राजीवलोचन मंदिर
यह लेख मुख्य रूप से अथवा पूर्णतया एक ही स्रोत पर निर्भर करता है। कृपया इस लेख में उचित संदर्भ डालकर इसे बेहतर बनाने में मदद करें। |
राजिम में महानदी के तट पर छत्तीसगढ़ का प्रसिद्ध राजीव लोचन मंदिर स्थित है जहाँ पर भगवान विष्णु प्रतिष्ठित हैं। प्रतिवर्ष यहाँ पर माघ पूर्णिमा से लेकर शिवरात्रि तक एक विशाल मेला लगता है। यहाँ पर महानदी, पैरी नदी तथा सोंढुर नदी का संगम होने के कारण यह स्थान छत्तीसगढ़ का त्रिवेणी संगम कहलाता है।[१] राजीवलोचन मंदिर एक विशाल आयताकार प्राकार के मध्य में बनाया गया है। भू-विन्यास योजना में यह मंदिर-महामण्डप, अन्तराल, गर्भगृह और प्रदक्षिणापथ, इन चार विशिष्ट अंगों में विभक्त है।
महामण्डप
नागर प्रकार के प्राचीन मंदिरों में महामण्डप सामान्यत: वर्गाकार बनाये जाते थे, परन्तु राजिम के प्राय: सभी मंदिरों की ही भाँति इस मंदिर का यह महामंडप भी आयताकार है। महामण्डप के प्रवेश-द्वार की अन्त:भित्ति कल्पलता अभिकल्प द्वारा अलंकृत है। लतावल्लरियों के बीच-बीच में विहार-रत यक्षों की विभिन्न भाव-भंगिमाओं तथा मुद्राओं में मूर्तियाँ उकेरी गयी है। कहीं-कहीं मांगल्य विहगों का भी रुपायन है। जहाँ से कल्पलता अभिकल्प के बाँध को प्रारम्भ किया गया है। उसके नचे हरि हंस (दिव्यासुपर्णा:) का मोती चुगते हुए अत्यन्त ही अलंकरणात्मक ढंग से रुपायन है।
बाँयी पार्श्व भित्ति के प्रथम भित्ति स्तम्भ पर प्रभा-मंडप युक्त पुरुष की खड़ी प्रतिमा है जिसके एक हाथ में धनुष है तथा दूसरा हाथ कमर पर है। इस मूर्ति के कमर पर कटार बंधा हुआ है तथा यह सिर में मुकुट, भुजाओं में भुजबंध, हाथ में कड़े, कानों में कुन्डल, गले में हार, स्कंध पर लटकता यज्ञोपवीत धारण किया हुआ है। तीसरे भित्ति-स्तंभ पर पत्र-पुष्प से आच्छादित (अशोक) वृक्ष के नीचे त्रिभंग मुद्रा के निर्देशक रूप में है तथा दूसरा हाथ पार्श्व में खड़े पुरुष के स्कंध को लपेटे हुए दिखाया गया है। पुरुष मूर्ति में प्रथम की प्रतिमा लक्षणों का अभाव है, परन्तु वह नारी मूर्ति की तुलना में अपेक्षाकृत लघुकाय वाली है। इस पुरुष को हाथ में सर्प थामें हुए अभिव्यक्ति किया गया है। लोग अज्ञानतावश इसे सीता की प्रतिमा मानते हैं। परन्तु वस्तुत: यह श्रृंगारिक भावनाआें से संबंधित मूर्ति है। सर्पयुक्त पुरुष काम का प्रतीक है। अत: यह रतिसुखाभिलाषिणी अभिसारिका नायिका की मूर्ति जान पड़ती है। सुग्गे की उपस्थिति से इस विचार की पुष्टि होती है। चौथे, भित्ति-स्तंभ पर मकरवाहिनी गंगा की मूर्ति त्रिभंग मुद्रा में अभिव्यक्त की गयी है। पाँचवे, भित्ति-स्तंभ प्रदेश विष्णु के नृसिंह अवतार की मूर्ति से मण्डित है। छठे, भित्ति-स्तंभ पर पुरुष पारिचालक की प्रतिमा बनायी गयी है।
दाहिने बाजू के प्रथम भित्ति-स्तंभों पर बायें बाजू के भित्ति-स्तंभ के मूर्ति के समकक्षीय राजपुरुष की प्रतिमा है। दाहिने पार्श्व के दूसरे भित्ति-स्तंभ पर अष्टभुजी दुर्गा की प्रतिमा है। तीसरे भित्ति-स्तंभ पर आम्रवृक्ष की छाया में खड़ी नारी का त्रिभंग मुद्रा में आलेखन है। इस नारी मूर्ति के पार्श्व में अपेक्षाकृत लघुकाय वाला पुरुष विग्रह रुपायित है। चौथे भित्ति-स्तंभ पर कूर्मवाहिनी यमुना की मूर्ति है। पाँचवे पर भगवान विष्णु के नृवाराह रूप का मूर्ति रूप में चित्रण है। छठे भित्ति-स्तंभ पर पुरुष परिचायक की मूर्ति है।
अन्तराल
अन्तराल गर्भगृह और महामंडप के मध्य में बनाया जाने वाला वास्तु-रुप था। इस प्रवेश द्वार के प्रथम पाख (शाख) पर कल्पलता अभिकल्प का चार चित्रण है। द्वितीय शाख पर विविध भाव-भंगिमाओं, मुद्राओं तथा चेष्टाओं में मिथुन की आकर्षक मूर्तियाँ है। तृतीय शाख अर्धमानुषी रूप में नाग-नागिनों के युगनद्ध बांध से भरा हुआ है। जो सिरदल पर्यन्त भाग को व्यास किया हुआ है। ललाटबिम्ब पर गरुड़ासीन विष्णु की चतुर्भुजी प्रतिमा है। ये अपने हाथों में शंख, चक्र, गदा और पदम् धारण किये हुए हैं। गरुड़ की मूर्ति के अंकन में अप्रतिम शक्ति और शौर्य के भावों की मंजुल अभिव्यक्ति है। बाहर की ओर फैले हुए इनके दोनों हाथों को क्रमश: एक-एक नाग को पकड़े हुए अंकित किया गया है।
गर्भगृह
इस गर्भगृह में मूल देवता की मूर्ति प्रतिष्ठित है। यह प्रतिमा काले पत्थर की बनी विष्णु की चतुर्भुजी मूर्ति है, जिसके हाथों में क्रमश: शंख, गदा, चक्र और पदम है। भगवान राजीवलोचन के नाम से इसी मूर्ति की पूजा-अर्चना होती है।
प्रदक्षिणा पथ
गर्भगृह के प्रवेश द्वार के दोनों ओर के प्रदक्षिणापथ का प्रवेश द्वार बना हुआ है। राजीवलोचन मंदिर में तथा यहां के अन्य सान्धार प्रकार के देवालयों में प्रदक्षिणापथ को महामंडप से जोड़ने के लिए बनाये गये प्रवेश द्वार, द्वार शाखाओं से युक्त हैं। इनके अधो भाग पर गंगा-यमुना नदी-देवियों की मूर्तियाँ हैं। राजिम के किसी भी मंदिर के प्रवेश द्वार के पार्श्वों पर नदी-देवियों का अंकन नहीं मिलता। इस दृष्टि से ये दोनों प्रवेश द्वार विशेष महत्त्व के हो जाते हैं। इन्हें देखने से यह स्पष्ट प्रतीत होता है कि इन दोनों प्रवेशद्वारों का संबंध किसी अन्य छोटे मंदिरों से रहा है।