वाजश्रवा के बहाने
वाजश्रवा के बहाने | |
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चित्र:Vajshrava.jpg मुखपृष्ठ | |
लेखक | कुँवर नारायण |
देश | भारत |
भाषा | हिंदी |
विषय | साहित्य |
प्रकाशक | भारतीय ज्ञानपीठ |
प्रकाशन तिथि |
२००८ |
पृष्ठ | १५९ |
आई॰ऍस॰बी॰ऍन॰ | ९७८-८१-२६३-१४५५-३ |
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कुंवर नारायण का वाजश्रवा के बहाने खण्ड-काव्य अपने समकालीनों और परवर्ती रचनाकारों के काव्य-संग्रहों के बीच एक अलग और विशिष्ट स्वाद देने वाला है जिसे प्रौढ़ विचारशील मन से ही महसूस किया जा सकता है। यह गहरी अंतर्दृष्टि से किये गये जीवन के उत्सव और हाहाकार का साक्षात्कार है। ऋग्वेद, उपनिषद और गीता की न जाने कितनी दार्शनिक अनुगूंजें हैं इसमें, जो कुछ सुनायी पड़ती हैं, कुछ नहीं सुनायी पड़तीं। अछोर अतीत है पीछे, अनंत अंधकार है आगे। बीच में अथाह जीवन है, जो केवल मानवों का नहीं, सम्पूर्ण सृष्टि का है और जो खंड में नहीं बल्कि अखंड काल की निरंतरता में प्रवहमान है। कुंवर नारायण के इस संग्रह में भी मृत्यु का गहरा बोध है। भले ही इसमें जीवन की ओर से मृत्यु को देखने की कोशिश है। यदि मृत्यु न होती तो जीवन को इस प्रकार देखने की आकांक्षा भी न होती। मृत्यु ही जीवन को अर्थ देती है और निरर्थक में भी अर्थ भरती है' यह कथन असंगत नहीं है। मृत्यु है इसीलिए जिजीविषा भी है। जिजीविषा है इसीलिए सम्भावना भी।
कुंवर नारायण के इस काव्य में विषयवस्तु के बिल्कुल विपरीत एक गजब की सहजता और भाषा प्रवाह है। कहीं कोई शब्द अपरिचित नहीं पर अर्थ की गहराइयों के साथ विद्यमान। भावावेग के दबाव के अनेक अवसर आते हैं और आ सकते थे पर कवि पूर्णतः संयम और काव्यानुशासन के साथ सहज होकर पांव रखता है। कदम-कदम पर विचारों के उँचे टीले और गहरी खाइयां हैं पर प्रवाह ऐसा कि एक शब्द दूसरे को ठेल कर आगे निकलता और धारा को अविच्छिन्न रखता हुआ। जैसे सागर की लहरें जो धकेलती हुई आगे बढ़तीं और पछाड़ खाकर पीछे लौटती हैं। जैस फेन बुदबुद और जल का शाश्वत प्रवाह एक साथ। इस काव्य की हर कविता अपने में अलग मगर एक विचार प्रवाह में जुड़ी हुई है। कथन वैचित्र्य और तुकों के साथ सैकड़ों चुस्त उक्तियां सूक्तियों-सी उद्धृत की जाने योग्य हैं। विषय गम्भीरता के साथ सहजता का यह अद्भुत संयोग महान कवि तुलसी की याद दिला देता है। आज के काव्य परिदृश्य में जबकि वर्तमान और स्थूल दृश्य यथार्थ ही सब कुछ है, इस भाव भूमि की कविता से गुजरना एक विरल अनुभव है।[१]
कन्हैयालाल नंदन के शब्दों में- "हाल में ही प्रकाशित कुंवर नारायण जी के काव्यसंग्रह 'वाजश्रवा के बहाने' को भी शब्द-शब्द रमते हुए पढ़ा। इस रचना को मैं उनकी वैचारिकता, उनकी दार्शनिकता का मील का पत्थर मानता हूं। अद्भुत लिखा है। फिदा हूं उनकी लेखन शैली पर। इसके पहले भी उन्होंने अपने पूर्ववर्ती काव्य संग्रह 'आत्मजयी' में नचिकेता के संदर्भ में कई महत्वपूर्ण मुद्दों को चमत्कारिक ढंग से विश्लेषित किया है। इन कविताओं की सबसे बड़ी विशेषता ये है कि इनमें कवि ने भारतीय प्राचीन मिथकों, प्रतीकों का आधुनिक संदर्भो में इस्तेमाल करते हुए समकालीन जीवन से जोड़ने का आश्चर्यजनक कार्य किया है।"[२]