लुड्विक स्टर्नबाख्
डा. लुड्विक् स्टर्नबाख् ( Ludwik Sternbach ; 12 दिसम्बर, 1909 -- 25 मार्च, 1981) वकील, संयुक्त राष्ट्र संघ के अधिकारी, भारतविद्, अनेक भाषाओं के ज्ञाता तथा संस्कृत के प्रकाण्ड पण्डित थे। अनेक ग्रन्थों को लिखने पर भी आपने अपने जीवन में जो महान् कार्य किया वह था, उनका सम्पूर्ण संस्कृत साहित्य से सुभाषितों का संकलन। आपने भारत तथा विदेशों से उपलब्ध संस्कृत के सम्पूर्ण लौकिक साहित्य से तथा पुराने मुद्रित सुभाषितों में संकलित सुभाषितों के सुन्दर-सुन्दर पद्यों को स्थान, संकेत, पाठ-भेद, टिप्पण, छन्दोनिदर्शन, सन्दर्भ-ग्रन्थ व लेखक-सूची, विषय सूची तथा अंग्रेजी-अनुवाद सहित सम्पादित करके अकारादि क्रम से दिया है।
निधन होने से पूर्व विश्वेश्वरानन्द वैदिक शोध संस्थान द्वारा किए गए महासुभाषितसङ्ग्रह के उत्तम प्रकाशन से अति प्रसन्न होकर और अपनी मृत्यु से पहले ही अपनी सम्पत्ति तथा सन्दर्भ ग्रन्थ एवम् अनुसन्धान से सम्बन्धित अन्य वस्तुओं की वसीयत विश्वेश्वरानन्द वैदिक शोध संस्थान के नाम कर गये। उनकी यह भी प्रबल इच्छा थी कि वसीयत से जो धनराशि संस्थान को दी गई है, उसके द्वारा महासुभाषित संग्रह का कार्य चलता रहे। वह राशि उसी पर खर्च हो। उनकी भावना का सम्मान करते हुए डा. स्टर्नबाख् द्वारा अर्पित धनराशि की सुरक्षा के लिए उनकी इच्छानुसार संस्थान की पूर्ण देखरेख और नियन्त्रण में सन १९६५ में ‘डा. लुड्विक स्टर्नबाख् फाउण्डेशन’ की स्थापना की गई है।
उनमें विलक्षण प्रतिभा विद्यमान थी। विज्ञान के छात्र होते हुए भी आपने संस्कृत जैसे साहित्य पर अपना ध्यान आकर्षित किया। अपनी प्रारम्भिक अवस्था में ही आप अनेक भाषाओं पर अपना पूर्ण अधिकार प्राप्त कर चुके थे।
जीवन
डा. लुड्विक् स्टर्नबाख् का जन्म १२ दिसम्बर १९०९ को पोलैण्ड के ब्रकावा प्रान्त में में एक संभ्रान्त परिवार में हुआ था। इनके पिता अपने समय के एक सुप्रसिद्ध वकील थे जिनका सम्बन्ध पोलैण्ड के यहूदी वंश से था। स्टर्नबाख् ने अपनी प्रारम्भिक शिक्षा एक स्कूल से प्राप्त की। आप अच्छे परिश्रमी तथा निष्ठावान् व्युत्पन्न छात्र थे। उच्च शिक्षा के लिए इन्होंने विश्वविद्यालय में प्रवेश लिया। अपनी पाठ्यपुस्तकों को पढ़ने के अतिरिक्त 1928 से आपकी संस्कृत पढ़ने की ओर भी अत्यधिक रुचि हुई। विश्वविद्यालय में विधिवत् पढ़ते हुए आपने पहले 1931 में ‘जरिसप्रू डैंस’ में एम.ए. परीक्षा उत्तीर्ण की। संस्कृत से अत्यधिक लगाव होने के कारण 1934 में इन्होंने संस्कृत तथा इण्डोलोजी में भी एम.ए.परीक्षा उत्तीर्ण की। 1936 में डाक्टरेट और अन्य विषयों का अध्ययन पूर्ण कर लिया। इसके तुरन्त बाद आपने नियमित रूप से वकालत भी प्रारम्भ कर दी। इतने मात्र से आपको सन्तोष नहीं हुआ; क्योंकि लगता है कि, उनको जिस कार्य को सम्पन्न करने के लिए ईश्वर ने यहां भेजा था उस ओर इनकी प्रवृत्ति नहीं हुई थी। अतः इनका वकालत में उतना मन नहीं लगता था, जितना विषयों का गम्भीर अध्ययन करने में। फलतः आपने अंग्रेजी, फ्रेंच, जर्मन, इटैलियन तथा स्पैनिश आदि कई भाषाओं को पढ़ा और उनपर पूर्ण अधिकार प्राप्त कर लिया।
1939 में पश्चिमी पोलैण्ड का वह भूभाग जिसमें ये वकालत करते थे जर्मनी के प्रभाव में आ गया, इसलिए आप पूर्वी पोलैण्ड में चले गए तथा वहां ‘जानकासीयर’ नाम के विश्वविद्यालय में प्राचीन भारतीय संस्कृति विभाग में लैक्चरर पद पर नियुक्त किए गए। थोड़े ही दिनों में अपनी प्रतिभा के बल पर वे रीडर नियुक्त कर दिए गए। इसी बीच पूर्वी पोलैण्ड, रूस के अधिकार-क्षेत्र में आ गया। वैधानिक आपत्ति के कारण इनकी केवल नियुक्ति ही निरस्त नहीं की गई अपितु आपको अपना देश भी छोड़ना पड़ा। इनको इस बात का जरा भी दुःख नहीं हुआ कि उन्होंने संस्कृत में पढ़ा हुआ था कि - ‘‘स्वदेशे पूज्यते राजा विद्वान् सर्वत्र पूज्यते।’’ वे अपने माता पिता तथा अपनी अनुसन्धान-सामग्री को लेकर पोलैण्ड छोड़कर चल पड़े। वे वहां से सर्वप्रथम टर्की, तदनन्तर ईरान और अफगानिस्तान होते हुए कराची पहुंचे। उस समय कराची भारत का ही भाग था। कराची से बम्बई आ गए।
आप विद्वान् तो थे ही, आपकी अपनी विद्त्ता के आधार पर मिलिट्री में ‘सिविलियन सैंसर’ के पद पर नियुक्ति हुई। 1941 से 1945 तक इस पद पर बड़ी ईमानदारी तथा निष्ठा के साथ कार्य किया। शिक्षा के प्रति रुचि हाेने के कारण नौकरी के साथ अध्ययन भी चलता रहा। अपने कार्य की समाप्ति के बाद या अवकाश के क्षणों में बम्बई विश्वविद्यालय के प्राच्य विद्या विभाग में जाकर आप निरन्तर अनुसन्धान का कार्य करते रहते थे। इनके प्रतिदिन के अध्ययन को देखकर तथा इनके वैदुष्य तथा भारतीय संस्कृति एवं संस्कृत भाषा के स्नेह को देखकर भाण्डारकर प्राच्य शोध संस्थान के वेद के पण्डित स्वनाम धन्य प्रो. दांडेकर इनकी प्रतिभा तथा लगन से अत्यधिक प्रभावित इुए और उन्होंने भारतीय विद्या भवन के कुलपति डा. कन्हैयालाल माणिकलाल मुंशी से उनका परिचय कराया। डा. के.एम. मुंशी स्वयं तो विद्वान् थे ही वे विद्वानों की परख तथ आदर करने वाले महापुरुषों में से एक थे। डा.स्टर्नबाख् की विद्वत्ता को वे नजर अन्दाज न कर सके और उन्होंने डाक्टर साहब को भारतीय विद्या भवन में आदरी प्रोफैसर के रूप में नियुक्त कर दिया। धीरे धीरे आपका विश्वविद्यालय के विद्वानों से भी गहरा सम्पर्क हो गया। वे यद्यपि भारत में 6 साल तक की छोटी सी अवधि में रहे, पर इसी बीच आपने पंजाब, आंध्र, यू.पी., अन्नामलाई, मैसूर, कलकत्ता, उत्कल आदि विश्वविद्यालयों तथा ख्याति प्राप्त अनुसन्धान केन्द्रों, प्राच्य विद्या केन्द्रों में जाकर वहां के विद्वानों से मेलजोल किया। उन स्थानों पर व्याख्यान दिए तथा उन उन केन्द्रों में हो रहे अनुसन्धान के कार्यों से प्रभावित होकर उस क्षेत्र के प्रति अपनी गहरी पैठ बनाई।
इसी बीच विश्व युद्ध के एक यू.एन.ओ. का एक महत्त्वपूर्ण तथा महान् संगठन तैयार हुआ जिसका कार्य था विश्व को भविष्य में होने वाली युद्ध की विभीषिका से बचाना। पिछड़े राष्ट्रों को विकास की ओर उन्मुख करना तथा विश्व में स्थायी शान्ति स्थापित करने के लिए मार्ग प्रशस्त कर तदनुरूप कार्य कराना। डा.स्टर्नबाख् की अब तक प्रसिद्ध विद्वानों में गणना होने लगी थी। आपने अपनी विद्वत्ता परिश्रम तथा कार्यशैली के आधार पर अच्छी ख्याति प्राप्त कर ली थी। बहुमुखी प्रतिभा के धनी होने के कारण तथा कानून, समाजशास्त्र एवं भारतीय संस्कृति के प्रति अच्छी जानकारी होने से 1947 में आपकी नियुक्ति यू.एन.ओ.के ट्रस्टीशिप तथा पराधीन क्षेत्रों के विभाग में कर दी गई। उस विभाग में आपने अपनी ख्याति, निष्ठा तथा कर्मठता के अनुरूप 22 वर्ष तक निरन्तर अपने उत्तरदायित्व को निभाते हुए बड़ी शालीनता, सच्चरित्रता एवं विद्वत्ता के साथ कार्य किया।
जब आप सेवामुक्त हुए उस समय आप डिप्टी डायरैक्टर आफ रिसर्च जैसे ऊंचे पद पर कार्य कर रहे थे। उस समय यह पद सर्वोपरि माना जाता था तथा इने गिने व्यक्ति ही ऐसे पद पर पहुंच पाते थे। प्रो. स्टर्नबाख् का जीवन, अद्भुत लगन, निष्ठा तथा परिश्रममय रहा है। जिस दिशा को उन्होंने बचपन से पकड़ा उसी पर सतत गतिशील रहे। यद्यपि विघ्न आये फिर भी विघ्नों की परवाह न करते हुए वे अपने स्वाध्याय में प्रयत्नशील रहे तथा अपने जीवन को भारतीय विद्या और संस्कृति के प्रति पूर्वरूप से समर्पित कर दिया। इसी समर्पित भावना के कारण आप की पुनः फ्रांस में पैरिस के विश्वविद्यालय और ‘कालेज डी फ्रांस’ में हिन्दू धर्मशास्त्र तथा इण्डोलौजी के प्रोफैसर के रूप में नियुक्ति हो गई। इस बीच कालेज से सम्बन्धित कार्य करते हुए आपने यू.एन.ओ. के सेवाकाल में तथा अन्य समय में जो जो अनुसन्धान के कार्य किये उनको यहां भी आगे बढ़ाते रहे।
इस प्रकार डा. लुड्विक स्टर्नबाख् जीवन भर संस्कृत की सेवा करते हुए 25 मार्च, 1981 को अपने पार्थिव शरीर को छोड़ कर परलोकगामी हो गए। आज पार्थिव शरीर से विद्यमान न होने पर भी डा.स्टर्नबाख् ‘काव्यं यशसे’ मम्मट के इस कथन के अनुसार वे यशःकाय से आज भी विद्यमान हैं। जब तक संस्कृत साहित्य का एक भी अक्षर संसार में विद्यमान रहेगा तब तक डा. स्टर्नबाख् का नाम अमर रहेगा
कृतियाँ
डा. स्टर्नबाख् एक चलती-फिरती संस्था तथा पुस्तकालय थे। उन्होंने अपने जीवन में लगभग तीस ऐसे महान् ग्रन्थ लिखे जो पचास खण्डों में प्रकाशित हैं। एक खण्ड में सैंकड़ों पृष्ठ हैं। इसके अतिरिक्त लगभग डेढ़ सौ विद्वत्तापूर्ण शोध प्रबन्ध है। इनके अनेकों विवेचनात्मक लेख भी हैं, जिसमें से कुछ छपे हुए तथा कुछ अपूर्ण हैं। डा. स्टर्नबाख् की हस्तलिखित सामग्री को देखकर आश्चर्य होता है कि इस व्यक्ति ने कब और कैसे इन लेखों, शोध प्रबन्धों को लिखा होगा। डा.स्टर्नबाख् ने चाणक्यनीति तथा कौटिल्य अर्थशास्त्र से सम्बन्धित अनेकों ग्रन्थों का सम्पादन किया। चाणक्यनीति के प्रकाशित तथा अप्रकाशित सभी संस्करणों को एकत्रित कर उसका सम्पादन कर भारत या विदेशों में जिस किसी लाइब्रेरी में डा. स्टर्नबाख् को चाणक्यनीति सम्बन्धी कोई सामग्री या उसका हस्तलिखित ग्रन्थ मिला, जहां तक सम्भव था स्वयं जाकर उनके पाठों को उतारा या उनका अध्ययन किया। जहां नहीं जा सके वहां से फोटोस्टेट इत्यादि द्वारा सामग्री मंगाकर उसका अध्ययन किया पर ऐसा कोई पुस्तकालय नहीं होगा जो डा. स्टर्नबाख की पकड़ से बाहर रहा हो। विश्व के सभी पुस्तकालयों, अनुसन्धान केन्द्रों से प्रकाशित तथा अप्रकाशित सामग्री को एकत्रित कर उन्होंने जिस चाणक्यनीति का सम्पादन किया वह नीतिशास्त्र को उनकी एक महान् देन है। संस्कृत जगत् डा. स्टर्नबाख् की इस सेवा का यावत् चन्द्रदिवाकरौ ऋणी रहेगा।
डा. स्टर्नबाख् ने जिन काव्यों और साहित्यकारों के विषय में लिखा उनके विषय में तो लिखा ही है इसके अतिरिक्त इन्होंने लगभग 200 काव्य-लेखकों के विषय में जो खोज की और उनके विषय में जो लिखा, वह भी उनका एक अद्भुत कार्य है। उन्होंने ऐसे काव्यों के विषय में भी खोज की जिनकी रचनाएं तो प्राप्त नहीं पर उनके नाम से सुभाषितसंग्रहों में पद्य अंकित हैं या जिनके नाम सुभाषितसंग्रहों में ही पाये जाते हैं अन्यत्र नहीं।
डा. स्टर्नबाख् की संस्कृत वाङ्मय को जो सबसे बड़ी देन है वह है महासुभाषितसंग्रह। यह एक अद्भुत ग्रन्थ है। यद्यपि इनसे पहले अनेक सुभाषित ग्रन्थ सम्पादित किए गए, अनेकों सुभाषितों को संग्रह रूप में छापा गया पर यह एक ऐसा ग्रन्थ है जो उन सभी से पृथक् है। इसके पूर्ण रूप से प्रकाशित हो जाने पर शायद ही ऐसा अन्य कोई ग्रन्थ प्रकाशित हो सकेगा जो इस जैसा हो। इस ग्रन्थ में तीन प्रकार के सुभाषितों को संग्रहीत किया गया है। प्रथम इसमें वे पद्य हैं जिनका स्रोत सीधे ही काव्य नाटक आदि हैं। उन्होंने सभी सम्पूर्ण लौकिक संस्कृत के ग्रन्थों का मन्थन करके वहां से अद्भुत सुभाषितों को एकत्रित किया। जिस कवि के काव्यों के जितने संस्करण उपलब्ध हुए उन्होंने उन सभी का परस्पर तुलनात्मक अध्ययन कर, पाठभेद सहित सभी का संकेत टिप्पणियों में किया। दूसरे सुभाषितों में जिन पद्यों को कहीं से लिया गया, जो उनको अच्छे लगे उन्होंने लिखा। तीसरे प्रकार के ऐसे पद्य हैं, जो केवल मात्र सुभाषितों में ही मिलते हैं, वे जिन ग्रन्थें से या जिन कवियों के नाम से उल्लिखित हुए हैं उनका कोई अता-पता नहीं है। आपने इस प्रकार संस्कृत के विशाल साहित्य से सुभाषितों को एकत्रित कर ‘महासुभाषितसंग्रह’ नामक अद्वितीय ग्रन्थ का संकलन किया। विश्वेश्वरानन्द वैदिक शोध संस्थान उसका सम्पादन तथा अंग्रेजी अनुवाद सहित प्रकाशन कर संस्कृत साहित्य की महान् सेवा कर रहा है।
डा.स्टर्नबाख् ने जीवन में जो कुछ भी अर्जित किया वह अपने महासुभाषितसंग्रह के प्रकाशक वी.वी.आर.आई. को समर्पित कर दिया। उनके इस विशाल कार्यसे स्वतः ही सिद्ध हो जाता है कि वे एक अद्भुत मानसिक प्रतिभा के धनी थे। सारस्वत साधना को ही उन्होंने अपने जीवन का सर्वश्रेष्ठ लक्ष्य चुना हुआ था। यही कारण था कि उन्होंने आजीवन ब्रह्मचारी रहने का निश्चय किया और अपने इस ग्रन्थ को ही जीवन साथी मानकर उसकी सम्पन्नता को ही अपने गृहस्थ की सम्पन्नता मानकर पुत्रवत् उसका संरक्षण तथा संवर्धन किया। आपने अपने महासुभाषितसंग्रह में ऐसे भी सुभाषित जोड़े हैं जो केवल भारत में ही नहीं अपितु चीन, तिब्बत, कोरिया, श्रीलंका, बर्मा, जापान आदि देशों की लिपियों में लिखे हुए संस्कृत साहित्य से सम्बद्ध सुभाषित थे।
सन १९७९ में उनके द्वारा लिखित 'फेस्टस्क्रिप्ट' (Festschrift) में उनके द्वारा तब तक प्रकाशित सम्पूर्ण ग्रन्थों की सूची उपलब्ध है। स्टर्नबाख द्वारा रचित मुख्य ग्रन्थ निम्नलिखित हैं-
- Supplement to O. Böhtlingk's Indische Sprüche (Wiesbaden: Deutsche Morgenländische Gesellschaft/Kommissionsverlag Franz Steiner, 1965).
- A new Cāṇakya-Rāja-Nīti-Śāstra manuscript (मुम्बई : भारतीय विद्या भवन, 1958).
- The Mānava dharmaśāstra, I-III and the Bhaviṣya Purāṇa ( वाराणसी : अखिल भारतीय काशि राज ट्रस्ट, 1974).
- The spreading of Cāṇakya's aphorisms over "Greater India" (कलकता : कलकता ओरिएण्टल बुक एजेन्सी, 1969).
- Bibliography of Kauṭilīya Arthaśāstra (होशियारपुर : विश्वेश्वरानन्द संस्थान, 1973)
- "महासुभाषितसङ्ग्रह" : परिचय, आलोचनात्मक टिप्पणियों, अंग्रेजी अनुवाद के साथ आलोचनात्मक सम्पादन किया ; ३ भागों में ( होशियारपुर ; विश्वेश्वरानन्द वैदिक अनुसन्धान संस्थान, 1974–77).
- A descriptive catalogue of poets quoted in Sanskrit anthologies and inscriptions (Wiesbaden: Harrassowitz, 1978–80).
- Subhāṣita, gnomic and didactic literature (Wiesbaden : O. Harrassowitz, 1974).
- Poésie sanskrite dans les anthologies et les inscriptions (Paris: Collège de France, Institut de civilisation indienne/Diffusion, E. de Boccard, 1980–1985).
- The Kāvya-portions in the Kathā-literature (Pañcatantra, Hitopadeśa, Vikramacarita, Vetālapañcaviṁśatikā, and Sukasaptati); an analysis (दिल्ली : मेहरचन्द लक्ष्मणदास, [1971-1976])
- The Hitopadeśa and its sources (New Haven: American Oriental Society, 1960)
- With Varanasi Kauṭalya, A new abridged version of the Bṛhaspati-saṁhitā of the Garuḋa Purāṇa (Purāṅ Dept.: All-India Kashiraj Trust, 1966).
- व्याससुभाषितसङ्ग्रहः : लुड्व्हिक स्टेर्नबाख इत्येतैः अनेकमातृकाधारेण पाठान्तरादिभिः संशोध्य इदमप्रथमतया सम्पादितः ( वाराणसी : चौखम्भा संस्कृत सीरीज आफिस, 1969)
- Canakya's aphorisms in the Hitopadesá (I-IV), American Oriental Society. Publications. Offprint series, 28 (New Haven: American Oriental Society, 1956–57).
- गणिकावृत्तसन्ङ्रहः" या , "Texts on courtezans in classical Sanskrit (होश्यायारपुरे: विश्वेश्वरानन्दसम्स्थानप्रकाशनमण्डलम्, [1953])
- Indian riddles: a forgotten chapter in the history of Sanskrit literature (Hoshiarpur: Vishveshvaranand Vedic Research Institute, 1975).
- Bibliography on dharma and artha in ancient and mediaeval India (Wiesbaden: Harrassowitz, 1973).
- With Kauṭalya, The subhāsita-samgraha-s as treasuries of Cānakya's sayings (Hoshiarpur: Vishveshvaranand Institute, 1966).
- Cāṇakya-nīti-text-tradition = [Cāṇakya-nīti-śākhā-sampradāyah] (Hoshiarpur: Vishveshvaranand Vedic Research Institute, 1963-)
- Aphorisms and proverbs in the Kathā-sarit-sāgara (लखनऊ : अखिल भारतीय संस्कृत परिषद्, 1980-).
- With Kauṭalya, Cāṇakya-rāja-nīti: maxims on Rāja-nīti / compiled from various collections of maxims attributed to C[sup]-aṇakya (Adyar, Madras, India: The Adyar Library and Research Centre, 1963).
- The subhāsita-samgraha-s as treasuries of Cānakya's sayings (Hoshiarpur: Vishveshvaranand Institute, 1966).
- Unknown verses attributed to Kṣemendra (लखनऊ : अखिल भारतीय संस्कृत परिषद्, 1979).
- Traduction et commentaire de l'homélie écrite probablement par Théodore le Syncelle sur le siège de Constantinople en 626 / Ferenc Makk ; avec une préface de S. Szádeczky-Kardoss ; appendice, Analecta Avarica de L. Sternbach (Szeged: JATE, 1975).
सन्दर्भ
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