राज्य का उत्तराधिकार
ऑपेनहाइम के कथनानुसार किसी राज्य का उत्तराधिकार उस समय घटित होता है जब किसी राज्य की स्थिति में परिवर्तन होने के कारण अंतरराष्ट्रीय स्वीकृतिप्राप्त कोई राज्य ऐसे ही किसी या किन्हीं राज्यों का स्थान ग्रहण कर लेता है।
राज्य के उत्तराधिकार (Succession of states) का विषय उन दो राज्यों के अधिकारों और दायित्वों के हस्तांतरण से संबंध रखता है, जिनमें एक होता है तिरोहित या विलुप्त राज्य (वह राज्य जिसका अस्तित्व समाप्त हो जाता है और उसी का उत्तराधिकार दूसरे राज्य को मिल जाता है) और दूसरा होता है उत्तराधिकारी राज्य (अर्थात् वह राज्य जो दूसरे राज्य का स्थान ग्रहण करता है)। पहले अथवा विलुप्त राज्य के अधिकार और दायित्व दूसरे राज्य के हाथ में चले जाते हैं।
राज्य का उत्तराधिकार दो प्रकार का होता है-
- (1) पूर्ण और
- (2) आंशिक।
पूर्ण उत्तराधिकार उस समय होता है जब पराजय अथवा ऐच्छिक विलयन के कारण काई अंतरराष्ट्रीय स्वीकृतिप्राप्त राज्य अन्य ऐसे ही अंतरराष्ट्रीय स्वीकृतिप्राप्त राज्य द्वारा आत्मसात् कर लिया जाता है। उदाहरणस्वरूप, सन् 1936 में इटली द्वारा अबीसीनिया का समामेलन या स्वाधिकरण, (Annexation) अथवा सन् 1958 में मिस्र और सीरिया का विलयन।
आंशिक उत्तराधिकार उस समय होता है-
(1) जब किसी राज्य का कोई प्रदेश विद्रोह करके पृथक् हो जाता है और स्वयं एक अंतरराष्ट्रीय स्वीकृतिप्रापत राज्य बन जाता है, जैसे सन् 1776 में संयुक्त राज्य अमरीका का अपने पितृराज्य ब्रिटेन से पृथक् हो जाना; अथवा-
(2) जब अभ्यर्पण द्वारा कोई राज्य किसी अन्य राज्य के किसी प्रदेश पर अपना अधिकार स्थापित कर लेता है, जैसे, सन् 1847 में संयुक्त राज्य अमरीका में कैलिफोर्निया का अभ्यर्पण; अथवा-
(3) जब पूर्ण संप्रभुताप्राप्त कोई राज्य, अपनी स्वतंत्रता का कुछ अंश खोकर, किसी संघ राज्य में सम्मिलित हो जाता है, अथवा किसी अधिक शक्तिशाली सत्ता के आधिपत्य अथवा संरक्षण में आ जाता है, अथवा जब कोई अपूर्ण संप्रभुताप्राप्त राज्य पूर्ण संप्रभुताप्राप्त राज्य का स्वरूप प्राप्त कर लेता है, जैसे सन् 1938 में चैकेस्लोवाकिया का विखंडित होना।
यह प्रश्न अभी तक असंदिग्ध रूप से निर्णीत नहीं हो सका है कि जब कोई राज्य किसी अन्य राज्य का स्थान ग्रहण कर लेता है तो वह लुप्त राज्य के अधिकारों और दायित्वों कर उत्तराधिकारी बनता है अथवा नहीं। कुछ लेखक इस प्रश्न पर विचार करते करते इसं अंतिम सिरे पर जा पहुँचते हैं कि अधिकारों और दायित्वों का उत्तराधिकार कभी होता ही नहीं। कुछ अन्य लोगों का विचार है कि उत्तराधिकारी राज्य पर कुछ अधिकार और दायित्व तो आ ही जाते हैं। परंतु ऐसी बात किसी भी लेखक ने मान्य नहीं कि है कि लुप्त राज्य के सभी अधिकार और दायित्व उत्तराधिकारी राज्य पर आ ही जाते हैं। विभिन्न राज्यों में जो पद्धति प्रचलित है, उससे यह बात प्रकट है कि सामान्यतया ये सब बातें उत्तराधिकार में नहीं आतीं। व्यवहार और प्रचलन में रहनेवाली भिन्नता और विभिन्न लेखकों के विचारों में रहनेवाले मतभेदों के कारण ही उन संधिपत्रों में, जिनके द्वारा राज्य उत्तराधिकारिता स्थापित होती है, सामान्यत: इन विषयों के संबंध में स्पष्ट उल्लेख कर दिया जाता है।
संधि से प्राप्त होनेवाले अधिकार और दायित्व
संधिपत्रों द्वारा उत्तराधिकारी राज्य को तिरोभूत राज्य से जो अधिकार और दायित्व प्राप्त होते हैं, वे इस बात पर निर्भर करते हैं कि संधि किस प्रकार की है। शुद्ध राजनीतिक संधियों में (जैसे मैत्री अथवा पारस्परिक सुरक्षा संबंधी संधियों में) उत्तराधिकारी राज्य को कोई अधिकार अथवा दायित्व नहीं प्राप्त होते और जो विलुप्त राज्य इस प्रकार की संधियाँ करता है, उसकी परिसमाप्ति के साथ ही ये अधिकार या दायित्व पूर्णत: समाप्त हो जाते हैं। ये व्यक्तिगत संधियाँ होती हैं और स्वभावत: इनमें पहले से ऐसा मान लिया जाता है कि संधि करनेवाले राज्यों का अस्तित्व है। परंतु यह प्रश्न अभी विवादास्पद है कि राज्य द्वारा की गई वाणिज्य संधियाँ, विदेशी अपराधियों के प्रत्यर्पण संबंधी संधियाँ अथवा इसी प्रकार की संधियाँ वैध रहती हैं अथवा नहीं। अधिकांश लेखकों का मत है कि तिरोहित राज्य की समाप्ति के साथ ये संधियाँ भी समाप्त हो जाती हैं। कारण, यों एक प्रकार से ऐसी संधियाँ अराजनीतिक प्रकार की संधियाँ होती हैं, परंतु इनमें भी कुछ राजनीतिक बातें तो रहती ही हैं।
संविदजनित दायित्व
अंतरराष्ट्रीय विधान में ऐसा कोई सामान्य सिद्धांत नहीं है कि उत्तराधिकारी राज्य तिरोहित राज्य के संविदजनित दायित्वों का भी उत्तराधिकारी होता है। संधिपत्र में यदि ऐसा कोई प्रतिकूल नियम न हो तो सामान्य: ऐसा नहीं माना जाता कि उत्तराधिकारी राज्य को ये दायित्व प्राप्त हुए हैं। अंतरराष्ट्रीय विधान में पहले ऐसा माना जाता था कि उत्तराधिकार में संविदजनित दायित्व प्राप्त नहीं होते। वेस्ट रैंड सेंट्रल गोल्ड माइनिंग कंपनी बनाम रेक्स (1905) 2 के। बी. 391 के मुकदमे में एक अंग्रेजी न्यायालय ने यह तर्क अस्वीकार कर दिया था कि विजयी राज्य की प्रभुसत्ता विजित राज्य के दायित्वों के लिए उत्तरदायी है। उक्त न्यायालय का मत था कि ऐसे दायित्वों को स्वीकार या अस्वीकार करना विजयी राज्य की इच्छा पर निर्भर करता है।
दायित्वों का उत्तराधिकार प्राप्त न होने के इस सिद्धांत की कठोरता में क्रमश: संशोधन होता गया और अब तो एक नया सिद्धांत विकसित हो रहा है कि उत्तराधिकारी राज्य का कर्तव्य है कि वह विलुप्त राज्य के व्यक्तियों के संनिहित अधिकारों का आदर करे।
राज्यों के हाल के प्रचलन से मानों अंतरराष्ट्रीय विधान का यह नियम सा स्थापित होता जा रहा है कि उत्तराधिकारी राज्य को जानता के व्यक्तिगत संप्राप्त अधिकारों का सगुचित आदर करना चाहिए, फिर यह उत्तराधिकार चाहे किसी राज्य के समर्पण से प्राप्त हुआ हो, चाहे अनुबंध से अथवा राज्य के अंगच्छेद से।
सार्वजनिक ऋण
सार्वजनिक ऋण के उत्तराधिकार के संबंध में विभिन्न राज्यों में भिन्न भिन्न प्रकार की रीतियाँ प्रचलित हैं। वैधानिक भाषा में कहा जाए तो उत्तराधिकारी राज्य इस बात के लिए बाध्य नहीं है कि वह विलुप्त राज्य द्वारा लिए गए सार्वजनिक ऋणों का भुगतान करे। यह केवल तभी हो सकता है, जब इस संबंध में कोई विशेष संधि की गई हो। सामान्यत: अनुबंधन अथवा अभ्यर्पण की संधियों में इस बात का उल्लेख रहता है कि उत्तराधिकारी राज्य विलुप्त राज्य के सार्वजनिक ऋण का देनदार रहेगा अथवा नहीं।
विलुप्त राज्य के व्यक्तिगत ऋणदाताओं को ऐसा कोई हस्तक्षेप का अधिकार नहीं रहता, जिससे वे उत्तराधिकारी राज्य पर अपने ऋण का व्यक्तिगत रूप से दावा कर सकें। उनका अपना राज्य विलयनकारी राज्य पर इस बात के लिए दबाव डाल सकता है कि वह राज्य का ऋण चुकाने के अंतरराष्ट्रीय दायित्व को वहन करे।
जान माल की हानि और संविदाभंग की क्षतिर्पूति
उत्तराधिकारी राज्य इस बात के लिए बाध्य नहीं है कि वह तिरोहित राज्य को पहुँचाई गई क्षति के संबंध में अदा न किया गया तावान या हर्जाना चुकाए। परंतु यदि उक्त राज्य के विलयन के पूर्व उसने क्षतिपूर्ति का ऐसा कोई दायित्व स्वीकार किया है और उसके फलस्वरूप यदि कोई ऋण लिया गया है तो उत्तराधिकारी राज्य का यह कर्तव्य है कि वह उसे चुकाए।
इसी प्रकार संविदाभंग की क्षतिपूर्ति भी उत्तराधिकारी राज्य से वसूल नहीं की जा सकती परंतु यदि पहले से ही परिलुप्त राज्य से ऐसी क्षतिपूर्ति का निश्चय कर लिया गया है तो विलयकारी राज्य को उसे चुकाना चाहिए।
सार्वजनिक कोष और सार्वजनिक संपत्ति
यह बात सामान्यत: स्वीकार कर ली गई है कि उत्तराधिकारी राज्य तिरोहित राज्य के सार्वजनिक कोष और उसकी सार्वजनिक चल अचल संपत्ति पर अपना अधिकार स्थापित कर लेता है।
विद्रोह दबाने पर संपत्ति का उत्तराधिकार
विद्रोह दबाने पर पितृराज्य, अपने सार्वभौम पद के नाते संपत्ति प्राप्त कर लेता है, फिर वह संपत्ति चाहे उसके प्रदेश के अंतर्गत हो, चाहे विदेशी राज्य के अंतर्गत पितृ राज्य की वह संपत्ति हो जिसपर विद्रोही सरकार ने अपना आधिपत्य स्थापित कर लिया था। विद्रोही सरकार ने यदि स्वेच्छादत्त चंदेक के रूप में विदेशी राज्यों में कुछ संपत्ति एकत्र कर ली हो तो पितृराज्य उसे भी प्रापत कर सकता है।
बाहरी कड़ियाँ
- European Journal of International Law – State Succession in Respect of Human Rights Treaties
- Wilfried Fiedler: Der Zeitfaktor im Recht der Staatensukzession, in: Staat und Recht. Festschrift für Günther Winkler, Wien, 1997, S. 217-236. (German में)
- Wilfried Fiedler: Staatensukzession und Menschenrechte, in: B. Ziemske u.a. (Hrsg.), Festschrift für Martin Kriele, München 1997, S. 1371-1391 (German में)