सामाजिक संरचना

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सामाजिक सरंचना (Social structure) समाजशास्त्र की एक मौलिक अवधारणा है परंतु उसकी व्याख्या विभिन्न प्रकार से की गयी है।

परिचय

हर्बट स्पेंसर जैवीकीय अनुरूपता (biological analogy) से इतने प्रभावित थे कि उन्होंने सामाजिक संरंचना की तुलना मानव शरीर से की। उनका कहना था कि जिस प्रकार शरीर के विभिन्न अंग होते हैं और वे सभी शारीरिक बनावट को बनाये रखते हैं उसी प्रकार समाज के भी विभिन्न अंग होते हैं जो समाज के बनावट को बनाये रखते हैं। रेडक्लिफ ब्राउन का मत था कि जब कभी हम सामाजिक संरचना का उल्लेख करते हैं तो सामाजिक सरंचना से हमारा अभिप्राय एक व्यवस्था से होता है जिसमें उस व्यवस्था व सरंचना के विभिन्न तत्व एक-दूसरे से जुड़े होते है। तत्वों के इस समीकरण और व्यवस्थित पद्धति को ही सरंचना कहा जा सकता है। सामाजिक सरंचना के संदर्भ में व्यक्ति को उस संरचना की इकाई मानते हैं। व्यक्ति सामाजिक सरंचना में एक स्थान पर बने होते हैं। उनका एक व्यवस्था में स्थान ग्रहण करना एक सामाजिक प्रक्रिया के तहत होता है जिसके अंतर्गत कुछ प्रतिमानों के कारण उन्हें वह स्थान मिला होता है। इस प्रकार सामाजिक सरंचना व्यक्ति का एक व्यवस्थित रूप है जिसमें उनके सामाजिक संबंध किसी खास संस्थात्मक मूल्यों से नियंत्रित होते हैं। अगर हम परिवार के बनावट की बात करें तो उस परिवार में रहने वाले लोगों की बात करेंगे जो लोग उस परिवार के कुछ संबंधों से जुड़े होते हैं। उस परिवार के सदस्य की एक खास भूमिका अदा करना पड़ता है। इस प्रकार एक संगठन में सभी व्यक्तियों को अपनी-अपनी भूमिका अदा करने के लिए एक-दूसरे से जुड़ा होना आवश्यक है।

एस एफ नाडेल (Siegfried Frederick Nadel) ने भी सरंचना शब्द की व्याख्या प्रस्तुत करते हुए इसे एक व्यवस्थित समग्र के अंग से जोड़कर देखा है जिसमें उस व्यवस्था से सभी तत्व एक-दूसरे से जुड़े होते हैं। उनके अनुसार समाज में तीन तत्व सदैव मौजूद रहते हैं-

  • (क) मानव समूह
  • (ख) संस्थात्मक प्रतिमान (पैटर्न), जिसके कारण किसी समूह के सदस्य एक दूसरे से अंतःसंबंध के कारण संपर्क में आते हैं।
  • (ग) इन अंतःसंबंधों का संस्थात्मक स्वरूप

ये सभी प्रतिमान व नियम व्यक्ति की स्थिति और भूमिका को निर्धारित करते हैं। सामाजिक सरंचना की व्याख्या करते हुए कुछ समाजशास्त्रियों ने इससे स्थायी संबंधों की बात को भी महत्व दिया है। उनका मानना है कि किसी भी बनावट से हमारा तात्पर्य उस बनावट को बनाने वाले उन अंगों से हैं जो स्थायी रूप से उस बनावट को बनाये रखने में अपना महत्वपूर्ण योगदान देते हैं। इस विचार को प्रकट करते हुए हैरी एम जानसन ने भूमिका तथा उपसमूह के सरंचनात्मक सबंध के परस्पर आत्मनिर्भरता की बात पर बल दिया है। प्रतिमानों के दो स्वरूप की चर्चा करते हुए उन्होंने निम्न प्रतिमानों का उल्लेख किया है।

  • (क) प्रतिमान जो क्रियाओं के अपेक्षित भूमिका का वर्णन करते हैं जिसमें परिवार के भूमिका को सकारात्मक माना जाता है और इस प्रकार पिता का अपने पुत्र के प्रति वफादारी दिखाना इसका एक उदाहरण है।
  • (ख) दूसरे प्रतिमान को नियंत्रात्मक प्रतिमान कहा जा सकता है जिसके कारण प्रतिमान द्वारा व्यक्ति के व्यवहार नियंत्रित होते हैं।

इस प्रकार यह कहा जा सकता है कि सामाजिक सरंचना की व्याख्या करते हुए अधिकांश समाजशास्त्रियों ने दो सैद्धान्तिक पक्षों को उजागर किया है। पहले श्रेणी में हम उन सैद्धान्तिक विचार की बात कर सकते हैं जिसमें सामाजिक सरंचना का एक ऐसा स्वरूप होता है जिसे देखा व परखा जा सकता है। प्रकार्यवाद (functionalism) के सिद्धान्त में सामाजिक सरंचना का एक स्पष्ट स्वरूप है जिसका वर्णन किया जा सकता है।

दूसरी श्रेणी में उन सामाजशास्त्रीय रचनाओं की बात की जाती है जिसमें समाज की बनावट का अमूर्त्त स्वरूप होता है जिसे देखा व परखा नहीं जा सकता है।

तीसरे प्रकार का विचार को कुछ समाजशास्त्रियों ने सैद्धान्तिक रूप से उभारा है जिसमें सामाजिक सरंचना के संबंधों को स्थायित्व मिलता है। संबंधों को एक वास्तविक आधार मिलता है। रैडक्लिफ ब्राउन तथा एस एफ नाडेल दोनों इस विचार के हिमायती थे जिन्होंने सामाजिक सरंचना के कुछ स्थायी तत्वों की बात की जिससे व्यक्ति के व्यवहार भी नियंत्रित होते हैं और उनके व्यवहार को नियंत्रित करने का एक संस्थात्मक आधार मिलता है।

टालकाट पारसंस का कहना था कि सामाजिक व्यवस्था के द्वारा समाज की बनावट को समझा जा सकता है। उनका विचार था कि किसी भी सामाजिक संरचना को समझने के लिए उस समाज के मूल्यों का तथा उसके संस्थात्मक स्वरूप को समझना आवश्यक है। उनके अनुसार किसी भी सामाजिक व्यवस्था को चार प्रमुख सामाजिक कार्य स्थायी रूप से निष्पादित करने पड़ते हैं-

  • (क) अनुकूलन : इसके अनुसार भौतिक पर्यावरण के साथ सामंजस्य स्थापित करना होता है।
  • (ख) लक्ष्य उपलब्धि : समाज में व्यक्ति व समूह के बीच लक्ष्य निर्धारित करना तथा उस लक्ष्य को प्राप्त करने के लिए काम करना सम्मिलित होता है।
  • (ग) प्रतिमान अनुरक्षण : कार्यों को संपादित करने के लिए उत्साहवर्धन करना।
  • (घ) एकीकरण : आंतरिक सम्बन्ध स्थापित कर एकीकृत करना भी उस समाज का कर्त्तव्य हो जाता है।

इन सभी कार्यों को अच्छी तरह संपादित करने के लिए उपसमूह होते हैं। जिन उपसमूह को सामाजिक व्यवस्था से जुड़कर काम करना होता है और ये सभी कार्य एक संस्थात्मक तरीके से निष्पादित बातें हैं। अनुकूलन का कार्य निस्पादित होता है आर्थिक व्यवस्था के द्वारा जो सामाजिक व्यवस्था के अंग या महत्वपूर्ण इकाई के रूप में कार्य करता है। इसी प्रकार लक्ष्य उपलिब्ध का कार्य राजनीतिक व्यवस्था से होता है जो सामाजिक व्यवस्था के एक अंग या महत्वपूर्ण इकाई के रूप में यह कार्य करता है।

प्रतिमान अनुरक्षण के कार्य का निष्पादन स्वजन अर्थात् नातेदारी द्वारा होता है।

एकीकरण का कार्य सांस्कृतिक व्यवस्था तथा सामुदायिक संगठन के द्वारा निष्पादित होता है।

उपर्युक्त विवेचन से यह स्पष्ट है कि सामाजिक सरंचना की अवधारणा को एक महत्वपूर्ण अवधारणा तथा सिद्धान्त से जोड़कर देखा जा सकता है। सामाजिक सरंचना की अवधारणा को संघर्ष के सिद्धान्त से जोड़कर भी देखा जाता है परंतु सामाजिक व्यवस्था के संदर्भ में इसके सिद्धान्तों को कुछ समाजशास्त्रियों ने पहचाना है परंतु इसकी विवेचना से अभी भी परंपरागत समाजशास्त्र परहेज करते हैं।