सरस्वतीकंठाभरण

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सरस्वतीकंठाभरण, (शाब्दिक अर्थ - 'सरस्वती के कण्ठ की माला') काव्यतत्व का विवेचन करनेवाला संस्कृत-साहित्य-शास्त्र का एक माननीय ग्रंथ है जिसकी रचना धारेश्वर महाराज भोजराज ने की।

परिचय

महाराज भोजराज का समय ईसवी सन् 1010-1055 तक इतिहासकारों द्वारा स्वीकृत किया गया है। अतएव सरस्वतीकंठाभरण का रचनाकाल ईसवी ग्यारहवीं शताब्दी का मध्य माना जा सकता है। इसके प्रणेता काव्यप्रकाश के रचयिता मम्मट (ई. सन् 1100 के लगभग) से किंचित् पूर्ववर्ती हैं। यद्यपि आनंदवर्धन द्वारा ध्वनिसिद्धांत की स्थापना हो चुकी थी तथापि उस समय तक काव्यात्मा के रूप में ध्वनि की मान्यता विवादग्रस्त सी ही थी ; अतएव साक्षात् रूप से ध्वनि को काव्य की परिभाषा में आत्मा के रूप में स्थान देने की दृढ़ता न भोजदेव ने ही अपनाई और न भट्ट मम्मट ने ही। दोनों आचार्यों ने काव्य में दोषाभाव तथा गुणवत्ता को प्रधानता दी है। भोजदेव की यह विशेषता है कि उन्होंने अलंकारों की उपादयेता कंठत: स्वीकार की है तथा काव्य के लिए रसान्वित होना आवश्यक समझा है। यों भोजदेव के सरस्वतीकंठाभरण ने अंशत: मम्मट को एवं विश्वनाथ को प्रभावित किया है।

संरचना एवं विषयवस्तु

सरस्वतीकंठाभरण एक दीर्घकाय ग्रंथ है जिसमें पाँच परिच्छेद हैं।

प्रथम परिच्छेद में रचयिता ने काव्यसामान्य की परिभाषा देने के पश्चात् सर्वप्रथम काव्य के दीर्घ एवं गुण का विवेचन किया है। इसी संदर्भ में भोजदेव ने पद, वाक्य एवं वाक्यार्थगत दोष बताए हैं। हर प्रकार के दोषों की संख्या सोलह है। भोजदेव के अनुसार गुण, शब्दगत और वाक्यार्थ गत होते हैं और प्रत्येक के चौबीस भेद हैं। प्रथम परिच्छेद के अन्त में कतिपय दोष कहीं कहीं गुण बन जाते हैं। इस काव्यतत्व को उदाहरण द्वारा समझाते हुए उन्होंने काव्यदोषों का नित्यानित्यत्व स्वीकृत किया है।

द्वितीय परिच्छेद में शब्दालंकार का निर्णय करते हुए उन्होंने सर्वप्रथम औचिती पर बल दिया तथा जाति, रीति, वृत्ति, छाया, मुद्रा, उक्ति, युक्ति, भणिति, गुंफना, शय्या एवं पठिति का सोदाहरण विवेचन किया है। इन बारह तत्वों में से रीति को छोड़ शेष तत्वों का विशद विवेचन संस्कृत के किसी अन्य उपलब्ध साहित्यग्रंथ में प्राप्त नहीं होता। बाणभट्ट ने काव्यसौष्ठव के विशेष तत्व, शय्या का उल्लेख किया है परन्तु उसकी परिभाषा केवल सरस्वतीकंठाभरण में ही उपलब्ध होती है। तत्पश्चात्, यमक, श्लेष, अनुप्रास, चित्र, प्रहेलिका, गूढ़ एवं प्रश्नोत्तर अलंकारों के भूरि भेदोपभेदों का सोदाहरण विवरण दिया गया है। इस अंश में भी सरस्वतीकंठाभरण की सर्वथा निजी विशेषता है। तदनंतर भोजदेव काव्यव्युत्पत्ति के कारणों का विवेचन कर काव्य के तीन भेदों को श्रव्य, दृश्य एवं चित्राभिनय के रूप में प्रस्तुत करते हैं। दृश्यकाव्य के अंतर्गत उन्होंने दशरूपकों का उल्लेख नहीं किया है वरन् नृत्त एवं नृत्य पर ही उनका विभाजन सीमित है।

तीसरे परिच्छेद में अर्थांलकारों के स्वरूप एवं प्रकार भेद का विवेचन है जो इतर साहित्याचार्यों की अपेक्षा भिन्न स्वरूप को लिए हुए है।

चौथे परिच्छेद में उभयालंकारों का विवेचन है जिसमें उपमा आदि अलंकारों के भेदोपभेदों को सविस्तार समझाया है।

अंतिम परिच्छेद है - रसविवेचन। इसमें नायकादि का तथा विभावों, भावों एवं अनुभावों का विस्तारपूर्वक स्वरूप निर्णय किया गया है; साथ ही साथ काव्यपाक, विविध रतिराग के स्वरूप का भी निर्देश है। अंत में भारती, कैशिकी आदि वृत्तियों के विवेचन के साथ ग्रंथोपसंहार होता है। सरस्वतीकण्ठाभरण में रससिद्धान्त की विवेचना प्रायः विषय पर एक विहंगम दृष्टिमात्र है। काव्यगत रस गंभीर विषय है जिसकी गरिमा के साथ पूर्णतः न्याय करने की दृष्टि से भोज ने एक शृंगारप्रकाश नामक स्वतंत्र ग्रंथ की रचना कर रसविवेचन के अध्याय की पूर्ति की है।

विशेषताएँ

सरस्वतीकंठाभरण की विशेषता यह है कि यह इतर साहित्यशास्त्रीय ग्रंथों की अपेक्षा व्यापक एवं व्युत्पादक ग्रंथ है। इसके रचयिता भोजदेव ग्रंथविस्तार के भय से भीत होनेवाले नहीं हैं, उदाहरण दे-देकर अनेक सूक्ष्म भेद एवं उपभेदों को समझाने का सदा वे उदार प्रयास करते हैं। यद्यपि उनके द्वारा उपस्थापित भेदोपभेदों की मान्यता परवर्ती ग्रंथकारों ने स्वीकृत नहीं की है तथापि उनके तात्विक विवेचन से सहसा असहमत होने की दृढ़ता भी कुत्रापि दृष्टिगोचर नहीं होती।

टीकाएँ

इस ग्रंथ पर आद्योपांत किसी टीका की रचना नहीं मिलती। पहले तीन परिच्छेदों पर रत्नेश्वर रामसिंहकृत दर्पण टीका तथा चौथे परिच्छेद पर प्रसिद्ध टीकाकार जगद्घर की विवरण नामक टीका उपलब्ध हैं, पंचम परिच्छेद का टीका नहीं है। यह ग्रंथ निर्णय सागर द्वारा प्रकाशित है। इसका अनुवाद अभी तक नहीं हुआ है। सरस्वतीकंठाभरण में उद्धृत उदाहरण श्लोकों की सूची और उनके रचयिताओं की खोज कर एक सूची कर्नल जेकब ने बनाई है, जो इंडिया ऑफिस लायब्रेरी, लंदन में सुरक्षित है।

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