सार्वजनिक संस्थान
सार्वजनिक संस्थान (पब्लिक कार्पोरेशन्स) सार्वजनिक संस्थान विधायक निर्मित संस्था है जो सामाजिक, वाणिज्यिक, आर्थिक या विकास संबंधी कार्यों को राज्य के लिए अथवा उसकी ओर से चलाती है। इसका अपना कोष है और व्यवस्था के आंतरिक मामलों में यह अंशत: स्वायत्त होती है।
इस प्रकार के संस्थान के लिए विभिन्न नाम प्रयुक्त हुए हैं, यथा-गवर्नमेंट कारपोरेशन, स्टेच्युटरी कारपोरेशन, क्वासी गवर्नमेंटल बाडीज़ इत्यादि। किंतु सार्वजनिक संस्था ही अब सामान्यत: प्रयुक्त होता है।
परिचय
इंग्लैंड में राज्य द्वारा टकसाल और डाक व्यवस्था पर नियंत्रण हो जाने पर भी काफी समय तक सार्वजनिक संस्थान का विचार न पनप सका। बाद में सीमित शक्तियों के साथ स्थापित राज्य के स्वायत्त शासन विभागों द्वारा पुलिस, शिक्षा, प्रकाश व्यवस्था इत्यादि के कार्यों ने उस विचार को विकसित किया। निर्धन लोगों की सहायता के लिए पुअर लाज़ पारित हुए। इसके लिए नियुक्त आयुक्तों को स्थानीय प्रशासन में राजकीय नियंत्रण से स्वतंत्र रहकर कार्य करने के अधिकार मिले। किंतु राष्ट्रीयकृत उद्योगों और उपयोगिता सेवाओं के लिए सार्वजनिक नियंत्रण १९४५ से ही संभव हो सका।
स्थानीय संस्थाओं के अतिरिक्त भारत में स्वायत्त संस्थानों का उदय १८७९ में स्थापित "द ट्रस्टीज ऑव द पोर्ट ऑव बांबे' से हुआ। बाद में ऐसी ही सांविधिक संस्थाएँ कलकत्ता और मद्रास के बंदरगाहों पर बनीं।
सन् १९३५ में भारत-सरकार-अधिनियम द्वारा रेलवे नियंत्रण सार्वजनिक संस्थान को सौंपने की योजना बनी। इस संस्थान को "फेडरल रेलवे अथारिटी' कहा गया, किंतु अधिनियम के पूर्णत: लागू न होने से यह योजना क्रियान्वित न हुई।
संभव है, भारत में सार्वजनिक संस्थानों की स्थापना ब्रिटेन ने स्वायत्त सत्ता की माँग को पूरा करने और केंद्रीयकृत सरकार चलाने के दोषारोपण को दूर करने के लिए की हो।
प्रथम विश्वयुद्ध के बाद कई ऐसे संस्थानों की स्थापना करना, कपास, लाख, नारियल आदि के कृषि विकास, वस्तु निर्माण और विक्रय के उद्देश्य से केंद्रीय अधिनियम के अंतर्गत हुई।
वर्गीकरण
कार्यों और उद्देश्यों की भिन्नता के कारण सार्वजनिक संस्थानों का विधिवत् वर्गीकरण नहीं हो सका है। फ्रीडमैन के वर्गीकरण को उग्रै सिंह ने संवर्धित करने की चेष्टा की, किंतु सुविधा की दृष्टि से निम्नांकित वर्गीकरण दिया जा रहा है:
१. बैंकिंग संस्थान (यथा-रिजर्व बैंक, स्टेट बैंक)
२. वाणिज्य संस्थान (यथा-एल.आई.सी., एअर इंडिया इंटरनेशनल)
३. वस्तु विकास संस्थान (यथा-टी बोर्ड, सिल्क बोर्ड)
४. बहुद्देशीय विकास संस्थान (यथा-दामोदर बैली कारपोरेशन, फरीदाबाद डेवलपमेंट कारपोरेशन)
५. समाज सेवा संस्थान (यथा-एंप्लाइज स्टेट इंश्योरेंस कारपोरेशन, हज कमेटी)
६. वित्तीय सहायता संस्थान (यथा-इंडस्ट्रियल फाइनेंशियल कारपोरेशन, यू.जी.सी.)
महत्व
राष्ट्रीयकरण से उत्पन्न व्यवस्था और शासन की समस्याओं को सार्वजनिक संस्थानों द्वारा सुविधापूर्वक हल किया जा सकता है। ये सार्वजनिक सेवाओं को राजनीतिक ऊहापोहों से मुक्त रखते हैं। सामाजिक और वाणिज्य संबंधी सेवाओं के वांछित कार्य और साहस को अवरुद्ध करने वाली नौकरशाही परंपरा भी इसके लचीले और स्वायत्त होने के कारण नहीं पनप पाती। मुख्यत: इसके निम्न लाभ हैं-
१. राजकीय विभागों के कार्याधिक्य को कम करते हैं, नए विभागों की स्थापना भी आवश्यक नहीं रहती।
२. इनमें एक ही कार्य करने के लिए समस्त शक्ति केंद्रित रहती हैं।
३. संस्थान द्वारा एक ही कार्य के सभी पक्षों का समान शासन होता है जो वैसे विभिन्न मंत्रालयों के क्षेत्र में आते हैं।
४. दैनंदिन शासन में स्वतंत्र होने के कारण विशेषज्ञों के ज्ञान का उपयोग आसानी से किया जा सकता है। प्रत्येक निर्णय के लिए सरकार की आज्ञा की आवश्यकता नहीं होती, इससे कार्य श्घ्रीा हो जाते हैं।
सार्वजनिक संस्थानों का चेयरमैन या अध्यक्ष राज्य द्वारा निर्वाचित होता है। सिल्क बोर्ड तथा एंप्लाइज स्टेट इंश्योरेंस कारपोरेशन में केंद्रीय सरकार के मंत्री ही अध्यक्ष हैं। इस संदर्भ में कांग्रेस के संसदीय दल द्वारा नियुक्त एक उप समिति ने यह सुझाव दिया कि संस्थानों में मंत्री अथवा संसद का सदस्य अध्यक्ष न बनाया जाए। इसी प्रकार सचिवों या अन्य अधिकारियों को भी ये पद न दिए जाएँ। संस्थान के अध्यक्ष पद के लिए ऐसे व्यक्ति नियुक्त किए जाएँ जो पूरा समय उसी को दे सकें। उस समिति ने यह भी सुझाया कि संस्थान सेवा का निर्माण किया जाए जिसके सदस्य राष्ट्रपति के इच्छानुकूल ही पदासीन रहें।
संस्थानों की पूँजी या तो सरकार द्वारा, या शेयर बेचने से, या एक्साइज कर, शुल्क इत्यादि से प्राप्त होती है। ये संस्थान ऋण भी ले सकते हैं। वाणिज्य संस्थान वाणिज्य सिद्धांतों पर चलते हैं। वे अपने लाभांश घोषित करते हैं अथवा आरक्षित कोष संचित करते हैं।
संस्थानों और मंत्री के बीच के संबंध भी महत्वपूर्ण होते हैं। यद्यपि दैनंदिन कार्यों में मंत्री का कोई उत्तरदायित्व नहीं होता, फिर भी मूँदड़ा के मामले से लगता है कि गंभीर स्थिति में मंत्री वैधानिक रूप से दैनंदिन कार्यों के लिए भी उत्तरदायी होता है। वेड का सुझाव तो यह है कि संस्थानों को कार्यकारिणी का ही एक अंग मान लेना चाहिए। मंत्री ही संस्थान के अध्यक्ष और अन्य सदस्यों की नियुक्ति करता है। वह उन्हें कार्यमुक्त भी कर सकता है। संस्थान को विघटित करने की शक्तियाँ भी मंत्री में निहित रहती हैं। संस्थान की नीति और राज्य की नीति में समवस्था स्थापित करने के लिए मंत्री आवश्यक निर्देश देता है।
संसद में संस्थानों के संबंध में प्रश्न उठाए जा सकते हैं। उनके वार्षिक विवरण, प्रतिवेदन पर बहस हो सकती है। कुछ संस्थानों को अपना बजट भी संसद में प्रस्तुत करना पड़ता है। संसद की एस्टिमेट्स और पब्लिक एकाउंट्स कमेटियाँ भी संस्थानों पर नियंत्रण रखती हैं, किंतु उनकी अपनी सीमाओं के कारण आजकल संस्थान कार्यों के लिए एक भिन्न संसदीय समिति बनाने का प्रस्ताव भी विचाराधीन है।
संदर्भ ग्रंथ
- फ्रीडमेन, डब्ल्यू.डब्ल्यू. १९५४: द पब्लिक कारपोरेशन, स्टीवेंस ऐंड सन्स लंदन;
- सिंह, राम उग्रे १९५७: पब्लिक कारपोरेशन इन इंडिया, द इंडियन लॉ जनरल में;