हव्यक

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हव्यक ब्राह्मण हिन्दु पंच द्राविड वैदिक ब्राह्मणों में एक है। इन्हे "हवीका", "हैगा" तथा "हवीगा" नाम से भी जाना जाता है। वर्तमान में अधिकांश हव्यक भारत का कर्नाटक राज्य के निवासी हैं। हव्यक, आदि शंकराचार्य द्वारा प्रतिपादित अद्वैत दर्शन को मान्ते हैं।

आदि शंकराचार्य की मूर्ति। शंकराचार्य ने हिंदू धर्म के कई विचारों का निर्माण किया है।

शब्द-स्तोत्र

ब्राह्मण के द्वारा प्रदर्शित हवन

"हव्यक" शब्द "हवीगा" या "हवीका" शब्द से व्युत्पन्न हुआ है। हव्यक शब्द का अर्थ है "वे जो हवन (एक तरह कि भारतीय परंपरा) कर सकतें हैं।" हवन तथा होम, हव्यक ब्राह्मणों की पारंपरिक धार्मिक क्रिया है। इस शब्द के स्तोत्र पर कई और सिद्धान्त मौजूद हैं। माना जाता है कि प्राचीन दक्षिण भरात के उत्तर कन्नड़ ज़िला मे कोंकण तथा तुलुवा के बीच का स्थान "हैवा" के नाम से जाना जाता था। यह स्थान हव्यकों का निवास भी है। इसलिए यह माना जाता है कि यह "हव्यक" शब्द का स्तोत्र स्थान है।

उद्गम

हव्यक ब्राह्मण उत्तराखण्ड के नैनिताल ज़िल्ला मे मौजूद अहिछत्र नामक स्थान के निवासी थे। ९वीं शताब्दी के अंत मे (या १० वे शतमान के उद्गम मे) दक्षिण भारत के कदंब राजवंश की स्थापना करने वाले राजा मयूरशर्मा (या मयूरवर्मा) ने हव्यक ब्राह्मणों को वर्तमान के कर्नाटक राज्य मे आकर निवास करने का निमंत्रण दिया था। तालागुण्डा और वर्दहळी शिलालेख से यह मालुम होता है कि कदंब राजवंश ने हव्यक ब्राह्मणों को अहिछत्र से शाही अनुष्ठान करने हेतु बुलवाया था।

पहले के कई हव्यक परिवार हैगुण्डा (उत्तर कन्नड़ ज़िला के होन्नावर तालूक मे शरावाति नदि के पास स्ठापित एक छोटा सा गांव।) तथा बनवासी (आदिकवि पम्प का यह प्रिय स्ठल कदंब राजवंश की राजधानी थी।) मे बसे थे। मयूरशर्मा (या मयूरवर्मा) द्वारा हव्यक परिवारों को कर्नाटक मे बुलाए जाने की क्रिया को एक शिलालेख मे दर्ज़ किया गया है जो अब वर्दहळी (कर्नाटक के शिमोगा जिला के सागरा तालुक मे स्ठित एक पूजनीय स्ठल।) मे स्ठापित है।

वर्तमान

अधिकांश हव्यक ब्राह्मण आज रामचंद्रापुर मठ (शिमोगा जिला मे मौज़ूद एक सुप्रसिद्ध मठ) तथा स्वर्णवळी मठ के विचारों तथा रिवाज़ों का पालन करते हैं। यह सारे मठ आदि शंकराचार्य द्वारा स्थापित तथा प्रतिपादित की गई अद्वैत वेदान्त का पालन करते हैं। जहां अधिकतम हव्यक सुपारी,धान,केलाश् तथा नारियल के व्यापार मे दाखिल दिखाई पडते हैं तो कुछ हव्यक ब्राह्मण वेदशास्त्र कि पडाई कर पंडित का स्ठान प्राप्त कर लेते हैं। भारतीय स्वतन्त्रता आन्दोलन मे भी हव्यकों ने एक महत्त्वपूर्ण पात्र निभाया है। दांडी मार्च(नमक सत्याग्रह) तथा बारडोली सत्याग्रह मे हव्यक पुरुष तथा महिलाओं दोनो ने ही प्रमुख पात्र निभाया है। कर्नाटक के सिद्धापुर ग्राम के दोड्डमने हेग्डे परिवार ने इन स्त्याग्रहों मे महत्त्वपूर्ण पात्र निभाया है।

काठमांडू के पशुपतिनाथ मन्दिर मे सेवा करने वाले भट्ठ पंडित भी हव्यक ब्राह्मण है।

भाषा

हव्यक ब्राह्मण अपने असमान्य भाषा के लिए जाने जाते है। वे हविगन्नड्डा(या हव्यक कन्नड़) नामक उपभाषा का उपयोग करते है जो कन्नड़ भाषा का हि रूपांतरण है। यह कई हद तक कन्नड़ भाषा के ही समान है फिर भी कई कन्नड़ वासी इस भाषा को समझने मे कठिनाई महसूस करते है। हव्यक कन्नड़ के भी कई उपबोलियां मौजूद है जो इलाके के आधार पर वितरित है। हव्यक भाषा मे कई शब्द प्राचीन कन्नड़ (या हळेगन्नडा) से ली गई है जिसके कारण हि समान्य कन्नड वासी इस भाषा को ठीक रूप से समझ नही पाते। हव्यक भाषा भी हळेगन्नडा कि तरह काफी पुरानी और प्राचीन मानी जाती है। माना जाता है कि इस भाषा का निर्माण भी हव्यक ब्राह्मणों ने ही किया था। किंतु इस विषय पर किसि भी तरह का सबूत न होने के कारण, इस भाषा का स्तोत्र भी भारत के कई चीज़ों कि तरह रहस्यमय है। विषेश रूप से दक्षिण कन्नड तथा उत्तर कन्नड के हव्यक भाषा मे स्त्री लिंग के जगह पर तटस्त लिंग का उपयोग किया जाता है। इस तथ्य का ध्यान से अध्ययन करने से कुछ दिलचस्प बाते प्रत्यक्ष होती है। जहां एक ओर उत्तर भारत के भाषाओं मे तटस्त लिंग के उपयोग कि कमी दिखाई पडती है, दूसरी ओर अधिकांश द्रविड़ भाषाओं मे तटस्त लिंग का भारी उपयोग के प्रमाण मिलते है। इससे यह अनुमान लगाया जा सकता है कि हव्यक भषा का उद्गम आदि-द्रविड़ युग मे हुआ था जो इस भाषा को प्राचीन बनाता है। परंतु कर्नाटक मे कुछ जगहों मे हव्यक ब्राह्मण हविगन्नडा का उपयोग नही करते।

वर्ण (या जाति)

हव्यक ब्राह्मण हिंदु ब्राह्मण जाति के उप-जति मे शामिल है जो आदि शंकराचार्य कि रचना अद्वैत वेदांत का अनुसरण करते है। ज़्यादातर हव्यक ब्राह्मण यजुर्वेदि ब्राह्मण होते है जो बौधायन श्रौतसूत्र का पालन करते है। किंतु कुछ हव्यक ब्राह्मण सामवेदि तथा कुछ ऋग्वेदि (जो सबसे प्राचीन वेद है।) भी होते है।

त्योहार

हव्यक अधिकांश सभी हिंदु त्योहारों को मनाते है।

कला, साहित्य और संस्कृति

संगीत, नृत्य और लिखन हव्यको के लिए बहुत आकर्षिक बना रहा है। कर्नाटक का लोक नृत्य यक्षगान विषेश रूप से हव्यकों द्वारा विकसित किया गया है। इसके प्रसिद्ध उदाहरण है च्चिट्टाणि रामचंद्र हेगडे और कीरेमने शंबु हेगडे। हाल ही में च्चिट्टाणि रामचंद्र हेगडे को, उनके यक्षगान के द्वारा रुची तथा समर्पण की कदर करते हुए, पद्म श्री पुरस्कार से सम्मानित किया गया।

हव्यकों द्वारा बनाए जाने वाला भोजन अत्यंत अलग तथा स्वादिश्ट होती है। इनमे विभिन्न तरह के खाद्य वस्तु यानि की अप्पे हुली, तोडदेवु, पनस की पापड़ इत्यादि शामिल है।

गोत्र

हव्यक गोत्र पद्धत्ति का पालन करते है। इनमे निम्नलिखित गोत्र शामिल है:

  • भरद्वाज
  • वसिष्ठ
  • अंगीरस
  • गौतम
  • जमदग्नि
  • कश्यप
  • विश्वामित्र