सौभरि
सौभरि एक प्राचीन ऋषि जो बड़े तपस्वी थे ।
भागवत में इनका वृत्त वार्णित है । एक दिन यमुना में एक मत्स्य को मछलियों से भोग करते देखकर इनमें भी भोगलालसा उत्पन्न हुई । ये सम्राट मान्धाता के पास पहुँचे, जिनके पचास कन्याएँ थीं । ऋषि ने उनसे अपने लिये एक कन्या माँगी । मान्धाता ने उत्तर दिया कि यदि मेरी कन्याएँ स्वयंवर में आपको वरमाला पहना दें, तो आप उन्हें ग्रहण कर सकते हैं । सौभरि ने समझा कि मेरी बुढ़ौती देखकर सम्राट् ने टाल-मटोल की है । पर मैं अपने आपको ऐसा बनाऊँगा कि राजकन्याओं की तो बात ही क्या, देवांगनाएँ भी मुझे वरण करने को उत्सुक होंगी । तपोबल से ऋषि का वैसा ही रूप हो गया । जब वे सम्राट् मांधाता के अंतःपुर में पहुँचे, तब राजकन्याएँ उनका दिव्य रूप देख मोहित हो गई और सब ने उनके गले में वरमाल्य डाल दिया । ऋषि ने अपनी मंत्रशक्ति से उनके लिये अलग अलग पचास भवन बनवाए और उनमें बाग लगवाए । इस प्रकार ऋषि जी भोगविलास में रत हो गए और पचास पत्नियों से उन्होंने पाँच हजार पुत्र उत्पन्न किए । वह्वयाचार्य नामक एक ऋषि ने इनको इस प्रकार भोगरत देख एक दिन एकान्त में बैठकर समझाया कि यह आप क्या कर रहे हैं । इससे तो आपका तपोतेज नष्ट हो रहा है । ऋषि को आत्मग्लानि हुई । वे संसार त्याग भगवच्चिंतन के लिये वन में चले गए । उनकी पत्नियाँ उनके साथ ही गईं । कठोर तपस्या करने के उपरांत उन्होंने शरीर त्याग दिया और परब्रह्म में लीन हो गए । उनकी पत्नियों ने भी उनका सहगमन किया ।