राजशेखर

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राजशेखर (विक्रमाब्द 930- 977 तक) काव्यशास्त्र के पण्डित थे। वे गुर्जरवंशीय नरेश महेन्द्रपाल प्रथम एवं उनके बेटे महिपाल के गुरू एवं मंत्री थे। उनके पूर्वज भी प्रख्यात पण्डित एवं साहित्यमनीषी रहे थे। काव्यमीमांसा उनकी प्रसिद्ध रचना है। समूचे संस्कृत साहित्य में कुन्तक और राजशेखर ये दो ऐसे आचार्य हैं जो परंपरागत संस्कृत पंडितों के मानस में उतने महत्त्वपूर्ण नहीं हैं जितने रसवादी या अलंकारवादी अथवा ध्वनिवादी हैं। राजशेखर लीक से हट कर अपनी बात कहते हैं और कुन्तक विपरीत धारा में बहने का साहस रखने वाले आचार्य हैं।

जीवनी

राजशेखर महाराष्ट्र देशवासी थे और यायावर वंश (क्षत्रिय) में उत्पन्न हुए थे किन्तु उनका जीवन बंगाल में बीता। इनकी माता का नाम शिलावती तथा पिता का नाम दुहिक या दुर्दुक था और वे महामंत्री थे। इनके प्रपितामह अकालजलद का विरद 'महाराष्ट्रचूड़ामणि' था। राजशेखर की पत्नी चौहान कुल की क्षत्राणी विदुषी महिला थी जिसका नाम अवंतिसुंदरी था। महेंद्रपाल के उपाध्याय होने के साथ ये उसके पुत्र महीपाल के भी कृपापात्र बने रहे। इन दोनों नरेशों के शिलालेख दसवीं शताब्दी के प्रथम चरण (९०० ई. और ९१७ ई.) के प्राप्त होते हैं अत: राजशेखर का समय ८८०-९२० ई. के लगभग मान्य है।

रचनाएँ

राजशेखर ने निम्नांकित ग्रंथों की रचना की थी :

  • काव्यमीमांसा
  • बाल रामायण
  • बाल भारत
  • कर्पूरमंजरी
  • विद्धशालभंजिका
  • भुवनकोश, जिसका निर्देश राजशेखर ने काव्यमीमांसा (पृ. ८९) ने स्वयं किया है और
  • हरिविलास, जिसका उल्लेख हेमचंद्र ने अपने काव्यानुशासन में किया है।

रीतिविषयक 'रीतिनिर्णय' नामक एक ग्रंथ का इनके नाम से और उल्लेख मिलता है, किंतु वह अप्राप्य है।

राजशेखर की काव्यमीमांसा रीति-रस-अलंकार आदि किसी एक विषय को लेकर लिखी रचना नहीं है, किंतु अपनी नवीन प्रतिभाजन्य शैली द्वारा काव्य एवं कवि के समग्र प्रयोजनीय विषयों का एक महत्वपूर्ण एवं उपयोगी संकलन है। इस ग्रंथ का प्रथम अधिकरण ही उपलब्ध है जिसमें १८ अध्याय हैं। इसका नाम 'कवि रहस्य' है जो वस्तुत: कवि के रहस्य को प्रकट करता है। इसमें कवियों का श्रेणीनिर्धारण; कवियों के बैठने का क्रम, वेशभूषा आदि कर वर्णन है अत: इसमें प्रधान विषय कविशिक्षा का ही है। एक रोचक कथा को आधार बनाकर प्रवृत्ति, वृत्ति और रीति के संबंध में राजशेखर का कथन है कि काव्यपुरुष के अन्वेषण के समय उनकी प्रिया साहित्यवधू देश के विभिन्न अंचलों में विलक्षण वेशभूषा, विचित्र विलास और नवीन नवीन वचनविन्यास को धारण करती जाती थी। इस प्रकार प्रवृत्ति अर्थात् वेशविन्यासक्रम; वृत्ति अर्थात् विलासविन्यासक्रम और रीति अर्थात् वचनविन्यासक्रम के आधार को लेकर भारत के विभिन्न अंचलों की साहित्यिक संपदा एवं काव्यगत सौंदर्य की समीक्षा के विवेक पर राजशेखर ने विभिन्न प्रदेशों के नाम से विभिन्न काव्यशैलियों का तथ्यमूलक नामाकरण किया है।

राजशेखर ने अपने को कविराज कहा है और कवियों की दस श्रेणियों में महाकवि के ऊपर उसको स्थान दिया है। राजशेखर ने अपने को वाल्मीकि, भर्तृमेष्ट और भवभूति की परंपरा का व्यक्त किया है। प्रदेश विशेष के आधार पपर चार प्रवृत्तियाँ मानते हुए भी राजशेखर ने वैदर्भी, गौड़ी और पांचाली, ये तीन ही रीतियाँ मानी हैं। काव्यमीमांसा से यह बात स्पष्ट हो जाती है कि राजशेखर के विचार में सूक्ष्मतापूर्वक प्रकृतिनिरीक्षण न करना कवि का महान दोष है। काव्यमीमांसा में देशकालविभाग का सुंदर ढंग से निरूपण काव्य में इसी प्रवृत्ति की अवतारणा की दृष्टि से किया गया प्रतीत होता है। 'कविसमय' शब्द का सर्वप्रथम प्रयोग भी राजशेखर ने ही किया है और इसकी परिभाषा में इसका संकेत भी कर दिया है। परवर्ती अनेक आलंकारिकों ने कविराज राजशेखर का अनुकरण किया है जिनमें क्षेमेंद्र, भोजराज, हेमचंद्र, वाग्भट्ट, केशव मिश्र, अजिसेन, देवेश्वर आदि उल्लेख्य हैं। क्षेमेंद्र ने अपने सुवृत्ततिलक में राजशेखर के शादूर्लविक्रीडित छंद की प्रशंसा की है और औचित्यविचारचर्चा में भी इनका उल्लेख किया है।

'बालभारत' या 'प्रचंडपांडव' और 'बालरामायण' क्रमश: रामायण और महाभारत की कथा के आधार पर निर्मित नाटक हैं। ये नाटक संभवत: 'बालानां सुखबोधाय' न होकर राजेश्वर की प्रारंभिक कृतियाँ रही हैं। 'कर्पूरमंजरी' सट्टक में प्रेमकथा निबद्ध है। 'विद्धशालभंजिका' भी एक प्रेमाख्यान है। कर्पूरमंजरी और काव्यमीमांसा प्रौढ़ काल की रचनाएँ हैं।

आदिकवि वाल्मीकि, भर्तृमेष्ठ और भवभूति के अनंतर अपनी पीढ़ी की सत्ता को स्वीकार करते हुए कवि सगर्व कहता है-

श्वभूव वाल्मीकिभव: पुराकवि: तत: प्रपेदे भुवि भर्तृमेष्ठताम्।
स्थित: पुनर्यो भवभूति रेखया स वर्तते संप्रति राजशेखर:।। -बालभारत, १.१३

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