सन्त कंवर राम

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सन्त कंवर राम (13 अप्रैल 1885 - १ नवम्बर 1939) सिन्ध के महान कर्मयोगी, त्यागी, तपस्वी तथा सूफी सन्त थे।


परिचय

संत कंवर रामजी का जन्म 13 अप्रैल सन् 1885 ईस्वी को बैसाखी के दिन सिंध प्रांत में सक्खर जिले के मीरपुर माथेलो तहसील के जरवार ग्राम में हुआ था। उनके पिता ताराचंद और माता तीर्थ बाई दोनों ही प्रभु भक्ति एवं हरि कीर्तन करके संतोष और सादगी से अपना जीवन व्यतीत करते थे। उदरपूर्ति के लिए ताराचंद एक छोटी सी दुकान चलाते थे। उनके जीवन में संतान का अभाव था। सिंध के परम संत खोतराम साहिब के यहां माता तीर्थ बाई हृदय भाव से सेवा करती थीं। संत के आशीर्वाद से उन्हें एक पुत्र रत्न की प्राप्ति हुई जिसका नाम 'कंवर' रखा गया। कंवर का अर्थ है 'कंवल' अर्थात कमल का फूल। नामकरण के समय संत खोताराम साहिब ने भविष्यवाणी की कि जिस प्रकार कमल का फूल तालाब के पानी और कीचड़ में खिलकर दमकता रहता है वैसे ही इस जगत में 'कंवर' भी निर्मल, विरक्त होगा और सारे विश्व को कर्तव्य पथ, कर्म, त्याग और बलिदान का मार्ग दिखाएगा।

बाल्यावस्था से ही संत कंवर रामजी की रूचि ईश्वर भक्ति और भजन कीर्तन में थी। उनके मधुर स्वर की गूंज गांव के आस-पास हर जगह फैली हुई थी। उनकी माता उन्हें चने उबाल कर बेचने के लिए देती थीं। वह अपने मधुर स्वर से गाते, आवाज़ लगाते हुए चने बेचा करते थे। जरवार ग्राम में सिंध के महान संत खोताराम साहिब के सुपुत्र संत सतराम दासजी का संध्या समय कीर्तन हो रहा था। उसी समय चने बेचने के लिए मधुर सुरीली और बुलंद आवाज़ में किशोर कंवर ने ध्वनि संत के कानो तक गई। चने को सिंधी भाषा में 'कोहर' कहा जाता है। कोहर का अर्थ ऐसा ही समझा जा सकता है कि कोई मेरे पापों को हर ले शांत करे।

संत सतराम दासजी ने कोहर बेचने वाले सुरीले किशोर कंवर को सेवादारियों के माध्यम से बुलवाया और आग्रह किया कि वे बुलंद और मधुर स्वर में पुन: गाएं। उनके सुरीले सुरों की मधुरता और अंर्तभाव ने संत हृदय को मोहित कर दिया। संत सतराम दासजी ने उनके सभी चने (कोहर) ले कर संगत में बंटवा दिए और कोहर की कीमत के पैसे भी कंवर ने न लेकर संपूर्ण कोहर उनके चरणों में रख दिए। संतजी के आशीर्वाद की अनेक धाराएं निकल पड़ीं। पहली मुलाकात में ही कंवर रामजी गुरू महाराज की आध्यात्म पूंजी के उत्तराधिकारी बन गए।

बाल्यकाल से शदाणी संत तनसुख राम साहिब के शिष्य सूरदास 'भाई हासारामजी' (हयात पिथाफी) के कड़े अनुशासन में रहने के कारण कंवरराम संयमी और नम्र तो थे ही, यौवनावस्था में वे फल लगे वृक्ष की तरह झुक गए। उनका जन्म भी संतों के आशीर्वाद का परिणाम था। बाल्य और किशोर जीवन दोनों ही संतों के संग में व्यतीत हुआ। संतों के व्यक्तित्व के प्रभाव के कारण वे सदैव ईश्वरीय चिंतन में खोए रहते थे। भाई ताराचंद को अपने पुत्र का गुमसुम रहना नहीं भाया। वे उसे लेकर रहड़की दरबार में उपस्थित हुए। वहां संत सतराम दास साहिब भी कोहर बेचने वाले इस अद्भुत बालक की मानों व्याकुलता से प्रतीक्षा कर रहे थे। औपचारिक निवेदन के उपरांत भाई ताराचंद ने इस बालक के जन्म का आशीर्वाद संत खोताराम साहिब द्वारा दिए जाने की जानकारी भी दी। दिव्यता का आकर्षण एक तरफ नहीं होता अपितु दोनो ओर से होता है। जहां कंवर राम को संत सतराम दास साहिब की सेवा में जाने की व्याकुलता थी, वहीं संत सतराम दास साहिब को भी सुयोग्य शिष्य पाने की अभिलाषा व्यग्र किए हुए थी।

गुरू की अधर-सुधा से अभिसिंचित वाणी जब गंभीरता से प्रस्फुटित हुई, कंवर राम साहिब का हृदय कमल खिल उठा। वे रहड़की के लोक प्रसिद्ध दरबार में स्वीकार कर लिए गए। उनके पिता भाई ताराचंद तो अत्यंत हर्ष से कण्ठ के अवरूद्ध हो जाने के कारण केवल नमन मात्र ही कर सके। एक भी शब्द उनके मुख से नहीं निकल पाया। हर्ष था पुत्र के स्वीकारे जाने का तो मलाल था पुत्र रत्न से बिछुड़ने का। दोनों भावों से भरे, वे सच्चे संत से विदा लेकर अपने घर लौट आए।

मृदुभाषी संत कंवर राम में कभी अभिमान, कटुता, छल-कपट या लोभ जन्म न ले सका। संगीतज्ञ हासारामजी से उन्होंने गायन शिक्षा प्राप्त की। अपने गुरू संत सतराम दास साहिब की सेवा में रहकर वे बड़े ज्ञानी ध्यानी बन गए। उनके सदगुणों के कारण उन्होंने कंवर रामजी को गायन, नृत्य और संगीत विद्या में प्रवीण कर दिया। वे अपने गुरू के साथ जगह-जगह परंपरागत 'भगति' कार्यक्रम प्रस्तुत करते रहे। गुरू सतराम दासजी के परम् धाम सिधारने के पश्चात उनका सारा भार संत कंवर रामजी के कंधों पर आ पड़ा। सिर पर पगड़ी, तन पर जामा पहनकर और पैरों में घुंघरू बांधकर संत कंवर राम गांव-गांव जाकर 'भगति' के माध्यम से ईशवंदना, प्रभु भक्ति, आध्यात्मिक, नैतिक और मानवीय आदर्शों और साम्प्रदायिक सदभाव का प्रचार करते थे। संतजी बोलचाल में अत्यंत सादे और सरल थे, वे सफेद खादी की धोती, कुर्ता, कंधे पर गमछा, सिर पर गोल टोपी या पगड़ी, पैरों में जैसलमेरी जूती धारण करते थे। कीर्तन के समय उनके पहनावे की झलक संत तुकाराम, नामदेव में देखी जा सकती है और गायन के समय प्रभु भक्ति में लीन होकर नृत्य करते रहना श्रद्धालुओं को चैतन्य महाप्रभु का सजीव दर्शन कराता था।

संत कंवर रामजी की दिव्य कंचन काया में अनोखी आकर्षण शक्ति थी। हृदय में मधुरता का झरना था। मुख से मधुर और नम्र बोल निकलते थे। उनकी आवाज़ में अत्यधिक मिठास थी, उनके कलाम, भजन में ऐसी तासीर थी कि संत कंवरराम साहिब की भगति की जानकारी मिलते ही हज़ारों की तादाद में आस-पास के गांवों के हिंदू-मुसलमान एकत्र हो जाया करते थे। वे अक्सर अमृत वेला में गाते थे और दिन के दो पहर तक उनका भजन उसी तन्मयता के साथ चलता रहता था। दूर-दूर से आए हुए लोग उनके मधुर गायन का आनंद लेते थे, उनके गायन में ज्यादा हिस्सा सूफी कलामों का होता था। वे कलाम केवल लोगों के लिए नहीं बल्कि सिंधी सूफी संस्कृति के पैगाम को जन-जन में पहुंचाने के लिए प्रचारक बनकर गाते थे। उनमें स्वयं को जानने पहचानने का ज्ञान, निष्कपट प्रेम और नैतिकता समाई हुई थी।

एक बार सिंध के सक्खर जिले में महात्मा गांधीजी पधारे। वे वहां पहली बार आए थे। अत: वहां की जनता उनके दर्शन एवं भाषण सुनने के लिए लाखों की संख्या में आतुर होकर बैठी थी। पैर रखने के लिए तिलभर भी स्थान नहीं था। बहुत कोलाहल हो रहा था। सभी मंच पर उपस्थित नेता अनेक प्रयत्न करके हार गए पर कोलाहल शांत नहीं हुआ। मंच पर आसीन नेताओं ने संत कंवर रामजी की ओर देखा और महात्मा गांधीजी से आज्ञा लेकर निवेदन किया कि आप इस कोलाहल को शांत कीजिए तो बापूजी का भाषण आरम्भ किया जा सके। संत कंवर राम साहिब ने जैसे ही माइक पर आकर लोक प्रसिद्ध कण्ठ से आलाप लगाया कि सारा वातावरण शांत हो गया। तब गांधीजी ने भी इस लाडले भक्त की भूरि-भूरि सराहना की।

इस महापुरूष के प्रयासो से भारत के संतों और सूफियों की अमरवाणी सिंध के शहर-शहर, गांव-गांव और घर-घर गूंजी। वे कबीर, मीरा, सूरदास, गुरू नानक, शेख फरीद, बुल्लेशाह, अब्दुल लतीफ, सामी, सचल सरमस्त के अतिरिक्त भारत के अनेक महान कवियों और दरवेशों के दोहों और भजनों और राजा विक्रमादित्य, राजा हरीशचंद्र, भक्त ध्रुव और भक्त प्रहलाद आदि की गाथाओं को अपनी मधुर और खनकती हुई आवाज़ में गाते थे। ऐसा प्रतीत होता था मानों भक्ति संगीत का कोई विशाल समागम हो रहा हो। उन्होंने धर्म, नस्ल और जाति के भेद-भाव को अपने निकट नहीं आने दिया। उनकी बुलंद आवाज़ अंधेरे और खामोशी को चीरती हुइ मीलों तक सुनाई देती थी। उनके श्रद्धालु भांप जाते थे कि निकट ही किसी गांव में संत कंवर राम की भगति का आयोजन है।

उन्होंने भगति के कार्यक्रम के माध्यम से सत्य, अहिंसा, साम्प्रदायिक सौहार्द, विश्वबंधुत्व, ईशवंदना, मानवीय प्रेम, समता और नैतिक आचरण का संदेश आम और खास तक पहुंचाया। संत कंवर राम त्याग और तपस्या की प्रतिमूर्ति, जीवन के मर्म को जानने वाले ऋषि, दया के सागर, दीन दुखियों, यतीमों और विकलांगों के मसीहा थे। जहां उनके मुख मण्डल पर किसी ऋषि सा तेज झलकता था वहीं उनके नेत्रों से नूर बरसता था। मानव सेवा ही उनका मुख्य ध्येय था। अपंगो, नेत्र हीनों, रोगियों एवं कुष्ठ-रोगियों की सेवा अपने हाथों से करके वे स्वयं को धन्य मानते थे। सेवा के क्षेत्र में संत कंवर राम साहिब का नाम सर्वोच्च स्थान पर आता है। उनके परोपकारी एवं आध्यात्मिक जीवन ने मानव के संस्कारो में कल्याण, सर्व धर्म समभाव, परोपकार एवं मानव आदर्शों को नई दिशा प्रदान की है।

चालीस वर्ष की अद्भुत गुरू भक्ति में संतजी के जीवन में अनेक घटनाएं घटीं। शिकरपुर के शाही बाग में प्रभात के समय एक महिला ने अपने मृत नवजात शिशु को संत की झोली में लोरी के लिए दिया। बच्चा मृत है, उसकी मां के अतिरिक्त सभी लोग अनजान थे, संत कंवर रामजी ने हृदय भाव से प्रभु आराधना करके लोरी गाई। संतजी की गोद में बच्चा रोने लगा। यह चमत्कार देखकर महिला संत के चरणों में गिर कर फूट-फूटकर रो पड़ी। उसने बालक के मृत होने की बात सारी संगत को सुनाई। वहां उपस्थित संगत स्तब्ध हो गई। ऐसे मधुर भाषी और महान संत थे संत कंवर राम साहिब। इसी प्रकार कई अन्य उदाहरण भी मिलते हैं। वे सदैव सामाजिक समरसता, एकता और भाईचारे का प्रचार करते रहे। साम्प्रदायिक सदभाव के विरोधी एक बड़े हठधर्मी पीर ने हिंदुओं से बदला लेने के लिए अपने अनुयाइयों को उकसाया। उन दिनों संत कंवर रामजी हिंदुओं में एक प्रसिद्ध और गौरवशाली व्यक्ति थे। उन्हें ही इस प्रतिशोध का केंद्र बनाया गया।

१ नवम्बर 1939 का दिन मानवता के इतिहास में अति कलंकित और दुखदाई रहा। मांझादन के दरबार में भाई गोविंद रामजी के वर्सी महोत्सव में भजन के पश्चात दादू नगर में किसी बालक के नामकरण अवसर पर पहुंचे। भजन के पश्चात भोजन करने के समय उनके हाथ से कौर छूट गया। संत मन ही मन प्रभु की माया को समझते हुए उनकी कृपा का स्मरण करते रहे और उन्होंने समक्ष रखी भोजन की थाली एक ओर कर दी। अपनी भजन मण्डली के साथ्‍ा संत कंवर रामजी गाड़ी बदलने की दृष्टि से रात्रि 10 बजे 'रूक' जंक्शन स्टेशन पर पहुंचे। दो बंदूकधारियों ने आकर उन्हें प्रणाम किया और अपने कार्य सिद्धि के लिए संतजी से दुआ मांगी। त्रिकालदर्शी संत कंवर राम साहिब ने उन्हें प्रसाद में अंगूर देते हुए, उनसे कहा कि अपने पीर मुर्शिद को याद करो। उनमें विश्वास रखो, कार्य अवश्य पूरा होगा। संतजी रेल के डिब्बे में प्लेट फार्म की दूसरी ओर वाली सीट पर खिड़की से सट कर बैठ गए और अपनी मण्डली के एक साथी से अखबार जोर-जोर से पढ़कर सुनाने को कहा। उन्होंने अपने अंगरक्षकों की बंदूकें ऊपर की सीट पर रखवा दीं। अंधेरी रात में, गाड़ी के चलते ही बंदूक-धारियों ने संतजी को निशाना बनाकर गोलियां दाग दीं। सिंध की पावन धरती एक महात्मा के पवित्र खून से रंग दी गई। सर्वधर्म सदभाव का ध्वज फहराने वाले, मानवता के मसीहा ने 'हरे राम' कहते हुए प्राण त्याग दिए। पूरे सिंध में हाहाकर मच गया। उनके शहीद होने की खबर पूरे सिंध, हिंद के कोने-कोने में आग की तरह फैल गई। यह खबर सुनते ही स्कूल, कॉलेज, ऑफिस, बाज़ार सभी बंद हो गए। चारों तरफ मातम छा गया। समस्त नर-नारी, बच्चे, हिंदू-मुसलमान बिलख-बिलख कर अपने आत्मीय के लिए रो रहे थे। दीपावली का पर्व आया तो सिंध में दिए नहीं जलाए गए।

अमर शहीद संत कंवर राम साहिबजी की स्मृति में 1940 से सिंध के बड़े-बड़े नगरों, करांची, हैदराबाद, लाड़काणा, शिकारपुर, सक्खर, पन्नो आकिल, रहिड़की आदि अनेक स्थानों पर श्रद्धा और विश्वास के साथ संतजी की पुण्य तिथि के कार्यक्रम आयोजित किए जाते हैं। देश और विदेश के अनेक स्थानों पर संत कंवर राम साहिब की जयंती और पुण्य तिथि मनाई जा रही है। भारत के कोने-कोने में संत कंवर राम साहिबजी की स्मृति में सिंधु जनों के सामाजिक संगठन, जनता जनार्दन की सेवार्थ मानव कल्याण केंद्र, पौशालाएं, धर्मशालाएं, शिक्षण संस्थाएं, अस्पताल, विधवाश्रम आदि सुचारू रूप से चला रहे हैं।

आग लगी आकाश में झर-झर गिरे अंगार।
संत न होते जगत में तो जल मरता संसार।।

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