विज्ञान परिषद् प्रयाग
विज्ञान परिषद् प्रयाग | |
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स्थापना | १९१३ |
अध्यक्ष | डॉ॰ शिव गोपाल मिश्र (प्रधानमंत्री) |
स्थान | प्रयाग, इलाहाबाद, उत्तर प्रदेश, भारत |
पता | विज्ञान परिषद् प्रयाग, महर्षि दयानन्द मार्ग, इलाहाबाद २११००२ |
विज्ञान परिषद् प्रयाग, इलाहाबाद में स्थित है और यह विज्ञान जनव्यापीकरण के क्षेत्र में कार्य करने वाली भारत की सबसे पुरानी संस्थाओं में से एक है। विज्ञान परिषद् की स्थापना सन् 1913 ई. में हुई थी और इसकी स्थापना का मुख्य उद्देश्य भारत में वैज्ञानिक विचारधारा का प्रचार प्रसार था। इस दिशा में 1913 से अनवरत कार्य करने वाली इस संस्था से विज्ञान नाम की मासिक पत्रिका का प्रकाशन भी किया जाता है। यह पत्रिका सर्वप्रथम अप्रैल 1915 में प्रकाशित हुई थी और तब से आज तक अनवरत प्रकाशित रहने का इसका रेकॉर्ड रहा है।
विज्ञान परिषद् के मुख्य कार्यक्षेत्र निम्नलिखित हैं।
- भारतीय भाषाओं में वैज्ञानिक साहित्य की रचना करना
- वैज्ञानिक विचारधारा का प्रसार
- वैज्ञानिक अध्ययन और वैज्ञानिक अनुसंधान कार्य को प्रोत्साहन
- देश की वैज्ञानिक समस्याओं के संबंध में विचार-विमर्श और परामर्श
विज्ञान परिषद् के मुख्य भवन का शिलान्यास ४ अप्रैल १९५६ ई. को भारत के तत्कालीन प्रधानमंत्री पं॰ जवाहरलाल नेहरू द्वारा किया गया था। वर्तमान में विज्ञान परिषद् के अध्यक्ष डॉ॰ शिवगोपाल मिश्र हैं।
परिचय
म्योर सेन्ट्रल कालेज के अध्यापक महामहोध्याय डॉ॰ गंगानाथ झा, प्रो॰ हमीदुद्दीन साहेब, रामदास गौड़ और पं॰ सालगराम भार्गव ने 10 मार्च 1913 के दिन मीटिंग की जिसमें यह निश्चिय हुआ कि देशी भाषाओं में वैज्ञानिक साहित्य की रचना और प्रचार का काम सुसंगठित रूप से चलाने के उद्देश्य से "वर्नाक्यूलर साइंटिफिक लिटरेचर सोसायटी" की स्थापना की जाय जिसका नाम डॉ॰ झा ने विज्ञान परिषद् और मौलवी हमीदुद्दीन साहेब ने 'अंजुमन-सनाअव-फानून' रक्खा। इस संस्था के कार्य संचालन के लिए प्रिसपल के.जी. केनिंक्स महोदय ने म्योर कालेज में स्थान भी देने की कृपा की और इस कार्य में पूरी-पूरी सहायता न केवल उन्हीं से वरन् प्रो॰ ई०जी० हिल और जे0जे0 ड्यूरक महोदय से भी मिलने लगी। म्योर कालेज के अन्य हिन्दुस्तानी अध्यापकों की तो पूरी सहानुभूति थी ही अतएव कुछ पदाधिकारी चुन लिए गये।
31 मार्च 1913 को पहला अधिवेशन हुआ। उस दिन नियमों का निर्माण हुआ और मंत्री प्रो॰ हमीदुद्दीन को यह आज्ञा मिली कि यूनिवर्सिटी के फेलों, कालेजों के प्रोफेसरों तथा भारतीय विश्वविद्यालयों के प्रमुख विद्वानों से पत्र व्यवहार कर उनकों मेम्बर बनावें। यह पत्र 18 अप्रैल 1913 को भेजा गया किन्तु पत्र व्यवहार का कोई संतोषजनक प्रभाव नहीं हुआ। फलतः निश्चय हुआ कि गर्मी की छुट्टियों में कुछ आरंभिक ग्रन्थ तैयार किये जायें। इस तरह पं0 सालिंगराम भार्गव और प्रो॰ गौड़ ने 'विज्ञान प्रवेशिका भाग-1' लिख डाली।
संस्था का दूसरा अधिवेशन 30 जुलाई 1913 के दिन हुआ। उस समय तक 45 सदस्य बन चुके थे। पारिभाषिक शब्दों की कठिन समस्या उपस्थित होने पर रसायन, भौतिकी, वनस्पति आदि विषयों की समितियाँ बना दी गयीं और उस समय तक जितने शब्द बनाये जा चुके थे, उनके अतिरिक्त नये और बनाये गये।
धनाभाव होते हुए भी विज्ञान प्रवेशिका भाग-1 प्रकाशित कर दी गयी। पहला संस्करण हाथों-हाथ बिक गया। प्रो॰ सैय्यद मोहम्मद मौलवी नासरी के प्रयास से विज्ञान प्रवेशिका भाग-1 का उर्दू अनुवाद भी तैयार हो गया। 29 अगस्त 1914 को नये नियम बना कर भेजे गये फलस्वरूप 78 फेलो, 45 एसोशियेट 31 अक्टूबर 1914 तक बन गये।
14 नवम्बर 1914 को डॉ॰ झा के मकान पर उनके सभापतित्व में कौंसिल की प्रथम बैठक हुई जिसमें सम्पादन समिति की नियुक्ति हुई-प्रधान संपादक लाला सीताराम तथा अन्य सम्पादक सालिगराम भार्गव तथा डी.एन. पाल (भौतिकी), रामदास गौड़, ब्रजराज बहादुर (गणित-ज्योतिष), रामशरण निगम, नन्द कुमार तिवारी, शान्ति प्रसाद अग्रवाल (जीव विज्ञान), ए.जी. शिराफ, अलीनामी (भाषा विज्ञान), गंगानाथ झा, एच. आर दिवेकर (मनोविज्ञान, इतिहास)। किन्तु 6 मार्च 1915 को सम्पादन समिति तोड़ने का प्रस्ताव पारित हुआ।
परिषद के पहले ही अधिवेशन में प्रो॰ नन्द कुमार तिवारी ने एक प्रस्ताव रखा कि परिषद् हिन्दी उर्दू अथवा दोनों भाषाओं में एक पत्र प्रकाशित करें। रायबहादुर ज्ञानेन्द्रनाथ चक्रवर्ती ने इस प्रस्ताव का समर्थन किया। अतएव इस उद्देश्य की पूर्ति के लिए प्रधानमंत्री, डॉ॰ गंगानाथ झा, प्रो॰ रामदास गौड़ तथा ठाकुर केशव चन्द्र सिंह चौधरी की एक उपसमिति बना दी गयी। इस उपसमिति ने निर्णय किया कि परिषद स्वयं पत्रिका न प्रकाशित करें। 25 नवम्बर 1914 के दिन प्रबन्धक समिति की बैठक में इस प्रस्ताव पर विचार किया गया और निश्चय हुआ कि किसी प्रकाशक को यह कार्य सौंप दिया जाना चाहिये। मिस्टर के.सी. भल्ला ने कुछ शर्तें इस काम के लिए लिखकर भेजी थीं। जनवरी 1915 से पत्र प्रकाशन का सुझाव था। 30 जनवरी 1915 की बैठक में विज्ञान के प्रकाशन का काम मिस्टर भल्ला को दिया गया और सम्पादन का कार्य परिषद ने स्वयं अपने हाथ में रखा। इसका मुद्रण लीडर प्रेस से होने लगा।
पत्र प्रारम्भ करने के पूर्व 250 स्थायी ग्राहक होने थे। हिन्दी के ग्राहक तो मिल गये किन्तु उर्दू के न मिलने से 'विज्ञान' का प्रकाशन हिन्दी में ही शुरू हुआ।
विज्ञान का पहला अंक अप्रैल 1915 में प्रकाशित हुआ। भाषा की दृष्टि से लेखों का सम्पादन लाला सीताराम तथा पं0 श्रीधर पाठक करते थे। 4 मार्च 1916 को उर्दू में विज्ञान निकालने के विषय में परामर्श हेतु उपसमिति गठित कर दी गयी। 6 अप्रैल 1916 को तय हुआ कि विज्ञान का प्रकाशन विज्ञान परिषद स्वयं हाथ में ले और भल्ला से कार्य न कराया जाय अतः 11 अप्रैल 1916 से विज्ञान परिषद ने विज्ञान का प्रकाशन शुरू किया।
24 अक्टूबर 1916 को पं0 मदन मोहन मालवीय तथा डॉ॰ गणेश प्रसाद को ऑनरेरी फेलो बनाया गया। 24 फ़रवरी 1917 प्रकाशन समिति का गठन हुआ। 15 अगस्त 1917 को गोपालस्वरूप भार्गव विज्ञान के अवैतनिक सम्पादक निश्चित हुए। उन्हें अधिकार दिया गया कि प्रतिमास 25 रुपये तक प्रूफ संशोधन और लेखों का पारिश्रमिक दें।
1919 के अन्त तक विज्ञान को उर्दू भाषा में प्रकाशित करने का प्रयत्न असफल रहा। तब तक निम्नांकित 14 पुस्तकें प्रकाशित हो चुकी थीं-
- विज्ञान प्रवेशिका भाग 1, 2, ताप, पशु-पक्षियों का शृंगार रहस्य, केला, चुम्बक, गुरुदेव के साथ यात्रा, फास्फोरस और दियासलाई,
- क्षयरोग, सुवर्णकारी, शिक्षितों का स्वास्थ्य व्यतिक्रम, पैमाइश मिफताह, उलफनून, हरारत, जीनतवहस व तयर।
5 वर्षों में 5000 पुस्तकें बिकीं। कुछ तो साहित्य सम्मेलन के पाठ्यक्रम में सम्मिलित थीं। वर्ष 1919 में ही परिषद के पास मैजिक लैंटर्न था। 150 स्लाइड थे जिनका उपयोग व्याख्यानों में किया जाता रहा।
‘विज्ञान’ को प्रकशित करना इस देश में एक मौलिक प्रयास था। विज्ञान विषय के विद्वान भाषा से उतने परिचित न थे और हिन्दी के लेखक विज्ञान विषय से उदासीन थे। अतएव प्रो॰ रामदास गौड़ को इस कार्य के लिए उत्साही विज्ञान विषयों के विशेषज्ञों से ही सहायता लेना पड़ा। प्रो॰ देव, एम. पाल. डाक्टर सरकार, प्रो॰ कुमारचन्द्र भट्टाचार्य, डॉ॰ मूलचन्द्र टण्डन आदि ने व्याख्यानों और लेखों में पूरी-पूरी सहायता दी। पहले दो तीन अंकों की सामग्री प्रो॰ गौड ने बड़े परिश्रम से तैयार की थी किन्तु उनके अस्वस्थ होने पर श्री राधामोहन गोकुल जी से प्रार्थना की गई कि प्रधान सम्पादकों की सहायता करें किन्तु पहले अंक के बाद उन्होंने असमर्थता प्रकट की तो गंगा प्रसाद बाजपेयी बी.एस.सी. ने कार्य संभाला। फिर गोपालस्वरूप भार्गव और प्रो॰ बृजराज बी.एस.सी., ए.एल.बी. ने और फिर स्वयं गोपालस्वरूप भार्गव ने 8 वर्षों तक कार्य चलाया। 1925 के अगस्त में उन्होंने काम छोड़ दिया तो सत्यप्रकाश तथा ब्रजराज ने सम्पादन करना प्रारम्भ किया।
विज्ञान के जन्म और उसके संचालन की नीति के निर्धारक 22 वर्षों तक प्रो॰ गौड़ ही रहे। श्री गोपाल स्वरूप भार्गव जी ने 10-11 वर्षों तक तन-मन-धन से विज्ञान परिषद की सेवा की। उनके काल में विज्ञान का कलेवर सुधारा और विज्ञान की धाक सारे हिन्दी साहित्य जगत में बैठ गयी। तत्पश्चात् श्री सत्यप्रकाश ने तन्मयता से सम्पादन कार्य किया और विज्ञान परिषद् के रजत जयन्ती अंक का नियोजन किया। डॉ॰ सत्य प्रकाश के बाद पुनः रामदास गौड़ मृत्युपर्यन्त विज्ञान के सम्पादक रहे। फिर डॉ॰ गोरख प्रसाद ने एक मास के सम्पादन कार्य में विज्ञान में कायापलट कर दी। तत्पश्चात् डॉ॰ सत्य प्रकाश पुनः सम्पादक बने। उन्होंने सम्पादन मण्डल में डॉ॰ श्रीरंजन, डॉ॰ रामशरण दास, प्रो॰ श्री चरण वर्मा, श्री रामनिवास राय, स्वामी हरिशरणानन्द तथा डॉ॰ गोरख प्रसाद को रखा और राधेलाल मेहरोत्रा को प्रबन्ध सम्पादक बनाया।
रामदास गौड़ जी के कार्य काल में ही 2 अप्रैल 1934 को यह सूचना मिली कि पंजाब आयुर्वेदिक फार्मेसी, अमृतसर के अध्यक्ष श्री हरिशरणानन्द जी अपनी फार्मेसी की सम्पत्ति एवं आयुर्वेद विज्ञान पत्र, परिषद को सौंपना चाहते हैं। प्रो॰ सालगराम भार्गव ने अमृतसर जाकर स्वामी जी से परामर्श किया और 15 जून 1934 की बैठक में पूरी बात प्रस्तुत की। यह निश्चित हुआ कि उनका पत्र आयुर्वेद विज्ञान, विज्ञान में सम्मिलित कर दिया जाय और स्वामी जी आयुर्वेद विभाग के सम्पादक बनाये जायें। इस तरह 24 अक्टूबर 1934 को सूचित हुआ कि आयुर्वेद विज्ञान, विज्ञान में सम्मिलित हो गया। बीच में विज्ञान की आर्थिक स्थिति शोचनीय हो गयी तो 18 सितम्बर 1931 को ‘विज्ञान’ की पृष्ठ संख्या घटाने का प्रस्ताव रखा। यही कारण है कि स्वामी हरिशरणानन्द की शरण लेनी पड़ी।
1925 में इम्प्रूवमेन्ट ट्रस्ट से जमीन खरीदने की बात चली पर जमीन क्रास्थवेट रोड पर हिन्दी साहित्य सम्मेलन के निकट थी। इसका दाम रुपये 1788 था। जनवरी 1926 में भूमि क्रय करके भवन बनाने का ठेका रामलाल सोनी को दिया गया। मकान बनाने में 1150 रुपये लगे। बाद में 88.00 रुपये प्लास्टर कराने में 18 अप्रैल 1936 को तय हुआ कि यदि हरिशरणानन्द 1000.00 रुपये वार्षिक सहायता दें तो वैतनिक सम्पादक रखा जाय।
21 सितम्बर 1936 को यह निश्चय हुआ कि पुस्तक की बिक्री का रुपया पुस्तिका की छपाई में खर्च हो, श्री राधे लाल मेहरोत्रा को 10.00 रुपये मासिक पर मंत्री का सहायक बनाया जाय और 3.00 रुपये मासिक पर कुछ घण्टे के लिए चपरासी रखा जाय।
1936 के अन्त तक विज्ञान के दो विशेषांक निकले- योगांक तथा क्षेमांक। इण्डियन प्रेस ने विज्ञान के कवर मुफ्त छापे। विज्ञान का कायापलट हो गया और ग्राहक भी बढ़ाने लगे। गवर्नमेंट से 1921 से 600.00 रुपये वार्षिक मिलने लगे थे, उसी के बल पर विज्ञान चल रहा था।
21 अक्टूबर 1937 को तय हुआ कि परिषद के सभ्यों का चन्दा 12.00 से घटाकर 5.00 रुपये कर दिया जाय, आजीवन सभ्य के 75.00 रुपये हो। परिषद का दफ्तर जिस मकान में है उसका 5.00 मासिक किराया अक्टूबर 1936 से दिया जाय। विज्ञान के पू्रफशोधन हेतु 2/2 प्रति फर्में और राधेलाल को प्रवेशिका हेतु 12/- रुपये मासिक कर दिया गया। आयुर्वेदांक 4500 छपने लगा और फार्मेसी के सूचीपत्र के साथ भेजे जाते रहें, जिनका खर्च स्वामी हरिशरणानन्द देते रहे।