हरिराम व्यास

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हरिराम व्यास (संवत १५६७ - १६८९) राधावल्लभ सम्प्रदाय के उच्च कोटि के भक्त तथा कवि थे।[१] राघावल्लभीय संप्रदाय के हरित्रय में इनका विशिष्ट स्थान है।[२]

परिचय

भक्तप्रवर व्यास जी का जन्म ओड़छानिवासी श्री सुमोखन शुक्ल के घर मार्गशीर्ष शुक्ला पंचमी, संवत् १५६७ को हुआ था। वे सनाढय शुक्ल ब्राह्मण थे।[२] संस्कृत के अध्ययन में विशेष रुचि होने के कारण अल्पकाल ही में इन्होंने पांडित्य प्राप्त कर लिया। ओड़छानरेश मधुकरशाह इनके मित्रशिष्य थे। व्यास जी अपने पिता की ही भाँति परम् वैष्णव तथा सद्गृहस्थ थे। राधाकृष्ण की ओर विशेष झुकाव हो जाने से ये ओड़छा छोड़कर वृंदावन चले आए। राधावल्लभ संप्रदाय के प्रमुख आचार्य गोस्वामी हितहरिवंश जी के जीवनदशर्न का इनके ऊपर ऐसा मोहक प्रभाव पड़ा कि इनकी अंतर्वृत्ति नित्यकिशोरी राधा तथा नित्यकिशोर कृष्ण के निकुंजलीलागान में रम गई। चैतन्य संप्रदाय के रूप गोस्वामी और सनातन गोस्वामी से इनकी गाढ़ी मैत्री थी। इनकी निधनतिथि ज्येष्ठ शुक्ला ११, सोमवार सं. १६८९ मानी जाती है।

इनका धार्मिक दृष्टिकोण व्यापक तथा उदार था। इनकी प्रवृत्ति दाशर्निक मतभेदों को प्रश्रय देने की नहीं थीं। राघावल्लभीय संप्रदाय के मूल तत्त्व - 'नित्यविहार दशर्न' - जिसे 'रसोपासना' भी कहते हैं - की सहज अभिव्यक्ति इनकी वाणी में हुई है। इन्होंने शृंगार के अंतर्गत संयोगपक्ष को नित्यलीला का प्राण माना है। राधा का नखशिख और शृंगारपरक इनकी अन्य रचनाएँ भी संयमित एवं मर्यादित हैं। 'व्यासवाणी' भक्ति और साहित्यिक गरिमा के कारण इनकी प्रौढ़तम कृति है।

पहले ये संस्कृत के शास्त्रार्थी पंडित थे और सदा शास्त्रार्थ करने के लिए तैयार रहते थे। एक बार वृंदावन में जाकर गोस्वामी हितहरिवंश जी को शास्त्रार्थ के लिए ललकारा। गोसाईं जी ने नम्र भाव से यह पद कहा -

यह जो एक मन बहुत ठौर करि कही कौनै सचु पायो।
जहँ तहँ बिपति जार जुवती ज्यों प्रकट पिंगला गायो

दीक्षा-गुरु

निम्न दोहे से प्रतीत होता है कि इनके दीक्षा- गुरु हितहरिवंश थे :

उपदेस्यो रसिकन प्रथम,तब पाये हरिवंश।
जब हरिवंश कृपा करी ,मिठे व्यास के संश।।[१]

यह पद सुनकर व्यास जी चेत गए और हितहरिवंश जी के अनन्य भक्त हो गए। उनकी मृत्यु पर इन्होंने इस प्रकार अपना शोक प्रकट किया -

हुतो रस रसिकन को आधार।
बिन हरिबंसहि सरस रीति को कापै चलिहै भार?
को राधा दुलरावै गावै, वचन सुनावै कौन उचार?
वृंदावन की सहज माधुरी, कहिहै कौन उदार?
पद रचना अब कापै ह्वैहै? नीरस भयो संसार।
बड़ो अभाग अनन्य सभा को, उठिगो ठाट सिंगार
जिन बिन दिन छिन जुग सम बीतत सहज रूप आगार।
व्यास एक कुल कुमुद चंद बिनु उडुगन जूठी थार

जब हितहरिवंश जी से दीक्षा लेकर व्यास जी वृंदावन में ही रह गए तब महाराज 'मधुकर साह' इन्हें ओरछा ले जाने के लिए आए, पर ये वृंदावन छोड़कर न गए और अधीर होकर इन्होंने यह पद कहा -

वृंदावन के रूख हमारे माता पिता सुत बंधा।
गुरु गोविंद साधुगति मति सुख, फल फूलन की गंधा
इनहिं पीठि दै अनत डीठि करै सो अंधान में अंधा।
व्यास इनहिं छोड़ै और छुड़ावै ताको परियो कंधा

रचनाएँ

  • व्यास-वाणी (हिन्दी में )-प्रकाशित
  • रागमाला (हिन्दी में )
  • नवरत्न (संस्कृत में)
  • स्वधर्म पद्धति (संस्कृत में)[१]

माधुर्य भक्ति का वर्णन

व्यास जी के उपास्य श्यामा-श्याम रूप, गुण तथा स्वाभाव सभी दृष्टियों से उत्तम हैं। ये वृन्दावन में विविध प्रकार रास आदि की लीलाएं करते हैं। इन्हीं लीलाओं का दर्शन करके रसिक भक्त आत्म-विस्मृति की आनन्दपूर्ण दशा को सहज ही प्राप्त कर लेते हैं। यद्यपि रधावल्लभ सम्प्रदाय में राधा और कृष्ण को परस्पर किसी प्रकार के स्वकीया या परकीया भाव के बन्धन में नहीं बाँधा गया, किन्तु लीलाओं का वर्णन करते समय कवि ने सूरदास की भाँति यमुना-पुलिन पर अपने उपास्य-युगल का विवाह करवा दिया है।

मोहन मोहिनी को दूलहु।
मोहन की दुलहिनी मोहनी सखी निरखि निरखि किन फूलहु।
सहज ब्याह उछाह ,सहज मण्डप ,सहज यमुना के कूलहू।
सहज खवासिनि गावति नाचति सहज सगे समतूलहु।। [१]

यही कृष्ण और राधा व्यास जी सर्वस्व हैं। इनके आश्रय में ही जीव को सुख की प्राप्ति हो सकती है,अन्यत्र तो केवल दुःख ही दुःख है। इसीकारण अपने उपास्य के चरणों में दृढ़ विश्वास रखकर सुख से जीवन व्यतीत करते हैं:

काहू के बल भजन कौ ,काहू के आचार।
व्यास भरोसे कुँवरि के ,सोवत पाँव पसार।।[१]

राधा के रूप सौन्दर्य का वर्णन दृष्टव्य है :

नैन खग उड़िबे को अकुलात।
उरजन डर बिछुरे दुःख मानत ,पल पिंजरा न समात।।
घूंघट विपट छाँह बिनु विहरत ,रविकर कुलहिं ड़रात।
रूप अनूप चुनौ चुनि निकट अधर सर देखि सिरात।।
धीर न धरत ,पीर कही सकत न ,काम बधिक की घात।
व्यास स्वामिनी सुनि करुना हँसि ,पिय के उर लपटात।।[१]

साधना की दृष्टि व्यास जी भक्ति का विशेष महत्त्व स्वीकार किया है है। उनके विचार से व्यक्ति का जीवन केवल भक्ति से सफल हो सकता है :

जो त्रिय होइ न हरि की दासी।
कीजै कहा रूप गुण सुन्दर,नाहिंन श्याम उपासी।।
तौ दासी गणिका सम जानो दुष्ट राँड़ मसवासी।
निसिदिन अपनों अंजन मंजन करत विषय की रासी।।
परमारथ स्वप्ने नहिं जानत अन्ध बंधी जम फाँसी।[१]

सन्दर्भ

  1. http://hindisahityainfo.blogspot.in/2017/05/blog-post_18.htmlसाँचा:category handlerसाँचा:main otherसाँचा:main other[dead link]
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