सारांश
जीवन एक पति निर्मल धारा की तरह होता है परंतु यह व्यक्तित्व पर निर्भर करता है कि वह इसमें अपने पवित्र व्यक्तित्व की तरह मिलाएं श्रेष्ठ गुणों का समन्वय करें या परिवेश से ग्रहण किए गए पूरे अप्रसांगिक और व्यक्त विचारों को उसने प्रवाहित करें हम यदि 5 बुराइयों की आहुति दे दे तो यह कर्म का प्राचीन सिद्धांत है कि प्रतिफल में हमें 10 बुरा या प्राप्त होगी विशाल संसार में करोड़ों लोग जब इसी तरह अपने अपने पांच बुरा या अपने जीवन में और अतत: अपने परिवेश में शामिल कर करते जाए तो क्या यह संसार हमारे लिए रहने योग्य शानदार जगह बना रह सकेगा?
इस तरह कि कहीं प्रश्न हमारे मस्तिष्क में उठ रहे हैं हम उन पर विचार भी करते हैं और फिर अपनी अपनी व्यवस्थाओं के कारण इन अहम मुद्दों पर विचार करना भूल जाते हैं आज इस बात की महती आवश्यकता है कि हम अपने जीवन अपने वर्तमान और अपने साथ साथ भावी पीढ़ी के भविष्य से जुड़े इस प्रश्न पर गंभीरता से विचार करें और अपना थोड़ा समय इस संसार को सुंदर आनंद आए और उत्कृष्ट स्थान बनाने का पावन संकल्प करें और अपने उद्देश्य की प्राप्ति में जुट जाए ध्यान रहे कि किसी भी महान लक्ष्य की प्राप्ति का सीधा संबंध हमारे स्वास्थ्य से होता है हम कितनी भी व्यस्त क्यों ना हो हमें प्रात 2 किलोमीटर दौड़ लगानी चाहिए वही आम के पश्चात सुख एवं स्वास्थ्यवर्धक अल्प आहार लेना चाहिए जिसमें कुछ में एक ग्लास दूध सौ ग्राम अंकुरित अनाज एवं 1या 2 मोसंबी फल शामिल हो
सार क्या है?
दही को राई से बिलोने पर उसका तत्त्व भाग ऊपर आ जाता है। यही पृथक् करने पर मक्खन कहलाता है। यह मक्खन दही का सार कहलाता है। जिस प्रकार जमी हुई दही को मथकर मक्खन निकाला जाता है, उसी प्रकार चिंतन की प्रक्रिया से मथ कर किसी भी सामग्री में से सार निकाला जाता है। भाषा के संदर्भ में भी सार यही है।
अपनी बात (या कथ्य) को प्रभावी और रोचक बनाने और उसे पाठकों की समझ में आ सकने योग्य बनाने के लिए लेखक अपनी बात को दोहराता है, मुहावरे-लोकोक्तियों का प्रयोग करता है, किसी कथा-प्रसंग से उसे प्रमाणित करता है। विद्वानों की उक्तियों को उधृत करके उसे ठोस बनाता है, अलंकार-युक्त शब्दावली का प्रयोग करता है और कथ्य को विस्तार देता है।
किसी पाठ की सामग्री में भी सार और निस्सार बात में अंतर किया जा सकता है। जो बातें महत्त्व की होती हैं, उन्हें हम स्वीकार कर लेते हैं और शेष को छोड़ देते हैं।
सार-लेखन का उपयोग
आज का जीवन बहुत भाग-दौड़ वाला है। लोगों के पास समय की कमी है। ज़माना इतनी तेज़ी से आगे बढ़ रहा है कि यदि व्यक्ति उसके साथ कदम-से-कदम मिलाकर न चले, तो वह पिछड़ जाएगा। यही कारण है कि व्यक्ति कम-से-कम समय में अधिक-से-अधिक बातें जान लेना चाहता है। कार्यालय में अधिकारियों के पास इतना समय नहीं होता कि वे फ़ाइलों और पत्रों को पूरी तौर से पढ़ें। वे कम-से-कम समय में अधिक-से-अधिक फाइलों और पत्रों को निपटा देना चाहते हैं। विशेष रूप से वह अधिकारी जिसने हाल ही में कार्यभार सँभाला है। उस व्यक्ति के पास इतना समय नहीं होता कि वह सभी फाइलें विस्तार से पढ़े, अतः वह संबंधित फाइल की सामग्री का सार प्रस्तुत करने का आदेश दे देता है। इस तरह की स्थितियों में सार बहुत मददगार सिद्ध होता है। सार को पढ़कर अधिकारी तुरत-फुरत ढेर सारी फाइलें निपटा देता है। सार को पढ़कर व्यक्ति अपनी रुचि का समाचार, लेख या कहानी चुन लेता है। कुल मिलाकर ’सार‘ पूरी सामग्री के आधार पर तैयार किया गया वह मसौदा है, जो संक्षिप्त होते हुए भी सामग्री की सभी मुख्य बातों को अपने में समेटे होता है, जिसके आधार पर पूरी सामग्री को समझा जा सकता है।
मूल सामग्री का महत्त्व
यहाँ प्रश्न उठ सकता है कि जब सार-संक्षेपण का इतना महत्त्व है और सारे काम सार के आधार पर ही चल सकते हैं, तो फिर मूल सामग्री की क्या आवश्यकता और महत्ता रहती है अर्थात् फिर मूल विस्तृत सामग्री क्यों पढ़ी जाती है? इससे भी और आगे बढ़कर सब लोग सार ही क्यों नहीं लिखते अपनी बातें विस्तार से क्यों लिखते हैं?
वस्तुतः कथ्य की संवेदनशीलता, भाषा का चमत्कार, अनुभव की ऊष्मा, सार में नहीं आ पाती। सार से काम तो चल जाता है, किंतु रचनात्मकता का उसमें अभाव रहता है। अतः कथ्य को पूरी तरह जानने और समझने के लिए, भाषा के चमत्कार का आनंद लेने के लिए और सामग्री की रचनात्मकता से विभोर होने के लिए मूल सामग्री का अध्ययन किया जाता है।
वैसे तो हमें अपनी बात कम-से-कम शब्दों में और संक्षेप में कहनी चाहिए तथा अनर्गल बातों से बचना चाहिए, किंतु भावों को पूरी तरह से प्रकट करने और उसे प्रभावपूर्ण शैली में व्यक्त करने के लिए सार उपयोगी नहीं होता। अतः सार मूल सामग्री का स्थान नहीं ले सकता। कभी-कभी किसी तथ्य की जानकारी के लिए मूल सामग्री पढ़ी जाती है।
सामग्री में मूल विचार क्या है?
अक्सर हम दही को मथकर मक्खन निकाल लेते हैं और मट्ठे का किसी और कार्य में उपयोग करते हैं। ठीक उसी प्रकार जब हम किसी सामग्री का सार प्राप्त करना चाहते हैं, तो हमारा मस्तिष्क एक मथानी का काम करता है। हम पढ़कर या सुनकर किसी सामग्री को मस्तिष्क में पहुँचाते हैं और हमारा मस्तिष्क उस मूल सामग्री के विस्तार को अलग करके सार प्रस्तुत कर देता है।
मूलभाव को स्पष्ट करने और उसे प्रभावी बनाने के लिए लेखक या व्यक्ति अनेक उपाय करता है जैसे-भाव को स्पष्ट करने के लिए वह
- व्याख्या करता है।
- उपयुक्त उदाहरण देता है।
- भाव को दोहराता है।
और भाव को प्रभावी बनाने के लिए वह-
- कथाओं का प्रयोग करता है।
- अलंकारों का प्रयोग करता है।
- प्रसिद्ध कथनों का प्रयोग करता है।
- व्यास शैली (मूल बात को विस्तार से कहना) का प्रयोग करता है।
अपने भाव को स्पष्ट करने के लिए व्यक्ति उसकी अनेक तरह से व्याख्या करता है। ऐसे उदाहरण देता है, जिससे भाव स्पष्ट हो सके। आवश्यकता पड़ने पर वह भाव को एक या अधिक बार दोहराता भी है। अपने भाव को प्रभावपूर्ण बनाने के लिए व्यक्ति मुहावरे, लोकोक्तियों का प्रयोग करता है, अलंकारपूर्ण भाषा का व्यवहार करता है। लोक-प्रसिद्ध या संबंधित कथाओं और चुटकुलों आदि का प्रयोग करता है, प्रसिद्ध साहित्यकारों, राजनीतिज्ञों आदि की उक्तियों का उल्लेख करता है और संवाद आदि का व्यवहार करके शैली को रचनात्मक बनाता है।
सार-लेखन की प्रक्रिया
सार लेखन की प्रक्रिया के निम्नलिखित चरण हैं:
1. मूल सामग्री का बोध
2. मूलभाव की पहचान
3. संबंधित भावों की पहचान
4. मूलभाव को स्पष्ट करने वाली व्याख्या, उदाहरण और दोहराव की पहचान
5. मूलभाव को प्रभावी बनाने वाले तत्त्वों अर्थात् कथाओं, अलंकारां, प्रसिद्ध कथनों और रचनात्मक तथा व्यास शैली की पहचान।
6. मूल भाव को स्पष्ट करने के लिए विस्तार देने वाले वाक्यों को हटाते हुए सार लेखन।
सबसे पहले हम मूल सामग्री को एक बार, दो बार या ज़्यादा बार पढ़कर उसे समझते हैं और पता लगाते हैं कि उसमें क्या कहा गया है। इसे पढ़ने और समझने के दौरान हम जान लेते हैं कि सामग्री का मूलभाव क्या है और उससे संबंधित अन्य भाव कौन से हैं।
सार-संक्षेपण की विधि
सर्वप्रथम यह जान लेना अति आवश्यक है कि किसी गद्यांश के संक्षेपण और सार में अंतर होता है। संक्षेपण किसी दी हुई सामग्री का संक्षिप्त अथवा छोटा रूप होता है परंतु सार, संक्षेपण से और भी अधिक छोटा होता है। सार और सारांश दोनों ही शब्द एक रूप में प्रयुक्त होते हैं। प्रायः मूल अवतरण से संक्षेपण एक-तिहाई होता है। इसके लिए आप सभी शब्दों को गिन कर उनमें तीन का भाग दे दें और जितनी संख्या आए उतने ही शब्दों में अवतरण का केंद्रीय भाव अपनी भाषा में लिख देना चाहिए।
अवतरण के मूल भाव को जीवित रखते हुए शब्दों को कम करना भी एक कला है। इसकी दो विधियाँ हैं :
1. त्याग विधि
2. परिवर्तन विधि
त्याग विधि
इसके अंतर्गत शब्दों को छोड़ना होता है अर्थात् जो शब्द काम के नहीं हैं, जिन्हें हटा देने पर भी अर्थ में कोई परिवर्तन नहीं आता, उसे त्याग विधि कहते हैं। इसमें लेखक का परिचय, पता आदि नहीं लिखा जाता। किसी बात को यदि उदाहरण आदि देकर समझाया गया है तो उन्हें छोड़ दिया जाता है। केवल मूल संदेश ही लिया जाता है। लोकोक्ति, अलंकार आदि का प्रयोग भी त्याग दिया जाता है। वाक्यों को संकुचित करके लिखा जाता है। अनेक शब्दों के लिए एक शब्द से काम चलाया जाता है। भाषा में चुस्ती और कसाव अपेक्षित है, जिससे संक्षेपण सरल, स्वाभाविक, सुंदर और प्रभावी लगे। इन बातों का कार्यालय में पत्रों, टिप्पणियों, रिपोर्टों आदि को संक्षेप में लिखते समय भी ध्यान रखना आवश्यक होता है।
परिवर्तन विधि
इस विधि में मूल अवतरण की भाषा को ज्यों-का-त्यों न उतार कर कुछ परिवर्तन करना अपेक्षित है, जैसे-संधि और समास का प्रयोग करके शब्दों को कम किया जा सकता है। उदाहरण के लिए ’पीला वस्त्र पहनने वाले कृष्ण भगवान‘ के लिए हम केवल ’पीताम्बर‘ शब्द का प्रयोग कर सकते हैं या फिर ’राजा का पुत्र‘ के लिए मात्र ’राजपुत्र‘ कह सकते हैं। इसी प्रकार कई शब्दों के लिए एक शब्द का प्रयोग कर वाक्यों को छोटा किया जा सकता है। जैसे ’जो ईश्वर को न मानता हो‘ उसे ’नास्तिक‘ शब्द कहकर काम चलाया जा सकता है या फिर जिस पर मुकदमा चल रहा हो वह ’अभियुक्त‘ कहलाता है। ’अच्छे आचरण वाला‘ ’सदाचारी‘ और ’जो पढ़ा जा सके‘ वह ’पठनीय‘ आदि।
पत्रों और टिप्पणियों का सार लिखने में सावधानियाँ
पत्रों, टिप्पणियों और रिपोर्टों का सार तैयार करने में अत्यधिक सावधानी की आवश्यकता होती है। पहले पत्र या टिप्पण को ध्यान से पढ़ना चाहिए। यदि एक बार पढ़ने से बात स्पष्ट न हो तो उसे दो बार-तीन बार पढ़ना चाहिए, क्योंकि यदि पत्र में दी गई बातें ठीक से समझ न आएँ तो सार में ग़लती हो सकती है। पत्रों में सरकारी नियमों, आदेशों या पूर्व-पत्रों का उल्लेख रहता है, इसलिए यह ज़रूरी है कि उनका सार बनाने से पहले उस सामग्री को ठीक से देख लिया जाए, तभी सार ठीक और उपयोगी बन सकता है।
फाइल के दो भाग होते हैं- पत्राचार भाग और टिप्पणी भाग। पत्राचार भाग में मामले से संबंधित पत्र रखे जाते हैं और टिप्पण भाग में मामले से संबंधित टिप्पणियाँ होती हैं। ये टिप्पणियाँ ऐसे लिखी जाती हैं कि इनमें पूर्व-टिप्पणियों का सार हो जिन्हें पढ़े बिना ही आगे टिप्पण लिखा जा सके। कार्यालय का हर मामला टिप्पणियों की मदद से निपटाया जाता है इसलिए टिप्पण-लेखन में बहुत सावधानी अपेक्षित होती है। अगर टिप्पण लेखन में छोटी-सी चूक हो जाए तो कार्रवाई की पूरी दिशा ही बदल सकती है।
सार-लेखन के समय ध्यान रखने योग्य बातें:
1. एक, दो या अधिक बार पढ़कर मूल सामग्री को समझना।
2. सामग्री में आई व्याख्याओं, उदाहरणों और भावों के दोहराव को रेखांकित करना।
3. मूलभाव को अलग कागज़ पर लिखना।
4. मूलभाव और उससे संबंधित भावों के आधार पर विवरणात्मक अन्य पुरुष शैली में मूल सामग्री से लगभग एक-तिहाई आकार में सार-संक्षेपण लिखना।
5. आवश्यक होने पर मूल भाव के आधार पर सार संक्षेपण का शीर्षक लिखना।
6. लिखित सार को पढ़ना और देखना कि कहीं उसमें कोई मुख्य बात आने से रह तो नहीं गई है।
7. आवश्यक होने पर सार का संपादन करना। संपादन का अर्थ है कि सार में कोई मुख्य बात आने से रह गई हो तो उसे जोड़ना। यदि उसमें कोई दोहराव है तो उसे हटाना और भाषा-शैली को उपयुक्त व सरल बनाना।
शीर्षक का चयन
निश्चित अनुच्छेद का शीर्षक छाँटना भी एक कला है। शीर्षक सदैव सामग्री पर आधारित और उसके केंद्रीय भाव से जुड़ा हुआ होना चाहिए। सार-संक्षेपण लिखने से पहले ही यदि शीर्षक स्पष्ट हो जाए तो विचारों को सार रूप में कागज़ पर उतारने में बहुत सुविधा रहती है।
शीर्षक का चुनाव करना किसी चीज़ को जैसे का तैसा रट लेने वाला कार्य नहीं है बल्कि इसका प्रयोग चतुराई के साथ करना चाहिए। यह एक प्रकार का कौशल है जिसे निरंतर अभ्यास करके विकसित किया जा सकता है। कहावत है कि ’’करत-करत अभ्यास के जड़मति होत सुजान‘‘इसी से कला में निखार आता है। शीर्षक चुनने के लिए आप अवतरण को दो-तीन बार पढ़ जाइए और इसके केंद्रीय भाव पर विचार कीजिए। कभी-कभी यह केंद्रीय भाव अवतरण के शुरू में ही मिल जाता है। परंतु इसका कोई कड़ा नियम नहीं है। कभी-कभी यह अवतरण के मध्य में अथवा अंत में भी हो सकता है।
शीर्षक सदैव आकर्षक और रुचिकर होना चाहिए साथ ही उपयुक्त भी हो जिसमें संपूर्ण सामग्री का तथ्य अथवा आशय स्पष्ट होता हो। एक बार शीर्षक पढ़कर पाठक यह अंदाज़ लगा ले कि अनुच्छेद में क्या होगा साथ ही शीर्षक में इतना अधिक आकर्षण हो कि वह पाठक को सामग्री पढ़ने पर मज़बूर कर दे। एक ही अनुच्छेद के एक अथवा कई शीर्षक भी हो सकते हैं। प्रायः शीर्षक एक शब्द अथवा एक पदबंध का ही होता है। शीर्षक देने के लिए अधिकतर समास-पद्धति का प्रयोग किया जाता है। कभी कोई सूक्ति या वाक्य भी उपयुक्त शीर्षक हो सकता है।
अनुच्छेद समझ कर कई बार पढ़ लेने के बाद जो ज़्यादा आपके मन को जँचे वही उपयुक्त शीर्षक होता है। उसी को स्वीकार कर लेना चाहिए। किसी सार का शीर्षक उपयुक्त पाकर ही परीक्षक सार पढ़ने की आवश्यकता का अनुभव करता है। अतः शीर्षक बहुत सोच-विचार कर ही चुनना चाहिए। इसी से आपकी बुद्धि की परख होती है।