रोमन सेना
रोमन सेना की प्रगति को हम चार प्रमुख भागों में बाँट सकते हैं।
(1) रोम के प्रारंभिक युग में सेना एक नागरिक सेना थी।
(2) फिर इसका विकास विजयी गणतांत्रिक सेना में हुआ, जिसने क्रमश: इटली और भूमध्यसागरीय क्षेत्र का दमन किया। नागरिकों की पैदल सेना प्रति वर्ष की आवश्यकताओं के अनुसार आकार में बदलती हुई अंततोगत्वा अपनी लंबी सेवा तथा संगठन के साथ एक वेतनभोगी सेना के रूप में विकसित हुई।
(3) उसके बाद यह सुरक्षा की साम्राज्यवाहिनी बनी। नागरिक सेना से बदलकर यह दुर्गरक्षक सेना के रूप में परिणत हो गई और इसमें इटली तथा प्रदेशों के प्रतिनिधि भी थे।
(4) अंत में जंगली घुड़सवारों के आक्रमणों ने एक मैदानी सेना के निर्माण के लिए बाध्य किया, जो सीमा दुर्गरक्षक सेना से भिन्न थी और जिसमें बड़ी संख्या में सवार सम्मिलित हुए और जो शीघ्र ही पैदल सेना से अधिक महत्वशाली सिद्ध हुई। रोमन सेना पहले पैदल सिपाहियों की सेना थी, बाद की अवस्थाओं में उसमें घुड़सवारों की प्रमुखता हुई।
यह दीर्घ विकास निरंतर चलता रहा। वास्तव में यह विकास इतना अटूट है कि बहुत से सैनिक प्राविधिक शब्द युगों तक पूर्ववत् प्रयुक्त होते रहे। यद्यपि उनके अर्थ में गंभीर संशोधन हुए, किंतु उनका स्वरूप अपरिवर्तित व्यवस्था में निहित है। उदाहरण के लिए लीजन (Legion) शब्दावली सभी चार अवस्थाओं में आती है। किंतु प्रत्येक में इसका महत्व भिन्न है। सदैव इससे नागरिक सैनिकों का बोध हुआ, सदा इससे यह भी प्रगट हुआ कि यह एक सेना थी जो यदि पूर्णतया नहीं तो प्रमुख रूप से विशाल पैदल सेना थी, किंतु इन दो लगातार ढाँचों की रचना समय समय पर बदलती रही। प्रथम अवधि में लीजन अनिवार्य भरती सेना थी, मैदान सँभालने के लिए जिसका आवाहन किया जाता था। द्वितीय अवधि में 'लीजन' संपूर्ण सेना नहीं थी, बल्कि यह प्रमुख इकाइयों में से एक थी जिनमें विकासमान संगठन से सेना को विभाजित कर दिया गया था, लीजन अब करीब पाँच हजार व्यक्तियों का समूह थी। लीजनों की संख्या परिस्थिति के अनुसार बदलती थी और सेना में नागरिकों के अतिरिक्त दूसरी टुकड़ियाँ भी सम्मिलित थीं, यद्यपि अधिकतर वे महत्वपूर्ण नहीं थीं। तृतीय अथवा सम्राज्यवादी युग में बहुत सी लीजंस (वास्तव में एक नियत संख्या) विशेष दुर्गों में स्थित थी, अन्य टुकड़ियाँ भी थीं जिनमें बड़ी संख्या थी तथा जो महत्वपूर्ण थीं, यद्यपि अभी वे उतनी विशाल नहीं थीं जितनी लीजन थीं। अंत में लीजंस छोटी इकाइयाँ बन गईं और अन्य तथा घुड़सवार सेना रोम की वास्तविक युद्ध वाहिनी बनी।
प्रथम चरण
प्रारंभिक रोमन सेना का इतिहास ठीक से अभिलिखित नहीं तथा प्राय: मिथ्या कल्पनाओं से दूषित भी है। हम तीन सौ सवारों की प्रारंभिक वाहिनी तथा तीन हजार पैदल सैनिकों, जिनमें घुड़सवार लगभग सब कुछ समझे जाते थे, के विषय में पढ़ते हैं। किंतु यह संख्या स्पष्ट रूप से कृत्रिम तथा गढंत है। घुड़सवारों को दी गई प्रमुखता का कोई उल्लेख उत्तर रोम के इतिहास में नहीं मिलता। सर्वियस टूलिअस द्वारा किए गए संगठन के साथ हम दृढ़तर स्तर पर पहुँचते हैं। इस व्यवस्था में 17 वर्ष से लेकर 60 वर्ष तक की अवस्था के सभी नागरिक सेना में सम्मिलित होते थे। 47 वर्ष से नीचे के व्यक्ति लड़नेवाली सेना में तथा अधिक बड़ी अवस्था के लोग रोम में दुर्गरक्षक का काम करते थे। सर्वप्रथम सैनिकों की श्रेणियाँ संपदा के आधार पर की जाती थीं। खुद अपने घोड़े और कवच इत्यादि देनेवाले घुड़सवार होते थे। उनके सिवा विशाल पैदल सेना, शेष लघु पैदल सेना और कुछ तोपखाना होता था। विशाल पैदल सेना का अत्यधिक महत्व था। लंबे बल्लमों के साथ सुसज्जित तथा तीन श्रेणियों में विभक्त होकर सैनिक युद्धपंक्ति बनाते थे और सामूहिक रूप में आक्रमण करते थे तथा घुड़सवार दलों की रक्षा करते थे। लोग एक वर्ष के लिए भर्ती किए जाते थे अर्थात् गर्मी के युद्ध के लिए। पतझड़ में भसी प्रांरभ काल की सेना की भाँति घर चले जाते थे।
द्वितीय चरण
इस सरवियन सेना में क्रमिक परिवर्तन के होने पर विजयी गणतांत्रिक सेना का जन्म हुआ। प्राचीन अधिकारी बतलाते हैं कि कैमिलस ने वेतन और दीर्घ सेवा का प्रारंभ किया, कवच और हथियारों में सुधार किया और सेना के छोटे छोटे डिवीजन बनाए।
कैमिलस के विषय में जो कुछ भी सत्य हो इस तरह के कुछ सुधार कभी अवश्य ही सरवियन व्यवस्था को ऐसी सेना में बदलने के लिए किए गए थे, जो इटली और संसार को जीतने में लगभग तीन शताब्दियों तक (350 ई. पूर्व से) लगी रही। इस सेना ने क्रमश: इटली के दृढ़ सैनिकों तथा स्पेन के पर्वतारोहियों को पराजित किया और मेसीडोनिया के प्रशिक्षित सैनिकों को भी हरा दिया। केवल एक बार हनीबाल के विरुद्ध अवश्य असफल रही किंतु हनीबाल भी इसे खाइयों से हटा न सके और उसकी विजय भी उसकी हिम्मत को स्थायी रूप से तोड़ न सकी। इसकी अधिक शक्ति का कारण था साधारण सिपाहियों का श्रेष्ठ चरित्र, कठोर अनुशासन और उच्च प्रशिक्षण।
द्वितीय चरण में सेना का आकार तथा उसकी बनावट
साधारण रिवाज के अनुसार दो कौंसलों (consul) में से प्रत्येक को एक सेना के दो लीजनों का संचालन करना पड़ता था। यदि दोनों कौंसल अपनी सेनाओं को संयुक्त करते थे, तो इस संयुक्त सेना को वे क्रम से संचालित करते थे (जैसा प्राय: होता था), इसमें 4 लीजन, प्रत्येक में 4200 पैदल, मित्रों की पैदल सेना की वही संख्या, (कुल 33600 पैदल सिपाही), 1200 लीजिनरी घुड़सवार और लगभग 3600 मित्र सेना के घुड़सवार, कुल 38400 मनुष्य थे। उदाहरणत: ट्रीबिया में (218 ई. पूर्व) इस प्रकार की रोमन सेना थी, जहाँ सोलह हजार लीजनरी तथा बीस हजार मित्र पैदल सेना ने युद्ध किया। युद्धस्थल में मनुष्यों की कुल संख्या बढ़ाई जा सकती थी। द्वितीय प्यूनिक युद्ध में एक बार 23 लीजन सेना के लड़ने की बात हम सुनते हैं। 225 ई. पूर्व में, इस युद्ध के ठीक पहले रोम की कुल सैन्यशक्ति साढ़े सात लाख थी जिसमें से लगभग 65000 युद्धस्थल में और 55000 रोम में सुरक्षित सैनिक थे। कुल सैनिकों में से 325000 रोमन नागरिक थे और 443000 मोटे अनुमान से मित्र सैनिक थे। सामान्य परिस्थितियों में युद्ध व्यवस्था साधारण थी। मध्य में रोम की पैदल सेना खड़ी होती थी। उसके उभय पार्श्व में मित्र पैदल सेना होती थी, दाएँ बाएँ घुड़सवार भी होते थे किंतु कभी कभी रोमन सेनाएँ रक्षित रहती थीं और युद्ध प्रहार का काम मित्र सेनाओं के ऊपर छोड़ दिया जाता था। प्राय: आक्रमण एक पक्ष से प्रारंभ होता था, जैसे सीजर ने फारसेलस में किया था। स्पेन के इलिया नामक स्थान पर सिपियों ने अपनी सैन्य व्यवस्था में अंतिम समय परिवर्तन लाकर शत्रुओं को चकित कर दिया। अपनी स्पेनिश सहायक सेनाओं को मध्य में तथा रोमन टुकड़ियों को बगल में करके, उसने केंद्र को अनुप्राणित कर पुन: दोनों पक्षों से आक्रमण किया।
द्वितीय चरण से तृतीय चरण तक
गणतंत्र के अंतिम समय में रोमन सेना में स्वयं अनेक परिवर्तन कार्यशील होने लगे। स्पेन में और पूर्व में दीर्घकालीन विदेशी युद्धों के कारण यथेष्ट प्रभाव पड़ा। इसके अतिरिक्त समृद्धिशाली राज्य के रूप में रोम का विकास होने से उस प्राचीन सिद्धांत का अंत हो गया जिसके अनुसार प्रत्येक नागरिक एक सैनिक था। परिणामस्वरूप अब व्यापारी और सेना के बीच श्रमविभाजन हो गया। साथ ही युद्ध की बढ़ती जटिलताओं के कारण दीर्घकालीन प्रशिक्षण तथा पेशेवर सैनिकों की आवश्यकता हुई। फलस्वरूप, लगभग 104 ई. पूर्व में मैरिअस ने कुछ प्रकार की संपदा के आधार पर मनुष्यों के लिए सैनिक सेवा के पुराने प्रतिबंध को समाप्त कर दिया। अब सेनाएँ पूर्णत: सर्वहारा और पेशेवर हो गई।
मेरिअस के नाम पर ही द्वितीय परिवर्तन द्वारा सेना का पुन: संगठन हुआ जिसमें 6000 सिपाही थे। 30 छोटी टुकड़ियों के स्थान पर सेना अब 10 डिवीजनों (कोहर्ट्स) में विभाजित की गई। इस प्रकार कार्यनिपुणता की इकाई 120 व्यक्तियों के स्थान पर 600 की हो गई। शीघ्र ही इसके पश्चात् सभी इटली वासियों के लिए रोमन मताधिकार के विस्तार ने मित्र राज्यों तथा अधीन राज्यों की प्रजाओं को भी नागरिकों का रूप दे दिया। एक चौथे परिवर्तन ने लीजनरी घुड़सवारों को समाप्त कर दिया और सहायक सेना को बहुत बढ़ा दिया।
तृतीय चरण
सुरक्षा की साम्राज्यवादी सेना-गृहयुद्धों (49-31 ई.पू.) की बुराइयों ने प्रथम सम्राट् आगस्टस को सेना के सुधार के लिए आवश्यकता तथा अवसर प्रदान किया। 20 वर्ष से अव्यवस्था बनी हुई थी, अत: राजभक्ति तथा व्यवस्था समान रूप से पुन:स्थापित करना आवश्यक था। आगस्टस ने जिस प्रकार अपने सभी कामों को पुरानी बातों का अनुसरण करते हुए किया उसी प्रकार उसने यह भी किया। फिर भी इस कथन में सत्यता है कि उसके सैन्य सुधार उसके महानतम तथा सबसे अधिक मौलिक कार्य हैं। साम्राज्य की सेना अब दो श्रेणियों अथवा वर्गोवाली हो गई, जो संख्या में लगभग समान, किंतु महत्व में असमान थे। प्रथम वर्ग की वह सेना थी जिसमें रोमन नागरिक, चाहे वे इटली के निवासी थे या प्रांतों के, भर्ती किए जाते थे। दूसरी श्रेणी सहायक सेना से बनी थी, जिसमें साम्राज्य की प्रजा (नागरिक नहीं) भर्ती की जाती थी। रोम में विशेष प्रकार की घरेलू टुकड़ियाँ भी थीं और विजिलीस या प्रहरियों का एक बहुत बड़ा दल था जो फायर ब्रिगेड और पुलिस दोनों का काम करता था।
तृतीय चरण में सेना का संगठन तथा टुकड़ियों का विभाजन
यदि लीजन्स और सहायक सेना की यह व्यवस्था साम्राज्य के प्रारंभिक दिनों में अनूठी थी, तो इनका प्रयोग भी इससे कम अनूठा नहीं था। बाद के गणतंत्र में विशाल सामरिक सेना दिखाई पड़ती है, यद्यपि विशेष प्रदेशों के लिए विशेष लीजन की व्यवस्था की प्रवृत्ति का भी आभास होता है, किंतु यह प्रवृत्ति बहुत क्षीण है। आगस्टस ने विशाल सामरिक सेना के युग को समाप्त कर दिया वह राजसिंहासन के भावी दावेदारों के लिए ऐसे हथियारों की छूट नहीं दे सकता था। निश्चित सीमा के भीतर साम्राज्य को रखते हुए उसने एक दूसरी प्रवृत्ति विकसित की। तत्कालीन सैनिक स्थिति में वह नीति पूर्णत: ठीक उतरी। प्रारंभिक रोमन साम्राज्य को आधुनिक साम्राज्यों की तरह समान शत्रु के साथ युद्ध संकट और अपनी पूरी राष्ट्रीय सेना को युद्ध करने के लिए प्रवृत्त करने की आवश्यकता का सामना नहीं करना पड़ा। आगस्टस के समय से लेकर 250 ई. तक रोम का कोई भी ऐसा शत्रु नहीं था जिससे आक्रमण का भय हो। सुदूरपूर्व में अवश्य उसके बराबर शक्तिशाली तथा उसके लिए घातक एक राज्य पार्थिया था पर वह उसपर हमला करने के योग्य नहीं था। अन्यत्र उसकी सीमाएँ कम या अधिक जंगली असभ्यों से घिरी हुई थीं जो प्राय: कष्टदायक होते हुए भी गंभीर क्षति नहीं पहुँचा सकते थे। इनका सामना करने के लिए दो या एक छावनियों में केंद्रित दृढ़ सेना की ऐसी कोई आवश्यकता नहीं थी बल्कि प्रत्येक सीमा पर बहुत से बिखरे हुए दुर्गरक्षकों की आवश्यकता थी जिनके निकट थोड़े से मजबूत किले हों जो इन दुर्गरक्षकों के लिए सैनिक केंद्र के रूप में कार्य कर सकें।
इसके अनुसार आगस्टस तथा उसके उत्तराधिकारियों के समय एक व्यवस्था निश्चित हुई, जिससे पूरी सेना सीमाओं पर अथवा विशेष रूप से अव्यवस्थित जिलों में (उत्तरी पश्चिमी स्पेन) स्थायी दुर्गरक्षकों के रूप में विभाजित कर दी गई। वास्तविक सीमाओं पर तथा उनसे मिलनेवाले राजमार्गों पर मुख्य सेनाओं के डिवीजन और सहायक सैनिक टुकड़ियाँ अपने तीन से सात एकड़ विस्तारवाली चौकियों की रक्षा करते हुए स्थित थे। सीमाओं के ठीक पीछे या सीमाओं पर भी 50, 60 एकड़ के लघु दुर्गों में 25 लीजन सैनिक तैनात थे। कभी कभी जहाँ राइन अथवा डैन्यूब सहायता नहीं करती थीं और जहाँ बाहरी शत्रु बहुत होते थे, वहाँ सीमा की अतिरिक्त किलाबंदी लकड़ी के खंभों की लगातार दीवालों से होती थी (जैसे जर्मनी के भाग में) अथवा पत्थर की दीवालों से (जैसे ब्रिटेन में), या फिर सीमा पर स्थित चौकियों से पहरा दी जानेवाली सड़कों द्वारा सीमा की रक्षा होती थी (जैसे रोमन अफ्रीका के भागो में)। परिणाम यह हुआ कि जर्मन महासागर से कृष्ण महासागर तक ब्रिटेन और यूरोप तक तथा ऊपरी यूफरीटीज घाटी तथा ट्यूनिशिया अल्ज़िरिया और मोरक्को के दक्षिण सहारा के उपांत तक एक लंबी सीमा प्रहरियों द्वारा रक्षित थी किंतु विस्तृत साम्राज्य के भीतर शायद ही कभी एकाध सिपाही दिखाई देता था।
तृतीय चरण से हुए क्रमिक परिवर्तन
दो प्रमुख कारणों ने आगस्टस की सेना में क्रमश: परिवर्तन किया। सर्वप्रथम रोमसाम्राज्य की शांति ने अनेक जिलों में ऐसी समृद्धि ला दी कि उन जिलों से पर्याप्त मात्रा में सैनिक मिलने बंद हो गए। भारत में अंग्रेजों की भाँति रोमनों को भी असभ्य भागों तथा अपनी सीमाओं के बाहर भी अधिकाधिक ध्यान देना पड़ा। इसलिए दूसरी शताब्दी में और उसके बाद विदेशी सैनिकों का एक नया वर्ग आया जो अपने राष्ट्रीय हथियारों तथा युद्धविद्या का प्रयोग प्रारंभिक सहायक सैनिकों की भाँति करता रहता था। अधिक से अधिक गैर-रोमन तत्व सेना में देख पड़ने लगे। यह प्रवृत्ति तीसरी शताब्दी में बहुत स्पष्ट हो गई और इसके अंत में इसके गंभीर परिणाम निकले। दूसरी बात यह हुई कि केवल सीमा रक्षा के पुराने दिन समाप्त हो गए। 160 ई. से ही जंगली लोगों ने साम्राज्य की सीमाओं पर धावा बोलना शुरू कर दिया। 250 ई. के लगभग कुछ स्थानों पर वे सफल हुए और इसके बाद उनकी संख्या सदा बढ़ती गई। इसके अतिरिक्त वे घोड़ों की पीठ पर चढ़कर आए थे, जिससे रोमन पैदल सेना को नई व्यूहरचना का सामना करना पड़ा। ऐसी स्थिति में साम्राज्य जो कुछ कर सकता था, किया। उसने जंगलियों से लड़ने के लिए जंगलियों की भर्ती की और सेना में रोमनों के अतिरिक्त अन्य तत्वों को स्वतंत्रतापूर्वक मिलाया। इससे उनके घुड़सवारों की शक्ति अपेक्षाकृत बढ़ गई और एक विशिष्ट क्षेत्रीय युद्धसेना संगठित होनी प्रारंभ हो गई।
चतुर्थ चरण
डायोक्लेशियन तथा कांस्टेंटिन महान् (284 ई. लगभग 320) के सुधारों में इसके परिणाम दिखाई दिए। नए सीमाप्रहरी स्थापित किए गए और प्राचीन सेना युद्धसेना के रूप में पुन: संगठित हुई जो युद्ध के समय सम्राट् के साथ प्रयाण करती थी या कर सकती थी। लीजन्स की महत्ता कम हुई। प्रमुख सिपाही वेतनभोगी थे जो अधिकतर जर्मन थे और असभ्य लोगों में से भर्ती किए गए थे। अब नए पदों की सृष्टि हुई और स्पष्ट हो गया कि बहुत बातों में व्यवस्था पुरानी नहीं है। इस व्यवस्था के विस्तृत विवरण उतने ही जटिल हैं जितने इस युग के प्रशासनिक ढाँचे।
युद्ध कार्यालय
गणतंत्र के भीतर न तो हम कोई ऐसी केंद्रीय संस्था पाते हैं और न पाने की वास्तव में हमें आशा ही करनी चाहिए, जिसे सैन्य व्यवस्था का विकास या सैन्य वित्त या युद्धकालीन सैन्य नीति का कार्य विशेष रूप से सौंपा गया हो। फिर साम्राज्य के भीतर भी इस तरह का कोई संगठन नहीं था। नि:संदेह सम्राट् ही, सेनापति के रूप में और उनके कम या अधिक गैरसरकारी सलाहकार नीति के प्रश्नों का निश्चय करते थे। किंतु सेना प्रादेशिक सेनाओं का ऐसा समूह थी कि प्रत्येक प्रदेश में प्रमुख अधिकारियों के ऊपर बहुत कुछ छोड़ दिया जाता था। साम्राज्य के दूसरे भागों की तरह यहाँ भी यदि स्वशासन के लिए नहीं, तो कम से कम लगातार परिवर्तन के प्रति प्रेम हमें दिखाई देता है। रोम में एक केंद्रीय वित्त कार्यालय था। जिसका कार्य नौकरी से हटे हुए सिपाहियों की आर्थिक सहायता की व्यवस्था करना था सन् 6 ई. में आगस्टस ने इसे स्थापित किया था और इसकी आय के लिए वसीयतनामा पर 5 प्रतिशत, विक्री पर 1 प्रतिशत कर लगता था। वसीयतनामा का कर निकट के सबंधियों या थोड़ी रकमों पर नहीं लगाया जाता था।