शुद्धि आंदोलन

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स्वामी दयानन्द सरस्वती ने धर्म-परिवर्तन कर चुके लोगों को पुनः हिंदू धर्म मे प्रवेश करने की प्रेरणा देकर शुद्धि आन्दोलन चलाया था। इस आन्दोलन के तहत लाखों मुसलमानों तथा ईसाइयों की शुद्धि कराकर सत्य सनातन वैदिक धर्म में वापसी कराई थी। 11 फरवरी 1923 को स्वामी श्रद्धानन्द ने 'भारतीय शुद्धि सभा' की स्थापना की और शुद्धि का कार्य आरम्भ किया था। शुद्धि का उद्देश्य धार्मिक था, न कि राजनैतिक। हिन्दू समाज में समानता उनका लक्ष्य था। अछूतोद्धार, शिक्षा एवं नारी जाति में जागरण कर स्वामी श्रद्धानन्द एक महान समाज की स्थापना करना चाहते थे।

'शुद्धि', 'शुद्धीकरण' नामक प्राचीन हिन्दू रीति का नवीन संस्करण था।[१] सबसे पहली शुद्धि स्वामी दयानन्द ने[२] अपने देहरादून प्रवास के समय एक मुस्लमान युवक की की थी जिसका नाम 'अलखधारी' रखा गया था। स्वामी के निधन के पश्चात पंजाब में विशेष रूप से मेघ, ओड और रहतिये जैसे निम्न और पिछड़ी समझी जाने वाली जातियों का शुद्धिकरण किया गया। इसका मुख्य उद्देश्य उनकी पतित, तुच्छ और निकृष्ट अवस्था में सामाजिक एवं धार्मिक सुधार करना था। [३][४][५]

आर्यसमाज द्वारा चलाये गए शुद्धि आन्दोलन का व्यापक स्तर पर विरोध हुआ। विरोध करने वालों में हिन्दू और अहिन्दू दोनों थे। आगरा और मथुरा के समीप मलकाने राजपूतों का निवास था जिनके पूर्वजो ने एक-आध शताब्दी पहले ही इस्लाम कबूल कराया गया था। मलकानों के रीति-रिवाज़ अधिकतर हिन्दू थे और वे चौहान, राठोड़ आदि गोत्र के नाम से जाने जाते थे। 1922 में क्षत्रिय सभा मलकानों को राजपूत बनाने का आवाहन कर सो गई और उल्टे मुसलमानों में इससे पर्याप्त चेतना हुई एवं उनके प्रचारक गाँव-गाँव घूमने लगे। यह निष्क्रियता स्वामी श्रद्धानन्द की आँखों से छिपी नहीं रही। उन्होने 11 फरवरी 1923 को 'भारतीय शुद्धि सभा' की स्थापना की और शुद्धि आन्दोलन आरम्भ कर दिया। स्वामी ने कहा कि जिस धार्मिक अधिकार से मुसलमानों को तब्लीग़ और तंज़ीम का हक है, उसी अधिकार से मुझे अपने बिछुड़े भाइयों को वापिस अपने घरों में लौटाने का हक है। 1923 के अन्त तक आर्यसमाज द्वारा 30 हजार मलकानों की शुद्धि कर दी गयी।

शुद्धि सभा गठित करने एवं हिन्दुओं को संगठित करने का स्वामी का ध्यान 1912 में उनके कलकत्ता प्रवास के समय आकर्षित हुआ था जब कर्नल यू. मुखर्जी ने 1911 की जनगणना के आधार पर यह सिद्ध किया की अगले 420 वर्षों में हिन्दुओं की अगर इसी प्रकार से जनसँख्या कम होती गई तो उनका अस्तित्व मिट जायेगा। इस समस्या से निपटने के लिए हिन्दुओं का संगठित होना आवश्यक था और संगठित होने के लिए स्वामी का मानना था कि हिन्दू समाज को अपनी दुर्बलताओं को दूर करना चाहिए। सामाजिक विषमता, जातिवाद, दलितों से घृणा, नारी उत्पीड़न आदि से जब तक हिन्दू समाज मुक्ति नहीं पा लेगा तब तक हिन्दू समाज संगठित नहीं हो सकता।

शुद्धि आन्दोलन के विरुद्ध मुसलमानों में प्रचंड प्रतिकिया हुई। जमायत-उल-उलेमा ने बम्बई में 18 मार्च, 1923 को बैठक कर स्वामी श्रद्धानन्द एवं शुद्धि आंदोलन की आलोचना कर निन्दा प्रस्ताव पारित किया। स्वामी की जान को खतरा बताया गया मगर उन्होंने यह कहकर अपने निर्भीक संन्यासी होने का प्रमाण दिया कि "परमपिता ही मेरा रक्षक हैं, मुझे किसी अन्य रखवाले की जरुरत नहीं हैं"। कांग्रेस के चक्रवर्ती राजगोपालाचारी, मोतीलाल नेहरू आदि ने धर्मपरिवर्तन को व्यक्ति का मौलिक अधिकार मानते हुए तथा शुद्धि के औचित्य को स्वीकार करते हुए भी तत्कालीन राष्ट्रीय आंदोलन के सन्दर्भ में उसे 'असामयिक' बताया।

इसी बीच हिन्दू और मुसलमानों के मध्य खाई बराबर बढ़ती गई। 1920 के दशक में भारत में भयंकर हिन्दू-मुस्लिम दंगे हुए। केरल के मोपला, पंजाब के मुल्तान, कोहाट, अमृतसर, सहारनपुर आदि दंगों ने खाई को और बढ़ा दिया। इस समस्या पर विचार करने के लिए 1923 में दिल्ली में कांग्रेस ने एक बैठक का आयोजन किया जिसकी अध्यक्षता स्वामी को करनी पड़ी। मुसलमान नेताओं ने इस वैमनस्य का कारण स्वामी द्वारा चलाये गए शुद्धि और हिन्दू संगठन को बताया। स्वामी ने सांप्रदायिक समस्या का गंभीर और तथ्यात्मक विश्लेषण करते हुए 'मुसलमानों की संकीर्ण सांप्रदायिक सोच' को दंगों का कारण बताया। इसके पश्चात भी स्वामी ने कहा कि अगर मुस्लिम उलेमा अपने तब्लीग के मौलवियों को हटा दें तो मैं आगरा से शुद्धि प्रचारकों को हटाने को तैयार हूँ। परन्तु मुस्लिम उलेमा न माने।

इसी बीच स्वामी श्रद्धानन्द को ख्वाजा हसन निज़ामी द्वारा लिखी पुस्तक 'दाइए-इस्लाम' पढ़कर बड़ी हैरानी हुई। श्रद्धानन्द के एक शिष्य ने अफ्रीका से इसकी प्रति श्रद्धानन्द को भेजी थी। इस पुस्तक को चोरी छिपे-केवल मुसलमानों में उपलब्ध करवाया गया था। इसमें मुसलमानों को हर अच्छे-बुरे तरीके से हिन्दुओं को मुसलमान बनाने की बात कही गयी थी। हिन्दुओं के घर-मुहल्लों में जाकर औरतों को चूड़ी बेचने से, वैश्याओं को ग्राहकों में, नाई द्वारा बाल काटते हुए इस्लाम का प्रचार करने एवं मुस्लमान बनाने के लिए कहा गया था। विशेष रूप से 6 करोड़ दलितों को मुसलमान बनाने के लिए कहा गया था जिससे मुसलमान जनसँख्या में हिन्दुओं की बराबर हो जाये और उससे राजनैतिक अधिकारों की अधिक माँग करी जा सके।साँचा:clarifyसाँचा:cn

श्रद्धानन्द ने निज़ामी की पुस्तक का पहले अनुवाद प्रकाशित किया जिसका नाम "हिन्दुओं सावधान, तुम्हारे धर्म-दुर्ग पर रात्रि में छिपकर धावा बोला गया हैं" रखा। इसके बाद इस पुस्तक का "अलार्म बेल अर्थात खतरे का घंटा" नाम से 'उत्तर' प्रकाशित किया। इस पुस्तक में स्वामी ने हिन्दुओं को छुआ छूत का दमन करने और समान अधिकार देने को कहा जिससे मुस्लमान लोग दलितों को लालच भरी निगाहों से न देख सकें। इस बीच कांग्रेस के काकीनाडा के अध्यक्षीय भाषण में मुहम्मद अली ने 6 करोड़ अछूतों को आधा आधा हिन्दू और मुसलमान के बीच बाँटने की बात कहकर आग में घी डालने का कार्य किया।

महात्मा गांधी यंग इंडिया के 29 मई, 1925 के अंक में 'हिन्दू मुस्लिम-तनाव : कारण और निवारण' शीर्षक से एक लेख में स्वामी पर लिखा:

स्वामी श्रद्धानन्द जी भी अब अविश्वास के पात्र बन गये हैं। मैं जानता हूँ की उनके भाषण प्रायः भड़काने वाले होते हैं। जिस प्रकार अधिकांश मुसलमान सोचते हैं कि किसी-न-किसी दिन हर गैरमुस्लिम इस्लाम को स्वीकार कर लेगा, दुर्भाग्यवश श्रद्धानन्द भी यह मानते हैं कि प्रत्येक मुसलमान को आर्य धर्म में दीक्षित किया जा सकता है। श्रद्धानन्द जी निडर और बहादुर हैं। उन्होंने अकेले ही पवित्र गंगातट पर एक शानदार ब्रहचर्य आश्रम (गुरुकुल) खड़ा कर दिया हैं। किन्तु वे जल्दबाज हैं और शीघ्र ही उत्तेजित हो जाते हैं। उन्हें आर्यसमाज से ही यह विरासत में मिली हैं।"

स्वामी दयानन्द पर गांधी और लिखते हैं कि "उन्होंने संसार के एक सर्वाधिक उदार और सहिष्णु धर्म को संकीर्ण बना दिया। " गांधी के लेख पर स्वामी ने प्रतिक्रिया लिखी कि "यदि आर्यसमाजी अपने प्रति सच्चे हैं तो महात्मा गांधी या किसी अन्य व्यक्ति के आरोप और आक्रमण भी आर्यसमाज की प्रवृतियों में बाधक नहीं बन सकते।" श्रद्धानन्द अपने लक्ष्य की ओर बढ़ते रहे।

सन १९२६ में अब्दुल रशीद नाम के एक मुसलमान व्यक्ति बीमार स्वामी श्रद्धानन्द को गोली मार दी, उनका तत्काल देहान्त हो गया। उनके निधन के बाद भी शुद्धि आन्दोलन जारी रहा।[६]

चर्च और पुर्त्गाली सरकार के तीव्र विरोध के बावजूद २३ फरवरी १९२८ को गोवा के बहुत से कैथोलिक गौड पुनः हिन्दू धर्म में दीक्षित किए गए। इसका आयोजन मुम्बई की 'मसूर आश्रम' नामक हिन्दू धार्मिक संस्था ने किया था।

शुद्धीकरण की प्राचीन परम्परा

सनातन धर्म में शुद्धीकरण की प्रथा प्राचीन काल से चली आ रही है।[७] देवल स्मृति में हिन्दू से मुसलमान या ईसाई बने व्यक्ति या समूह को पुनः कैसे स्वधर्म में लाया जाए, इसकी व्यवस्था दी गयी है।[८]

मराठों ने 17वीं सदी में शुद्धिकरण की व्यवस्था ही खड़ी की थी। दबाव के कारण बने मुसलमान को शुद्ध कर स्वयं छत्रपति शिवाजी ने पुनः हिन्दू बनाने का कार्य किया था। हिन्दवी स्वराज्य में भ्रष्ट किए व्यक्तियों को शुद्ध करने की चार व्यवस्थाएं दी गई हैं। यह कार्य करवाने के लिए ‘पंडितराव’ उपाधि धारक अधिकारी भी नियुक्त किया गया था। शुद्ध हुए व्यक्ति को शुद्धिकरण का आधिकारिक प्रमाण-पत्र दिया जाता था और उस का पंजीकरण भी स्थानीय कोतवाली में होता था। 1665-70 ई. में पुर्तगाल-शासित प्रदेशों को जीतने के बाद शिवाजी ने पुर्तगाली शासन को बलपूर्वक ईसाइयत में धर्मांतरित हिन्दुओं की शुद्धि के भी आदेश दिए थे। शिवाजी की नीति बाद के वंशजों ने भी जारी रखी। उन्होंने कई चर्चों को देवी मंदिर के रूप में परिवर्तन भी किया। 19वीं सदी में शंकराचार्य नित्यानन्द सरस्वती ने वसई में असंख्य लोगों के पुनः हिन्दू धर्म में प्रवेश का स्वागत किया था। जब वसई के ब्राह्मणों ने उनका अनुष्ठान करने से इंकार किया तो शंकराचार्य ने आज्ञापत्र निकाल कर उन्हें इसे स्वीकार करने को कहा। आधुनिक युग में संगठित रूप से शुद्धि आंदोलन के बड़े प्रणेता स्वामी दयानन्द सरस्वती (1824-1883) हुए।[९]

इन्हें भी देखें

सन्दर्भ

  1. Hindu-Muslim Relations in British India: A Study of Controversy, Conflict, and Communal Movements in Northern India 1923-1928, by G. R. Thursby. Published by BRILL, 1975. ISBN 90-04-04380-2. Lame'Page 136.
  2. Dayanand and the Shuddhi Movement Indian Political Tradition, by D.K Mohanty. Published by Anmol Publications PVT. LTD. ISBN 81-261-2033-9. Page 116.
  3. Dayanand and the Shuddhi Movement Indian Political Tradition, by D.K Mohanty. Published by Anmol Publications PVT. LTD. ISBN 81-261-2033-9. Page 116.
  4. untouchable assertion The Politics of the Urban Poor in Early Twentieth-century India, by Nandini Gooptu. Published by Cambridge University Press, 2001. ISBN 0-521-44366-0. Page 157.
  5. The Khilafat Movement: Religious Symbolism and Political Mobilization in India, by Gail Minault, Akhtar. Published by Columbia University Press, 1982. ISBN 0-231-05072-0. Page 193.
  6. Hindu Nationalism and the Language of Politics in Late Colonial India, by William Gould. Published by Cambridge University Press, 2004. ISBN 0-521-83061-3. Page 133.
  7. स्क्रिप्ट त्रुटि: "citation/CS1" ऐसा कोई मॉड्यूल नहीं है।
  8. देवल स्मृति : धर्मान्तरण से पुनःशुद्धि के नियम
  9. अपनों को अपनाने का अभियान

बाहरी कड़ियाँ