श्रीनगर, गढ़वाल की सभ्यता

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गढ़वाल के 17 पंवार राजाओं का आवास होने के नाते श्रीनगर एक महत्वपूर्ण सांस्कृतिक तथा प्रशासनिक केंद्र रहा है। यही वह जगह है जहां निपुण चित्रकार मौलाराम के अधीन चित्रकारी स्कूल विकसित हुआ। यहां के पुराने राजमहलों में गढ़वाली पुरातत्व के सर्वोत्तम उदाहरण मौजूद हैं तथा यहां राजाओं ने कला को प्रोत्साहित एवं विकसित किया। आज उसी वैधता को यह शहर आगे बढ़ाता है और ज्ञान का प्रमुख स्थल बना है, जहां गढ़वाल विश्वविद्यालय स्थित है।

राजा ने दो भिन्न धार्मिक परंपराओं का पालन किया जिनमें पहला सात्विक (देवी पूजा) तथा दूसरा नाथ उपासना (गोपेश्वरनाथ की परंपरा) था। दूसरा पंथ भक्ति परंपरा के रूप में हिमालय के क्षेत्रों में द्रुत गति से फैला। कहा जाता है कि अजय पाल स्वयं ही प्रसिद्ध गोरखपंथी सत्यनाथ का शिष्य था। उसके एकमात्र प्रतिद्वंदी कुमाऊं राजाओं के गुरू थे और प्राय: ही इन दोनों राज्यों के बीच शक्ति संघर्ष हुआ करता था। हिमाचली राजाओं तथा मुगल साम्राज्य के साथ लगातार तनाव, वैमनस्य एवं षडयंत्र राजदरबार के जीवन का एक भाग था।

फिर भी पंवार दरबार ही वह स्थान था जहां कला विकसित हुआ। अपने समय में सर्वाधिक सुसंस्कृत शहर के रूप में श्रीनगर शहर भक्तों, तीर्थयात्रियों, कलाकारों एवं लेखकों के लिए अनावरोधित आकर्षण का श्रोत था। भरत एवं मेधाकर जैसे कवियों ने अपनी पुस्तक रामायण प्रदीप की रचना की। श्रीनगर के एक अग्रणी लेखक एवं इतिहासकार धर्मानंद उन्नियाल पथिक के अनुसार वर्ष 1664-1718 के बीच राजा फतेह शाह का शासन श्रीनगर का स्वर्ण युग था। भूषण, जटाधर मिश्र एवं रतन जैसे कवियों एवं बुद्धजीवियों ने सदस्य के रूप में फतेह शाह के दरबार की शोभा बढ़ाई जिन्होंने अपने लेखों में श्रीनगर का वर्णन किया। एक अन्य लेखक मतिराम ने छछंदसार पिंगल में फतेह शाह की प्रशंसा की तथा मौला राम के पिता तथा दरबार के चित्रकार मंगत राम का जिक्र किया। मौला राम (वर्ष 1743-1833), वास्तव में श्रीनगर का सर्वाधिक विख्यात कलाकार एवं कवि था पर पंडित दिवाकर मैथानी, राजगुरू, पंडित हरिदत्त नौटियाल, पंडित ऊर्विदत्त डंगवाल, पंडित गोविन्द राम घिलदियाल, लीलानंद कोटनाला, अंबा शायर तथा अलतनाथ सूरी जैसे प्रमुख व्यक्तियों का भी समान योगदान है।

श्रीनगर में सभी प्रकार की कलाओं को समर्थन मिला। पत्थर नक्काशी के निपुण सृजक कारीगरों, शास्त्रीय हिन्दुस्तानी गायकों एवं नर्तकों तथा अंबा जैसे शायरों को भी समर्थन मिला। श्रीनगर के होली समारोह में ये कलाकार प्रसिद्ध हैं।

अंग्रेजों के शासनकाल में श्रीनगर ने कई अंग्रेजों को भारतीय जीवन शैली अपनाते देखा। नवोब कहे जाने वाले ऐसे लोगों ने जीवन के आनंद को प्राप्त किया लेकिन नये अंग्रेज सैनिकों द्वारा इन्हें पतनोन्मुख मानकर हेय दृष्टि से देखा जाता था।

संगीत एवं नृत्य श्रीनगर एवं इसके आस-पास के इलाकों का लोक संगीत एवं लोक नृत्य इसकी परंपरागत संपन्नता का प्रतीक है जो लोगों के धार्मिक विश्वास, उनकी जीवन शैली तथा प्रकृति के सान्निध्य से अभिन्न रूप से जुड़ा हुआ है।

गीतों के विचार, विभिन्न कृषि-कार्यकलापों तथा भूमि के प्रति महान प्रेम से जुड़े हैं। कई प्राकृतिक आपदा बाढ़ एवं सूखे से प्रभावित हैं तो कईयों में किंवदन्तियों तथा बहादुरी की कथाएं होती हैं।

गांवों में महिलाएं खेतों में काम करते हुए या जंगलों में चारा जमा करते हुए इन लोक गीतों को गाती हैं। सामूहिक गीतों में झोड़ा एवं थाड्या शामिल रहते हैं जबकि खुदेद गीतों की विशेषता एक युवती दुल्हन का अपने परिवार से बिछुड़ने की उदासी होती है। एक खास सुंदर गीत में एक नयी दुल्हन का अपनी माता से विछोह को दर्शाया गया है। वह पर्वतों से अपना आकार छोटा करने तथा जंगलों से रास्ता देने का आग्रह करती है ताकि वह अपनी मां के गांव को देख सके। शादियों तथा जनेऊ जैसे सामाजिक-धार्मिक अवसरों पर गाये जाने वाला गीत मंडल है, जबकि पंवारा गीत राजाओं एवं योद्धाओं की प्रशंसा में गाया जाता है।

इन गीतों एवं नृत्यों के साथ परंपरागत लोक संगीत के वाद्य यंत्रों जैसे ढोल तथा दामों, दौड एवं थाली, तुर्री, रनसिंधा, ढोलकी, मसकमाजा, मानकोरा आदि होते हैं। औजी, बधी तथा बाजगी जैसै परंपरागत वादकों की इस सभी संगीत एव नृत्य प्रदर्शनों में महत्वपूर्ण भूमिका होती है, जिसे इस क्षेत्र के पसंदीदे वाद्य यंत्रों ढोल एवं दामौ को औजी एक साथ बजाते हैं। अब हारमोनियम एवं तबले का भी इस्तेमाल होता है।

कुछ नृत्य लोकगीतों के साथ होते हैं और वही इनका नाम भी होता है। गढ़वाल हिमालय महाभारत के पांडवों की संबद्धता से ओत-प्रोत लोक नृत्य प्रमुखतः धार्मिक होते हैं। धार्मिक गीत जगर को जागरी (गायक) ही नृत्य को संचालित करता है तथा पशवा (स्थानीय देवी/देवताओं के अधीन) नृत्य वार्ता (कथा गीतों) के अनुसार होता है जो खास देवी-देवताओं के बीच होता है। महाभारत पर आधारित कहानियों पर पांडव नृत्य भी होता है। उदाहरण के लिये चक्रव्यूह एवं गैंदी का बहुधा मंचन होता है तथा गढ़वाल में इसमें विविधताएं हैं।

थाड्या, चौफुल्ला, होली, सरों, चेपली आदि सामूहिक या सामुदायिक नृत्य होते हैं। थाड्या नृत्य सामान्य रूप से मेले या त्योहारों पर होता है, जिसमें नर्तकों या नर्तकियों के दो समूह इस प्रकार जुड़े रहते हैं कि एक हाथ आगे दूसरे की कमर पर रहता है और ये अर्द्ध चंद्राकार रूप में होकर नाच करते हैं। चौफ्फुल्ला का अर्थ है सभी तरफ फूलों का खिलना जिसे अच्छी तरह प्रस्तुत किया जाता है। होली में नर्तक अन्य गांव जाकर प्रत्येक घर के सामने नृत्य करते हैं। सैरों विवाह के दौरान होता है जिसमे नर्तक अपने उत्तम परिधानों में बारात के अतिथियों के सामने नाचते हैं, जब बारात दुल्हन के घर आती है।

श्रीनगर में शास्त्रीय हिन्दुस्तानी संगीत की भी परंपरा है तथा राजदरबार के समय के होली गायन राग-रागिनी पर आधारित है जो अपनी उत्कृष्टता के लिये प्रसिद्ध है।

अपने समय में श्रीनगर ने नयी चलन की स्थापना भी की कि जब भी कोई नया गीत रचित हुआ, पहले यह श्रीनगर में गाया गया तथा बाद में इर्द-गिर्द के गांवों में गाया गया।

बोलचाल की भाषाएं

गढ़वाली, हिंदी, अंग्रेजी।

वास्तुकला

ई.टी. एटकिंसन (दी हिमालयन गजेटियर, वोल्युम भाग II वर्ष 1982) के अनुसार श्रीनगर का निर्माण प्रमुख पथ पर हुआ है जो प्रमुख बाजार भी है। वह कहता है “घर छोटे पत्थरों से बने हैं और सामान्यतः दो-मंजिले होते हैं तथा छतें ढालुवां होती है जो स्लेटों से ढंके रहते हैं। नीचे की मंजिल भंडारों या दूकानों के लिये होता है और परिवार उपरी मंजिल पर रहता है। घरों में लकड़ी का इस्तेमाल काफी होता है जहां दीवालों का एक भाग तथा गुंबजी बरामदा तिहारी तथा दंडयाली लकड़ी से निर्मित होते हैं। संपन्न वर्ग के घरों में मात्र एक संकीर्ण बाल्कनी की विशेषता होती है।”

सच तो यह है कि एटकिंसन, राजा अजय पाल के राजमहल की वास्तुकला से प्रभावित दिखता है जिसके बारे में वह कहता है, “राजा अजय पाल का राजमहल कभी वास्तुकला का प्रभावी प्रदर्शन एवं विस्तार रहा होगा क्योंकि इसके अवशेष अब भी कुछ एकड़ जमीन पर हैं। यह काले पत्थरों के बड़े टुकड़ों से मसालों से निर्मित है जिसके तीन उत्तम मुहाने हैं और ये सब चार मंजिले हैं जिसमें आगे तक पोर्टिको विस्तृत है जिस के नीचे के भाग में मूर्त्तियों की सजावट है। यह शैली किसी विशेष स्कूल का नहीं लगता। कहा जाता है कि इसके निर्माण में जो भी लकड़ी का काम हुआ हो उसका कोई प्रमाण उसमें नहीं मिलता जो अब बचे हैं तथा जालीदार खिड़किया भी पत्थर की हैं जबकि एकमात्र बचा द्वार पत्थरों से खुदा है जो वास्तव में लकड़ी जैसा ही लगता है। ये दरबाजा बहुत बड़ा एवं भारी होता है तथा इसे यथास्थान डालने में काफी श्रम लगा होगा।”

वह यह भी बताता है कि राजमहल से नदी तक एक भूमिगत रास्ता भी है जो महिलाओं के लिये नदी में स्नान करने के लिए बनाया गया होगा। “इस कार्य को अंजाम देने के लिए जरूरी आभियांत्रिकी कठिनाइयां महत्वपूर्ण रही होगीं क्योंकि एक चट्टानी रिज (टीला) अब भी मौजूद है पर इसके निर्मित होने में कोई संदेह नहीं है क्योंकि चैनल का अवशेष अब भी यहां है।” आज, फिर भी कमलेश्वर मंदिर या केशोराय मठ जैसे सिर्फ पुराने मंदिरों में इसके ऐश्वर्य की कुछ झलक देखी जा सकती है। एक छत के पत्थरों से निर्मित भवन की पुरानी शैली देखी जा सकती है। दुख की बात यह है कि अधिकांश भवन आधुनिक वास्तुकला के अनुसार ही बने हैं जो करीब-करीब उत्तर-भारत जैसे ही हैं जो कंक्रीट एवं सीमेंट से बने हैं।

वाल्टन के अनुसार वर्ष 1901 की जनगणना के अनुसार यहां की जनसंख्या 2,091 है जिसमें ब्राह्मण, राजपूत, जैन, अग्रवाल, बनिया, सुनार तथा कुछ मुसलमान भी शामिल हैं। वह बताता है कि व्यापारी मुख्यतः नजीबाबाद से कार्य करते हैं जहां से वे कपड़े, गुड़ तथा अन्य व्यापारिक वस्तुएं प्राप्त करते हैं।

एटकिंस बताता है कि श्रीनगर के वासी अधिक पुराने एवं जिले के अधिक महत्वपुर्ण परिवारों के हैं जिनमें कई सरकारी कर्मचारी हैं, इर्द-गिर्द के मंदिरों के पूजारी हैं तथा बनिये हैं जो नजीबाबाद से आकर यहां बस गये। जब अजय पाल ने श्रीनगर में अपना राजदरबार बनाया तो वह सरोलाओं एवं गंगरिसों जैसे उच्च कुल के ब्रांह्मणों को भी ले आया। राजदरबार में ठाकुरों, भंडारियों, नेगियों एवं कठैतों की श्रेणी के राजपूत भी शामिल थे। वास्तव में जातियों का नामकरण दो तरीकों से हुआ, लोगों की पेशानुसार (नेगी सैनिक हुआ करते तथा भंडारी- भंडार नियंत्रक) या फिर अपने गांव के नाम से।

आज, फिर भी श्रीनगर एक विकसित होता शहर तथा शिक्षण केंद्र है जहां के अधिकांश लोग शैक्षणिक संस्थाओं, सरकारी सेवाओं, तथा चार धामों की यात्रा प्रक्रिया में नियोजित होते है। श्रीनगर के इर्द-गिर्द रहने वालों की जीविका कृषि ही है।