शिवदान सिंह चौहान

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शिवदान सिंह चौहान (1918-2000) हिन्दी साहित्य के प्रथम मार्क्सवादी आलोचक के रूप में ख्यात हैं। लेखक होने के साथ-साथ वे सक्रिय राजनीतिक कार्यकर्ता भी थे।

शिवदान सिंह चौहान
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जीवन-परिचय

शिवदान सिंह चौहान का जन्म उत्तर प्रदेश के आगरा जिले के 'बमानी' गाँव में 15 मार्च 1918 को हुआ था।[१] बचपन में उन्हें पिता तथा घर के बड़े लोग 'सौदान' नाम से पुकारते थे। उनके पिता का नाम ठाकुर जालिम सिंह चौहान था, जो कि पुलिस अफसर थे। नाम के विपरीत प्रायः वे सज्जन स्वभाव के व्यक्ति थे; हालाँकि अपराधियों के प्रति कठोरता अपनाने में भी कमी नहीं रखते थे। बचपन से ही उनके इस दोहरे स्वभाव को शिवदान सिंह चौहान भय एवं आश्चर्य से देखते रहे और इसका उनके व्यक्तित्व निर्माण पर काफी असर पड़ा।[२]

उच्च शिक्षा के लिए उन्हें इलाहाबाद भेजा गया जहाँ वे मार्क्सवाद से अत्यधिक प्रभावित होकर इलाहाबाद के अग्रणी वामपंथी राजनीतिक कार्यकर्ता बन गये। जनवरी 1936 में ही वे भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी के सदस्य भी बन गए थे। उनके पिता की इच्छा उन्हें बैरिस्टर या आई.सी.एस अफसर बनाने की थी, लेकिन शिवदान सिंह के अतिवादी उत्साह एवं सोच का आलम यह था कि 1937 में दीक्षान्त समारोह के अवसर पर ही बी०ए० की डिग्री फाड़ कर फेंक दी।[३]

लेखकीय जीवन

शिवदान सिंह चौहान का लेखकीय जीवन 1938 ईस्वी से आरंभ होता है। प्रगतिशील आंदोलन का उनपर प्रारंभ से ही गहरा असर था। 1938 ईस्वी में उनकी पहली पुस्तक 'रक्तरंजित स्पेन' का प्रकाशन हुआ। तब से 1960 ईस्वी तक वे पूरी तत्परता एवं गंभीरता से साहित्यालोचन में लगे रहे। इसके बाद वे साहित्य से प्रायः कटते गये। यद्यपि उनकी पुस्तकें 1978 तक प्रकाशित हुईं, परंतु वे साहित्य से सीधे संपर्क की पुस्तकें नहीं थी। आलोचना जैसी सुप्रसिद्ध साहित्यिक पत्रिका के आरंभिक संपादक भी शिवदान सिंह चौहान ही थे।

विवेचन-शैली एवं मूल्यांकन की समस्याएँ

शिवदान सिंह चौहान के रचनात्मक तथा वैचारिक स्तर का विकास धीरे-धीरे हुआ। आरंभ में वे अतिउत्साही मार्क्सवादी के रूप में सामने आये और प्रायः सम्पूर्ण हिन्दी साहित्य को प्रतिक्रियावादी करारकर खारिज कर दिया।[४] इस आरंभिक उत्साह की कई बातें बाद में उन्हें स्वयं काफी गलत लगने लगी, जिसका उन्होंने परिष्कार करने का प्रयत्न भी किया;[५] लेकिन कई मान्यताएँ आजीवन रह गयीं।[६] चौहान जी का मुख्य उद्देश्य प्रगतिवादी दृष्टिकोण से संपूर्ण साहित्य को जांचने-परखने का था; परंतु इसके लिए अपेक्षित धैर्य तथा संतुलित दृष्टि का उनमें नितांत अभाव रहा। हालांकि इसी की अपेक्षा वे हमेशा दूसरे आलोचकों-साहित्यकारों से करते रहे और इसके लिए उन्हें बुरा भला भी कहते रहे। यहाँ तक कि रामविलास शर्मा की आलोचना-दृष्टि तथा कार्य को उन्होंने बिल्कुल नगण्य माना तथा विवेचन के एक वाक्य के बिना ही उनके 'तुलसीदास', 'भारतेंदु-साहित्य' तथा 'आदि काव्य' को अपने समय के अनुसार प्रगतिशील मानने के विचार पर करारा व्यंग्य किया।[७] उनके अनुसार तो शर्मा जी भी वैसे ही आलोचकों में थे जो सामर्थ्य के अभाव में येन-केन-प्रकारेण हर हथकंडे को अपनाकर अपना उद्धार करना चाहते हैं।[७] बहुत-कुछ सार्थक रचने के बावजूद ऐसे अतिवादी विचारों तथा विवेचन रहित टिप्पणियों के कारण ही चौहान जी अपने मध्य जीवनकाल में ही उपेक्षित एवं अप्रासंगिक से हो गये थे और उनकी प्रायः सारी पुस्तकें भी अनुपलब्ध हो गयी थीं और उनके जीवन-पर्यन्त किसी प्रकाशन से नये संस्करण नहीं निकले।

हिन्दी साहित्य का इतिहास

चौहान जी की मुख्य मान्यताओं में से एक यह थी कि हिन्दी साहित्य का इतिहास वस्तुतः खड़ी बोली हिन्दी का ही इतिहास होना चाहिए। प्रचलित रूप में जिसे हिन्दी साहित्य का आधुनिक काल कहते हैं वही चौहान जी के लिए सम्पूर्ण हिन्दी साहित्य का इतिहास था।[८] आधुनिक काल से पहले सहज स्वाभाविक रूप से हिन्दी जनपद में ब्रजभाषा एवं अवधी आदि बोलियों में रचना होने तथा आधुनिक काल में खड़ी बोली को मानक भाषा के रूप में स्थापित करने के लिए स्पष्टतया प्रबल प्रयत्न के सारे प्रमाण सहज ही उपलब्ध रहने के बावजूद चौहान जी ने अपने ही ढंग से तर्क देते हुए प्रायः अन्य समस्त विद्वानों द्वारा आधुनिक काल से पहले ब्रजभाषा आदि को हिंदी साहित्य मानने तथा आधुनिक काल में खड़ीबोली के साहित्य को हिंदी साहित्य मानकर ब्रजभाषा आदि को छोड़ देने को अतार्किक मानते हुए 1954 में प्रकाशित अपनी पुस्तक 'हिन्दी साहित्य के अस्सी वर्ष' में स्पष्ट रूप से हिंदी साहित्य के पूरे इतिहास को 80 वर्षों का ही माना।[९] उनके अनुसार हिंदी साहित्य का आरंभ 1873 ई० में हुआ।[८]

आलोचन-मूल्यांकन के रूप

शिवदान सिंह चौहान की आलोचना मुख्यतः टिप्पणी परक है। वे किसी विधा की रचना के विवेचन-विश्लेषण में न पड़कर सीधे अपनी धारणा को आरोपित करते जाते हैं। किसी घटना के संदर्भ में वह धारणा कैसे उचित है या अनुचित इसका कोई संकेत उस विवेचन से नहीं मिल पाता है। छायावादी कविता को कहीं वे युग की चेतना के अनुकूल कहते हैं और उसकी भारी प्रशंसा करते हैं[१०] और कहीं कहते हैं कि छायावादी कविता "जीवन से भाग निकलने वाली कविता, स्पष्ट दृष्टिकोण से रहित, मुख्यतः भावनाप्रधान थी, उसके कवियों की अंतर्वृत्तियाँ अवचेतन एवं असंगठित, वैयक्तिक एवं असामाजिक थी। और इस अबुद्धिवादी कविता..."[११][१२]

सबसे बड़ी और आश्चर्यजनक बात यह है कि ये अबुद्धिवाद आदि दुर्गुण उन्हें पंत जी की छायावादी कविताओं में नहीं दिखते हैं। उनका कहना है कि "पंत जी के संबंध में यह बात उल्लेखनीय है कि वे प्रारंभ से ही प्रगति के समर्थक रहे हैं, जीवन-संघर्ष से भागने की प्रवृत्ति उन पर अधिकार न कर सकी।"[११][१२]

किसी एक कविता के भी मर्म-उद्घाटन करने जैसा एक वाक्य भी उन्होंने नहीं लिखा है; बस टिप्पणियाँ करते गये हैं। 'राम की शक्तिपूजा' के संदर्भ में (उसकी रचना के करीब 18 साल बाद) वे दो वाक्य इस प्रकार लिखते हैं- "इतने छोटे आकार-प्रकार का महाकाव्य निराला जी की प्रतिभा ही रच सकती थी। 'राम की शक्ति-पूजा' बीज रूप में एक महाकाव्य ही है, क्योंकि इतने संक्षेप में, और रामकथा के एक प्रसंग को लेकर ही उन्होंने मानव हृदय की विभिन्न स्थितियों और भावनाओं का संपूर्ण चित्रण-सा कर दिया है।"[१३] 'तुलसीदास' पर टिप्पणी और भी दृष्टव्य है- " 'अनामिका' के बाद 'तुलसीदास' में प्रबन्ध-काव्य रचने की इस असाधारण सामर्थ्य का और भी विकास हुआ है।"[१३]

गद्य विधाओं में भी 'स्कन्दगुप्त विक्रमादित्य' नाटक पर टिप्पणी करते हुए वे लिखते हैं- " 'स्कन्द गुप्त विक्रमादित्य' में गुप्त वंश के सम्राट चन्द्रगुप्त द्वितीय के प्रपौत्र के उस शौर्य का चित्रण है जिसकी स्मृति से प्रत्येक भारतवासी का मस्तक आज भी गर्व से ऊँचा उठ जाता है। हूणों से युद्ध करते हुए स्कन्दगुप्त खेत रहे और उनके साथ ही गुप्त वंश का साम्राज्य भी नष्ट हो गया। प्रसाद जी के अनुसार स्कन्दगुप्त ही वह विक्रमादित्य थे जिनके राज कवि कालिदास थे। स्कन्दगुप्त का चरित्र-चित्रण आदर्श हुआ है। विजया और देवसेना का चरित्र भी अत्यन्त सुन्दर बन पड़ा है। प्रसाद के नाटकों में 'स्कन्दगुप्त' संभवत: सबसे श्रेष्ठ है। "[१४]

उनकी आलोचना दृष्टि एवं शैली का प्रतिनिधि उदाहरण 'प्रेमचन्द और गोर्की : तुलनात्मक अध्ययन की समस्या' शीर्षक आलेख को माना जा सकता है। रामविलास शर्मा ने तत्कालीन परिस्थितियों की सापेक्षता में गोर्की को अपने युग से (रूस की तत्कालीन स्थिति के मुकाबले) पिछड़ा तथा प्रेमचन्द को (भारत की तत्कालीन स्थिति के मुकाबले) युग के साथ कहा था।[१५] ध्यातव्य है कि यह बात भूमिका में कही गयी थी। गोर्की या तोलस्तोय के समग्र साहित्यिक महत्त्व को प्रेमचन्द से छोटा नहीं कहा गया था। परंतु चौहान जी ने इस बात पर काफी हंगामा मचाया है। गोर्की या प्रेमचंद की किसी रचना की व्यवहारिक तौर पर चर्चा के बिना ही उन्होंने हंसराज रहबर के हवाले से प्रेमचन्द के सारे साहित्य को काफी छोटा सिद्ध कर दिया है।[१६] उन्हें गोर्की से तुलना के लायक तक नहीं माना है।[१७] बल्कि रवीन्द्रनाथ और शरत्चन्द्र की तुलना में भी उन्हें काफी महत्त्वहीन माना गया है।[१८] इसी धुन में उन्होंने शेक्सपियर, दांते, गेटे और बाल्जाक सबको प्रेमचन्द से हर तरह से बाँसों ऊँचा कलाकार माना है।[१८] हिन्दी साहित्य के प्रति उनमें कितनी समझ और कैसी हीन भावना घर जमाये बैठी थी इसका प्रमाण इस रूप में मिलता है कि वे निराला की तुलना टी एस एलियट या एज़रा पाउंड से करना उतना ही अनर्गल मानते हैं जितना कि सुभद्रा कुमारी चौहान की तुलना मायकोवस्की से।[१८]

शुक्ल जी के साथ ही हजारीप्रसाद द्विवेदी की समझ पर भी उन्होंने बेहिचक प्रश्न चिन्ह लगाया है।[१९] वही हजारी प्रसाद द्विवेदी रवीन्द्रनाथ के सान्निध्य में रहकर तथा उन पर पुस्तक लिखकर भी प्रेमचन्द को अपने जीवन काल में ही उत्तरी भारत में सर्वश्रेष्ठ कथाकार बन चुके होने की बात कह रहे थे[२०] और चौहान जी की 'विशिष्ट' समझ प्रेमचन्द तथा निराला को भी किसी श्रेष्ठ लेखक से तुलना के लायक तक नहीं मान रही थी।

जिस रामचन्द्र शुक्ल में उन्हें कमियों का भंडार दिखता है[२१] उनके 'हिन्दी साहित्य का इतिहास' को (हिन्दी का बिल्कुल आरंभिक इतिहास होते हुए भी) आज भी देखने पर और चौहान जी के इतिहास से तुलना करने पर दोनों की विवेचन शैली में आकाश-पाताल का अंतर एक सामान्य पाठक की नजर से भी छिपता नहीं है।

अज्ञेय के संदर्भ में उनकी टिप्पणी है- "अज्ञेय और उनकी विचारधारा के आलोचक हिंदी में फूहड़ अथवा कुत्सित मनोवैज्ञानिकता (vulgar psychology) का प्रतिपादन कर रहे हैं।"[२२] यह बात वे अज्ञेय के किसी निबन्ध या उनकी कविता के विश्लेषण के क्रम में नहीं कहते हैं, बल्कि सीधे टिप्पणी करते हैं।

ऐसी टिप्पणियों से उनके लंबे-लंबे आलेख तैयार होते गये और पुस्तकें निकलती गयीं। ऐसी टिप्पणियों के बल पर उन्होंने रामचन्द्र शुक्ल को उखाड़ने और रामविलास शर्मा को पछाड़ने की कोशिश की और परिणाम यह हुआ कि साहित्य के पाठक समुदाय तथा विद्वद्वर्ग दोनों के बीच ऐसे अप्रासंगिक से हो गये कि उनके निधन के बाद कई लोगों के मन में वह अति उपेक्षा भी सहानुभूति जगाने लगी।[२३]

महत्त्व

उक्त सारी बातों के बावजूद शिवदान सिंह चौहान का अवदान महत्त्वपूर्ण है। शुक्ल जी के संदर्भ में उन्होंने स्वयं कहा था कि "प्रासंगिकता से अधिक शुक्ल जी का ऐतिहासिक महत्त्व है।"[२१] चौहान जी की यह बात शुक्ल जी के बजाय स्वयं चौहान जी पर ही पूरी तरह से खरी उतरती है। उन्होंने उस युग में प्रगतिवादी दृष्टिकोण से संबंधित अनेक निबंधों की रचना की जब उससे सम्बद्ध बहुत सी सामग्री भी उपलब्ध नहीं थी। "इन्हीं निबन्धों से हिन्दी में मार्क्सवादी आलोचना की शुरुआत हुई-- बिना किसी मार्क्सवादी चिंतन की विरासत के और बाहर से प्राप्त उपयुक्त सहायक सामग्री के। मार्क्स के 'कम्युनिस्ट घोषणापत्र' के अलावा उनके अन्य ग्रन्थ भी सुलभ न थे, फिर उनके साहित्य-विषयक फुटकल विचारों की तो बात ही क्या। ले-देकर बड़ी मुश्किल से क्रिस्टोफर काडवेल की 'इल्यूजन एण्ड रियलिटी' की प्रति किसी किसी ने उपलब्ध कर ली थी। चौहान जी की कुल जमा पूँजी यही रही होगी।"[२४] इसके बावजूद उन्होंने साहित्य-चिंतन को मार्क्सवादी संदर्भों में खासतौर से विकसित किया।[२५] यह उनका ऐतिहासिक महत्त्व है।

प्रकाशित पुस्तकें

  1. रक्तरंजित स्पेन -1938 (लक्ष्मी आर्ट प्रेस, दारागंज, प्रयाग से प्रकाशित)
  2. प्रगतिवाद -1946 (प्रदीप कार्यालय, मुरादाबाद से)
  3. साहित्य की परख -1948 (इंडिया पब्लिशर्स, इलाहाबाद से)
  4. कश्मीर देश व संस्कृति -1949 (राजकमल प्रकाशन, नयी दिल्ली एवं बंबई से)
  5. हिंदी गद्य साहित्य -1952 (राजकमल प्रकाशन, दिल्ली व बंबई से)
  6. हिन्दी साहित्य के अस्सी वर्ष -1954 (राजकमल प्रकाशन, दिल्ली व बंबई से)
  7. साहित्यानुशीलन -1955 (आत्माराम एंड संज़, दिल्ली से; अब स्वराज प्रकाशन, नयी दिल्ली से पुनर्प्रकाशित)
  8. आलोचना के मान -1958 (रंजीत प्रिंटर्स एंड पब्लिशर्स, दिल्ली से; अब स्वराज प्रकाशन, नयी दिल्ली से पुनर्प्रकाशित)
  9. साहित्य की समस्याएँ -1959 (आत्माराम एंड संज़, दिल्ली से अब स्वराज प्रकाशन, नयी दिल्ली से पुनर्प्रकाशित)
  10. आलोचना के सिद्धांत -1960 (राजकमल प्रकाशन, दिल्ली व बंबई से; अब स्वराज प्रकाशन नयी दिल्ली से पुनर्प्रकाशित)
  11. आधुनिक संस्कृति के निर्माता (रंजीत प्रिंटर्स एंड पब्लिशर्स, दिल्ली से)
  12. Nationalities Question in U.S.A and U.S.S.R (अंग्रेजी में) -1976 (Sterling publishers Private Limited)
  13. बाबा पृथ्वी सिंह आज़ाद लेनिन के देश में -1978 (नवयुग पब्लिशर्स, दिल्ली से)
  14. परिप्रेक्ष्य को सही करते हुए -1999 (वाणी प्रकाशन, नयी दिल्ली से)
  15. प्रगतिशील स्मृति प्रवाह -2000 (रचना प्रकाशन, जयपुर से)

अनुवाद

  1. जुर्म और सजा, मूल लेखक दोस्तोयेव्स्की (रंजीत प्रिंटर्स एंड पब्लिशर्स, चांदनी चौक दिल्ली से)
  2. कारावास (नोट्स फ्रॉम अंडर ग्राउंड), मूल लेखक दोस्तोयेव्स्की (नेशनल पब्लिशिंग हाउस दिल्ली से)
  3. वासना (माइ अंकल्स ड्रीम) मूल लेखक दोस्तोयेव्स्की (आत्माराम एंड संस दिल्ली से)
  4. महामूर्ख (इडियट), मूल लेखक दोस्तोयेव्स्की (नेशनल पब्लिशिंग हाउस दिल्ली से)
  5. कप्तान की बेटी, मूल लेखक पुश्किन (रंजीत प्रिंटर्स एंड पब्लिशर्स दिल्ली से)
  6. तीन पीढ़ी, मूल लेखक मैक्सिम गोर्की (सरस्वती प्रेस बनारस से, दूसरा संस्करण किताब घर, गांधीनगर दिल्ली से)
  7. प्रेम या वासना (क्रूजर सोनाटा) मूल लेखक लेव तोलस्तोय, (हिंद पॉकेट बुक्स दिल्ली से)
  8. हुस्सार, मूल लेखक लेव तोलस्तोय (हिंद पॉकेट बुक्स दिल्ली से)
  9. पहला प्यार, मूल लेखक इवान तुर्गनेव (हिंद पॉकेट बुक्स दिल्ली से)
  10. संघर्ष (द ड्युएल) मूल लेखक चेखव (हिंद पॉकेट बुक्स दिल्ली से)
  11. क्या वह पागल था (बाल्जाक के दो लघु उपन्यास 'कमीशन इन ल्युनेसी तथा (गौब्सेक) का अनुवाद) [राजपाल एंड संस दिल्ली से]
  12. पेरिस का कुबड़ा, मूल लेखक विक्टर ह्यूगो (हिंद पॉकेट बुक्स दिल्ली से)
  13. एक औरत की जिंदगी, मूल लेखक मोपासां (राजपाल एंड संस दिल्ली से)
  14. दो शहरों की दास्तान, मूल लेखक चार्ल्स डिकेंस (हिंद पॉकेट बुक्स दिल्ली से)
  15. बुजदिल (बेवेयर ऑफ पिटी) मूल लेखक स्टीफन ज़्वीग (नेशनल पब्लिशिंग हाउस दिल्ली से)
  16. प्लेग, मूल लेखक आल्वेयर कामूँ (राजकमल प्रकाशन दिल्ली से)
  17. वापसी द स्वोर्ड एंड द सिकी), मुल्क राज आनंद (राजपाल एंड संस दिल्ली से)
  18. गांव, मूल लेखक मुल्कराज आनंद (राजपाल एंड संस दिल्ली से)
  19. डोरियन ग्रे की तस्वीर, मूल लेखक ऑस्कर वाइल्ड (रंजीत प्रिंटर्स एंड पब्लिशर्स)
  20. स्टीफेन ज़्वीग की महान् कहानियां (आधुनिक साहित्य सदन दिल्ली से)
  21. युद्ध की कीमत (सोवियत कथासंग्रह) [राजकमल प्रकाशन दिल्ली से]
  22. आधुनिक चीनी कहानियां (रणजीत प्रिंटर्स एंड पब्लिशर्स दिल्ली से)
  23. हैंस एंडरसन की कहानियां (रंजीत प्रिंटर्स एंड पब्लिशर्स दिल्ली से)
  24. रूसी लोक कथाएं (आत्माराम एंड संस दिल्ली से)
  25. डॉक्टर की उलझन, मूल लेखक जॉर्ज बर्नार्ड शॉ (राजपाल एंड संस दिल्ली से)
  26. मिसेज वारेन का पेशा, जॉर्ज बर्नार्ड शाॅ (राजपाल एंड संस दिल्ली से)
  27. शैतान (राजपाल एंड संस दिल्ली से)
  28. कांच के खिलौने (राजपाल एंड संस दिल्ली से)
  29. जादू के रंग (रंजीत प्रिंटर्स एंड पब्लिशर्स दिल्ली से)
  30. व्यक्तित्व का विघटन, मूल लेखक मैक्सिम गोर्की (राजकमल प्रकाशन दिल्ली से)
  31. द्वारकानाथ टैगोर : एक विस्मृत अग्रदूत (नेशनल बुक ट्रस्ट इंडिया से)
  32. भारतीय जनता का इतिहास तथा संस्कृति, भाग 3, मूल लेखक आर सी मजूमदार (विद्या भवन मुंबई से)

सम्पादन

  1. आलोचना (पत्रिका), प्रथम अंक (अक्टूबर 1951) से पाँचवे अंक (1953) तक।
  2. युग छाया (एकांकी संकलन)
  3. काव्यधारा 1955
  4. आधुनिक कहानियाँ
  5. आधुनिक एकांकी
  6. नव कथा मंजरी
  7. गद्य निकुंज
  8. ताज की छाया में

इन्हें भी देखें

सन्दर्भ

  1. शिवदान सिंह चौहान (विनिबंध), पुरुषोत्तम अग्रवाल, साहित्य अकादेमी, नयी दिल्ली, संस्करण-2007, पृष्ठ-11.
  2. शिवदान सिंह चौहान (विनिबंध), पुरुषोत्तम अग्रवाल, पूर्ववत्, पृष्ठ-12-13.
  3. शिवदान सिंह चौहान (विनिबंध), पुरुषोत्तम अग्रवाल, पूर्ववत्, पृष्ठ-13.
  4. हिन्दी आलोचना का दूसरा पाठ, निर्मला जैन, राजकमल प्रकाशन, नयी दिल्ली, संस्करण-2014, पृष्ठ-86.
  5. परिप्रेक्ष्य को सही करते हुए, शिवदान सिंह चौहान, वाणी प्रकाशन, नयी दिल्ली, संस्करण-2012, पृष्ठ-259 एवं 250-51.
  6. आलोचना के सौ बरस, भाग-3, सं०- अरविंद त्रिपाठी, शिल्पायन, शाहदरा दिल्ली, संस्करण-2012, पृष्ठ-7.
  7. साहित्य की परख, शिवदान सिंह चौहान, इंडिया पब्लिशर्स, इलाहाबाद, संस्करण-1948, पृ०-17-18.
  8. हिन्दी साहित्य के अस्सी वर्ष, शिवदान सिंह चौहान, राजकमल प्रकाशन, दिल्ली, प्रथम संस्करण-1954, पृष्ठ-द (प्रस्तावना)।
  9. हिन्दी साहित्य के अस्सी वर्ष, शिवदान सिंह चौहान, राजकमल प्रकाशन, दिल्ली, प्रथम संस्करण-1954, पृष्ठ-थ (प्रस्तावना)।
  10. हिन्दी साहित्य के अस्सी वर्ष, पूर्ववत्, पृष्ठ-66.
  11. प्रगतिवाद, शिवदान सिंह चौहान, प्रदीप कार्यालय, मुरादाबाद, संस्करण-1946, पृ०-62.
  12. साहित्यानुशीलन, शिवदान सिंह चौहान, आत्माराम एंड संज़, संस्करण-1955, पृष्ठ-190.
  13. हिन्दी साहित्य के अस्सी वर्ष, पूर्ववत्, पृष्ठ-81.
  14. हिन्दी साहित्य के अस्सी वर्ष, पूर्ववत्, पृष्ठ-128.
  15. प्रेमचन्द, रामविलास शर्मा, राधाकृष्ण प्रकाशन, नयी दिल्ली, संस्करण-1994, पृष्ठ-9-10.
  16. साहित्य की समस्याएँ, शिवदान सिंह चौहान, आत्माराम एंड संस, दिल्ली, प्रथम संस्करण-1959, पृष्ठ-116.
  17. साहित्य की समस्याएँ, पूर्ववत्, पृष्ठ-115 तथा 117.
  18. साहित्य की समस्याएँ, पूर्ववत्, पृष्ठ-114.
  19. साहित्य की समस्याएँ, पूर्ववत्, पृष्ठ-19-20.
  20. हजारीप्रसाद द्विवेदी ग्रन्थावली ('हिन्दी साहित्य : उसका उद्भव और विकास' के अंतर्गत), राजकमल प्रकाशन, नयी दिल्ली पेपरबैक संस्करण-2007, पृष्ठ-495.
  21. परिप्रेक्ष्य को सही करते हुए, शिवदान सिंह चौहान, वाणी प्रकाशन, नयी दिल्ली, संस्करण-2012, पृष्ठ-291.
  22. साहित्य की परख, शिवदान सिंह चौहान, इंडिया पब्लिशर्स, इलाहाबाद, संस्करण-1948, पृ०-14.
  23. नामवर सिंह, आलोचना, सहस्राब्दी अंक-3, अक्टूबर-दिसंबर-2000, पृष्ठ-12.
  24. नामवर सिंह, आलोचना, सहस्राब्दी अंक-3, अक्टूबर-दिसंबर-2000, पृष्ठ-8.
  25. हिन्दी साहित्य कोश, भाग-2, सं०- धीरेन्द्र वर्मा एवं अन्य, ज्ञानमंडल लिमिटेड, वाराणसी, संस्करण-2011, पृष्ठ-592.

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