सुरेश कान्त

मुक्त ज्ञानकोश विकिपीडिया से
नेविगेशन पर जाएँ खोज पर जाएँ

सुरेश कान्त (जन्म: १६ जून, १९५६) समकालीन हिन्दी साहित्यकार, व्यंग्यकार, उपन्यासकार, नाटककार, कथाकार, लेखक तथा प्रबन्धन गुरु हैं।

जीवन परिचय

सुरेश कान्त का जन्म १६ जून, १९५६ को उत्तर प्रदेश के मुजफ्फरनगर जिले के करौदा-हाथी ग्राम में हुआ। अब यह गाँव शामली जिले के बाबरी थाने में पड़ता है। दिल्ली विश्वविद्यालय से प्रथम श्रेणी में बी.ए. ऑनर्स (हिन्दी) और एम॰ए॰ (हिन्दी) किया। फिर राजस्थान विश्वविद्यालय, जयपुर से पत्रकारिता में स्नातकोत्तर डिप्लोमा किया। राजस्थान विश्वविद्यालय से ही 'हिन्दी गद्य-लेखन में व्यंग्य और विचार' विषय पर पी.एच. डी. की। 'प्राचीन भारत में बैंकिंग का स्वरूप और शब्दावली' विषय पर शोध कर डी. लिट्. की उपाधि प्राप्त की।

सुरेश कांत भारतीय रिज़र्व बैंक, मुंबई में 20 वर्षों तक सहायक महाप्रबंधक (राजभाषा) रहे। भारतीय स्टेट बैंक, मुंबई में 10 वर्षों तक उप-महाप्रबंधक (राजभाषा) रहे। सेवानिवृत्ति के बाद कांत प्रसिद्ध प्रतियोगी-पत्रिका ‘कंपीटिशन सक्सेस रिव्यू’ (नई दिल्ली) के हिन्दी संस्करण के संपादक रहे। भारत के सबसे पुराने और बड़े प्रकाशन-संस्थान हिन्द पॉकेट बुक्स प्रा.लि., नई दिल्ली /नोएडा (जिसका बाद में पेंगुइन प्रकाशन में विलय हो गया) में प्रबंध संपादक रहे। सुरेश कांत पेंगुइन रैंडम हॉउस, इंडिया के संपादन- सलाहकार भी रह चुके हैं और आजकल स्वतंत्र लेखन में रत हैं।

कृतियाँ

सुरेश कांत 50 से अधिक पुस्तकों की रचना/संपादन कर चुके हैं। इसके अतिरिक्त विभिन्न पत्र-पत्रिकाओं में अब तक उनकी 500 से अधिक रचनाओं का प्रकाशन हो चुका है। वे एक चर्चित वक्ता हैं और विभिन्न बैंकों, कार्यालयों, प्रशिक्षण-संस्थानों, विश्वविद्यालयों आदि द्वारा आयोजित सम्मेलनों, संगोष्ठियों, कार्यशालाओं आदि में हिंदी भाषा और साहित्य, राजभाषा, बैंकिंग, वित्त और प्रबंधन पर सैकड़ों व्याख्यान दे चुके हैं। [१]

उपन्यास :- धम्मं शरणम् (1989), युद्ध, जीनियस, नवाब साहब, कनीज।

व्यंग्य-उपन्यास:- 'ब' से बैंक (1980), जॉब बची सो (2019)

कहानी-संग्रह :- उत्तराधिकारी, गिद्ध, क्या आप एस.सी. दीक्षित को जानते हैं ?

नाटक :- रजिया, प्रतिशोध, विदेशी आया, बेचारा हिन्दुस्तान, कौन?

व्यंग्य-संग्रह : अफसर गए बिदेस, पड़ोसियों का दर्द, बलिहारी गुरु, देसी मैनेजमेंट, चुनाव मैदान में बन्दूकसिंह, अर्थसत्य, भाषण बाबू, मुल्ला तीन प्याजा, कुछ अलग (2018), बॉस, तुसी ग्रेट हो!(2018), लेखक की दाढ़ी में तिनका (2020)

बाल साहित्य : कुट्टी, रोटी कौन खाएगा, चलो चाँद पर घूमें, भैंस का अंडा, विश्वप्रसिद्ध बाल कहानियाँ (पाँच भाग)

आलोचना : हिन्दी गद्य लेखन में व्यंग्य और विचार (2004)

प्रबंधन : प्रबन्धन के गुरुमंत्र, कुशल प्रबंधन के सूत्र, सफल प्रबन्धन के गुर, आदर्श प्रबन्धन के सूक्त, उत्कृष्ट प्रबन्धन के रूप (पाँच बेस्टलसेलर पुस्तकों की सिरीज)

अन्य : बैंकों में हिंदी का प्रयोग, इन्साइक्लोपीडिक डिक्शनरी ऑफ बैंकिंग एंड फाइनेंशियल टर्म्स (2005)

कृति-विश्लेषण

'ब' से बैंक सुरेश कांत का पहला उपन्यास था जो 1978 में प्रसिद्ध हिन्दी पत्रिका 'धर्मयुग' में कई किस्तों में प्रकाशित हुआ था और खूब सराहा गया था। तब कांत की उम्र मात्र 22 वर्ष थी। यह समग्र उपन्यास के रूप में 1980 में पराग प्रकाशन से छपकर आया और 1990 में पुनः राजकमल प्रकाशन से प्रकाशित हुआ। हरिशंकर परसाई, शरद जोशी और रवीन्द्रनाथ त्यागी जैसे दिग्गज व्यंग्यकारों से प्रशंसित इस उपन्यास का सुरेश कांत पुनर्लेखन कर रहे हैं। बैंकिंग क्षेत्र की विसंगतियों की चीड़फाड़ करता यह लोकप्रिय उपन्यास शीघ्र ही एक नए कलेवर में पाठकों के समक्ष प्रस्तुत होगा।

वर्ष 2019 में प्रकाशित 'जॉब बची सो' कांत का दूसरा व्यंग्य-उपन्यास है जो कॉरपोरेट जगत में व्याप्त विसंगतियों को उजागर करता है।

कांत का प्रथम व्यंग्य-उपन्यास 1978 में और दूसरा 2019 में आया। तो इस बीच क्या हुआ?

इस बीच कांत के अनेक व्यंग्य-संकलन प्रकाशित हुए जिनमें 'अफसर गए बिदेस', 'पड़ोसियों का दर्द', 'बलिहारी गुरु', 'भाषण बाबू', 'अर्थसत्य', 'देसी मैनेजमेंट', 'चुनाव-मैदान में बंदूकसिंह', 'कुछ अलग', 'बॉस, तुसी ग्रेट हो!', 'मुल्ला तीन प्याजा' प्रमुख हैं।

कांत के नुक्कड़ व्यंग्य-नाटक 'विदेशी आया' और 'बेचारा हिन्दुस्तान' बहुमंचित रहे हैं।

वर्ष 2004 में राजकमल प्रकाशन से उनकी आलोचना कृति छपी-'हिन्दी गद्य लेखन में व्यंग्य और विचार'। यह आलोचना-ग्रंथ असल में एक ऐसी यात्रा है जिसकी राह में एक तरफ लुकाटी लिए मुस्कराते फक्कड़ मस्तमौला कबीर मिलते हैं तो दूसरी तरफ आधुनिक हिंदी गद्य के जनक और ‘जो घर जारै आपना...’ के अनुयायी ‘भारतेन्दु हरिश्चंद्र’ खड़े मिलते हैं, एक तरफ मारक व्यंग्य लिखने वाले ‘बालकृष्ण भट्ट’ मिलते हैं तो दूसरी ओर व्यंग्य के शिखर पुरुष 'हरिशंकर परसाई, एक तरफ लेखकीय ‘इंटेंसिटी’ को वरीयता देते व व्यंग्य की मानवीय पक्षधरता और रचनात्मक उर्जा लिए शरद जोशी मिलते हैं तो दूसरी तरफ अपने कालजयी ‘जो’ के साथ रवीन्द्रनाथ त्यागी मिलते हैं, एक तरफ रामायण के अंगद की तरह पाँव जमाए राग दरबारी के श्रीलाल शुक्ल मिलते हैं तो दूसरी तरफ संघर्षशील विषमताओं से निर्मित जनवादी राम को अपनी राम-कथा का विषयवस्तु बनाकर विवादों में छाने वाले तथा जीवन की विसंगतियों पर व्यंग्य करने वाले नरेंद्र कोहली भी खड़े मिलते हैं, एक तरफ पुरातन का नवीन व्यंग्य-गर्भ संस्करण प्रस्तुत करने वाले 'राधाकृष्ण' मिलते हैं तो दूसरी तरफ हिन्दी में हास्य-व्यंग्य के प्रथम डॉक्टर ‘डॉ. बरसानेलाल चतुर्वेदी’। हरि अनंत हरि कथा अनंता। मनोहर श्याम जोशी, श्री नारायण चतुर्वेदी, मुद्राराक्षस, इंद्रनाथ मदान, संसारचन्द्र, अमृत राय, शंकर पुणताम्बेकर, के.पी.सक्सेना, लतीफ़ घोंघी, ज्ञान चतुर्वेदी, प्रेम जनमेजय, हरि जोशी, हरीश नवल, सूर्यबाला, बालेन्दु शेखर तिवारी प्रभृति रचनाकारों से लेकर नए व्यंग्यकारों तक। ‘व्यंग्य की गीता’ है यह कृति।

सुरेश कांत ने अपने सम्पादकत्व में 2018 में हास्य-व्यंग्य की एक मासिक पत्रिका भी निकाली जिसका नाम था 'हैलो इंडिया'। इस पत्रिका में उनका निष्ठापूर्वक अमृत-मंथन झलका तो इसकी प्रत्येक पंक्ति ने उनकी संपादन दक्षता उद्घोषित की। पर दो अंकों (मार्च और अप्रैल 2018) के बाद ही यह बंद हो गया। अस्तु! हिन्दी पत्रिकाओं के असमय काल-कवलित हो जाने का भी अपना एक सुदीर्घ इतिहास है।

मने व्यंग्य-उपन्यास, व्यंग्य-नाटक, व्यंग्य-संकलन, व्यंग्य-आलोचना!

बकौल सुरेश कांत, 'मैंने व्यंग्यकार बनने के लिए व्यंग्य नहीं लिखे, बल्कि जो लिखा, उसने मुझे व्यंग्यकार बना दिया। जबकि आज लोग व्यंग्यकार बनने के लिए लिखते हैं, भले ही उनका लिखा उनके व्यंग्यकार होने की गवाही न दे।'

तो क्या सुरेश कांत सिर्फ व्यंग्य लिखते हैं? नहीं! नहीं!!

कांत जैसा बहुमखी प्रतिभा का धनी व्यक्ति किसी एक विधा के खूँटे से बंधकर रह जाए, यह तो हो ही नहीं सकता। कविता को छोड़कर कांत ने सभी विधाओं में अपनी कलम चलाई है। व्यंग्य विधा से इतर सुरेश कांत ने अनेक उपन्यास लिखे जिनमें 'धम्मं शरणम्', युद्ध, नवाब साहब, जीनियस, कनीज, फिरंगी' प्रमुख हैं। इनमें 'धम्मं शरणम्' (1989/पुरस्कृत) एक अद्वितीय कृति है जो धर्म और राजनीति के नापाक गठबंधन के चक्रव्यूह में जलते राष्ट्र और समाज की भयावह तस्वीर पेश करती है, अतीत के आईने में वर्तमान भी सजीव उठता है। इसे पढ़ते हुए आचार्य चतुरसेन सामने आ खड़े होते हैं और यह भरोसा ही नहीं होता कि 'ब से बैंक' वाले लेखक ने ही इसे भी लिखा है। पर भरोसा करना ही पड़ता है और लेखक की बहुमखी प्रतिभा, इतिहास को देखने की उसकी लोकोन्मुख दृष्टि, वर्तमान को रेखांकित करने की उसकी विशिष्ट कला और दृष्टि का लोहा मानना ही पड़ता है।

'अपरेसन', 'डाल से टूटे', 'मुआयना', 'गिद्ध', 'उत्तराधिकारी', 'क्या आप एस.पी. दीक्षित को जानते हैं ?' प्रभृति उनके कहानी-संग्रह हैं जबकि 'वसुधैव अंकलम्', 'सो तो है' उनके निबंध-संग्रह हैं।

'कुट्टी', 'रोटी कौन खाएगा', 'चलो चाँद पर घूमें', 'भैंस का अंडा', विश्वप्रसिद्ध बाल कहानियाँ (पाँच भाग-संपादन) आदि रचनाओं के द्वारा सुरेश कांत ने बाल-साहित्य भंडार को भी समृद्ध किया है।

सुरेश कांत ने नाटक-विधा में भी सशक्त हस्तक्षेप किया है। रजिया, प्रतिशोध, गवाही, कौन ? आदि उनके प्रसिद्ध नाटक हैं। इनमें से कई बहुमंचित रहे हैं।

सुरेश कांत प्रबंधन के भी गुरु हैं। उनकी प्रबंधन पर पाँच किताबों की बेस्टलसेलर श्रृंखला है। ये हैं 'प्रबंधन के गुरुमंत्र, 'कुशल प्रबंधन के सूत्र', 'सफल प्रबंधन के गुर', 'उत्कृष्ट प्रबंधन के रूप', 'आदर्श प्रबंधन के सूक्त'। ये किताबें नब्बे के दशक में हिंदी के पहले व्यवसाय-दैनिक 'अमर उजाला कारोबार' के साप्ताहिक कॉलम 'मैनेजमेंटनामा' में कांत के वर्षों तक प्रकाशित होकर अत्यंत चर्चित हुए लेखों के संकलन हैं।

बैंकिंग और अर्थशास्त्र कांत के प्रिय विषय हैं। लम्बे अरसे तक इस क्षेत्र से जुड़ाव भी इसका एक प्रमुख कारण रहा होगा। 2005 में प्रकाशित 'इन्साइक्लोपीडिक डिक्शनरी ऑफ बैंकिंग एंड फाइनेंशियल टर्म्स' इसी रुचि की फलश्रुति है।इसके अतिरिक्त 'बैंकों में हिन्दी का प्रयोग' और 'प्राचीन भारत में बैंकिंग शब्दावली का स्वरूप' कांत के प्रकाशित शोध-ग्रंथ हैं।

धर्मयुग, साप्ताहिक हिंदुस्तान, सारिका, रविवार, दिनमान, पराग आदि प्रसिद्ध पत्रिकाओं में कांत ने नियमित लेखन किया। हिंदी के पहले बिजनेस-डेली ‘अमर उजाला कारोबार’ में कांत का प्रबंधन-कॉलम ‘मैनेजमेंटनामा’ और व्यंग्य-कॉलम ‘अर्थसत्य’ बहुचर्चित रहे हैं। इसके अतिरिक्त कांत कई समाचारपत्रों के दैनिक व्यंग्य-स्तंभों में लिखते रहे हैं/लिख रहे हैं। कादम्बिनी, वागर्थ, समकालीन साहित्य, इंडिया टुडे, आउटलुक, शुक्रवार, नवभारत टाइम्स, अमर उजाला, हिंदुस्तान, दैनिक भास्कर, दैनिक जागरण प्रभृति पत्रिकाओं एवं अखबारों में कांत के लेख समय-समय पर प्रकाशित होते रहे हैं।

साहित्यिक पत्रिकाओं के अलावा रिज़र्व बैंक के व्यावसायिक जर्नल ‘बैंकिंग चिंतन-अनुचिंतन’, इंडियन बैंक्स एसोसिएशन (आईबीए) के मासिक जर्नल ‘द इंडियन बैंकर’, आईसीएफएआई की मासिक पत्रिका ‘प्रोफेशनल बैंकर’ और व्यावसायिक दैनिक ‘बिजनेस लाइन’ में बैंकिंग, वित्त और प्रबंधन जैसे तकनीकी विषयों पर सुरेश कांत ने लेखन किया है।

सुरेश कांत की अनेक कृतियाँ साहित्य कला परिषद (दिल्ली), हिंदी अकादमी (दिल्ली), उ.प्र. हिंदी संस्थान (लखनऊ), गृह मंत्रालय, वित्त मंत्रालय/भारत सरकार आदि द्वारा पुरस्कृत हैं।

सुरेश कांत : एक अलग दृष्टिकोण

अब आप पूछेंगे कि सुरेश कांत माने क्या? हिन्दी के व्यंग्यकार? समकालीन उपन्यासकार/नाटककार? सुधी समालोचक? साहित्यकार? प्रखर संपादक? विभिन्न बैंकों, कार्यालयों, प्रशिक्षण-संस्थानों, विश्वविद्यालयों प्रभृति द्वारा आयोजित सम्मेलनों, संगोष्ठियों, कार्यशालाओं आदि में हिन्दी भाषा और साहित्य, राजभाषा, बैंकिंग, वित्त और प्रबंधन पर सैकड़ों व्याख्यान दे चुके चर्चित वक्ता ? बस! यही घिसा-पिटा औपचारिक परिचय हुआ परसाई, जोशी, त्यागी और शुक्ल के समकालीन रहे इस लेखक का? नहीं! नहीं!!

वह तो स्वर है 'विरोध' का, 'बोध' का। उसका मूल वह 'काली कामरी' है जिस पर जो भी रंग चढ़ाया जाए, वह उतरे या न उतरे, पर उसे देखा जा सकता है। वह अपने समय के रहस्य को गहरी संवेदना के साथ समझने वाले 'सृजक' हैं।

विसंगतियों का उद्घाटन करने वाले किसी थाने के 'मुखबिर' नहीं है कांत। वे तो भरी सभा में अचानक श्रोताओं के मध्य से उठ खड़े होने वाले 'मुखवीर' हैं।

ऐसा 'मुखवीर' ही तो परसाई-जोशी-त्यागी की व्यंग्यकार-त्रयी के चुक जाने की घोषणा किए जाने पर उसका प्रखर विरोध कर सकता है और उनके स्थान पर एक नई त्रयी में स्वयं के सम्मिलित किए जाने के प्रस्ताव को अस्वीकार भी कर सकता है। 'अस्वीकार का साहस' रखने वाले कटु आलोचना के शिकार होते आए हैं। तभी तो कांत के आलोचकों में वामपंथी भी हैं और दक्षिणपंथी भी।

कांत के 'भाषाबल' का एक मुख्य कारण उनका 'चरित्र बल' भी है। यह 'चरित्र बल' ऐसा है कि दूसरों के कान उमेठने के साथ ही वे अपना कान भी ऐंठने से नहीं चूकते।

यह 'चरित्र बल' ऐसा है कि कोई उनकी कितनी भी आलोचना करे, पर जब भी उसका लिखा कांत को पसंद आता है, वे मुक्त कंठ से उसकी भी प्रशंसा करते नजर आते हैं। यह गुण तो अब 'विरल' ही हो चुका है।

कांत की सतेज जीवंत उपस्थिति से व्यंग्य विधा समृद्ध हुई है। इस साहित्य-पुरुष के हमारे बीच होने का अर्थ ही है कि हमारा जातीय तेज, हमारा जीवन-विवेक और हमारा कलाबोध सुरक्षित है।

सम्मान एवं पुरस्कार

साहित्य कला परिषद् (दिल्ली), हिंदी अकादमी (दिल्ली), उ.प्र. हिंदी संस्थान (लखनऊ) के पुरस्कार, गृह मंत्रालय, भारत सरकार, वित्त मंत्रालय, भारत सरकार।

सन्दर्भ

  1. स्क्रिप्ट त्रुटि: "citation/CS1" ऐसा कोई मॉड्यूल नहीं है।