श्रीमाता
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श्री माता (जन्म नाम मिरा अल्फ़ासा) (1878-1973) श्री अरविन्द की शिष्या और सहचरी थी।
श्री माँ फ्रांसीसी मूल की भारतीय आध्यात्मिक गुरु थी। हिंदू धर्म लेने से पहले तक उनका नाम था मीरा अलफासा। उन्हें श्री अरविन्द माता कहकर पुकारा करते थे इसलिये उनके दुसरे अनुयायी भी उन्हें श्रीमाँ कहने लगे। मार्च 29 1914 में श्रीमाँ पण्डीचेरी स्थित आश्रम पर श्री अरविन्द से मिली थीँ और उन्हे भारतीय गुरुकूल का माहौल अछा लगा था। प्रथम विश्वयुद्ध के समय उन्हे पण्डिचेरी छोड़कर जापान जाना पड़ा था। वहाँ उनसे विश्वकवि रविन्द्रनाथ टैगोर से मिले और उन्हे हिन्दू धर्म की सहजता का एहसास हुआ। 24 नवम्बर 1926 में मीरा आलफासा पण्डिचेरी लौट कर श्रीअरविन्द की शिष्या बनीं। श्रीमाँ के जीवन की आखरी 30वर्ष का अनुभव एक पुस्तक में लिखा गया है इसका मूल अंग्रेजी नाम है 'दी अजेण्डा '। अरविन्द उन्हे दिव्य जननी का अवतार कहा करते थे। उन्हे ऐसे करने का जब कारण पूछा गया तो उन्होनें इस पर 'दी मदर ' नाम से एक प्रबन्ध लिखा था।
प्रारम्भिक जीवन
श्रीमाँ/मिर्रा अलफासा का बचपन पैरिस में कटा था।
1878 में पैरिस में मूल तर्किस् इहुदी पिता मरिस Maurice तथा इजिप्शियन माता माथिलडे के गोद में उनका जन्म हुआ था। माटेओ (Matteo) उनका एक बड़ा भाई भी था। मिरा अलफासा के जन्म से पूर्व उनके पितामाता अपना देश छोड़ कर फ़्रान्स चले आये थे। बचपन के आठ साल उन्होंने 62 Boulevard Haussmann नामक जगह पर बिताया था।
अपने बाल्यकाल का अनुभव के बारे में मिरा आलफासा नें एक किताब में बताया है।
5 वर्ष के आयु में वो खुद को दूसरी दुनिया से आयी समझती थी और 13 वर्ष तक आते आते वो तन्त्र-मन्त्र आदि अद्भुत विद्याओं का अभ्यास करने लगी थी।
14 वर्ष के उम्र में उनका दाखिला एक कला केन्द्र में हुआ ओर एक वर्ष वाद उन्होने एक रहस्यमय पुस्तक लिखा था The Path of Later On (Alfasa ୧୮୯୩). उसी वर्ष वो अपनी माता की साथ इटली गई। 16 वर्ष की उम्र में मिरा अलफासा नें École des Beaux-Arts नामका नाटक कंपनी में काम किया। वहाँ उन्हे सभी "the Sphinx") बुलाया करते थे। 1987 में मिरा आलफासा प्रसिद्ध इटालियन कुक् Gustave Moreau के छात्र हेनेरी मोरिसेट से विवाह बन्धन में बंध गयी। विवाह पश्चात मिरा और हेनरी 15 Rue Lemersiar में रहने लगे। इस बीच पैरिस कलाकेन्द्र में उन्होने अपना योगदान दिया। युँ देखाजाय तो मिरा अलफासा वेनसेट नें 20वर्ष के अपने अपने प्रारम्भिक जीवन में उछ्छतम शीखर पर पहचँगयी थीँ। कुछ दिन के अतंराल में उनको स्वामी विवेकानंद का लिखा एक पुस्तक मिला। यहाँ से उनके मनमें भारतीय संस्कृति सभ्यता और धर्म को जानने की उत्सुुकता बढ़ी। 2 वर्ष बाद उन्होने एक भारतीय और एक फ्राँसीसी को गीता पढ़ने के लिये प्रेरित किया। तब मिरा नें गीता का फ्रेंच अनुवाद ही पढ़ा था वो उतना उत्कृष्ट न था पर वो इसका मर्म और उद्देश्य समझगयी थीँ। 1898 में वे आंड्रे नामक पूत्र का माता बनीँ।
मिर्रा कहती है कि 1904 में एक कृष्णवर्ण एसिआई व्यक्ति का चहरा दिखा उन्होने उन्हे कृष्ण कहा। 1905 में मिरा Max Théon नामक एक साधक से मिलीँ और दुसरीबार मिलने के लिये अपने पति मोरिसेट के साथ Tlemcen, Algeria स्थित उनके वासभवन में गई थीँ। वहाँ उन्होने थिअन और उनकी पत्नी से आध्यात्मिक साधना आदि के वारे में शिक्षा प्राप्त हुआ। 1908 में मिरा नें मोरिसेट को तलाक दे दिया और 49 Ru de ,पैरिस चलीगयी और नियमित साधनारत हो गयी।
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