शिवकुमार मिश्र (आलोचक)
शिवकुमार मिश्र (3 सितम्बर, 1930 — 21 जून, 2013) हिन्दी साहित्य के प्रतिबद्ध मार्क्सवादी आलोचक थे। मुख्यतः सैद्धांतिक आलोचना के क्षेत्र में गतिशील रहने के बावजूद व्यावहारिक आलोचना से भी उनका जुड़ाव बना रहा है। गहन विवेचन में भी सहज संप्रेषणीयता उनके लेखन की आद्यन्त विशेषता रही है।
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जीवन परिचय
डाॅ॰ शिवकुमार मिश्र का जन्म वस्तुतः 3 सितम्बर 1930 ई० को कानपुर जिले के एक गाँव महोली में हुआ था, जो उनका ननिहाल था। मैट्रिक के प्रमाण-पत्र में उनकी जन्म-तिथि 2 फरवरी 1931 ई॰ है[१] जिसे लम्बे समय तक उनकी जन्म-तिथि के रूप में मान्यता प्राप्त रही है। उनके पिता का नाम जदुनंदन प्रसाद तथा माता का नाम श्रीमती पार्वती देवी था। माता-पिता की पाँच संतानों में से मिश्र जी का स्थान तीसरा था। इनका परिवार धार्मिक किंतु कर्मकांड का सख्त विरोधी था।[२] सन 1948 में लगभग 18 वर्ष की आयु में ही इनका विवाह कानपुर के ही पटकापुर मोहल्ले के निवासी श्री बाबूराम तिवारी की पुत्री तारा देवी के साथ हुआ था।[२]
उनकी एम॰ए॰ तक की शिक्षा कानपुर में ही हुई। 1952 में उन्होंने एम॰ए॰ की परीक्षा उत्तीर्ण की तथा 1953 में एलएलबी की।[२] पीएच॰डी॰ तथा डी॰लिट॰ की उपाधि सागर विश्वविद्यालय, मध्यप्रदेश से प्राप्त की।
डाॅ॰ मिश्र सन् 1959 से 1977 तक सागर विश्वविद्यालय के हिन्दी विभाग में व्याख्याता तथा रीडर रहे। सन् 1977 से 1991 तक गुजरात के वल्लभ विद्यानगर स्थित सरदार पटेल विश्वविद्यालय में प्रोफेसर तथा विभागाध्यक्ष रहे। वे जनवादी लेखक संघ के राष्ट्रीय अध्यक्ष थे। भारत सरकार की सांस्कृतिक आदान-प्रदान योजना के तहत 1991 ई॰ में वे 15 दिन की सोवियत यूनियन की सांस्कृतिक यात्रा पर भी गये थे।[३] 21 जून 2013 ई॰ को अहमदाबाद में ही उनका पार्थिव शरीरान्त हुआ।[४]
रचनात्मक परिचय
डाॅ॰ मिश्र प्रतिबद्ध मार्क्सवादी समीक्षक के रूप में विख्यात रहे हैं।[२] वे मार्क्सवादी विचारधारा के प्रति प्रतिबद्ध थे परंतु उनमें वैचारिक कट्टरता नहीं थी। मार्क्सवाद, यथार्थवाद और लोक उनकी विचारधारा के केंद्र में था। आलोचना में वे आचार्य रामचंद्र शुक्ल, आचार्य नन्ददुलारे वाजपेयी और डॉ॰ रामविलास शर्मा से बेहद प्रभावित थे।[५] उन्होंने अपना लेखन कार्य एक निष्ठावान साधक की तरह किया है। हिन्दी साहित्य के आधुनिक काल पर केन्द्रित होने के बावजूद मध्यकाल पर भी उनकी गहरी पकड़ थी; और उसके विवेचन-मूल्यांकन में भी उनकी आधुनिक गवेषक दृष्टि की प्रखरता बनी रही है। यही कारण है कि वे भक्ति-आन्दोलन को महान् मानते हुए भी उसे केवल महिमान्वित ही नहीं करते, वरन् उसके अंतर्विरोध और उसकी रीतिवादी परिणति को भी स्पष्ट करते हैं[६] तथा मध्यकालीन संतों और भक्तों के सन्दर्भ में स्त्री-अस्मिता के सवालों से जूझते हुए[७] सूरदास के प्रसंग में बाजार और बाजारवाद के विमर्श तक भी पहुँचते हैं।[८]
मध्यकाल की विशेषज्ञता के बावजूद मिश्र जी का मुख्य प्रकार्य आधुनिक काल के विविध साहित्यरूपों के सन्दर्भ में ही रहा है।[९] मिश्र जी को मुख्यतः सैद्धान्तिक आलोचना से सम्बद्ध माना जाता रहा है। वे सैद्धान्तिक आलोचना पर केन्द्रित रहे भी हैं, परन्तु व्यावहारिक आलोचना से उनका जुड़ाव भी हमेशा बना रहा है। उनकी पुस्तकें इसका साक्ष्य स्वयं प्रस्तुत करती हैं। उनकी आरम्भिक दो पुस्तकें व्यावहारिक आलोचना की ही थी। लेकिन ये दोनों पुस्तकें मुख्यतः उच्चस्तरीय छात्रों को ध्यान में रखकर लिखी गयी थी। बाद में सैद्धान्तिक लेखन के साथ भी अधिकांश पुस्तकों में व्यावहारिक विवेचन भी मिलते हैं। भक्ति काव्य के अतिरिक्त आधुनिक काल में यदि निबन्धों को छोड़ भी दें तब भी उनकी तीन पुस्तकें तो प्रेमचन्द पर ही केन्द्रित हैं। 'आधुनिक कविता और युग-दृष्टि' में निराला, पन्त, महादेवी, नागार्जुन, भवानी प्रसाद मिश्र आदि की कविताओं पर केन्द्रित आलेख उनकी आलोचनात्मक क्षमता के प्रमाण उपस्थित करते हैं। डॉ॰ कृष्णदत्त पालीवाल के अनुसार : साँचा:quote 'साहित्य और सामाजिक सन्दर्भ' में सैद्धान्तिक विमर्शों के बीच वे प्रेमचन्द के द्वारा युग-प्रवर्तन के साथ हरिशंकर परसाई के विचारों से अपनी सहमति तथा आपातकाल सहित कुछ मुद्दों पर असहमति की चर्चा करना भी नहीं भूलते हैं।[१०] इसी प्रकार 'आलोचना के प्रगतिशील सरोकार' में सैद्धान्तिक विवेचन के साथ अनेक उपन्यासों का उनका विवेचन उनके सरोकारों का स्वच्छ साक्ष्य उपस्थापित करता है। प्रेमचन्द की कहानियों पर केन्द्रित उनकी पुस्तक कथा-समीक्षा में एक नये और विशिष्ट ढंग के आरम्भ का प्रतिष्ठापन सिद्ध हुई है। सैद्धांतिक आलोचना के क्षेत्र में व्यवस्थित कार्य करते हुए उन्होंने 'यथार्थवाद ' जैसी पुस्तक लिखी है।[११] यहाँ यथार्थवाद की सकारात्मक पहचान की प्रक्रिया में लेखक उन अनेक भ्रमों का निवारण भी करता चलता है जिनके तहत बहुत सी मिलती-जुलती चीजें यथार्थवाद के साथ जोड़ी जाती रही हैं। उन्होंने यथार्थवाद के विभिन्न उपलब्ध रूपों, आलोचनात्मक और समाजवादी यथार्थवाद आदि की चर्चा के साथ उसके प्रमुख पुरस्कर्ताओं की भी विस्तारपूर्वक चर्चा की है।[१२] 'मार्क्सवादी साहित्य-चिन्तन : इतिहास तथा सिद्धान्त ' नामक पुस्तक के रूप में उन्होंने मार्क्सवाद के प्रायः समग्र इतिहास, चिन्तन और विकास का निरूपण सहज रूप में हिन्दी पाठकों को उपलब्ध कराया है।[१३]
उनकी पुस्तकों को पढ़ने वाले उनकी विचारधारा के बारे में श्रीराम त्रिपाठी के इस विचार से अवश्य सहमत होंगे कि वे समाज के उस वर्ग के हितैषी थे, जो कर्मशील होने के बावजूद दबा-कुचला था। अन्याय और शोषण का शिकार था। श्रीराम त्रिपाठी के अनुसार : साँचा:quote
वे वैयक्तिक राग-द्वेषों से मुक्त होकर लिखते थे; इसलिए उनका लेखन भी दुविधाग्रस्त नहीं है। आद्यन्त साफ-सुथरी तथा निर्णयात्मक भाषा-शैली उनकी पहचान रही है।[१४]
प्रकाशित कृतियाँ
- कामायनी और प्रसाद की कविता गंगा - 1954 (अप्राप्य)
- वृन्दावनलाल वर्मा : उपन्यास और कला - 1956
- नया हिन्दी काव्य - 1962
- आधुनिक कविता और युग-दृष्टि - 1966 (संशोधित-परिवर्धित संस्करण-2012, प्रकाशन संस्थान, नई दिल्ली से)
- प्रगतिवाद - 1966
- मार्क्सवादी साहित्य-चिन्तन : इतिहास तथा सिद्धान्त - 1973
- यथार्थवाद - 1975
- साहित्य और सामाजिक सन्दर्भ - 1977 (संशोधित-परिवर्धित संस्करण-2012, प्रकाशन संस्थान, नई दिल्ली से)
- प्रेमचंद : विरासत का सवाल - 1981
- दर्शन साहित्य और समाज - 1981
- भक्तिकाव्य और लोकजीवन - 1983 (इस नाम से वाणी प्रकाशन से; संशोधित-परिवर्धित संस्करण-2010 में भक्ति-आन्दोलन और भक्ति-काव्य नाम से लोकभारती प्रकाशन, इलाहाबाद से)
- हिन्दी आलोचना की परम्परा और आचार्य रामचन्द्र शुक्ल - 1986
- आलोचना के प्रगतिशील आयाम - 1987 (संशोधित-परिवर्धित संस्करण-2012 में आलोचना के प्रगतिशील सरोकार नाम से प्रकाशन संस्थान, नई दिल्ली से)
- कहानीकार प्रेमचन्द : रचना दृष्टि और रचना शिल्प - 2002 (लोकभारती से)
- मार्क्सवाद देवमूर्तियाँ नहीं गढ़ता - 2005
- साहित्य : इतिहास और संस्कृति - 2010
- मार्क्सवाद और साहित्य
- हिन्दी साहित्य : संक्षिप्त इतिवृत्त
- प्रेमचन्द की विरासत और गोदान - 2011 (लोकभारती से)
- साम्प्रदायिकता और हिन्दी उपन्यास - 2015
इनमें से प्रकाशन के साथ उल्लिखित को छोड़कर अधिकांश अब वाणी प्रकाशन, नई दिल्ली से प्रकाशित हैं।
सम्मान
- डॉ॰ मिश्र को उनकी पुस्तक 'मार्क्सवादी साहित्य-चिन्तन : इतिहास तथा सिद्धान्त' (1973) के लिए 1975 में सोवियत लैंड नेहरू पुरस्कार प्रदान किया गया था।
- गोविन्दवल्लभ पन्त पुरस्कार से भी पुरस्कृत
इन्हें भी देखें
सन्दर्भ
- ↑ 'आधुनिक कविता और युग-दृष्टि', शिवकुमार मिश्र, प्रकाशन संस्थान, नई दिल्ली, संस्करण-2012, अंतिम आवरण फ्लैप पर दिये गये लेखक परिचय में द्रष्टव्य।
- ↑ अ आ इ ई जगन्नाथ पंडित, आजकल (पत्रिका), अगस्त 2013, संपादक- कैलाश दहिया, फरहत परवीन, पृष्ठ-13.
- ↑ यथार्थवाद, शिवकुमार मिश्र, वाणी प्रकाशन, नई दिल्ली, संस्करण-2017, अंतिम आवरण फ्लैप द्रष्टव्य।
- ↑ कथादेश, जुलाई 2013, पृ.91.
- ↑ भारत भारद्वाज, नया ज्ञानोदय (पत्रिका), अगस्त 2013, संपादक- रवींद्र कालिया, पृष्ठ-7.
- ↑ डॉ॰ शिवकुमार मिश्र, भक्ति-आन्दोलन और भक्ति-काव्य, लोकभारती प्रकाशन, इलाहाबाद, संस्करण-2012, पृष्ठ-55 एवं 66.
- ↑ डॉ॰ शिवकुमार मिश्र, भक्ति-आन्दोलन और भक्ति-काव्य, लोकभारती प्रकाशन, इलाहाबाद, संस्करण-2012, पृष्ठ-262.
- ↑ डॉ॰ शिवकुमार मिश्र, भक्ति-आन्दोलन और भक्ति-काव्य, लोकभारती प्रकाशन, इलाहाबाद, संस्करण-2012, पृष्ठ-299-303.
- ↑ जगन्नाथ पंडित, आजकल (पत्रिका), अगस्त 2013, संपादक- कैलाश दहिया, फरहत परवीन, पृष्ठ-15.
- ↑ डॉ॰ शिवकुमार मिश्र, साहित्य और सामाजिक सन्दर्भ, प्रकाशन संस्थान, नई दिल्ली, संस्करण-2012, पृष्ठ-126-128.
- ↑ सन्दर्भ त्रुटि:
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का गलत प्रयोग;पालीवाल
नाम के संदर्भ में जानकारी नहीं है। - ↑ मधुरेश, हिन्दी आलोचना का विकास, लोकभारती प्रकाशन, इलाहाबाद, संस्करण-2012, पृष्ठ-191.
- ↑ जगन्नाथ पंडित, आजकल (पत्रिका), अगस्त 2013, संपादक- कैलाश दहिया, फरहत परवीन, पृष्ठ-18.
- ↑ हिन्दी का गद्य-साहित्य, डाॅ॰ रामचन्द्र तिवारी, विश्वविद्यालय प्रकाशन, वाराणसी; संस्करण-2016, पृ.143.