए स्त्रियों द्वारा ही अभिनय की परम्परा डाली।

हिंदी रंगमंच के विकास में ‘ बलिया नाट्य समाज ‘ (1884) की भूमिका दी ऐतिहासिक मानी जाती है। 1884 ईसवी में यही पर भारतेंदु ने नाटक पर एक लंबा व्याख्यान दिया था। उसी समय ‘ सत्य हरिश्चंद्र ‘ तथा ‘ नीलदेवी ‘ नाटकों का मंचन किया गया था। उसी समय भारतेंदु ने हरिश्चंद्र की भूमिका निभाई थी। इस नाटक के मंचन को उस क्षेत्र में अपार लोकप्रियता प्राप्त हुई थी। इस संदर्भ में गोपालराम गहमरी ने लिखा है कि "पात्रों का शुद्ध उच्चारण हमने उसी समय हिंदी में नाटक स्टेज पर सुना था।"

हिंदी रंगमंच के विकास में काशी के पश्चात प्रयाग के रंगमंचों का महत्वपूर्ण योगदान रहा है। यहां के महत्वपूर्ण नाट्य मंच ‘आर्य नाट्य सभा‘ , ‘श्री राम लीला नाटक मंडली‘ तथा ‘हिंदी नाट्य समिति‘ थे। कानपुर की संस्थाओं ने भी हिंदी रंगमंच को आगे बढ़ाने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई है। यहां के प्रमुख नाट्य मंच है -‘ भारत नाट्य समिति‘ और ‘भारतीय कला मंदिर‘। वर्तमान समय में कानपुर की ‘कानपुर अकादमी ऑफ ड्रामेटिक आर्ट्स‘ तथा ‘एंबेसडर ‘ संस्थाएं समकालीन नाटकों के मंचन में महत्वपूर्ण’ भूमिका निभा रही है। बिहार में ‘पटना नाटक मंडली ‘ (1876) तथा ‘अमेच्योर ड्रामेटिक एसोसिएशन‘ उल्लेखनीय नाट्य मंच रहे हैं।[१]

हिन्दी रंगमंच दिवस

हिंदी रंगमंच दिवस प्रतिवर्ष ३ अप्रैल को मनाया जाता है। [२] तीन अप्रैल 1868 की शाम बनारस में पहली बार शीतलाप्रसाद त्रिपाठी कृत हिन्दी नाटक 'जानकी मंगल' का मंचन हुआ। जून 1967 में आचार्य रामचन्द्र शुक्ल ने हिंदी साहित्य का इतिहास में पहली बार इस नाटक के मंचन को प्रामाणिक तौर पर पुष्ट किया। इंग्लैंड के 'एलिन इंडियन मेल' के आठ मई 1868 के अंक में भी उस नाटक के मंचन की जानकारी भी प्रकाशित हुई थी। इसी आधार पर पहली बार शरद नागर ने ही हिन्दी रंगमंच दिवस की घोषणा तीन अप्रैल को की थी।

हिंदी रंगमंच की स्थापना में सबसे महत्वपूर्ण भूमिका तत्कालीन काशी नरेश ईश्वरीनारायण सिंह ने निभाई। उन दिनों नाट्य क्षेत्र में ब्रितानी माडल ज्यादा प्रभावी थे। काशी की पारम्परिकता, आधुनिकता के दबाव से बचने की कोशिश में बीच का रास्ता खोज रही थी। तब महाराज ईश्वरीप्रसाद नारायण सिंह ने अपने दरबारी कवि गणेश को इस पर काम करने को कहा। गणेश ने जो नाटक लिखा वह पारम्परिक और छन्दबद्ध था। महाराज संतुष्ट नहीं हुए। वह ऐसी परम्परा शुरू करना चाहते थे जो अंग्रेजी नाट्य प्रस्तुति का मुकाबला कर सके। तब उन्होंने यह जिम्मेदारी शीतलाप्रसाद त्रिपाठी को सौंपी। उन्होंने शास्त्रीय संस्कृत नाटक, पारंपरिक रामलीला और यूरोपीय नाट्य तत्वों को मिलाकर जानकी मंगल तैयार किया। बाबू ऐश्वर्यनारायण प्रसाद सिंह ने रामलीला के कलाकारों संग रिहर्सल शुरू किया। प्रस्तुति का स्थान चुना गया कैंटोनमेंट का असेंबली रूम्स एंड थियेटर जिसे बाद में 'रायल थिएटर' के नाम से भी जाना गया।

प्रस्तुति के ठीक पूर्व लक्ष्मण की भूमिका निभाने वाला लड़का बीमार पड़ गया। नाटक स्थगित होने की नौबत आ गई। तभी 18 वर्षीय युवा हरिश्चंद्र वहां पहुृंचे। उन्होंने लक्ष्मण की भूमिका करने को कहा। महाराज ने संवाद याद होना असंभव बताया तो उन्होंने घंटे भर में याद कर सुना दिया। फिर नाटक खेला गया। भारतेन्दु के मन में हिंदी नाटक लेखन और उसके अभिनय का उत्साह जगा और उन्होंने खुद नाटक लिखना शुरू कर दिया। अपना नाट्य दल भी बनाया जिसमें राधाकृष्ण दास, रविदत्त शुक्ल, दामोदर शास्त्री, पं. चिन्तामणि, पं. माणिक लाल जोशी आदि थे। उन्होंने वाराणसी और बलिया के दादरी मेले में नाट्य प्रस्तुतियां दीं। इसके बाद तो काशी में नाटक करने के लिए नाट्य संस्थाओं का बनना आरम्भ हो गया।

लेकिन दूसरी तरफ कुछ लोग इस मामले पर हस्तक्षेप करते हुए यह भी कहते हैं कि सन १८५३ में नेपाल के भाटगाँव में “विद्याविलाप “ नामक हिन्दी नाटक खेला गया था। जबकि कुछ लोगों का यह भी कहना हे कि सन 1850 से 1860 के बीच लखनऊ में “इंद्रसभा” और नवाब वाजिद अलीशाह के “किस्सा राधा कन्हैया” का मंचन हुआ था। बताते हैं कि उन्हीं दिनों मुंबई में सांगलीकर नाटक मंडली ने “ गोपीचन्दोपाख्यान “ (ओपेरा) का मंचन किया था। [३]

इन्हें भी देखें

बाहरी कड़ियाँ

सन्दर्भ