सामूहिक सुरक्षा

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वर्तमान समय के प्रमुख्य सामूहिक सुरक्षा गठजोड़

सामूहिक सुरक्षा (Collective security) से आशय ऐसी क्षेत्रीय या वैश्विक सुरक्षा-व्यवस्था से है जिसका प्रत्येक घटक राज्य यह स्वीकारता है कि किसी एक राज्य की सुरक्षा सभी की चिंता का विषय है। यह मैत्री सुरक्षा (alliance security) की प्रणाली से अधिक महत्वाकांक्षी प्रणाली है।

परिचय

शक्ति विस्तार व विश्व में युद्धों को रोकने का एक कारगर माध्यम सामूहिक सुरक्षा माना गया है। इसके अंतर्गत सुरक्षा का लक्ष्य प्राप्त करने हेतु राष्ट्रों द्वारा सामूहिक प्रयास करने की बात कही गई है। यद्यपि यह सिद्धांत प्रथम विश्वयुद्धद्वितीय विश्वयुद्ध की समाप्ति के उपरांत स्थापित राष्ट्रसंघ एवं संयुक्त राष्ट्र संगठनों के अंतर्गत अपनाया गया, परंतु इसकी उपस्थिति को 17वीं शताब्दी के कई विद्वानों के ग्रंथों में पाया जाता है। 1648 की वेस्टफेलिया की संधि में भी यह उल्लेख था कि इस सन्धि पर हस्ताक्षर करने वाले राज्यों को यह अधिकार है कि किसी के भी विरुद्ध कदम उठाने व कार्यवाही करने का अधिकार है जिससे शांति की रक्षा की जा सके। बाद में ओस्जेब्रुक की संधि में भी संभावित शत्रुओं के विरुद्ध सामूहिक कार्यवाही करने की बात कही गई थी। 19वीं शताब्दी में कई लेखकों ने भी इसका समर्थन किया, परंतु इसको व्यावहारिक रूप 20वीं शताब्दी में राष्ट्रसंघ एवं संयुक्त राष्ट्र के अंतर्गत ही प्राप्त हुआ।

सामान्य रूप से सटीक परिभाषा दे तों इसका अर्थ है- ”एक के लिए सब और सब के लिए एक।“ इस प्रकार से किसी राष्ट्र की शांति व सुरक्षा हेतु सभी सामूहिक कार्यवाही करने को तत्पर रहेंगे। परंतु इस प्रकार की कार्यवाही से पूर्व यह बताना आवश्यक है कि इस अवधारणा की कुछ आधारभूत मान्यताए हैं, जो निम्नलिखित हैं-

  • (1) सामूहिक सुरक्षा पर्याप्त मात्रा में होनी चाहिए ताकि आक्रमणकारी या तो युद्ध न कर सके और यदि करें भी तो उसे पराजय का मुॅंह देखना पड़े।
  • (2) सामूहिक सुरक्षा हेतु एकत्रित राष्ट्रों के बीच सुरक्षा संबंधित मुख्य बातों को लेकर समान विचार होने चाहिए।
  • (3) सामूहिक सुरक्षा से संबद्ध राष्ट्रों को इस कार्यवाही हेतु अपने परस्पर विरोधी विचारों को त्यागना होगा।
  • (4) सामूहिक सुरक्षा से जुड़े राष्ट्र मुख्य रूप से अंतरराष्ट्रीय राजनीति में यथास्थिति बनाये रखने के पक्षधर होते हैं।
  • (5) सामूहिक सुरक्षा के कारगर होने हेतु सभी राष्ट्र आक्रामककर्ता का निर्णय लेने में एकमत होंगे।
  • (6) इससे संबद्ध राष्ट्रों के मध्य इस विचारधारा में पूरी आस्था होनी चाहिए।
  • (7) इसके अत्याधिक प्रभावशाली होने हेतु सभी या कम से कम अधिकांश राष्ट्र इसमें सम्मिलित होने चाहिए।

इस प्रकार उपरोक्त मान्यताओं के आधार पर सामूहिक सुरक्षा व्यवस्था शक्ति प्रबंधन को सुचारू रूप से चला सकती है। सैद्धांतिक रूप से इस व्यवस्था की निम्नलिखत विशेषताएं स्पष्ट रूप से उजागर होती हैं -

  • (1) यह व्यवस्था मुख्य रूप से सामूहिक प्रयास है जो - ”एक के लिए सब तथा सबके लिए एक“ के सिद्धांत पर आधारित है।
  • (2) यह व्यवस्था आक्रामक बल प्रयोग का विरोध करती है। इसमें प्रारंभ में मतभेदों को शांतिपूर्ण तरीकों के माध्यम से हल करने का प्रयास किया जाता है। बल प्रयोग केवल अंतिम विकल्प के रूप में ही प्रयोग किया जाता है।
  • (3) सभी राष्ट्रों के सामूहिक प्रयास व संयुक्त संसाधनों के माध्यम से शक्ति प्रयोग को भंग करने वालों के प्रति निवारक के रूप में होता है।
  • (4) सामूहिक सुरक्षा ‘शांति’ को एक अखंडनीय व अविच्छिन्न मानता है।
  • (5) इस सिद्धांत के आधार पर अंतरराष्ट्रीय राजनीति में यथास्थिति को बनाये रखने का प्रयास किया जाता है।
  • (6) यह सिद्धांत यह मानता है कि सभी राष्ट्रों के लिए सुरक्षा उसकी सर्वोपरि प्राथमिकता होती है।
  • (7) यह मानता है कि विश्व शांति हेतु प्रत्येक राज्य की सुरक्षा में सभी राष्ट्रों का सहयोग अति आवश्यक होता है। इस व्यवस्था का व्यवहारिक स्वरूप 20वीं शताब्दी में राष्ट्रसंघसंयुक्त राष्ट्र के अंतर्गत देखने को मिला है जो इस प्रकार है-

राष्ट्रसंघ व सामूहिक सुरक्षा

सर्वप्रथम राष्ट्र संघ के संविदा के अनुच्छेद 10-16 तक इसका वर्णन सम्मिलित किया गया था। इन धाराओं में इसका वर्णन निम्न प्रकार से है-

  • (1) अनुच्छेद 10 के अंतर्गत सभी सदस्यों को प्रादेशिक एकता एवं राजनैतिक स्वतंत्रता के सम्मान के खतरे की स्थिति में परिषद् उचित कार्यवाही हेतु कदम उठा सकती है।
  • (2) अनुच्छेद 12 में प्रत्येक विवादों को न्यायिक प्रक्रिया द्वारा हल करने के प्रयास किए जाऐंगे लेकिन कम से कम न्यायिक निर्णय के 3 माह तक राज्यों को युद्ध का अधिकार नहीं होगा।
  • (3) अनुच्छेद 16 में यह दिया गया है कि जब अन्य तरीकों से समस्या का समाधान नहीं होता तब परिषद् सामूहिक सुरक्षा हेतु उपयुक्त कदम उठा सकती है।

परन्तु उपयुक्त प्रावधानों के होते हुए भी राष्ट्र संघ ने उनका कभी उपयोग नहीं किया। राष्ट्र संघ के असफलता हेतु जिम्मेदार तत्वों ने सामूहिक सुरक्षा व्यवस्था पर भी प्रभाव डाला। इसमें मुख्य रूप से अमेरिका द्वारा राष्ट्रसंघ का सदस्य न बनना, विजेता व हारे राष्ट्रों के मध्य प्रतिद्वंदिता जारी रहना, जर्मनीफ्रांस के मतभेद वहीं पर रहना, सोवियत संघ का इस संगठन से बाहर रहना, परिषद् की सदस्यता बदलते रहना, जापान, जर्मनीइटली द्वारा इसकी खुली अवमानना करना आदि बहुत से ऐसे कारण हैं जिसकी वजह से प्रारंभिक कुछ वर्षों को छोड़ दें तो राष्ट्र संघ विफल रहा। अतः स्वभाविक था कि सामूहिक सुरक्षा की भी विफलता अनिवार्य थी। अतः सामूहिक सुरक्षा के विकास व इसे लागू करने के संदर्भ में राष्ट्रसंघ पूर्ण रूप से दुविधाग्रस्त था तथा प्रारंभ से ही शक्तिहीन रहा।

संयुक्त राष्ट्र संघ व सामूहिक सुरक्षा

राष्ट्र संघ के अनुभवों से शिक्षा लेते हुए संयुक्त राष्ट्र चार्टर में इसका अति स्पष्ट आलेख किया गया। यद्यपि संपूर्ण चार्टर में ”सामूहिक सुरक्षा“ शब्द का प्रयोग नहीं किया गया है, परंतु अध्याय सात में ‘संयुक्त कार्यवाही’ ही सामूहिक सुरक्षा का स्वरूप है। सैद्धांतिक रूप में चार्टर में चार व्यवस्थाओं के अंतर्गत इसका उल्लेख है -

  • अनुच्छेद-1 (अध्याय 1);
  • अनुच्छेद 39-51 (अध्याय 7);
  • अनुच्छेद 52- 54 (अध्याय 8); तथा
  • ”शांति के लिए एकता प्रस्ताव“ (1950)।

संयुक्त राष्ट्र चार्टर के भाग 1 में इसके उद्देश्यों का वर्णन करते हुए अनुच्छेद 1 में कहा गया है कि अंतरराष्ट्रीय शांति व सुरक्षा हेतु संयुक्त राष्ट्र/सामूहिक कार्यवाही करेगी। क्षेत्रिय शांति व सुरक्षा हेतु ये संगठन संयुक्त राष्ट्र की अनुमति के साथ सामूहिक कार्यवाही कर सकते हैं। 1950 में कोरिया के संकट के समय महासभा द्वारा शांति के लिए एकता प्रस्ताव के माध्यम से यह व्यवस्था की गई है कि यदि अंतरराष्ट्रीय शांति व सुरक्षा के खतरे की आशंका पर सुरक्षा परिषद् कोई कार्यवाही नहीं करता है तो महासभा सुरक्षा परिषद् को कार्यवाही हेतु कह सकता है। अतः उपरोक्त तीनों परिस्थितियों से स्पष्ट है कि संयुक्त राष्ट्र चार्टर के उद्देश्यों एवं व्यवहार में सामूहिक सुरक्षा की व्यवस्था की गई है। वास्तविक रूप में अध्याय 7 में दंडात्मक कार्यवाही के रूप में इसकी व्याख्या की गई है। इसके अंतर्गत कार्यवाही से पूर्व अनुच्छेद 41 में गैर सैनिक कदम उठाने पर जोर दिया गया है ताकि आक्रमणकारी राज्य विश्व शांति को खतरा न बने। इसके बाद अनुच्छेद् 42 में घेराबंदी की व्यवस्था की गई है। अंततः सैन्य कार्यवाही का प्रावधान है जिसमें सभी राष्ट्रों का दायित्व है कि वे सेना में अपना सहयोग देंगे (अनुच्छेद 43 व 44)। इसके बाद एक सैन्य स्टाफ समिति के गठन की बात की गई है जो एक कमांडर के अधीन संयुक्त राष्ट्र के ध्वज के नीचे कार्यवाही करेंगे (अनुच्छेद 47)। अतः इस प्रकार सभी अन्य कार्यवाही के विफलता के पश्चात युद्ध की कार्यवाही को स्वीकृत किया है। इसके अतिरिक्त यह भी स्पष्ट किया गया है कि इस कार्यवाही का अगुवाई संयुक्त राष्ट्र का कमांडर करेगा, किसी एक देश या अन्य संगठन का नहीं। इस कार्यवाही हेतु भाग लेने के लिए अधिकांश देशों का होना अनिवार्य नहीं तो कम से कम वांछनीय अवश्य है।

मूल्यांकन

सामूहिक सुरक्षा की कार्यवाही संयुक्त राष्ट्र के अधीन शक्ति को रोकने या सीमाबद्ध करने में सक्षम है या नहीं यह इसके सैद्धांतिक एवं व्यवहारिक पहलुओं के मूल्यांकन के बाद ही कहा जा सकता है। सैद्धांतिक रूप से, इसकी सफलता के संदर्भ में कई प्रश्न उठाये गये हैं। क्या सभी राष्ट्र आक्रमणकारी को पहचानते हैं? क्या आक्रमण को रोकने हेतु सभी पूर्ण रूप से इच्छुक हैं? क्या सामूहिक समूह आक्रमणकारी से अधिक शक्तिशाली हैं? क्या विश्व शांति शक्ति विस्तार से संभव है? क्या सभी देश राष्ट्रहितों को भुलाकर एकजुट हो सकेंगे? आदि।

सैद्धांतिक के साथ-साथ व्यवहारिक रूप से भी देखें तो शीतयुद्ध तथा उत्तर-शीतयुद्ध कालों में अपनी-अपनी प्रकार से सामूहिक सुरक्षा की अवहेलना की है। शीतयुद्ध काल में युद्ध व शांति का प्रश्न विचारधारा के आधार पर तय किया जाता था। इसी प्रकार संयुक्त राष्ट्र के फैसलों पर समर्थन। इसीलिए शायद इस युग में हुई कोरिया (1950) के विरुद्ध सामूहिक सुरक्षा की कार्यवाही पूर्णतया सफल नहीं हो सकी। बल्कि यह कार्यवाही भी विशेष स्थिति में ही सम्भव हो सकी जब यह निर्णय दिया गया कि संयुक्त राष्ट्र की कार्यवाही से गैर-हाजिर रहना वीटो नहीं माना जा सकता। शीतयुद्धोत्तर युग में ईराक के विरुद्ध हुई कार्यवाही (1990 व 2003) को भी वस्तुनिष्ठ एवं संयुक्त राष्ट्र की संज्ञा देना गलत होगा। यह कार्यवाही भी मुख्य रूप से अमेरिकानाटो देशों या बाद में अमेरिका व ब्रिटेन की संयुक्त कार्यवाही कहा जा सकता है। इस कार्यवाही के दौरान न तो संयुक्त राष्ट्र चार्टर की धाराओं का पालन किया तथा न ही युद्ध टालने की कोशिशें की गई। बल्कि ऐसा लगा कि अपने कुछ अस्पष्ट हितों की पूर्ति हेतु यह युद्ध लड़ा गया। इसके अतिरिक्त, अब युद्ध में हुए भारी मात्रा में विध्वंस के बाद अमेरिका द्वारा यह स्वीकारना कि हथियारों के संदर्भ में उसे गलत रूप से सूचित किया इस सारे घटनाक्रम को हास्यास्पद बना देता है। परंतु क्या ऐसा कहने से ईराक के नुकसान की भरपाई हो जायेगी। परंतु वास्तविकता यह है कि शीतयुद्धोत्तर युग में अमेरिका के एकमात्रा शक्ति रहने के कारण उसकी किसी भी कार्यवाही को रोक पाना असंभव है। अतः अमेरिका द्वारा किए गए सभी आक्रमण उचित माने जाएँगे।

इस प्रकार निष्कर्ष रूप में कह सकते हैं कि सिद्धांत व व्यवहार दोनों की परिस्थितियों में अब सामूहिक सुरक्षा के आधार पर शक्ति पर अंकुश लगाना कठिन है। कारण जो भी हो यह बात शीतयुद्ध काल में भी सत्य थी और आज शीतयुद्धोत्तर युग में भी सही है। इसके साथ-साथ परमाणु, जैविक एवं रासायनिक हथियारों के संदर्भ में युद्धों को रोकना भी कठिन होता जा रहा है। अतः इस सिद्धांत हेतु शक्ति पर सीमाएँ लगाना अधिक कारगर नहीं रहा।