राजा मान सिंह
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राजा मान सिंह आमेर (आम्बेर) के कच्छवाहा राजपूत राजा थे। उन्हें 'मान सिंह प्रथम' के नाम से भी जाना जाता है। राजा भगवन्त दास इनके पिता थे।
वह अकबर की सेना के प्रधान सेनापति थे। उन्होने आमेर के मुख्य महल का निर्माण कराया।[१][२]
महान इतिहासकार कर्नल जेम्स टॉड ने लिखा है- " भगवान दास के उत्तराधिकारी मानसिंह को अकबर के दरबार में श्रेष्ठ स्थान मिला था। मानसिंह ने उडीसा और आसाम को जीत कर उनको बादशाह अकबर के अधीन बना दिया। राजा मानसिंह से भयभीत हो कर काबुल को भी अकबर की अधीनता स्वीकार करनी पडी थी। अपने इन कार्यों के फलस्वरूप मानसिंह बंगाल, बिहार, दक्षिण और काबुल का शासक नियुक्त हुआ था।"[३][४][५]
काबुल का शासक नियुक्त
अकबर शासन में जब राजा भगवंतदास पंजाब के सूबेदार नियत हुए, तब सिंध के पार सीमांत प्रान्त का शासन उनके कुँवर मानसिंह को दिया गया। जब 30वें वर्ष में अकबर के सौतेले भाई मिर्ज़ा मुहम्मद हक़ीम की (जो कि काबुल का शासनकर्ता था) मृत्यु हो गई, तब मानसिंह ने आज्ञानुसार फुर्ती से काबुल पहुँच कर वहाँ के निवासियों को शासक के निधन के बाद उत्पन्न लूटपाट से निजात दिलवाई और उसके पुत्र मिर्ज़ा अफ़रासियाब और मिर्ज़ा कँकुवाद को राज्य के अन्य सरदारों के साथ ले कर वे दरबार में आए। अकबर ने सिंध नदी पर कुछ दिन ठहर कर कुँवर मानसिंह को काबुल का शासनकर्ता नियुक्त किया। इन्होंने बड़ी बहादुरी के साथ रूशानी लुटेरों को, जो विद्रोहपूर्वक खैबर के दर्रे को रोके हुए थे, का सफाया किया। जब राजा बीरबल स्वाद प्रान्त में यूसुफ़जई के युद्ध में मारे गए और जैनख़ाँ कोका और हक़ीम अबुल फ़तह दरबार में बुला लिए गए, तब यह कार्य मानसिंह को सौंपा गया। अफगानिस्तान में जाबुलिस्तान के शासन पर पहले पिता भगवंतदास नियुक्त हुए और बाद में पर उनके कुँअर मानसिंह।
मानसिंह काल में आमेर की उन्नति
राजा भगवानदास की मृत्यु हो जाने पर (उनका दत्तक पुत्र) राजा मानसिंह जयपुर के सिंहासन पर बैठा. कर्नल जेम्स टॉड ने लिखा है- "मानसिंह के शासनकाल में आमेर राज्य ने बड़ी उन्नति की। मुग़ल दरबार में सम्मानित हो कर मानसिंह ने अपने राज्य का विस्तार किया उसने अनेक राज्यों पर आक्रमण कर के जो अपरिमित संपत्ति लूटी थी, उसके द्वारा आमेर राज्य को शक्तिशाली बना दिया। धौलाराय के बाद आमेर, जो एक मामूली राज्य समझा जाता था, मानसिंह के समय वही एक शक्तिशाली और विस्तृत राज्य हो गया था।भारत के इतिहास में कछवाहो का महत्वपूर्ण स्थान आता है मानसिंह के समय कछवाहो ने खुतन से समुद्र तक अपने बल, पराक्रम और वैभव की प्रतिष्ठा की थी। मानसिंह यों अकबर की अधीनता में ज़रूर था, पर उसके साथ काम करने वाली राजपूत सेना, बादशाह की सेना से कहीं अधिक शक्तिशाली समझी जाती ,हिन्दू धर्म के सच्चे संरक्षक के रूप में कछवाहों ने कार्य किया और कट्टर इस्लामीकरण से भारत और उसकी जनता को बचाए रखा ,कट्टर औरंगज़ेब के समय कछवाहो और मुगलों के सम्बन्ध खराब हो गए थे और औरगज़ेब के आखिरी समय मै कछवाहो ने मुगलों से दूरी बना ली थी [६]
कर्नल जेम्स टॉड की इस बात से दूसरे कुछ इतिहासकार सहमत नहीं. उनका कथन है मानसिंह भगवान दास का गोद लिया पुत्र नहीं था, बल्कि वह तो भगवंत दास का लड़का था। भगवानदास और भगवंत दास दोनों भाई थे।[७] मुग़ल-इतिहास की किताबों से ज़ाहिर होता है कि अकबर के आदेश पर उसके अनुभवी अधिकारी महाराजा मानसिंह, स्थानीय सूबेदार कुतुबुद्दीन खान और आमेर के राजा भगवंत दास ने गोगून्दा और मेवाड़ के जंगलों में महाराणा प्रताप को पकड़ने के लिए बहुत खोजबीन की पर अंततः वे असफल रहे तो अकबर बड़ा क्रुद्ध हुआ- यहाँ तक सन १५७७ में तो उन दोनों (कुतुबुद्दीन खान और राजा भगवंत दास) की 'ड्योढी तक बंद' कर दी गयी!"[८]
हिन्दू धर्म को योगदान
मानसिंह के कारण ही आज जगन्नाथ पुरी का मंदिर मस्जिद नही बना । उड़ीसा के पठान सुल्तान ने जगन्नाथ पुरी के मंदिर को ध्वस्त करके मस्जिद बनाने का प्रयास किया था, जब इसकी सूचना राजा मानसिंह को मिली, तब उन्होंने अपने स्पेशल कमांडो उड़ीसा भेजे, लेकिन विशाल सेना के कारण सभी वीरगति को प्राप्त हुए । उसके बाद राजा मानसिंह खुद उड़ीसा गए, ओर पठानों ओर उनके सहयोगी हिन्दू राजाओ को कुचलकर रख दिया । उसके बाद पठान वर्तमान बंगाल की ओर भाग गए । जगन्नाथ मंदिर की रक्षा हिन्दू इतिहास का सबसे स्वर्णिम इतिहास है । यह हिंदुओ के सबसे प्रमुख मंदिरों में से एक है। राजा मानसिंह महान कृष्ण भक्त थे, उन्होंने वृंदावन में सात मंजिला कृष्णजी ( गोविन्ददेव जी ) का मंदिर और आमेर में जगत शिरोमणि मंदिर बनवाया । बनारस के घाट, पटना के घाट, ओर हरिद्वार के घाटों का निर्माण आमेर नरेश मानसिंह ने ही करवाया था । जितने मंदिर मध्यकाल से पूर्व धर्मान्ध मुसलमानो ने तोड़े थे, वह सारे मंदिर मानसिंहजी ने बना दिये थे, लेकिन औरंगजेब के समय मुगलो का अत्याचार बढ़ गया था और हिन्दू मंदिरों का भारी नुकसान हो गया ।[९]
हल्दीघाटी में हार
जब अकबर के सेनापति मानसिंह शोलापुर महाराष्ट्र विजय करके लौट रहे थे, तो मानसिंह ने प्रताप से मिलने का विचार किया। प्रताप उस वक़्त कुम्भलगढ़ में थे। अपनी राज्यसीमा मेवाड़ के भीतर से गुजरने पर (किंचित अनिच्छापूर्वक) महाराणा प्रताप को उनके स्वागत का प्रबंध उदयपुर के उदयसागर की पाल पर करना पड़ा. स्वागत-सत्कार एवं परस्पर बातचीत के बाद भोजन का समय भी आया। महाराजा मानसिंह भोजन के लिए आये किन्तु महाराणा को न देख कर आश्चर्य में पड़ गये। उन्होंने महाराणा के पुत्र अमरसिंह से इसका कारण पूछा तो उसने बताया कि 'महाराणा साहब के सिर में दर्द है, अतः वे भोजन पर आपका साथ देने में में असमर्थ हैं।'
कुछ इतिहासकारों के अनुसार यही घटना हल्दी घाटी के युद्ध का कारण भी बनी। अकबर को महाराणा प्रताप के इस व्यवहार के कारण मेवाड़ पर आक्रमण करने का एक और मौका मिल गया। सन 1576 ई. में 'राणा प्रताप को दण्ड देने' के अभियान पर नियत हुए। मुगल सेना मेवाड़ की ओर उमड पड़ी। उसमें मुगल, राजपूत और पठान योद्धाओं के साथ अकबर का जबरदस्त तोपखाना भी था हालाकि पहाड़ी इलाकों में तोप काम ना आ सकी और युद्ध में तोपो की कोई भूमिका नहीं थी। अकबर के प्रसिद्ध सेनापति महावत खान, आसफ खान और महाराजा मानसिंह के साथ अकबर का शाहजादा सलीम उस मुगल सेना का संचालन कर रहे थे, जिसकी संख्या 5,000 से 80,000 के बीच थी। चार घंटे के युद्ध के बाद मुगलो की आधी फौज मारी जा चुकी थी किन्तु महाराणा भी मैदान में घायल हो गये तब उनके सेनापति झाला मन्ना ने उन्हें युद्धभूमि से सुरक्षित बाहर भेजने में सफलता मिली पर मानसिंह प्रताप के भय से पेहले ही रणभूमी छोड गये थे, इसलिए सेनापति न होने के कारण हल्दीघाटी मे सिर्फ सैनिक ही एक दूसरे से युद्ध करते रहे । अखिर मे मुगलों को पीछे हटना पडा और प्रताप की हल्दीघाटी का युद्ध अनिर्णीत रहा।
मानसिंह और रक्तरंजित हल्दी घाटी
उस विशाल मुगल सेना का कड़ा मुकाबला राणा प्रताप ने अपने मुट्ठी भर सैनिको के साथ किया। हल्दी घाटी की पीली भूमि रक्तरंजित हो उठी। सन् 1576 ई. के 21 जून को गोगून्दा के पास हल्दी घाटी में प्रताप और मुग़ल सेना के बीच एक दिन के इस भयंकर संग्राम में 17 हज़ार सैनिक मारे गए। यहीं राणा प्रताप और मानसिंह का आमना-सामना होने पर दोनों के बीच विकट युद्ध हुआ (जैसा इस पृष्ठ में अंकित भारतीय पुरातत्व विभाग के शिलालेख से प्रकट है)- चेतक की पीठ पर सवार प्रताप ने अकबर के सेनापति मानसिंह के हाथी के मस्तक पर काले-नीले रंग के, अरबी नस्ल के अश्व चेतक के पाँव जमा दिए और अपने भाले से सीधा राजा मानसिंह पर एक प्रलयंकारी वार किया, पर तत्काल अपने हाथी के मज़बूत हौदे में चिपक कर नीचे बैठ जाने से इस युद्ध में उनकी जान बच गयी- हौदा प्रताप के दुर्घर्ष वार से बुरी तरह मुड़ गया। बाद में जब गंभीर घायल होने पर राणा प्रताप जब हल्दीघाटी की युद्धभूमि से दूर चले गए, तब राजा मानसिंह ने उनके महलों में पहुँच कर प्रताप के प्रसिद्ध हाथियों में से एक हाथी रामप्रसाद को दूसरी लूट के सामान के साथ आगरा-दरबार भेजा। परन्तु मानसिंह ने चित्तौडगढ के नगर को लूटने की आज्ञा नहीं दी थी, यह जान कर बादशाह अकबर इन पर काफी कुपित हुआ और कुछ वक़्त के लिए दरबार में इनके आने पर प्रतिबन्ध तक लगा दिया.[१०]
जेम्स टॉड के शब्दों में- "जिन दिनों में अकबर भयानक रूप से बीमार हो कर अपने मरने की आशंका कर रहा था, मानसिंह खुसरो को मुग़ल सिंहासन पर बिठाने के लिए षड्यंत्रों का जाल बिछा दिया था।..उसकी यह चेष्टा दरबार में सब को ज्ञात हो गयी और वह बंगाल का शासक बना कर भेज दिया गया। उसके चले जाने के बाद खुसरो को कैद करके कारागार में रखा गया। मानसिंह चतुर और दूरदर्शी था। वह छिपे तौर पर खुसरो का समर्थन करता रहा. मानसिंह के अधिकार में बीस हज़ार राजपूतों की सेना थी। इसलिए बादशाह प्रकट रूप में उसके साथ शत्रुता नहीं की. कुछ इतिहासकारों ने लिखा है- "अकबर ने दस करोड़ रुपये दे कर मानसिंह को अपने अनुकूल बना लिया था।"[११] जापान की तरह मेहनत (क्रोो) करोआज की बात करो और निरंतर प्रयास करें आगे बढ़ाने का अपने देश को teknology का विस्तार करो कचरा प्रबंधन करो आज जो कुछ हमारे सामने है उन पर विचार करो (जय भारत जय हिन्द)
हेमंत शेष ने अपनी पुस्तक 'चार शहरनामे'(शब्दार्थ प्रकाशन, जयपुर २०१९) में इनके बारे में निम्नांकित जानकारी दी है'-
किम्वदंती ही रही होगी कि राजा मानसिंह (1589-1614 ई.) दिखने में सुदर्शन न थे। उनका रंग संभवतः गहरा सांवला था। पहली बार अकबर ने उन्हें जब देखा तो शायद मज़ाक के मूड में पूछा- “जब रूप-रंग बंट रहा था तो आप थे कहाँ?’ हाजिरजवाब मानसिंह इस टिप्पणी से अविचलित, बोले- जहाँपनाह, तब ? तब मैं बुद्धिमानी और बहादुरी लेने चला गया था ! एक पंक्ति के इस सटीक जवाब ने ज़रूर अकबर जैसे को भी आमेर के इस राजपुरुष की ‘काउंटर विट’ का मुरीद बना दिया होगा। खैर... लुब्बे-लुबाब ये कि मुग़ल सेनापति के रूप में अनेक सफलताओं ने राजा मानसिंह को आजीवन प्रचुर यश और धन दिया। अगर मानसिंह प्रथम असफल रहे तो बस महज़ मेवाड़ के मोर्चे पर ही, अन्यथा इस विलक्षण योद्धा ने अकबर के साम्राज्य के विस्तार के लिए क्या नहीं जीता? अपने पितामह भारमल और पिता भगवान दास के साथ युवावस्था से अनेक युद्धों में भाग लेने का अनुभव इनके खाते में था ही। पूर्वोत्तर भारत में, जहाँ सुदूर बंगाल उड़ीसा और आसाम तक का इलाका मूलतः इसी सेनानायक के कारण, मुग़ल-सल्तनत में आ सका, वहीं पश्चिम में, पंजाब और अफगानिस्तान, उत्तर में कश्मीर, दक्षिण-पूर्व में उड़ीसा- सब जगह मानसिंह भेजे गए और मुख्य सेनापति के बतौर इन सब प्रान्तों के छोटे-बड़े विद्रोहियों को दबा कर मुग़ल परचम फहराने में सफल रहे। राजा मानसिंह के चरित्र का एक और पहलू, इनकी अपनी संस्कृति और धर्म के प्रति एकनिष्ठ प्रतिबद्धता है। हिन्दू-धर्म के कुछ अप्रतिम प्रतीक-चिन्हों और विग्रहों को सुरक्षित ला कर आमेर में स्थापित करने में मानसिंह प्रथम सदा उत्सुक रहे।
जयपुर वाले इस ‘झाड़साई’ लोकगीत से सुपरिचित हैं- “सांगानेर को सांगो बाबो, जैपर को हडमान, आमेर की सल्ला देबी ल्यायो राजा मान!” विद्याधर पर अपनी टिप्पणी में इस बात की जानकारी दे दी गयी है कि कैसे पूर्वी बंगाल के जैसोर से राजा मानसिंह कंस की शिला को आमेर लाये थे जिस से शिलादेवी (काली) का विग्रह उत्कीर्ण हुआ। आमेर के 'जगत शिरोमणि मंदिर' में स्वयं मीराँ द्वारा सेव्य कृष्ण-मूर्ति ही स्थापित है। इस राजा मानसिंह की धर्मपरायणता पर बात करते हुए याद कर लें कि तब शासक केवल अपने लिए किले और महल ही नहीं बनवाते थे, बल्कि जनसामान्य के लिए मंदिरों, तालाबों, बावड़ियों, धर्मशालाओं, पाठशालाओं आदि सार्वजनिक उपयोग की संपत्तियों के बनाने पर भी ध्यान देते थे।
राजसमन्द से सांसद और भूतपूर्व जयपुर राजघराने की सदस्य दिव्या कुमारी ने कहीं लिखा है- “राजा मानसिंह का युग हिंदुत्व और सनातन धर्म के लिए एक चुनौती था। मन्दिर तोड़े जा रहे थे; भारत में धर्मांतरण हो रहा था। हिंदू राजा कमजोर होते जा रहे थे, साथ ही अपने राज्य बचाने के लालच में अपना धर्म तक बदल रहे थे। राजा मानसिंह ने न केवल हिंदुओं को मुस्लिम धर्म अपनाने से रोका, बल्कि उन्होंने मुगल दरबार में अपनी शक्ति भी बढ़ा ली । इस वजह से मुगल शासकों ने हिंदुओं के खिलाफ कोई आदेश नहीं दिया। उन्होंने वाराणसी, वृंदावन, बंगाल, बिहार, काबुल, कंधार, आमेर, जयपुर सहित पूरे भारत में मंदिरों का निर्माण और जीर्णोद्धार किया। इनमें आमेर की शिलादेवी, सांगानेर के सांगा बाबा, चांदपोल में हनुमान मंदिर, हर की पौड़ी (हरिद्वार) में मां गंगा मंदिर शामिल हैं। मां गंगा मंदिर को मान छत्री के नाम से भी जाना जाता है। उन्होंने वाराणसी दशाश्वमेध घाट और विश्वनाथ भगवान शिव के महान मंदिर का पुनः निर्माण कराया, जहाँ के मान मंदिर और मान घाट द्वारा दुनिया भर में जाने गए हैं । जहाँगीर ने अपनी आत्मकथा में भी इस मंदिर का उल्लेख इस प्रकार किया है- “मेरे पिता (अकबर) ने मंदिर निर्माण के लिए मुगल खजाने से 10 लाख रुपये खर्च किए थे और एक लाख रुपये खुद राजा मानसिंह ने दिए थे।“ जगन्नाथ पुरी को उन्होंने अफगानों से मुक्त कराया गया और उसका पुनरुद्धार किया । उन्होंने आमेर किले की तर्ज पर दक्षिण बिहार में रोहतास का किला भी बनवाया। 1590 से 1592 तक ओडिशा में संघर्ष चला। मानसिंह, ने खुर्दा के राजा रामचंद्र के आत्मसमर्पण के बाद, उन्हें जगन्नाथ मंदिर के रखरखाव और अन्य व्यवस्थाओं के लिए अधीक्षक नियुक्त किया। “Jagannaath jee ne fir vidhu vidhaan so sthaapana kina. paachho samudra mai jaay khaando paakhalyo”! जब राजा मानसिंह रघुनाथ भट्ट के संपर्क में आए, तो उनके आदेश पर वृंदावन में गोविंद देवजी का एक बड़ा मंदिर बनाया गया। मंदिर का निर्माण 1535 में शुरू हुआ और 1590 ई. में पूरा हुआ। यह 16वीं सदी का सबसे बड़ा मंदिर था। जयपुर शहर की नींव के समय, सूर्य महल में आराध्य गोविंद देवजी की स्थापना की गई । “
हिंदी-समीक्षक माधव हाड़ा ने मीराँ के जीवन और समाज पर जो जानकारीपूर्ण किताब लिखी है- “पचरंग चोला पहर सखी री” उस में भी राजा मानसिंह का उल्लेख कई जगह आया है। उनके अनुसार –“आम्बेर का जगत् शिरोमणि मंदिर मानसिंह के पुत्र जगतसिंह की स्मृति में बनवाया गया। जगतसिंह की मृत्यु अकबर के चित्तौड़-अभियान में हुई। इस अभियान में भगवानदास और मानसिंह भी शामिल थे। कहते हैं कि मानसिंह इस अभियान के दौरान ही मीराँ सेवित प्रतिमा अपने साथ ले गया और उसने अपने पुत्र की स्मृति में बनाए गए मंदिर में इसकी प्रतिष्ठा की।” यह उल्लेख ‘आर्कियोलोजिकल सर्वे ऑफ इंडिया’ की प्रोग्रेस-रिपोर्ट के अलावा मीराँ के कई विद्वान अध्येताओं ने किया है।
1. प्राच्यविद् हरिनाराण पुरोहित के अनुसार “सबसे बड़ी दृढ़ प्रमाणों से यह बात प्राप्त हो गई है कि मीराँबाई की एक पूज्य मूर्ति चित्तौड़गढ़ से आंबेर आई और यह प्रसिद्ध मंदिर श्रीजगतशिरोमणि में महाराजा मानसिंह द्वारा स्थापित की गई।” ‘परंपरा’ पत्रिका -63-64 ( ‘राजस्थानी शोध संस्थान’, चौपासनी, जोधपुर 1982 ), पृ.87 2, जर्मन भारतविद् हरमन गोएट्जे ने भी इसकी पुष्टि अपनी पुस्तक ‘मीराँबाई: हर लाइफ़ एंड टाइम्स’ (भारतीय विद्या भवन, मुम्बई, 1966), पृ.37 में की है। 3. मीराँ के एक ओर अध्येता डॉ. हुकमसिंह भाटी भी ‘आर्कियोलोजिकल सर्वे ऑफ इंडिया’ की ‘प्रोग्रेस रिपोर्ट’ के हवाले से इसकी पुष्टि करते हैं- अलबत्ता वे यह न जाने कैसे नहीं मानते कि मानसिंह अकबर के ‘चित्तौड़ अभियान’ में शामिल था। वे लिखते हैं कि “संभवतः चित्तौड़-विजय के बाद (भगवानदास) कोई मूर्ति आमेर लाया होगा। “(‘मीराँबाई ऐतिहासिक-सामाजिक विवेचन’(रतन प्रकाशन, जोधपुर,1986, पृ.22)
मानसिंह की भेंट संत कुम्भनदास से
राजा मानसिंह के बारे में 'इम्पीरियल गज़ेटियर ऑफ इण्डिया' में लिखा गया था – “भगवान दास के दत्तक पुत्र, मानसिंह, शाही सेनापतियों में सबसे विशिष्ट थे। मानसिंह ने उड़ीसा, बंगाल और असम में युद्ध लड़े; और एक अवधि में बड़ी कठिनाइयों के बावजूद, उन्होंने काबुल के प्रशासक के रूप में अपना अधिकार बनाए रखा। उन्हें बंगाल, बिहार और दक्कन की सूबेदारी दे कर पुरस्कृत किया गया था। " पर एक सेनानायक की सारी सैन्यशक्ति, उसकी अब तक की उपलब्धियां, उसकी अथाह धन-दौलत और दिगदिगान्तर में फैले उसके प्रचंड राजनैतिक-वर्चस्व का प्रभामंडल एक निस्पृह, किन्तु सिद्ध-संत के बस एक ही वाक्य के सामने कितना तुच्छ, कितना महत्वहीन और कितना निस्सार पड़ गया, इस बात को साबित करने के लिए कुम्भनदास और मानसिंह की भेंट की वह प्राचीन कथा/ किम्वदंती या मिथक ही काफी है !
कहानी कहती है- संत कुम्भनदास ब्रजवास किया करते थे- संत कवि के रूप में जिनकी ख्याति सुन कर अकबर के सेनानायक भी भक्तिभाव से उनकी कुटिया में आ पहुंचे। तब स्नान कर कुम्भनदास भीतर आये ही थे और मस्तक पर तिलक लगाने के लिए आसपास कोई दर्पण खोजते थे। न मिलने पर मानसिंह ने अपने असबाब से हीरे-जवाहरात जड़ा एक अत्यधिक मूल्यवान दर्पण उन्हें भेंटस्वरूप दिया, जिसे विनम्रतापूर्वक संत ने अस्वीकार करते हुए पास पड़ी कठौती के जल में अपने चेहरे का प्रतिबिम्ब देखा और पुष्टिमार्गीय तिलक लगा लिया। बाद में संत के सुमधुर कृष्ण-पद सुन कर जब राजा ने स्वर्ण मुद्राओं से भरी एक भारी थैली उनकी नज़र की तब कुम्भनदास ने वह संपदा उन्हें लौटते हुए हाथ जोड़ कर उनसे कहा- “इसकी एवज क्या मैं राजा साहब से कुछ और मांग सकता हूँ?” मानसिंह बोले- ‘आप जो कहेंगे उसकी पालना होगी- संत शिरोमणि! आप कह कर तो देखिये!” कुम्भनदास ने बदले में सिर्फ एक वाक्य कहा- “ठीक है, अगर आप मेरी बात मानें तो भविष्य में कृपया फिर यहाँ कभी भी न आयें !” पाठक को ये याद दिलाना ज़रूरी कहाँ है- अष्टछाप कवियों में अग्रगण्य ये वही कुम्भनदास हैं, जिन्होंने कहा था- “संतन कहा सीकरी सों काम...जाको मुख देखे दुःख उपजत...” आदि।
अकबर द्वारा मानसिंह की पिटाई
आपस में संबंधी होने के बाद राजा मानसिंह और बादशाह अकबर के ताल्लुकात को देश, काल और परिस्थितियों ने और पक्की और अटूट दोस्ती में कब बदल दिया दोनों में से कोई नहीं जानता था। मार्च 1503 में घटी एक विचित्र घटना का उल्लेख मानसिंह और अकबर की गहरी मैत्री को दर्शाने के लिए पर्याप्त है। ‘अकबरनामा’ तीसरे खंड में पृष्ठ-31 पर अबुल फ़ज्ल ने इस वाकये का ज़िक्र सबसे पहले किया था। यदुनाथ सरकार ने भी अपने जयपुर-इतिहास में यही घटना दुहराई है। शीरीं मूंसवीं की किताब ‘अकबर के जीवन की कुछ घटनाएं’ में भी ये घटना अध्याय 19 में ‘राजपूतों के शौर्य की नक़ल’ शीर्षक से प्रकाशित है। सब जानते हैं, तब मुगलों और राजपूतों में अफीम खाने का प्रचलन था और मदिरापान भी पर्याप्त लोकप्रिय दुर्व्यसन था। लिखा गया है- “एक शाम अपने कुछ अन्तरंग मित्रों के साथ अकबर सुरापान कर रहा था। बातचीत के दौरान राजपूतों की बहादुरी के किस्से छिड़ गए। किसी ने कहा उन्हें अपनी जान की परवाह बिलकुल नहीं होती ! जैसे कि सुना है कि कुछ लोग दुधारी तलवार ले कर सामने खड़े होते हैं और उन्हीं की तरह के दो शूरवीर राजपूत दूसरी तरफ से दौड़ते हुए आते हैं और उन दुधारी तलवारों से टकराते हैं। तलवारें उन्हें चीरती हुई पीठ की ओर से बाहर निकल पड़ती हैं। ये बात सुन कर (नशे में धुत्त) अकबर ने अपनी खास तलवार की मूंठ को दीवार में खोंस दिया और कहा यदि राजपूत इसे अपने शरीर में घोंप सकते हैं तो वह भी ये शूरकर्म कर सकता है। इतना कह कर अकबर ने (तलवार छाती से पार करने की गरज से) अपनी छाती तलवार की नोंक पर टिका दी। दारू की दावत में जितने लोग थे यह दृश्य देख कर हक्के-बक्के रह गए। किसी से एक शब्द भी बोला न गया, सब की साँसें रुक गयीं। अकबर अपने मूर्खतापूर्ण बहादुरी के खौफ़नाक इरादे में सफल होता इस से पहले ही स्वामिभक्त मानसिंह ने बला की फुर्ती दिखाते अपने हाथ के ज़ोरदार वार से दीवार में खुंसी अकबर की तलवार को ज़मीन पर गिरा दिया। तलवार की धार से बादशाह के अंगूठे और तर्जनी के कट जाने से खून बहने लगा। उपस्थित लोगों ने तलवार एक तरफ कर दी, पर अकबर को इस बात पर इतना क्रोध आया कि वह मानसिंह पर टूट पड़ा। उसने उसे ज़मीन पर गिरा कर बुरी तरह पीटना शुरू कर दिया। तब सैय्यद मुज़फ्फर ने बिना सोचे मानसिंह को छुड़ाने के लिए अकबर की एक घायल उंगली को मरोड़ दिया और इस तरह गुस्से में आग-बबूला होते अकबर से मानसिंह को मुक्ति दिलाई। ”
निधन
मुस्लिम इतिहासकारों ने लिखा है "हिजरी १०२४ सन १६१५ ईस्वी में मानसिंह की बंगाल में मृत्यु हुई", परन्तु दूसरे इतिहासकारों के विवरण से पता चलता है कि मानसिंह उत्तर की तरफ खिलजी बादशाह से युद्ध करने गया था जहाँ वह सन १६१७ ईस्वी में मारा गया। मानसिंह के देहांत के बाद उसका बेटा भावसिंह गद्दी पर बैठा।"[१२]
सन्दर्भ
- ↑ 30. Ra´jah Ma´n Singh, son of Bhagwán Dás - Biography स्क्रिप्ट त्रुटि: "webarchive" ऐसा कोई मॉड्यूल नहीं है। Ain-i-Akbari, Vol. I.
- ↑ Raja Man Singh Biography India's who's who, www.mapsofindia.com.
- ↑ 30. Ra´jah Ma´n Singh, son of Bhagwán Dás - Biography स्क्रिप्ट त्रुटि: "webarchive" ऐसा कोई मॉड्यूल नहीं है। Ain-i-Akbari, Vol. I.
- ↑ Raja Man Singh Biography स्क्रिप्ट त्रुटि: "webarchive" ऐसा कोई मॉड्यूल नहीं है। India's who's who, www.mapsofindia.com.
- ↑ 1.राजस्थान का इतिहास : कर्नल जेम्स टॉड, साहित्यागार प्रकाशन, जयपुर
- ↑ 5.राजस्थान का इतिहास : कर्नल जेम्स टॉड, साहित्यागार प्रकाशन, जयपुर
- ↑ 6.राजस्थान का इतिहास : कर्नल जेम्स टॉड, साहित्यागार प्रकाशन, जयपुर
- ↑ 7.राजस्थान का इतिहास : कर्नल जेम्स टॉड, साहित्यागार प्रकाशन, जयपुर
- ↑ Rajasthan Through the Ages Vol III, By R.K. Gupta, S.R. Bakshi pg.4-6
- ↑ 3. राजस्थान का इतिहास : कर्नल जेम्स टॉड, साहित्यागार प्रकाशन, जयपुर
- ↑ 4.राजस्थान का इतिहास : कर्नल जेम्स टॉड, // /// Lalitcharan thoat ////// साहित्यागार प्रकाशन, जयपुर
- ↑ 8.राजस्थान का इतिहास : कर्नल जेम्स टॉड, साहित्यागार प्रकाशन, जयपुर