सिंधु घाटी सभ्यता

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सिंधु घाटी सभ्यता
सिंधु घाटी सभ्यता अपने शुरुआती काल में, 2500-1750 ई॰पू॰
भौगोलिक विस्तारदक्षिण एशिया
कालकांस्य युग
तिथियाँसाँचा:circa
उदहारण स्थलहड़प्पा
पूर्ववर्तीमेहरगढ़
परवर्तीचित्रित ग्रे वेयर संस्कृति
कब्रिस्तान एच संस्कृति

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सिंधु घाटी सभ्यता अपने शुरुआती काल में, 3250-2750 ई॰पू॰

सिन्धु घाटी सभ्यता ( पूर्व हड़प्पा काल : 3300-2500 ईसा पूर्व, परिपक्व काल: 2600-1900 ई॰पू॰; उत्तरार्ध हड़प्पा काल: 1900-1300 ईसा पूर्व)साँचा:cn विश्व की प्राचीन सभ्यताओं में से एक प्रमुख सभ्यता है। जो मुख्य रूप से दक्षिण एशिया के उत्तर-पश्चिमी क्षेत्रों में, जो आज तक उत्तर पूर्व अफगानिस्तान तीन शुरुआती कालक्रमों में से एक थी, और इन तीन में से, सबसे व्यापक तथा सबसे चर्चित। सम्मानित पत्रिका नेचर में प्रकाशित शोध के अनुसार यह सभ्यता कम से कम 8,000 वर्ष पुरानी है।साँचा:cn यह हड़प्पा सभ्यता के नाम से भी जानी जाती है।साँचा:cn

इसका विकास सिन्धु और घघ्घर/हकड़ा (प्राचीन सरस्वती) के किनारे हुआ। हड़प्पा, मोहनजोदड़ो, कालीबंगा, लोथल, धोलावीरा और राखीगढ़ी इसके प्रमुख केन्द्र थे। दिसम्बर 2014 में भिरड़ाणा को सिन्धु घाटी सभ्यता का अब तक का खोजा गया सबसे प्राचीन नगर माना गया है। ब्रिटिश काल में हुई खुदाइयों के आधार पर पुरातत्ववेत्ता और इतिहासकारों का अनुमान है कि यह अत्यन्त विकसित सभ्यता थी और ये शहर अनेक बार बसे और उजड़े हैं।

7वीं शताब्दी में पहली बार जब लोगो ने पंजाब प्रान्त में ईंटो के लिए मिट्टी की खुदाई की तब उन्हें वहाँ से बनी बनाई ईंटें मिली जिसे लोगो ने भगवान का चमत्कार माना और उनका उपयोग घर बनाने में किया उसके बाद 1826 में चार्ल्स मैसेन ने पहली बार इस पुरानी सभ्यता को खोजा। कनिंघम ने 1856 में इस सभ्यता के बारे में सर्वेक्षण किया। 1856 में कराची से लाहौर के मध्य रेलवे लाइन के निर्माण के दौरान बर्टन बन्धुओं द्वारा हड़प्पा स्थल की सूचना सरकार को दी। इसी क्रम में 1861 में एलेक्जेण्डर कनिंघम के निर्देशन में भारतीय पुरातत्व विभाग की स्थापना की गयी। 1902 में लार्ड कर्जन द्वारा जॉन मार्शल को भारतीय पुरातात्विक विभाग का महानिदेशक बनाया गया। फ्लीट ने इस पुरानी सभ्यता के बारे में एक लेख लिखा। 1921 में दयाराम साहनी ने हड़प्पा का उत्खनन किया। इस प्रकार इस सभ्यता का नाम हड़प्पा सभ्यता रखा गया व राखलदास बेनर्जी को मोहनजोदड़ो का खोजकर्ता माना गया।

यह सभ्यता सिन्धु नदी घाटी में फैली हुई थी इसलिए इसका नाम सिन्धु घाटी सभ्यता रखा गया। प्रथम बार नगरों के उदय के कारण इसे प्रथम नगरीकरण भी कहा जाता है। प्रथम बार कांस्य के प्रयोग के कारण इसे कांस्य सभ्यता भी कहा जाता है। सिन्धु घाटी सभ्यता के 1400 केन्द्रों को खोजा जा सका है जिसमें से 925 केन्द्र भारत में है। 80 प्रतिशत स्थल [सिन्धु नदी]] और उसकी सहायक नदियों के आस-पास है। अभी तक कुल खोजों में से 3 प्रतिशत स्थलों का ही उत्खनन हो पाया है

नामोत्पत्ति

सिन्धु घाटी सभ्यता का क्षेत्र अत्यन्त व्यापक था॥ सिन्धु इण्डस नदी के किनारे बसने वाली सभ्यता थी और अपनी भौगौलिक उच्चारण की भिन्नताओं की वजहों से इस इण्डस को सिन्धु कहने लगे, आगे चल कर इसी से यहाँ के रहने वाले लोगो के लिये हिन्दू उच्चारण का जन्म हुआ।[१] हड़प्पा और मोहनजोदड़ो की खुदाई से इस सभ्यता के प्रमाण मिले हैं।[२] अतः विद्वानों ने इसे सिन्धु घाटी की सभ्यता का नाम दिया, क्योंकि यह क्षेत्र सिन्धु और उसकी सहायक नदियों के क्षेत्र में आते हैं, पर बाद में रोपड़, लोथल, कालीबंगा, बनावली, रंगपुर आदि क्षेत्रों में भी इस सभ्यता के अवशेष मिले जो सिन्धु और उसकी सहायक नदियों के क्षेत्र से बाहर थे। अतः कई इतिहासकार इस सभ्यता का प्रमुख केन्द्र हड़प्पा होने के कारण इस सभ्यता को "हड़प्पा सभ्यता" नाम देना अधिक उचित समझा गया जबकि हकीकत में इस नदी का नाम अन्दुस है।

इण्डियन पुरातत्व विभाग के महार्निदेशक जॉन मार्शल ने 1924 में अन्दुस तीन महत्वपूर्ण ग्रंथ लिखे।

विभिन्न काल

समय (बी॰सी॰ई॰) काल युग
7570-3300 पूर्व हड़प्पा (नवपाषाण युग,ताम्र पाषाण युग)
7570–6200 BCE भिरड़ाणा प्रारंभिक खाद्य उत्पादक युग
7000–5500 BCE मेहरगढ़ एक (पूर्व मृद्भाण्ड नवपाषाण काल)
5500-3300 मेहरगढ़ दो-छः (मृद्भाण्ड नवपाषाण काल) क्षेत्रीयकरण युग
3300-2600 प्रारम्भिक हड़प्पा (आरंभिक कांस्य युग)
3300-2800 हड़प्पा 1 (रवि भाग)
2800-2600 हड़प्पा 2 (कोट डीजी भाग, नौशारों एक, मेहरगढ़ सात)
2600-1900 परिपक्व हड़प्पा (मध्य कांस्य युग) एकीकरण युग
2600-2450 हड़प्पा 3A (नौशारों दो)
2450-2200 हड़प्पा 3B
2200-1900 हड़प्पा 3C
1900-1300 उत्तर हड़प्पा (समाधी एच, उत्तरी कांस्य युग) प्रवास युग
1900-1700 हड़प्पा 4
1700-1300 हड़प्पा 5

विस्तार

हड़प्पा संस्कृति के स्थल

सभ्यता का क्षेत्र संसार की सभी प्राचीन सभ्यताओं के क्षेत्र से अनेक गुना बड़ा और विशाल था। इस परिपक्व सभ्यता के केन्द्र-स्थल पंजाब तथा सिन्ध में था। तत्पश्चात इसका विस्तार दक्षिण और पूर्व की दिशा में हुआ। इस प्रकार हड़प्पा संस्कृति के अन्तर्गत पंजाब, सिन्ध और बलूचिस्तान के भाग ही नहीं, बल्कि गुजरात, राजस्थान, हरियाणा और पश्चिमी उत्तर प्रदेश के सीमान्त भाग भी थे। इसका फैलाव उत्तर में माण्डा में चेनाब नदी के तट से लेकर दक्षिण में दैमाबाद (महाराष्ट्र) तक और पश्चिम में बलूचिस्तान के मकरान समुद्र तट के सुत्कागेनडोर पाक के सिंंध प्रांत से लेकर उत्तर पूर्व में आलमगिरपुुुर में हिरण्‍‍य तक मेरठ और कुरुक्षेत्र तक था। प्रारम्भिक विस्तार जो प्राप्त था उसमें सम्पूर्ण क्षेत्र त्रिभुजाकार था (उत्तर में जम्मू के माण्डा से लेकर दक्षिण में गुजरात के भोगत्रार तक और पश्चिम में अफगानिस्तान के सुत्कागेनडोर से पूर्व में उत्तर प्रदेश के मेरठ तक था और इसका क्षेत्रफल 20,00,000 वर्ग किलोमीटर था।) इस तरह यह क्षेत्र आधुनिक पाकिस्तान से तो बड़ा है ही, प्राचीन मिस्र और मेसोपोटामिया से भी बड़ा है। ई॰पू॰ तीसरी और दूसरी सहस्त्राब्दी में संसार भर में किसी भी सभ्यता का क्षेत्र हड़प्पा संस्कृति से बड़ा नहीं था। अब तक भारतीय उपमहाद्वीप में इस संस्कृति के कुल 1500 स्थलों का पता चल चुका है। इनमें से कुछ आरम्भिक अवस्था के हैं तो कुछ परिपक्व अवस्था के और कुछ उत्तरवर्ती अवस्था के।

परिपक्व अवस्था वाले कम जगह ही हैं। सिन्धु घाटी सभ्यता स्क्रिप्ट त्रुटि: "webarchive" ऐसा कोई मॉड्यूल नहीं है। (The Indus Civilization) की जानकारी से पूर्व भू-वैज्ञानिकों एवं विद्वानों का मानना था कि मानव सभ्यता का आविर्भाव आर्यों से हुआ। लेकिन सिन्धुघाटी के साक्ष्यों के बाद उनका भ्रम दूर हो गया और उन्हें यह स्वीकारना पड़ा कि आर्यों के आगमन से वर्षों पूर्व ही प्राचीन भारत की सभ्यता पल्लवित हो चुकी थी। इस सभ्यता को सिन्धुघाटी सभ्यता या सेन्धव सभ्यता नाम दिया गया। इनमें से आधे दर्जनों को ही नगर की संज्ञा दी जा सकती है। इनमें से दो नगर बहुत ही महत्वपूर्ण हैं - पंजाब का हड़प्पा तथा सिन्ध का मोहेनजोदड़ो (मूल उच्चारण: मुअनजोदारो, शाब्दिक अर्थ - प्रेतों का टीला)। दोनो ही स्थल वर्तमान पाकिस्तान में हैं। दोनो एक दूसरे से 483 कि॰मी॰ दूर थे और अन्दुस नदी द्वारा जुड़े हुए थे। तीसरा नगर मोहें जो दड़ो से 130 कि॰मी॰ दक्षिण में चन्हुदड़ो स्थल पर था तो चौथा नगर गुजरात के खंभात की खाड़ी के ऊपर लोथल नामक स्थल पर। इसके अतिरिक्त राजस्थान के उत्तरी भाग में कालीबंगा (शाब्दिक अर्थ - काले रंग की चूड़ियाँ) तथा हरियाणा के हिसार जिले का बनावली। इन सभी स्थलों पर परिपक्व तथा उन्नत हड़प्पा संस्कृति के दर्शन होते हैं। सुतकागेंडोर तथा सुरकोतड़ा के समुद्रतटीय नगरों में भी इस संस्कृति की परिपक्व अवस्था दिखाई देती है। इन दोनों की विशेषता है एक एक नगर दुर्ग का होना। उत्तर हड़प्पा अवस्था गुजरात के कठियावाड़ प्रायद्वीप में रंगपुर और रोजड़ी स्थलों पर भी पाई गई है। इस सभ्यता की जानकारी सबसे पहले 1826 में चार्ल्स मैसन को प्राप्त हुई।

प्रमुख नगर

सिन्धु घाटी सभ्यता के प्रमुख स्थल निम्न है

  1. हड़प्पा (पंजाब पाकिस्तान)
  2. मोहेनजोदड़ो (सिन्ध पाकिस्तान लरकाना जिला)
  3. लोथल (गुजरात)
  4. कालीबंगा( राजस्थान के हनुमानगढ़ जिले में)
  5. बनवाली (हरियाणा के फतेहाबाद जनपद में)
  6. आलमगीरपुर( उत्तर प्रदेश के मेरठ जिले में)
  7. सूत कांगे डोर( पाकिस्तान के बलूचिस्तान प्रान्त में)
  8. कोट दीजी( सिन्ध पाकिस्तान)
  9. चन्हूदड़ो ( पाकिस्तान )
  10. सुरकोटदा (गुजरात के कच्छ जिले में)

हिन्दुकुश पर्वतमाला के पार अफगानिस्तान में

  1. शोर्तुगोयी - यहाँ से नहरों के प्रमाण मिले है
  2. मुन्दिगाक जो महत्वपूर्ण है

भारत में

भारत के विभिन्न राज्यों में सिन्धु घाटी सभ्यता के निम्न शहर है:- गुजरात

हरियाणा

पंजाब

  • रोपड़ (पंजाब)
  • बाड़ा
  • संघोंल (जिला फतेहगढ़, पंजाब)

महाराष्ट्र

  • दैमाबाद।
  • बनावली
  • कुणाल
  • मीताथल

महाराष्ट्र

  • महाराष्ट्राबाद।
  • सांगली

राजस्थान

  • कालीबंगा

जम्मू कश्मीर

  • माण्डा

उत्तर प्रदेश आलमगीरपुर,(मेरठ)

नगर निर्माण योजना

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इस सभ्यता की सबसे विशेष बात थी यहाँ की विकसित नगर निर्माण योजना। हड़प्पा तथा मोहन् जोदड़ो दोनो नगरों के अपने दुर्ग थे जहाँ शासक वर्ग का परिवार रहता था। प्रत्येक नगर में दुर्ग के बाहर एक उससे निम्न स्तर का शहर था जहाँ ईंटों के मकानों में सामान्य लोग रहते थे। इन नगर भवनों के बारे में विशेष बात ये थी कि ये जाल की तरह विन्यस्त थे। यानि सड़के एक दूसरे को समकोण पर काटती थीं और नगर अनेक आयताकार खण्डों में विभक्त हो जाता था। ये बात सभी सिन्धु बस्तियों पर लागू होती थीं चाहे वे छोटी हों या बड़ी। हड़प्पा तथा मोहनजोदड़ो के भवन बड़े होते थे। वहाँ के स्मारक इस बात के प्रमाण हैं कि वहाँ के शासक मजदूर जुटाने और कर-संग्रह में परम कुशल थे। ईंटों की बड़ी-बड़ी इमारत देख कर सामान्य लोगों को भी यह लगेगा कि ये शासक कितने प्रतापी और प्रतिष्ठावान थे।

मोहनजोदड़ो का अब तक का सबसे प्रसिद्ध स्थल है विशाल सार्वजनिक स्नानागार, जिसका जलाशय दुर्ग के टीले में है। यह ईंटो के स्थापत्य का एक सुन्दर उदाहरण है। यह 11.88 मीटर लम्बा, 7.01 मीटर चौड़ा और 2.43 मीटर गहरा है। दोनो सिरों पर तल तक जाने की सीढ़ियाँ लगी हैं। बगल में कपड़े बदलने के कमरे हैं। स्नानागार का फर्श पकी ईंटों का बना है। पास के कमरे में एक बड़ा सा कुआँ है जिसका पानी निकाल कर होज़ में डाला जाता था। हौज़ के कोने में एक निर्गम (Outlet) है जिससे पानी बहकर नाले में जाता था। ऐसा माना जाता है कि यह विशाल स्नानागार धर्मानुष्ठान सम्बन्धी स्नान के लिए बना होगा जो भारत में पारम्परिक रूप से धार्मिक कार्यों के लिए आवश्यक रहा है। मोहन जोदड़ो की सबसे बड़ा संरचना है - अनाज रखने का कोठार, जो 45.71 मीटर लम्बा और 15.23 मीटर चौड़ा है। हड़प्पा के दुर्ग में छः कोठार मिले हैं जो ईंटों के चबूतरे पर दो पाँतों में खड़े हैं। हर एक कोठार 15.23 मी॰ लम्बा तथा 6.09 मी॰ चौड़ा है और नदी के किनारे से कुछ एक मीटर की दूरी पर है। इन बारह इकाईयों का तलक्षेत्र लगभग 838.125 वर्ग मी॰ है जो लगभग उतना ही होता है जितना मोहन जोदड़ो के कोठार का। हड़प्पा के कोठारों के दक्षिण में खुला फर्श है और इसपर दो कतारों में ईंट के वृत्ताकार चबूतरे बने हुए हैं। फर्श की दरारों में गेहूँ और जौ के दाने मिले हैं। इससे प्रतीत होता है कि इन चबूतरों पर फ़सल की दवनी होती थी। हड़प्पा में दो कमरों वाले बैरक भी मिले हैं जो शायद मजदूरों के रहने के लिए बने थे। कालीबंगां में भी नगर के दक्षिण भाग में ईंटों के चबूतरे बने हैं जो शायद कोठारों के लिए बने होंगे। इस प्रकार यह स्पष्ट होता है कि कोठार हड़प्पा संस्कृति के अभिन्न अंग थे।

हड़प्पा संस्कृति के नगरों में ईंट का इस्तेमाल एक विशेष बात है, क्योंकि इसी समय के मिस्र के भवनों में धूप में सूखी ईंट का ही प्रयोग हुआ था। समकालीन मेसोपेटामिया में पक्की ईंटों का प्रयोग मिलता तो है पर इतने बड़े पैमाने पर नहीं जितना सिन्धु घाटी सभ्यता में। मोहन जोदड़ो की जल निकास प्रणाली अद्भुत थी। लगभग हर नगर के हर छोटे या बड़े मकान में प्रांगण और स्नानागार होता था। कालीबंगा के अनेक घरों में अपने-अपने कुएँ थे। घरों का पानी बहकर सड़कों तक आता जहाँ इनके नीचे मोरियाँ (नालियाँ) बनी थीं। अक्सर ये मोरियाँ ईंटों और पत्थर की सिल्लियों से ढकीं होती थीं। सड़कों की इन मोरियों में नरमोखे भी बने होते थे। सड़कों और मोरियों के अवशेष बनावली में भी मिले हैं।

आर्थिक जीवन

सिन्धु सभ्यता की अर्थव्यवस्था कृषि प्रधान थी, किंतु व्यापार एव पशुपालन भी प्रचलन में था। यहीं के निवासियों से विश्व में सबसे पहले कपास की खेती करना शुरू कियें| जिसे यूनान के लोगों ने सिन्डन कहने लगें| यहाँ के लोग आवश्यकता से अधिक अनाज का उत्पादन करते थे| इसके अलावे कपडा जौहरी का काम, मनक का काम भी प्रचलित था जिसे विदेशो में निर्यात[३] किया जाता था|

कृषि एवं पशुपालन

आज के मुकाबले सिन्धु प्रदेश पूर्व में बहुत उपजाऊ था। ईसा-पूर्व चौथी सदी में सिकन्दर के एक इतिहासकार ने कहा था कि सिन्ध इस देश के उपजाऊ क्षेत्रों में गिना जाता था। पूर्व काल में प्राकृतिक वनस्पति बहुत थीं जिसके कारण यहाँ अच्छी वर्षा होती थी। यहाँ के वनों से ईंटे पकाने और इमारत बनाने के लिए लकड़ी बड़े पैमाने पर इस्तेमाल में लाई गई जिसके कारण धीरे-धीरे वनों का विस्तार सिमटता गया। सिन्धु की उर्वरता का एक कारण सिन्धु नदी से प्रतिवर्ष आने वाली बाढ़ भी थी। गाँव की रक्षा के लिए खड़ी पकी ईंट की दीवार इंगित करती है बाढ़ हर साल आती थी। यहाँ के लोग बाढ़ के उतर जाने के बाद नवंबर के महीने में बाढ़ वाले मैदानों में बीज बो देते थे और अगली बाढ़ के आने से पहले अप्रैल के महीने में गेहूँ और जौ की फ़सल काट लेते थे। यहाँ कोई फावड़ा या फाल तो नहीं मिला है लेकिन कालीबंगा की प्राक्-हड़प्पा सभ्यता के जो कूँट (हलरेखा) मिले हैं उनसे आभास होता है कि राजस्थान में इस काल में हल जोते जाते थे।

सिन्धु घाटी सभ्यता के लोग गेंहू, जौ, राई, मटर, ज्वार आदि अनाज पैदा करते थे। वे दो किस्म की गेँहू पैदा करते थे। बनावली में मिला जौ उन्नत किस्म का है। इसके अलावा वे तिल और सरसों भी उपजाते थे। सबसे पहले कपास भी यहीं पैदा की गई। इसी के नाम पर यूनान के लोग इस सिण्डन (Sindon) कहने लगे। हड़प्पा एक कृषि प्रधान संस्कृति थी पर यहाँ के लोग पशुपालन भी करते थे। बैल-गाय, भैंस, बकरी, भेड़ और सूअर पाला जाता था। हड़प्पाई लोगों को हाथी तथा गैंडे का ज्ञान था।

पशु-पालन

हड़प्पा सभ्यता के लोगों का दूसरा व्यवसाय पशु-पालन था। यह लोग दूध, मांस उनके कृषि के कार्य और भार ढोने के लिए इनका प्रयोग किया करते थे।

  • यह लोग गाय, भैंस, भेड़, बकरी, बैल, कुत्ते, बिल्ली, मोर, हाथी, शुअर, बकरी व मुर्गियाँ पाला करते थे। इन लोगों को घोड़े और लोहे की जानकारी नहीं थी। हड़पपा के लोग ताँबा खेतडी (राजस्थान) तथा बलूचिस्तान से प्राप्त करते थे, व सोना कर्नाटक तथा अफगानिस्तान से प्राप्त करते थे |

उद्योग-धन्धे

यहाँ के नगरों में अनेक व्यवसाय-धन्धे प्रचलित थे। मिट्टी के बर्तन बनाने में ये लोग बहुत कुशल थे। मिट्टी के बर्तनों पर काले रंग से भिन्न-भिन्न प्रकार के चित्र बनाये जाते थे। कपड़ा बनाने का व्यवसाय उन्नभी निर्यात होता था। जौहरी का काम भी उन्नत अवस्था में था। मनके और ताबीज बनाने का कार्य भी लोकप्रिय था, अभी तक लोहे की कोई वस्तु नहीं मिली है। अतः सिद्ध होता है कि इन्हें लोहे का ज्ञान नहीं था।

व्यापार

यहाँ के लोग आपस में पत्थर, धातु शल्क (हड्डी) आदि का व्यापार करते थे। एक बड़े भूभाग में ढेर सारी सील (मृन्मुद्रा), एकरूप लिपि और मानकीकृत माप तौल के प्रमाण मिले हैं। वे चक्के से परिचित थे और सम्भवतः आजकल के इक्के (रथ) जैसा कोई वाहन प्रयोग करते थे। ये अफ़ग़ानिस्तान और ईरान (फ़ारस) से व्यापार करते थे। उन्होंने उत्तरी अफ़गानिस्तान में एक वाणिज्यिक उपनिवेश स्थापित किया जिससे उन्हें व्यापार में सहूलियत होती थी। बहुत सी हड़प्पाई सील मेसोपोटामिया में मिली हैं जिनसे लगता है कि मेसोपोटामिया से भी उनका व्यापार सम्बन्ध था। मेसोपोटामिया के अभिलेखों में मेलुहा के साथ व्यापार के प्रमाण मिले हैं साथ ही दो मध्यवर्ती व्यापार केन्द्रों का भी उल्लेख मिलता है - दिलमुन और माकन। दिलमुन की पहचान शायद फ़ारस की खाड़ी के बहरीन के की जा सकती है।

राजनैतिक जीवन

इतना तो स्पष्ट है कि हड़प्पा की विकसित नगर निर्माण प्रणाली, विशाल सार्वजनिक स्नानागारों का अस्तित्व और विदेशों से व्यापारिक संबंध किसी बड़ी राजनैतिक सत्ता के बिना नहीं हुआ होगा पर इसके पुख्ता प्रमाण नहीं मिले हैं कि यहाँ के शासक कैसे थे और शासन प्रणाली का स्वरूप क्या था। लेकिन नगर व्यवस्था को देखकर लगता है कि कोई नगर निगम जैसी स्थानीय स्वशासन वाली संस्था थी।

धार्मिक जीवन

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हड़प्पा में पकी मिट्टी की स्त्री मूर्तिकाएँ भारी संख्या में मिली हैं। एक मूर्ति में स्त्री के गर्भ से निकलता एक पौधा दिखाया गया है। विद्वानों के मत में यह पृथ्वी देवी की प्रतिमा है और इसका निकट सम्बन्ध पौधों के जन्म और वृद्धि से रहा होगा। इसलिए मालूम होता है कि यहाँ के लोग धरती को उर्वरता की देवी समझते थे और इसकी पूजा उसी तरह करते थे जिस तरह मिस्र के लोग नील नदी की देवी आइसिस् की। लेकिन प्राचीन मिस्र की तरह यहाँ का समाज भी मातृ प्रधान था कि नहीं यह कहना मुश्किल है। कुछ वैदिक सूत्रो में पृथ्वी माता की स्तुति है, धोलावीरा के दुर्ग में एक कुआँ मिला है इसमें नीचे की तरफ जाती सीढ़ियाँ है और उसमें एक खिड़की थी जहाँ दीपक जलाने के सबूत मिलते है। उस कुएँ में सरस्वती नदी का पानी आता था, तो शायद सिन्धु घाटी के लोग उस कुएँ के जरिये सरस्वती की पूजा करते थे।

सिन्धु घाटी सभ्यता के नगरों में एक सील पाया जाता है जिसमें एक योगी का चित्र है 3 या 4 मुख वाला, कई विद्वान मानते है कि यह योगी शिव है। मेवाड़ जो कभी सिन्धु घाटी सभ्यता की सीमा में था वहाँ आज भी 4 मुख वाले शिव के अवतार एकलिंगनाथ जी की पूजा होती है। सिंधु घाटी सभ्यता के लोग अपने शवों को जलाया करते थे, मोहन जोदड़ो और हड़प्पा जैसे नगरों की आबादी करीब 50 हज़ार थी पर फिर भी वहाँ से केवल 100 के आसपास ही कब्रें मिली है जो इस बात की और इशारा करता है वे शव जलाते थे। लोथल, कालीबंगा आदि जगहों पर हवन कुण्ड मिले है जो की उनके वैदिक होने का प्रमाण है। यहाँ स्वास्तिक के चित्र भी मिले है।

कुछ विद्वान मानते है कि हिन्दू धर्म द्रविडो का मूल धर्म था और शिव द्रविडो के देवता थे जिन्हें आर्यों ने अपना लिया। कुछ जैन और बौद्ध विद्वान यह भी मानते है कि सिन्धु घाटी सभ्यता जैन या बौद्ध धर्म के थे, पर मुख्यधारा के इतिहासकारों ने यह बात नकार दी और इसके अधिक प्रमाण भी नहीं है।

प्राचीन मिस्र और मेसोपोटामिया में पुरातत्वविदों को कई मन्दिरों के अवशेष मिले है पर सिन्धु घाटी में आज तक कोई मन्दिर नहीं मिला, मार्शल आदि कई इतिहासकार मानते है कि सिंधु घाटी के लोग अपने घरो में, खेतो में या नदी किनारे पूजा किया करते थे, पर अभी तक केवल बृहत्स्नानागार या विशाल स्नानघर ही एक ऐसा स्मारक है जिसे पूजास्थल माना गया है। जैसे आज हिन्दू गंगा में नहाने जाते है वैसे ही सैन्धव लोग यहाँ नहाकर पवित्र हुआ करते थे।

शिल्प और तकनीकी ज्ञान

मोहेन्जोदाड़ो में पाई गई एक मूर्ति - कराँची के राष्ट्रीय संग्रहालय से
सिन्धु-सरस्वती सभ्यता के दस वर्ण जो धोलावीरा के उत्तरी गेट के निकट सन् २००० ई॰ में खोजे गये हैं

यद्यपि इस युग के लोग पत्थरों के बहुत सारे औजार तथा उपकरण प्रयोग करते थे पर वे काँसे के निर्माण से भली-भाँति परिचित थे। ताम्बे तथा टिन मिलाकर धातुशिल्पी कांस्य का निर्माण करते थे। हालाँकि यहाँ दोनो में से कोई भी खनिज प्रचुर मात्रा में उपलब्ध नहीं था। सूती कपड़े भी बुने जाते थे। लोग नाव भी बनाते थे। मुद्रा निर्माण, मूर्ति का निर्माण के साथ बरतन बनाना भी प्रमुख शिल्प था।

प्राचीन मेसोपोटामिया की तरह यहाँ के लोगों ने भी लेखन कला का आविष्कार किया था। हड़प्पाई लिपि का पहला नमूना 1853 ई॰ में मिला था और 1923 में पूरी लिपि प्रकाश में आई परन्तु अब तक पढ़ी नहीं जा सकी है। लिपि का ज्ञान हो जाने के कारण निजी सम्पत्ति का लेखा-जोखा आसान हो गया। व्यापार के लिए उन्हें माप तौल की आवश्यकता हुई और उन्होनें इसका प्रयोग भी किया। बाट के तरह की कई वस्तुएँ मिली हैं। उनसे पता चलता है कि तौल में 16 या उसके आवर्तकों (जैसे - 16, 32, 48, 64, 160, 320, 640, 1280 इत्यादि) का उपयोग होता था। दिलचस्प बात ये है कि आधुनिक काल तक भारत में 1 रुपया 16 आने का होता था। 1 किलो में 4 पाव होते थे और हर पाव में 4 कनवां यानि एक किलो में कुल 16 कनवाँ।

अवसान

साँचा:main यह सभ्यता मुख्यतः 2600 ई॰पू॰ से 1900 ई॰पू॰ तक रही। ऐसा आभास होता है कि यह सभ्यता अपने अन्तिम चरण में ह्रासोन्मुख थी। इस समय मकानों में पुरानी ईंटों के प्रयोग की जानकारी मिलती है। इसके विनाश के कारणों पर विद्वान सहमत नहीं हैं। सिन्धु घाटी सभ्यता के अवसान के पीछे विभिन्न तर्क दिये जाते हैं जैसे: आक्रमण, जलवायु परिवर्तन एवं पारिस्थितिक असन्तुलन, बाढ़ तथा भू-तात्विक परिवर्तन, महामारी, आर्थिक कारण आदि। ऐसा लगता है कि इस सभ्यता के पतन का कोई एक कारण नहीं था बल्कि विभिन्न कारणों के मेल से ऐसा हुआ। जो अलग-अलग समय में या एक साथ होने कि सम्भावना है। मोहनजोदड़ो में नग‍र और जल निकास कि व्यवस्था से महामारी कि सम्भावना कम लगती है। भीषण अग्निकान्ड के भी प्रमाण प्राप्त हुए है। मोहनजोदड़ो के एक कमरे से 14 नर कंकाल मिले है जो आक्रमण, आगजनी, महामारी के संकेत है।साँचा:citation needed

अधिकांश विद्वानो के मतानुसार इस सभ्यता का अंत बाढ़ के प्रकोप से हुआ। चूँकि सिंधु घाटी सभ्यता नदियों के किनारे-किनारे विकसित हूई, इसलिए बाढ़ आना स्वाभाविक था, अतः यह तर्क सर्वमान्य हैं। परन्तु कुछ विद्वान मानते है कि केवल बाढ़ के कारण इतनी विशाल सभ्यता समाप्त नहीं हो सकती। इसलिए बाढ़ के अलावा भिन्न-भिन्न कारणों का समर्थन भिन्न-भिन्न विद्वान करते हैं जैसे - आग लग जाना, महामारी, बाहरी आक्रमण आदि।

हड़प्पा सभ्यता के पतन की व्याख्या करते हुए मॉर्टिमर व्हीलर ने "आर्य आक्रमण" की अवधारणा दी थी। किन्तु आरम्भ से ही इस विचार का खण्डन किया जाने लगा था।

अपने मत के पक्ष में व्हीलर महोदय ने कुछ पुरातात्विक तथा साहित्यिक प्रमाण प्रस्तुत करते हैं। उन्होंने मोहनजोदड़ो से 26 ऐसे नर कंकालों का साक्ष्य प्रस्तुत किया जिनके सिर पर नुकीले अस्त्र के घाव चेंज थे प्रोग्राम हड़प्पा से कब्रगाह H का प्रमाण प्रस्तुत करते हैं तथा उसे आक्रमणकारी कैलाश बताते हैं उसी तरह साहित्यिक साक्ष्य के रूप में ऋग्वेद में वर्णित इंद्र तथा हरिरूपिया शब्द का दृष्टांत प्रस्तुत किया है। किंतु उनके द्वारा प्रस्तुत पुरातात्विक साक्ष्य पर्याप्त है। तथा साहित्यिक साक्ष्य संदिग्ध उदाहरण के लिए महज 26 कंकालों के आधार पर आर्य आक्रमण की अवधारणा तार्किक नहीं लगती है। विशेषकर इसलिए भी मोहनजोदड़ो नामक स्थल के पतन तथा वैदिक आर्यों के आगमन के बीच लगभग 300 से 400 वर्ष का काल अन्तर है। फिर नवीन शोध के आधार पर यह बात पुष्ट हो चुकी है कि कब्रगाह H नर कंकाल इस स्थल के पतन के बाद के काल के हैं। अतः जहां तक ऋग्वेद के उद्धरण का सवाल है हमें यह ध्यान रखना चाहिए कि यह किसी एक काल की कृति नहीं है वरन इसे बहुत बाद में लिखित रूप में दिया गया था। यह वजह कि हम माटी में व्हीलर  उपयुक्त कथन से सहमत नहीं हो सकते हैं।

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सन्दर्भ

  1. साँचा:cite web
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