रजनीश कुमार शुक्ल

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रजनीश कुमार शुक्ल
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व्यवसाय शिक्षाविद, प्रोफेसर, लेखक, कवि और वर्तमान महात्मा गाधी अंतरराष्ट्रीय हिन्दी विश्वविद्यालय, वर्धा के कुलपति
राष्ट्रीयता भारतीय
शिक्षा पीएच.डी.
आधिकारिक जालस्थल

प्रो. रजनीश कुमार शुक्ल (जन्म 25 नवंबर 1966, कुशीनगर, उत्तर प्रदेश) भारत के शिक्षाविद, प्रोफेसर, लेखक, कवि हैं, वर्तमान में वे महात्मा गाधी अंतरराष्ट्रीय हिन्दी विश्वविद्यालय, वर्धा के कुलपति[१] के रूप में कार्यरत हैं। इसके पूर्व वे भारतीय अनुसंधान परिषद्, दिल्ली के सदस्य सचिव के रूप में सेवा दे चुके है। मूल रूप से वे वाराणसी के सम्पूर्णानंद संस्कृत विश्वविद्यालय में तुलनात्मक दर्शन और धर्म के प्रोफेसर हैं।

मानुष्ये सति दुर्लभा पुरुषता पूंस्त्वे पुनर्विप्रता, विप्रत्वे बहुविद्यतातिगुणता विद्यावतोऽर्थज्ञता । अर्थज्ञस्य विचित्रवाक्यपटुता तत्रापि लोकज्ञता, लोकज्ञस्य समस्तशास्त्रविदुषो धर्मे मतिर्दुर्लभा ।। अर्थात मनुष्य जन्म ही दुर्लभ है, उसमें पुरुषत्व प्राप्त होना और वह भी ब्राह्मणत्व के साथ और कठिन है । यदि वह हो भी जाय तो बहुआयामी विद्या प्राप्त होना कदाचित ही होता है।उसमें विद्या का अर्थ ज्ञात होना और फिर उस ज्ञान को दूसरों को बताने के लिए उच्चकोटि की वाग्मिता का होना और साथ ही लोक व्यवहार की कुशलता उस व्यक्ति को प्राप्त हो तथा समस्त शास्त्रों में पारंगत ऐसा व्यक्ति धर्म के प्रति श्रद्धावान हो,यह तो और भी कठिन होता है।यह सुभाषित सचमुच प्रो.रजनीश कुमार शुक्ल के लिए रचा गया है ।

आचार्य रजनीश कुमार शुक्ल महात्मा गांधी अंतरराष्ट्रीय हिंदी विश्वविद्यालय,वर्धा के जब से कुलगुरु बने हैं तब से हमारा विश्वविद्यालय नित नई ऊँचाइयों को छू रहा है । ऐसे कुलपति जिनके आने से हमारा समूचा विश्वविद्यालय परिवार कृत-कृत्य है । हम सब उनसे प्रतिदिन कुछ न कुछ शिखते हैं । एक ओर जहाँ उनकी विलक्षण प्रतिभा से ज्ञान अर्जित करते हैं वहीँ उनकी अद्भुत प्रशासकीय छमता से प्रेरणा लेते हैं । एक परिवार कैसे चलता है और उसे कैसे चलाया जाता है हम उनसे सिखते हैं । चार दशकों से भी अधिक माँ भारती की सेवा में समर्पित ,भारत के गौरव आचार्य रजनीश कुमार शुक्ल पर भगवान का विशेष अनुग्रह है । मैंने स्वयं अपनी अज्ञानता पर किंचित प्रहार कर उनसे बहुत कुछ सिखा है । वह मनुष्य के भीतर ऐसी सामर्थ्य पैदा करते हैं जो अपने मन में शुभ संकल्प लेकर आगे बढ़ सकता है । वह पारमार्थिक प्रवृत्तियों को पैदा करते हैं । उनसे आचरण की सभ्यता सिख सकते हैं । उनके मुखारविन्दुओं से सदैव ज्ञान के प्रकाश की अविरल गंगा प्रवाहित होती रहती हैं ।

आचार्य रजनीश कुमार शुक्ल का जन्म 25 नवंबर सन 1966 ई.में भगवान गौतम बुद्ध की निर्वाण स्थली उत्तर प्रदेश का सीमावर्ती जिला कुशीनगर के ग्राम कनखोरिया में हुआ । आपके दादा पूज्य पंडित भोजमणि शुक्ल संस्कृत, पालि व्याकरण के प्रकांड विद्वान और शिक्षक थे । पिता डॉ.जयशंकर शुक्ल आयुर्वेद सर्जरी के ख्यातिलब्ध चिकित्सक शिक्षक थे । दादा, पिता और माँ तीनों का प्रभाव प्रो. शुक्ल के जीवन पर परिलक्षित होता है । वह अपने पूर्वजों की उज्ज्वल कीर्ति में निरंतर अभिवृद्धि कर रहे हैं । वह कुल के दीपक हैं ।

आपकी शिक्षा मोक्षदायिनी माँ गंगा के तट पर स्थित महामंगलकारी पूण्यभूमि काशी में जहाँ पर बाबा विश्वनाथ जी विराजमान हैं और जहाँ गौतम बुद्ध ने धर्म चक्र प्रवर्तन किया ऐसी तपोभूमि पर स्थित महात्मा गाँधी काशी विद्यापीठ, वाराणसी से स्नातक एवं परास्नातक की उपाधि तथा पंडित मदनमोहन मालवीय की तपःस्थली काशी हिन्दू विश्वविद्यालय, काशी से दर्शनशास्त्र में, दर्शनशास्त्र के निष्णात विद्वान् गुरुवर प्रो.रेवतीरमण पाण्डेय के सानिध्य में पी.एचडी. की उपाधि प्राप्ति की। आप 1991से सम्पूर्णानंद संस्कृत विश्वविद्यालय,वाराणसी में तुलनात्मक धर्म एवं दर्शन विभाग में ख्यात आचार्य हैं। आप कुशल शिक्षक के साथ-साथ दक्ष प्रशासक भी हैं । आप तीन वर्षों के तीन कार्यकाल पर्यन्त वहाँ विभागाध्यक्ष तथा दर्शनशास्त्र संकाय के संकायाध्यक्ष भी रहे हैं ।

सरस्वती के वरद पुत्र आचार्य रजनीश कुमार शुक्ल बुद्धिमान और धैर्यवान, नीतिज्ञ, उत्तम वक्ता, शोभायमान मुखारविन्दु, अभय, संयम, न्यायप्रिय, उदात्त चरित्र, सदाचारी, हितचिंतक, प्रियदर्शन, दृढ़ प्रतिज्ञ, मानवीय गुणों से परिपूर्ण, गुण, शील, स्वभाव, प्रीति और कृतज्ञ,भक्तवत्सल एवं धरित्री माँ की तरह क्षमाशील व्यक्तित्व हैं । समय को धन नहीं, जीवन मानने वाले प्रो.रजनीश कुमार शुक्ल अनवरत कर्मरत रहते हैं । उनका मानना है कि मनुष्य तो कर्म से बड़ा होता है ।

संस्कृति पुरुष प्रो.रजनीश कुमार शुक्ल महात्मा गाँधी अंतरराष्ट्रीय हिंदी विश्वविद्यालय, वर्धा के कुलपति बनने से पूर्व भारतीय दार्शनिक अनुसंधान परिषद तथा भारतीय इतिहास अनुसंधान परिषद् ,नई दिल्ली के सदस्य सचिव के पद को सुशोभित कर रहे थे । आचार्य शुक्ल जब से हिंदी विश्वविद्यालय के कुलगुरु बने हैं तब से आप विश्वविद्यालय में मानव कर्तव्यों तथा आदर्श के नये-नये कीर्तिमान स्थापित कर रहे हैं । मसलन पूर्व कुलपति और वर्तमान कुलपति की उपस्थिति में नये कुलपति के रूप में कार्यभार ग्रहण करना। विश्वविद्यालय के इतिहास में पहली बार ऐसा हुआ है । विश्वविद्यालय के स्थापना दिवस पर पहली बार विश्वविद्यालय ध्वज का ध्वजारोहण करना । भगवान आदि शंकराचार्य,तुलसीदास,कबीर,दीनदयाल उपाध्याय,श्यामाप्रसाद मुखर्जी,अटल बिहारी वाजपेयी,बाबा साहेब भीमराव अंबेडकर आदि महापुरुषों की पहली बार जयंतियां मनाना, विश्वविद्यालय में पहली बार दीपावली की पूर्व संध्या पर दस लाख दीप जलाकर प्रतिवर्ष कीर्तिमान स्थापित करना तथा साथ ही विश्वविद्यालय में चार नये विभागों की स्थापना करना आदि । प्रो.शुक्ल मानते हैं कि मानव जीवन को उदात्त तथा सार्थक बनाने के लिए,धर्म और दर्शन का समावेशी एवं सहभागी होना आवश्यक है ।


प्रखर राष्ट्रवादी चिन्तक और विचारक प्रो.शुक्ल को भारत के माननीय राष्ट्रपति जी ने जवाहरलाल नेहरु विश्वविद्यालय,गुजरात केंद्रीय विश्वविद्यालय तथा हिमाचल प्रदेश केंद्रीय विश्वविद्यालय की कार्य परिषद का सदस्य नामांकित किया है । आप राजा राममोहन राय लाइब्रेरी उंडेशन,कोलकाता,राष्ट्रीय पुस्तक न्यास(N.B.T),राष्ट्रीय शैक्षिक अनुसंधान और प्रशिक्षण परिषद्(N.C.E.R.T)एवं हिंदी सलाहकार समिति,राजभाषा विभाग, गृह मंत्रालय,नई दिल्ली के बतौर सदस्य तथा अखिल भारतीय दर्शन परिषद् के कार्यकारी अध्यक्ष के रूप में भी कार्य कर रहे हैं । आप हरियाणा राज्य शिक्षा सलाहकार बोर्ड के सदस्य रूप में उच्च शिक्षा के पुनर्गठन और सुधार में सफल योगदान दे रहे हैं । आप नई दिल्ली इंदिरा गांधी राष्ट्रीय कला केन्द्र, वाराणसी क्षेत्र के सलाहकार समिति के सदस्य भी हैं ।

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Prof. Rajaneesh Kumar Shukla With Education Minister, India


निरभिमानी आचार्य शुक्ल द्वारा विभिन्न विषयों पर एक दर्जन से अधिक पुस्तकें लिखी गई हैं । इनमें कांट का सौंदर्यशास्त्र,वाचस्पति मिश्र कृत तत्वबिंदु,वेस्टर्न फिलोसफी एंड इंट्रोडक्शन,गौरवशाली संस्कृति,स्वातंत्र्योत्तर भारतीय दार्शनिक पृष्ठभूमि,अभिनवगुप्त ऑफ फिलासफर ऑफ मिलेनियम,समेकित अद्वैत विमर्श,तुलनात्मक दर्शन,भारतीय दर्शन में प्राप्यकरित्वाद,भारतीय दर्शन के पचास वर्ष,प्रास्पेक्टिव आन कम्परेटिव रिलिजन आदि प्रमुख हैं । आपके शताधिक शोध पत्र, आलेख देश और विदेश की विभिन्न प्रतिष्ठित पत्र-पत्रिकाओं में प्रकाशित हो चुके हैं । आप विश्वविद्यालय के कुलसचिव, कार्य परिषद के सदस्य और कॉलेज विकास परिषद के निदेशक और अन्य कई महत्वपूर्ण पदों पर अपनी सेवाएं दे चुके हैं । प्रो.शुक्ल उत्तर प्रदेश के सभी राज्य विश्वविद्यालयों के स्नातकोत्तर स्तर के "राष्ट्र गौरव" नामक एक अनिवार्य कार्यक्रम तैयार करने का अमूल्य योगदान दिया है । आपने 'राष्ट्र गौरव' पुस्तक का प्रणयन किया है, जिसे लखनऊ विश्वविद्यालय द्वारा सहर्ष प्रकाशित किया गया है ।


आप अखिल भारतीय दर्शन परिषद,दिल्ली की तिमाही शोध पत्रिका ‘दार्शनिक त्रैमासिकी’ के पाँच वर्षों तक मुख्य संपादक,हिस्टोरिकल रिव्यू एवं जर्नल ऑफ इंडियन काउंसिल ऑफ फिलासाफिकल रिसर्च के कार्यकारी संपादक तथा अनेक पत्र-पत्रिकाओं के संपादकीय बोर्ड के सदस्य के रूप में कार्य कर चुके हैं । आप अखिल भारतीय दर्शन परिषद के संयुक्त सचिव पद की शोभा बढ़ा चुके हैं ।

आप अनेक राष्ट्रीय-अंतरराष्ट्रीय समाचार पत्रों में संस्कृति, धर्म, समाज,दर्शन,न्याय,कला,अर्थ,भाषा और शिक्षा पर अनेक शोधपरक लेख और स्तंभ लिखते रहते हैं, जैसे- दैनिक जागरण, दैनिक भास्कर, लोकमत, अमर उजाला, नवभारत टाइम्स, हिन्दुस्तान और राष्ट्रीय सहारा,आज आदि । आप ऑनलाइन ई-पत्रिका लेखनी,प्रवक्ता आदि में नियमित रचनात्मक लेखन करते रहते हैं । यह भी उल्लेखनीय है कि आप सिक्किम राज्य के प्रथम राज्य विश्वविद्यालय की स्थापना समिति के सदस्य एवं आचार्य अभिनवगुप्त सहस्राब्दी समारोह समिति के सचिव हैं । प्रो.रजनीश कुमार शुक्ल संस्कृत एवं दर्शन के ख्यात विद्वानों में पूरे देश में परिगणित किए जाते हैं। वह गंभीर अध्येता और समीक्षक, मौलिक आध्यात्मिक चिंतक और तेजस्वी वक़्ता के रूप में समादृत हैं । उनके भाषणों को सुनकर कोई भी मनुष्य अपने मन और भावना को पवित्र कर सकता है,मंगल प्रभात पैदा कर सकता है ।

जय शंकर नंदन प्रोफेसर रजनीश शुक्ल की एक और विशेषता है कि वे एक कुशल संचालक के रुप में जितने विदग्ध एवं समावेशी हैं,उतने ही वे प्रखर-सम्मोहक वक़्ता , छात्रवत्सल प्राध्यापक हैं । पिछले कई वर्षों में देश और देश से बाहर हुए सैकड़ों सम्मेलनों,संगोष्ठियों में शुक्ल जी ने भारतीय दर्शन, संस्कृति, कला एवं इतिहास संकलन,भाषा,प्रलेखन एवं अनुरक्षण पर संयोजन, संचालक,अध्यक्षता,मुख्य अतिथि तथा वक्ता आदि पदों पर आसीन होकर जो वैचारिक व्याख्यान दिये हैं वे उच्च कोटि के हैं ।

प्रो.शुक्ल सरस्वती के वरदपुत्र,धर्म,दर्शन तथा भारत विद्या के निष्णात विद्वान माने जाते हैं । उनकी वाणी में भारतीय संस्कृति एवं जीवन मूल्यों में पगे एक चिंतक के विधायी तत्व के दर्शन होते हैं।वह माँ भारती के सच्चे सपूत तथा निष्काम कर्मयोगी हैं।सामाजिक समरसता के पक्षधर प्रो.शुक्ल हिंदू दर्शन को विश्व का सर्व श्रेष्ठ दर्शन मानते हैं । प्रो.शुक्ल राष्ट्र की अखंडता के पुजारी हैं तथा वेदांत दर्शन में सभी समस्याओं के निदान की चर्चा भी करते हैं । वह समूचे राष्ट्र को परम वैभव की ओर ले जाना चाहते हैं । प्रो.शुक्ल मानते हैं कि यह तीनों लोक,चौदहों भुवन अपना देश है ।

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आचार्य रजनीश कुमार शुक्ल

प्रो.रजनीश कुमार शुक्ल तुलसीदास, कबीर, बुद्ध,गांधी,विनोबा जी,राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के आद्य सरसंघचालक परम पूज्य डॉ. केशवराव बलिराम हेडगेवार, श्री गुरूजी, दीनदयाल जी, श्यामा प्रसाद मुखर्जी, डॉ. भीमराव अम्बेडकर, पंडित मदनमोहन मालवीय तथा पंडित विद्यानिवास मिश्र, आचार्य विष्णुकांत शास्त्री, प्रो. रेवतीरमण पांडेय आदि जैसे महापुरुषों के जीवन मूल्यों से बेहद प्रभावित हैं। इन सभी महा पुरुषों के जीवन और विचारों से आप जो अवगाहन करते हैं उससे वह नये भारत का निर्माण करना चाहते i। आपका चिंतन यथार्थपरक है। इसीलिए वह बातचीत में गांधी, बिनोवा, अम्बेडकर, डॉ. हेडगेवार के तपोभूमि की चर्चा करते हुये नहीं अघाते। वह यह भी बताते हैं कि गांधी की ग्राम कल्पना कैसी थी ? विनोबा का जीवन कैसा था ? गांधी जी द्वारा अस्पृश्यता का विरोध, स्वराज्य की प्राप्ति, नमक सत्याग्रह, सत्य और अहिंसा के प्रयोग,चरख़ा,हिन्द स्वराज तथा उपवास आदि की भी चर्चा बड़ी बख़ूबी से करते हैं ।

कीर्तिकार आचार्य शुक्ल गांधी के सर्वोदय के लिये अन्त्योदय आवश्यक मानते हैं, इसीलिए गांधी दर्शन आज भी प्रासंगिक है। इसी प्रकार वह विनोबा जी पर चर्चा करते हैं । वास्तव में देखा जाय तो विनोबा जी गांधी के वास्तविक आध्यात्मिक उत्तराधिकारी थे। प्रो.शुक्ल विनोबा जी को एक सामाजिक और रचनात्मक कार्यकर्ता के रूप में भी देखते हैं। दीनदयाल उपाध्याय की चर्चा जिस प्रकार से प्रो. रजनीश कुमार शुक्ल करते हैं वह प्रेरणादायी है। दीनदयाल जी ने जिस एकात्म मानववाद की विचारधारा देश और दुनिया को दी शुक्ल जी उसकी भी चर्चा करते हैं ।

प्रो.शुक्ल हिंदी को विकासशील भाषा के रूप में देखते हैं और कहते हैं कि साहित्यिक-सांस्कृतिक परिवेश में विकसित होता है। हिंदी तीस से अधिक देशों में बोली और समझी जाती है। हिंदी मराठी दोनों सगी बहने हैं।संस्कृत को तो जाने बिना भारत को समझा ही नहीं जा सकता । बातचीत में प्रो. शुक्ल संघ पर भी अपनी राय देते हैं और वह कहते हैं कि राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ दुनिया का सबसे पारदर्शी संगठन है जिसकी शाखाएं खुले आकाश में लगती हैं। प्रो.शुक्ल हिंदू धर्म को दुनिया में श्रेष्ठतम धर्म मानते हैं।

तीर्थों के तीर्थ मन वाले (तीर्थानां अपि तत तीर्थ विशुद्धि मानसः परा ) आचार्य रजनीश कुमार शुक्ल कविताएं भी लिखते हैं, हलाकि वो स्वयं को कवि नहीं मानते । यहीं पर हिंदी के प्रखर अध्येता और आलोचक आचार्य रामचंद्र शुक्ल की ये पक्तियां याद आ रही हैं कि –“कविता इतनी प्रयोजनीय वस्तु है कि संसार की सभ्य और असभ्य सभी जातियों में पाई जाती है।चाहे इतिहास न हो, विज्ञान न हो पर कविता अवश्य होगी।”तुलसीदास जी ने रामचरितमानस में लिखा है कि–‘कबित बिबेक एक नहीं मोरे, सत्य कहउ लिखी कागद कोरे।’ कुछ भी हो अब यह बात तो सिद्ध होती है कि प्रो. शुक्ल विरल और विलक्षण कवि हैं।वे अपनी कविताओं के माध्यम से ‘मनुष्य भाव’ की रक्षा करते हैं। उनकी कविताओं की प्रेरणा से ‘मनोंवेगों के प्रवाह’ जोर से बहने लगते हैं।यही कारण है कि यदि उनकी कविताओं में सन्निहित क्रोध, करुणा, दया, भक्ति ,माया, मोह, प्रेम, आदि जैसे मनोभाव मनुष्य के अंतःकरण से निकल जाय तो वह कुछ भी नहीं कर सकता।उनकी कविताएँ मानव समाज के मनोंभावों को उच्छवसित करके उनके जीवन में एक नई जीवनी शक्ति डाल देती हैं ।

अनुपम इतिहास की रचना में रत प्रो. रजनीश कुमार शुक्ल गुणों के संपुंज हैं। उनका अध्ययन क्षेत्र इतना विस्तृत है कि उसे एक साथ समेटना मुश्किल हो जाता है।एक ओर उनमें जहाँ धर्म और दर्शन की चिंतनशीलता है वहीँ दूसरी ओर राजनीति, समाज, संस्कृति, भाषा, देशकाल वातावरण आदि का समावेश है । वह शास्त्रों के मर्म को जानने वाले तथा तीव्र स्मरणशक्ति के धनी प्रतिभासंपन्न व्यक्ति हैं । वह स्वधर्म और स्वजनों के पालक भी हैं । प्रो.शुक्ल धर्म, नीति, सत्य और त्याग का पालन करते हुए वह अधर्म,अनीति और असत्य का संहार करना चाहते हैं।वह आम जनजीवन में सत्य का प्रकाश करना कहते हैं । उनका चरित्र निश्छल साधु पुरुष की तरह उज्ज्वल हैं। वह समुद्र के समान गंभीर, हिमालय की तरह अडिग, धैर्यवान हैं। वह धरित्री माँ की तरह क्षमाशील भी हैं। उनके जीवन में संकुचितता और साम्प्रदायिकता का स्थान लेशमात्र नहीं है। वह अनासक्त होकर उसी प्रकार से कार्य करते हैं जैसे परोपकार के लिए वृक्ष फल देते हैं, नदियाँ परोपकार के लिए बहती हैं और गाय परोपकार के लिए दूध देती है ।


प्रो.रजनीश कुमार शुक्ल एक आदर्श शिक्षक के रूप में समादृत हैं । भारतीय ज्ञान परंपरा के संवाहक प्रो. शुक्ल तीनों लोकों में ज्ञान का दान सर्वोत्तम मानते हैं । उनके भीतर शिक्षक और गुरु दोनों का रूप समाहित है । जब वह शिक्षक के रूप में होते हैं तब उनका ज्ञान, उनकी वेशभूषा, उनकी नेतृत्व शक्ति, उनका धैर्य, उनकी विनोदप्रियता, उत्साह, आत्मविश्वास, परिपक्वता और विषय का पूर्ण ज्ञान के साथ अपनी कक्षा में अपनी उस्थिति दर्ज कराते हैं ।

लोकवादी भाषाचिंतक प्रो.रजनीश कुमार शुक्ल आकाशधर्मा गुरु हैं । गुरु का ज्ञान हर अवस्था में स्थिर रहता है । वह अपने शिष्यों का हमेशा उपकार करते नजर आते हैं । वह अपने शिष्यों को ज्ञान का प्रकाश तो देते हुए उन्हें अन्धकार से दूर ले जाते हैं । एक गुरु का शिष्यों के प्रति जो धर्म होता है उसका पालन वह बड़ी वखूबी से करते हैं।वह शिष्यों के भीतर निराशा के क्षणों में आशा के बीज बोते हैं और अपने धर्म के प्रकाश से नये-नये मार्गों का निर्माण करते हैं । इसीलिए गुरु को ब्रह्मा कहा गया क्योंकि वह शिष्य को बनाता है नया जन्म देता है । गुरु विष्णु भी है क्योंकि वह शिष्य की रक्षा करता है । गुरु साक्षात् शिव है क्योंकि वह शिष्य के सभी दोषों का संहार करता है । वह अपने शिष्यों को ‘अप्पदीपो भव’ का उपदेश देते हैं । वह स्थिरप्रज्ञ हैं । वह मानते हैं कि-

ख्वाहिशे मंजिल नहीं मेरे भटकने की वजह

उससे कुछ आगे निकल जाने को आमादा हूँ||

विशाल ह्रदय वाले प्रो. रजनीश कुमार शुक्ल कर्मठ, अनुभवी,जमीनी कुशल संगठनकर्ता तथा उच्चकोटि के तेजस्वी वक्ता के रूप में जन-जन में लोकप्रिय हैं । प्रो.शुक्ल छात्र जीवन (1984)से ही अखिल भारतीय विद्यार्थी परिषद् से जुड़े रहे । आप विद्यार्थी परिषद् में अकादमिक परिषद् के सदस्य,राज्य संगठन प्रभारी,प्रांतीय अध्यक्ष और उपाध्यक्ष,काशी महानगर के अध्यक्ष और उपाध्यक्ष आदि विभिन्न पदों पर रहते हुए उन्होंने अपने दायित्वों का निर्वहन बड़ी वखूबी से किया।प्रो.शुक्ल की कार्य क्षमता को देखते हुये संगठन ने उन्हें अखिल भारतीय विद्यार्थी परिषद् के राष्ट्रीय उपाध्यक्ष का दायित्व सौंपा गया । अशोक साहिल ने ठीक ही लिखा है –

बुलंदियों पे पहुंचना कोई कमाल नहीं,

बुलंदियों पे ठहरना कमाल होता है||

कर्मवीर प्रो.शुक्ल में एक और विशेषता है वह किसी से अपने लिए कुछ नहीं मांगते किंतु वह देश के लिए, लोकहित और परमार्थ के लिए उन्हें किसी से भी मांगने में कोई हिचक नहीं होती । महामना पंडित मदनमोहन मालवीय जी द्वारा रचित एक दोहा मुझे याद आ रहा है जिसमें उनके स्वाभिमान की कितनी मार्मिक अभिव्यक्ति हुई है -

मर जाऊं मांगू नहीं ,अपने तन के काज ।

परमारथ के कारने ,मोहि न मांगत लाज ।।

प्रो.रजनीश कुमार शुक्ल चुनौतियों से नहीं घबराते अपितु चुनौतियों का यथा योग्य प्रत्युत्तर देते हैं । उनका लक्ष्य हमेशा बड़ा होता है । उनके लक्ष्य में संपूर्ण राष्ट्र और विश्व के लोकमंगल की कामना होती है –

हम बड़े बन जायें इसकी है नहीं इच्छा जरा भी,

किंतु यह तय है कि हम तुमको बड़ा कर जायेंगे.

आचार्य शुक्ल एक श्रेष्ठ और असाधारण मनुष्य के रूप में समादृत हैं । आपके पास कीर्ति संपदा,वाणी सम्मोहन,कांति,विद्या,उत्कर्षिनी शक्ति,नीर-क्षीर विवेक,कर्मण्यता,विनय,सत्य धारणा तथा अनुग्रह क्षमता जैसी दस श्रेष्ठ कलाएं विद्यमान हैं । ये कलाएं बहुत कम ही मनुष्यों में पायीं जाती हैं । भगवान राम में बारह और भगवान कृष्ण में सोलह कलाएं थीं ।

बहुज्ञ भाषाविद प्रो.रजनीश कुमार शुक्ल की विलक्षण भाषा दृष्टि पर यदि चर्चा न की जाय तो बात अधूरी रहेगी । प्रो.शुक्ल के लेखन, बात व्यवहार,भाषणों और व्याख्यानों की भाषा अलग-अलग देखने को मिलती है । वह कसी हुई भाषा का प्रयोग बहुत सावधानी से करते हैं । बहुआयामी व्यक्तित्व के धनी प्रो.शुक्ल पूरे देशभर में भारतीय ज्ञान परंपरा के मर्मज्ञ आधिकारिक विद्वान् माने जाते हैं । जब वह लिखने बैठते हैं तो सृजनात्मक गद्य की भाषा का प्रयोग करते हैं लेकिन जब बातचीत करते हैं तो लोक व्यवहार की भाषा का प्रयोग करते हैं ; किंतु जब वह भाषण और व्याख्यान दे रहे होते हैं तो तत्सम शब्दों का अधिक प्रयोग करते हुए वैज्ञानिक भाषा का प्रयोग करते हैं।वह भाषा की चित्रमयी अभिव्यंजना भी करते हैं।आप अनेक पुरस्कार एवं सम्मान जिनमें प्रमुख हैं-कांट त्रिशताब्दी सम्मान,उत्तर प्रदेश भाषा सम्मान,करपात्र गौरव सम्मान ,वाग्योग सम्मान तथा मोस्ट डेडीकेटेड वाइस चांसलर अवार्ड आदि से सम्मानित हो चुके हैं । कुल मिलाकर कह सकते हैं कि आचार्य रजनीश कुमार शुक्ल ज्ञानराशि का संचित कोश हैं । प्रो.रजनीश कुमार शुक्ल योग्य माता-पिता के योग्य आज्ञाकारी पुत्र होने के साथ ही आदर्श पति,पिता एवं भाई भी हैं । वह बाहर से जितने विनम्र दिखते हैं भीतर से उतने ही कोमल और सहृदय हैं । उनके समूचे जीवन का कार्य ईश्वरीय कार्य है । भगवान से प्रार्थना है कि भक्ति, ज्ञान और कर्म की त्रिवेणी आचार्य रजनीश कुमार शुक्ल सर की अखंड ज्योति ऐसे ही अनवरत जलती रहे । भगवान की कृपा उन पर बनी रहे । (लेखक डॉ. प्रकाश त्रिपाठी, महात्मा गांधी अंतरराष्ट्रीय हिंदी विश्वविद्यालय, वर्धा में काम करते हैं। ‘बहुवचन’ के पूर्व सह संपादक तथा ‘वचन’ पत्रिका के संपादक हैं।MOB-7278114912)

विधाएं

सौंदर्यशास्त्र, आलोचना, ललित निबंध

मुख्य कृतियाँ

हिंदी लेखन

  • कांट का सौंदर्यशास्‍त्र
  • वाचस्‍पति मिश्र कृत तत्‍व बिंदु
  • अभिनवगुप्‍त : संस्‍कृति एवं दर्शन
  • गौरवशाली संस्कृ‍ति

अंग्रेजी लेखन

  • An Introduction to Western Philosophy
  • Abhinavagupta - Culture and Philosophy

स्कृतिक संदर्भ में मूल्य-सृजन एवं मूल्य-संकट[२] पर विचार प्रकट करते हुए प्रो शुक्ल ने व्यक्त किया है कि मनुष्‍य की मूल्‍य-चेतना का निर्माण सांस्‍कृतिक परिवेश में होता है। यद्यपि संस्‍कृति-तत्‍व भी मानवनिर्मित हैं और इनका भी निर्माण प्रयत्‍नपूर्वक होता है, किन्‍तु सांस्‍कृतिक चेतना जो समस्‍त तत्‍त्‍वों के सकल योग से निर्मित होती है, इन सभी तत्वों से विलक्षण होती है और अमूर्त रूप से अपने निर्माण के कारकों को भी प्रभावित करती है। इसके निर्माण हो जाएगी। किन्‍तु सामान्‍य रूप से इनको तीन आयामों में विभाजित या रेखांकित किया जा सकता है। ये तीन आयाम हैं- 1. मानव प्रकृति संबंध। 2. मानव तथा आध्‍यात्मिक दृष्टि। 3. मानव तथा अंतवैंयक्तिक संबंध। सामान्‍य रूप से मूल्‍यों का जगत भी इन्‍हीं तीन आयामों से संरचित होता है और इन्‍हीं को नियमित करता है। अत: विविध दृष्टियों को आधार में रखकर इन पर विचार किया जाना आवश्‍यक है। संस्‍कृति तत्‍त्‍व जिन्‍हें मनुष्‍य अपनी प्रारम्भिक स्थिति में जीवन व्‍यवहार के उपयोगी एवं आवश्‍यक अंग के रूप में विकसित करता है, उसमें सर्वप्रथम उसका साक्षात्‍कार प्रकृति या अचेतन जगत से होता है।...[३]

हिंदी के संबंध में उनका कहना है हिंदी स्‍वाभिमान की भाषा है[४] एक दो दिवसीय राष्ट्रीय परिसंवाद में उन्होंने व्यक्त किया हैं कि गांधी भविष्‍य के भारत का यथार्थ बने रहेंगे।[५]

प्रो. शुक्ल कहते है- सामान्‍यत: आधुनिक विचारक यह समझाते हैं कि बौद्धमत का रास्‍ता वेदानुयायी मत से नितांत अलग है क्‍योंकि आत्‍मवाद के स्थान पर अनात्‍मवाद, हिंसामूलक बलि के विरूद्ध अहिंसा, वर्ण-व्‍यवस्‍था के स्‍थान पर सर्वप्राणी समता, ईश्‍वरवाद के स्‍थान पर निरीश्‍वरवाद इत्‍यादि की नितांत विरोधी विचारसरणि को देखकर इस प्रकार के निष्‍कर्ष निकालना आश्‍चर्यजनक नहीं लगता किंतु स्‍वयं बौद्ध चिंतन में समता का उतना महत्त्व नहीं है जितना कि विषमताओं का निषेध कर विशेष व्‍यवहार एवं व्‍यवस्‍था के रूप में समरसता के भाव का प्रकटीकरण। समता का तात्तिक अस्तित्‍व बुद्ध को स्‍वीकार नहीं था क्‍योंकि ऐसी स्थिति में एक सामान्‍य प्रत्‍यय को स्‍वीकार ही करना पड़ता। इसके स्‍थान पर समता भावात्‍मक समरसता मैत्री, करूणा, मुद्रिता और उपेक्षा को चित्तवृत्ति के रूप में परिकल्पित किया गया है। समता से जोड़ने वाला तत्त्व मैत्री है।[६] बुद्ध के रास्ते पर होगी नई सभ्यता।[७] प्रो. शुक्ल का मानना हा कि हिन्दी कविता का सर्वोत्‍तम कालखंड है छायावाद[८]


ज्ञानराशि का संचित कोश:आचार्य रजनीश कुमार शुक्ल


मानुष्ये सति दुर्लभा पुरुषता पूंस्त्वे पुनर्विप्रता,

विप्रत्वे बहुविद्यतातिगुणता विद्यावतोऽर्थज्ञता

अर्थज्ञस्य विचित्रवाक्यपटुता तत्रापि लोकज्ञता,

लोकज्ञस्य समस्तशास्त्रविदुषो धर्मे मतिर्दुर्लभा ।।

अर्थात मनुष्य जन्म ही दुर्लभ है, उसमें पुरुषत्व प्राप्त होना और वह भी ब्राह्मणत्व के साथ और कठिन है । यदि वह हो भी जाय तो बहुआयामी विद्या प्राप्त होना कदाचित ही होता है।उसमें विद्या का अर्थ ज्ञात होना और फिर उस ज्ञान को दूसरों को बताने के लिए उच्चकोटि की वाग्मिता का होना और साथ ही लोक व्यवहार की कुशलता उस व्यक्ति को प्राप्त हो तथा समस्त शास्त्रों में पारंगत ऐसा व्यक्ति धर्म के प्रति श्रद्धावान हो,यह तो और भी कठिन होता है।यह सुभाषित सचमुच प्रो.रजनीश कुमार शुक्ल के लिए रचा गया है ।

      आचार्य रजनीश कुमार शुक्ल महात्मा गांधी अंतरराष्ट्रीय हिंदी विश्वविद्यालय,वर्धा  के जब से कुलगुरु बने हैं तब से हमारा विश्वविद्यालय नित नई ऊँचाइयों को छू रहा है । ऐसे कुलपति जिनके आने से हमारा समूचा विश्वविद्यालय परिवार कृत-कृत्य है । हम सब उनसे प्रतिदिन कुछ न कुछ शिखते हैं । एक ओर जहाँ उनकी विलक्षण प्रतिभा से ज्ञान अर्जित करते हैं वहीँ उनकी अद्भुत प्रशासकीय छमता से प्रेरणा लेते हैं । एक परिवार कैसे चलता है और उसे कैसे चलाया जाता है हम उनसे सिखते हैं । चार दशकों से भी अधिक माँ भारती की सेवा में समर्पित ,भारत के गौरव आचार्य रजनीश कुमार शुक्ल पर भगवान का विशेष अनुग्रह है । मैंने स्वयं अपनी अज्ञानता पर किंचित प्रहार कर उनसे बहुत कुछ सिखा है । वह मनुष्य के भीतर ऐसी सामर्थ्य पैदा करते हैं जो अपने मन में शुभ संकल्प लेकर आगे बढ़ सकता है । वह पारमार्थिक प्रवृत्तियों को पैदा करते हैं । उनसे आचरण की सभ्यता सिख सकते हैं । उनके मुखारविन्दुओं से सदैव ज्ञान के प्रकाश की अविरल गंगा प्रवाहित होती रहती हैं ।

आचार्य रजनीश कुमार शुक्ल का जन्म 25 नवंबर सन 1966 ई.में भगवान गौतम बुद्ध की निर्वाण स्थली उत्तर प्रदेश का सीमावर्ती जिला कुशीनगर के ग्राम कनखोरिया में हुआ । आपके दादा पूज्य पंडित भोजमणि शुक्ल संस्कृत, पालि व्याकरण के प्रकांड विद्वान और शिक्षक थे । पिता डॉ.जयशंकर शुक्ल आयुर्वेद सर्जरी के ख्यातिलब्ध चिकित्सक शिक्षक थे । दादा, पिता और माँ तीनों का प्रभाव प्रो. शुक्ल के जीवन पर परिलक्षित होता है । वह अपने पूर्वजों की उज्ज्वल कीर्ति में निरंतर अभिवृद्धि कर रहे हैं । वह कुल के दीपक हैं ।

          आपकी शिक्षा मोक्षदायिनी माँ गंगा के तट पर स्थित महामंगलकारी पूण्यभूमि काशी में जहाँ पर बाबा विश्वनाथ जी विराजमान हैं और जहाँ गौतम बुद्ध ने धर्म चक्र प्रवर्तन किया ऐसी तपोभूमि पर स्थित महात्मा गाँधी काशी विद्यापीठ, वाराणसी से स्नातक एवं परास्नातक की उपाधि तथा पंडित मदनमोहन मालवीय की तपःस्थली काशी हिन्दू विश्वविद्यालय, काशी से दर्शनशास्त्र में, दर्शनशास्त्र के निष्णात विद्वान् गुरुवर प्रो.रेवतीरमण पाण्डेय के सानिध्य में पी.एचडी. की उपाधि प्राप्ति की। आप 1991से सम्पूर्णानंद संस्कृत विश्वविद्यालय,वाराणसी में तुलनात्मक धर्म एवं दर्शन विभाग में ख्यात आचार्य हैं। आप कुशल शिक्षक के साथ-साथ दक्ष प्रशासक भी हैं । आप तीन वर्षों के तीन कार्यकाल पर्यन्त वहाँ विभागाध्यक्ष तथा दर्शनशास्त्र संकाय के संकायाध्यक्ष  भी रहे हैं ।

   सरस्वती के वरद पुत्र आचार्य रजनीश कुमार शुक्ल बुद्धिमान और धैर्यवान, नीतिज्ञ, उत्तम वक्ता, शोभायमान मुखारविन्दु, अभय, संयम, न्यायप्रिय, उदात्त चरित्र, सदाचारी, हितचिंतक, प्रियदर्शन, दृढ़ प्रतिज्ञ, मानवीय गुणों से परिपूर्ण, गुण, शील, स्वभाव, प्रीति और कृतज्ञ,भक्तवत्सल  एवं धरित्री माँ की तरह क्षमाशील व्यक्तित्व हैं । समय को धन नहीं, जीवन मानने वाले प्रो.रजनीश कुमार शुक्ल अनवरत कर्मरत रहते हैं । उनका मानना है कि मनुष्य तो कर्म से बड़ा होता है ।

  संस्कृति पुरुष प्रो.रजनीश कुमार शुक्ल महात्मा गाँधी अंतरराष्ट्रीय हिंदी विश्वविद्यालय, वर्धा के कुलपति बनने से पूर्व भारतीय दार्शनिक अनुसंधान परिषद तथा भारतीय इतिहास अनुसंधान परिषद् ,नई दिल्ली के सदस्य सचिव के पद को सुशोभित कर रहे थे । आचार्य शुक्ल जब से हिंदी विश्वविद्यालय के कुलगुरु बने हैं तब से आप विश्वविद्यालय में मानव कर्तव्यों तथा आदर्श के नये-नये कीर्तिमान स्थापित कर रहे हैं । मसलन पूर्व कुलपति और वर्तमान कुलपति की उपस्थिति में नये कुलपति के रूप में कार्यभार ग्रहण करना। विश्वविद्यालय के इतिहास में पहली बार ऐसा हुआ है । विश्वविद्यालय के स्थापना दिवस पर पहली बार विश्वविद्यालय ध्वज का ध्वजारोहण करना । भगवान आदि शंकराचार्य,तुलसीदास,कबीर,दीनदयाल उपाध्याय,श्यामाप्रसाद मुखर्जी,अटल बिहारी वाजपेयी,बाबा साहेब भीमराव अंबेडकर आदि महापुरुषों की पहली बार जयंतियां मनाना, विश्वविद्यालय में पहली बार दीपावली की पूर्व संध्या पर दस लाख दीप जलाकर प्रतिवर्ष कीर्तिमान स्थापित करना तथा साथ ही विश्वविद्यालय में चार नये विभागों की स्थापना करना आदि । प्रो.शुक्ल मानते हैं कि मानव जीवन को उदात्त तथा सार्थक बनाने के लिए,धर्म और दर्शन का समावेशी एवं सहभागी होना आवश्यक है ।  

  प्रखर राष्ट्रवादी चिन्तक और विचारक प्रो.शुक्ल को भारत के माननीय राष्ट्रपति जी ने जवाहरलाल नेहरु विश्वविद्यालय,गुजरात केंद्रीय विश्वविद्यालय तथा हिमाचल प्रदेश केंद्रीय विश्वविद्यालय की कार्य परिषद का सदस्य नामांकित किया है । आप राजा राममोहन राय लाइब्रेरी उंडेशन,कोलकाता,राष्ट्रीय पुस्तक न्यास(N.B.T),राष्ट्रीय शैक्षिक अनुसंधान और प्रशिक्षण परिषद्(N.C.E.R.T),हिंदी सलाहकार समिति,राजभाषा विभाग, गृह मंत्रालय,नई दिल्ली,भारतीय भाषा विश्वविद्यालय,नई दिल्ली,इंडियन इंस्टिट्यूट ऑफ ट्रांसलेशन एंड इन्टरप्रेटेशन के बतौर सदस्य तथा अखिल भारतीय दर्शन परिषद् के कार्यकारी अध्यक्ष के रूप में भी कार्य कर रहे हैं । आप हरियाणा राज्य शिक्षा सलाहकार बोर्ड के सदस्य रूप में उच्च शिक्षा के पुनर्गठन और सुधार में सफल योगदान दे रहे हैं । आप नई दिल्ली इंदिरा गांधी राष्ट्रीय कला केन्द्र, वाराणसी क्षेत्र के सलाहकार समिति के सदस्य भी हैं ।


  निरभिमानी आचार्य  शुक्ल द्वारा विभिन्न विषयों पर एक दर्जन से अधिक पुस्तकें लिखी गई हैं । इनमें कांट का सौंदर्यशास्त्र,वाचस्पति मिश्र कृत तत्वबिंदु,वेस्टर्न फिलोसफी एंड इंट्रोडक्शन,गौरवशाली संस्कृति,स्वातंत्र्योत्तर भारतीय दार्शनिक पृष्ठभूमि,अभिनवगुप्त ऑफ फिलासफर ऑफ मिलेनियम,समेकित अद्वैत विमर्श,तुलनात्मक दर्शन,भारतीय दर्शन में प्राप्यकरित्वाद,भारतीय दर्शन के पचास वर्ष,प्रास्पेक्टिव आन कम्परेटिव रिलिजन आदि प्रमुख हैं । आपके शताधिक शोध पत्र, आलेख देश और विदेश की विभिन्न प्रतिष्ठित पत्र-पत्रिकाओं में प्रकाशित हो चुके हैं । आप विश्वविद्यालय के कुलसचिव, कार्य परिषद के सदस्य और कॉलेज विकास परिषद के निदेशक और अन्य कई महत्वपूर्ण पदों पर अपनी सेवाएं दे चुके हैं । प्रो.शुक्ल उत्तर प्रदेश के सभी राज्य विश्वविद्यालयों के स्नातकोत्तर स्तर के "राष्ट्र गौरव" नामक एक अनिवार्य कार्यक्रम तैयार करने का अमूल्य योगदान दिया है । आपने 'राष्ट्र गौरव' पुस्तक का प्रणयन किया है, जिसे लखनऊ विश्वविद्यालय द्वारा सहर्ष प्रकाशित किया गया है ।

आप अखिल भारतीय दर्शन परिषद,दिल्ली की तिमाही शोध पत्रिका ‘दार्शनिक त्रैमासिकी’ के पाँच वर्षों तक मुख्य संपादक,हिस्टोरिकल रिव्यू एवं जर्नल ऑफ इंडियन काउंसिल ऑफ फिलासाफिकल रिसर्च के कार्यकारी संपादक तथा अनेक पत्र-पत्रिकाओं के संपादकीय बोर्ड के सदस्य के रूप में कार्य कर चुके हैं । आप  अखिल भारतीय दर्शन परिषद के संयुक्त सचिव पद की शोभा बढ़ा चुके हैं ।

   आप अनेक राष्ट्रीय-अंतरराष्ट्रीय समाचार पत्रों में संस्कृति, धर्म, समाज,दर्शन,न्याय,कला,अर्थ,भाषा और शिक्षा पर अनेक शोधपरक लेख और स्तंभ लिखते रहते हैं, जैसे- दैनिक जागरण, दैनिक भास्कर, लोकमत, अमर उजाला, नवभारत टाइम्स, हिन्दुस्तान और राष्ट्रीय सहारा,आज आदि ।  आप ऑनलाइन ई-पत्रिका लेखनी,प्रवक्ता आदि में नियमित रचनात्मक लेखन करते रहते हैं । यह भी उल्लेखनीय है कि आप सिक्किम राज्य के प्रथम राज्य विश्वविद्यालय की स्थापना समिति के सदस्य एवं आचार्य अभिनवगुप्त सहस्राब्दी समारोह समिति के सचिव हैं । प्रो.रजनीश कुमार शुक्ल संस्कृत एवं दर्शन के ख्यात विद्वानों में पूरे देश में परिगणित किए जाते हैं। वह गंभीर अध्येता और समीक्षक, मौलिक आध्यात्मिक चिंतक और तेजस्वी वक़्ता के रूप में समादृत हैं । उनके भाषणों को सुनकर कोई भी मनुष्य अपने मन और भावना को पवित्र कर सकता है,मंगल प्रभात पैदा कर सकता है । 

 जय शंकर नंदन प्रोफेसर रजनीश शुक्ल की एक और विशेषता है कि वे एक कुशल संचालक के रुप में जितने विदग्ध एवं समावेशी हैं,उतने ही वे प्रखर-सम्मोहक वक़्ता , छात्रवत्सल प्राध्यापक हैं । पिछले कई वर्षों में देश और देश से बाहर हुए सैकड़ों सम्मेलनों,संगोष्ठियों में शुक्ल जी ने भारतीय दर्शन, संस्कृति, कला एवं इतिहास संकलन,भाषा,प्रलेखन एवं अनुरक्षण पर संयोजन, संचालक,अध्यक्षता,मुख्य अतिथि तथा वक्ता आदि पदों पर आसीन होकर जो वैचारिक व्याख्यान दिये हैं वे उच्च कोटि के हैं ।

प्रो.शुक्ल सरस्वती के वरदपुत्र,धर्म,दर्शन तथा भारत विद्या के निष्णात विद्वान माने जाते हैं । उनकी वाणी में भारतीय संस्कृति एवं जीवन मूल्यों में पगे एक चिंतक के विधायी तत्व के दर्शन होते हैं।वह माँ भारती के सच्चे सपूत तथा निष्काम कर्मयोगी हैं।सामाजिक समरसता के पक्षधर प्रो.शुक्ल हिंदू दर्शन को विश्व का सर्व श्रेष्ठ दर्शन मानते हैं । प्रो.शुक्ल राष्ट्र की अखंडता के पुजारी हैं तथा वेदांत दर्शन में सभी समस्याओं के निदान की चर्चा भी करते हैं । वह समूचे राष्ट्र को परम वैभव की ओर ले जाना चाहते हैं । प्रो.शुक्ल मानते हैं कि यह तीनों लोक,चौदहों भुवन अपना देश है ।

    प्रो.रजनीश कुमार शुक्ल तुलसीदास, कबीर, बुद्ध,गांधी,विनोबा जी,राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के आद्य सरसंघचालक परम पूज्य डॉ. केशवराव बलिराम हेडगेवार, श्री गुरूजी, दीनदयाल जी, श्यामा प्रसाद मुखर्जी, डॉ. भीमराव अम्बेडकर, पंडित मदनमोहन मालवीय तथा पंडित विद्यानिवास मिश्र, आचार्य विष्णुकांत शास्त्री, प्रो. रेवतीरमण पांडेय आदि जैसे  महापुरुषों के जीवन मूल्यों से बेहद प्रभावित हैं। इन सभी महा पुरुषों के जीवन और विचारों से आप जो अवगाहन करते हैं उससे वह नये भारत का निर्माण करना चाहते हैं। आपका चिंतन यथार्थपरक है। इसीलिए वह बातचीत में गांधी, बिनोवा, अम्बेडकर, डॉ. हेडगेवार के तपोभूमि की चर्चा करते हुये नहीं अघाते। वह यह भी बताते हैं कि गांधी की ग्राम कल्पना कैसी थी ? विनोबा का जीवन कैसा था ? गांधी जी द्वारा अस्पृश्यता का विरोध, स्वराज्य की प्राप्ति, नमक सत्याग्रह, सत्य और अहिंसा के प्रयोग,चरख़ा,हिन्द स्वराज तथा उपवास आदि की भी चर्चा बड़ी बख़ूबी से करते हैं ।

     कीर्तिकार आचार्य शुक्ल गांधी के सर्वोदय के लिये अन्त्योदय आवश्यक मानते हैं, इसीलिए गांधी दर्शन आज भी प्रासंगिक है। इसी प्रकार वह विनोबा जी पर चर्चा करते हैं । वास्तव में देखा जाय तो विनोबा जी गांधी के वास्तविक आध्यात्मिक उत्तराधिकारी थे। प्रो.शुक्ल विनोबा जी को एक सामाजिक और रचनात्मक कार्यकर्ता के रूप में भी देखते हैं। दीनदयाल उपाध्याय की चर्चा जिस प्रकार से प्रो. रजनीश कुमार शुक्ल करते हैं वह प्रेरणादायी है। दीनदयाल जी ने जिस एकात्म मानववाद की विचारधारा देश और दुनिया को दी शुक्ल जी उसकी भी चर्चा करते हैं ।

     प्रो.शुक्ल हिंदी को विकासशील भाषा के रूप में देखते हैं और कहते हैं कि साहित्यिक-सांस्कृतिक परिवेश में विकसित होता है। हिंदी तीस से अधिक देशों में बोली और समझी जाती है। हिंदी मराठी दोनों सगी बहने हैं।संस्कृत को तो जाने बिना भारत को समझा ही नहीं जा सकता । बातचीत में प्रो. शुक्ल संघ पर भी अपनी राय देते हैं और वह कहते हैं कि राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ दुनिया का सबसे पारदर्शी संगठन है जिसकी शाखाएं खुले आकाश में लगती हैं। प्रो.शुक्ल हिंदू धर्म को दुनिया में श्रेष्ठतम धर्म मानते हैं ।

तीर्थों के तीर्थ मन वाले (तीर्थानां अपि तत तीर्थ विशुद्धि मानसः परा ) आचार्य रजनीश कुमार शुक्ल कविताएं भी लिखते हैं, हलाकि वो स्वयं को कवि नहीं मानते । यहीं पर हिंदी के प्रखर अध्येता और आलोचक आचार्य रामचंद्र शुक्ल की ये पक्तियां याद आ रही हैं कि –“कविता इतनी प्रयोजनीय वस्तु है कि संसार की सभ्य और असभ्य सभी जातियों में पाई जाती है।चाहे इतिहास न हो, विज्ञान न हो पर कविता अवश्य होगी।”तुलसीदास जी ने रामचरितमानस में लिखा है कि–‘कबित बिबेक एक नहीं मोरे, सत्य कहउ लिखी कागद कोरे।’ कुछ भी हो अब यह बात तो सिद्ध होती है कि प्रो. शुक्ल विरल और विलक्षण कवि हैं।वे अपनी कविताओं के माध्यम से ‘मनुष्य भाव’ की रक्षा करते हैं। उनकी कविताओं की प्रेरणा से ‘मनोंवेगों के प्रवाह’ जोर से बहने लगते हैं।यही कारण है कि यदि उनकी कविताओं में सन्निहित क्रोध, करुणा, दया, भक्ति ,माया, मोह, प्रेम, आदि जैसे मनोभाव मनुष्य के अंतःकरण से निकल जाय तो वह कुछ भी नहीं कर सकता।उनकी कविताएँ मानव समाज के मनोंभावों को उच्छवसित करके उनके जीवन में एक नई जीवनी शक्ति डाल देती हैं ।

अनुपम इतिहास की रचना में रत प्रो. रजनीश कुमार शुक्ल गुणों के संपुंज हैं। उनका अध्ययन क्षेत्र इतना विस्तृत है कि उसे एक साथ समेटना मुश्किल हो जाता है।एक ओर उनमें जहाँ धर्म और दर्शन की चिंतनशीलता है वहीँ दूसरी ओर राजनीति, समाज, संस्कृति, भाषा, देशकाल वातावरण आदि का समावेश है । वह शास्त्रों के मर्म को जानने वाले तथा तीव्र स्मरणशक्ति के धनी प्रतिभासंपन्न व्यक्ति हैं । वह स्वधर्म और स्वजनों के पालक भी हैं । प्रो.शुक्ल धर्म, नीति, सत्य और त्याग का पालन करते हुए वह अधर्म,अनीति और असत्य का संहार करना चाहते हैं।वह आम जनजीवन में सत्य का प्रकाश करना कहते हैं । उनका चरित्र निश्छल साधु पुरुष की तरह उज्ज्वल हैं। वह समुद्र के समान गंभीर, हिमालय की तरह अडिग, धैर्यवान हैं। वह धरित्री माँ की तरह क्षमाशील भी हैं। उनके जीवन में संकुचितता और साम्प्रदायिकता का स्थान लेशमात्र नहीं है। वह अनासक्त होकर उसी प्रकार से कार्य करते हैं जैसे परोपकार के लिए वृक्ष फल देते हैं, नदियाँ परोपकार के लिए बहती हैं और गाय परोपकार के लिए दूध देती है ।

 प्रो.रजनीश कुमार शुक्ल एक आदर्श शिक्षक के रूप में समादृत हैं । भारतीय ज्ञान परंपरा के संवाहक प्रो. शुक्ल तीनों लोकों में ज्ञान का दान सर्वोत्तम मानते हैं । उनके भीतर शिक्षक और गुरु दोनों का रूप समाहित है । जब वह शिक्षक के रूप में होते हैं तब उनका ज्ञान, उनकी वेशभूषा, उनकी नेतृत्व शक्ति, उनका धैर्य, उनकी विनोदप्रियता, उत्साह, आत्मविश्वास, परिपक्वता और विषय का पूर्ण ज्ञान के साथ अपनी कक्षा में अपनी उस्थिति दर्ज कराते हैं ।

लोकवादी भाषाचिंतक प्रो.रजनीश कुमार शुक्ल आकाशधर्मा गुरु हैं । गुरु का ज्ञान हर अवस्था में स्थिर रहता है । वह अपने शिष्यों का हमेशा उपकार करते नजर आते हैं । वह अपने शिष्यों को ज्ञान का प्रकाश तो देते हुए उन्हें अन्धकार से दूर ले जाते हैं । एक गुरु का शिष्यों के प्रति जो धर्म होता है उसका पालन वह बड़ी वखूबी से करते हैं।वह शिष्यों के भीतर निराशा के क्षणों में आशा के बीज बोते हैं और अपने धर्म के प्रकाश से नये-नये मार्गों का निर्माण करते हैं । इसीलिए गुरु को ब्रह्मा कहा गया क्योंकि वह शिष्य को बनाता है नया जन्म देता है । गुरु विष्णु भी है क्योंकि वह शिष्य की रक्षा करता है । गुरु साक्षात् शिव है क्योंकि वह शिष्य के सभी दोषों का संहार करता है । वह अपने शिष्यों को ‘अप्पदीपो भव’ का उपदेश देते हैं । वह स्थिरप्रज्ञ हैं । वह मानते हैं कि-  

                                                ख्वाहिशे मंजिल नहीं मेरे भटकने की वजह

                                           उससे कुछ आगे निकल जाने को आमादा हूँ ।

विशाल ह्रदय वाले प्रो. रजनीश कुमार शुक्ल कर्मठ, अनुभवी,जमीनी कुशल संगठनकर्ता तथा उच्चकोटि के तेजस्वी वक्ता के रूप में जन-जन में लोकप्रिय हैं । प्रो.शुक्ल छात्र जीवन (1984)से ही अखिल भारतीय विद्यार्थी परिषद् से जुड़े रहे । आप विद्यार्थी परिषद् में अकादमिक परिषद् के सदस्य,राज्य संगठन प्रभारी,प्रांतीय अध्यक्ष और उपाध्यक्ष,काशी महानगर के अध्यक्ष और उपाध्यक्ष आदि  विभिन्न पदों पर रहते हुए उन्होंने अपने दायित्वों का निर्वहन बड़ी वखूबी से किया।प्रो.शुक्ल की कार्य क्षमता को देखते हुये संगठन ने उन्हें अखिल भारतीय विद्यार्थी परिषद् के राष्ट्रीय उपाध्यक्ष का दायित्व सौंपा गया ।

अशोक साहिल ने ठीक ही लिखा है –

बुलंदियों पे पहुंचना कोई कमाल नहीं,

                                                              बुलंदियों पे ठहरना कमाल होता है ।

कर्मवीर प्रो.शुक्ल में एक और विशेषता है वह किसी से अपने लिए कुछ नहीं मांगते किंतु वह देश के लिए, लोकहित और परमार्थ के लिए उन्हें किसी से भी मांगने में कोई हिचक नहीं होती । महामना पंडित मदनमोहन मालवीय जी द्वारा रचित एक दोहा मुझे याद आ रहा है जिसमें उनके स्वाभिमान की कितनी मार्मिक अभिव्यक्ति हुई है -

मर जाऊं मांगू नहीं ,अपने तन के काज ।

परमारथ के कारने ,मोहि न मांगत लाज ।।

प्रो.रजनीश कुमार शुक्ल चुनौतियों से नहीं घबराते अपितु चुनौतियों का यथा योग्य प्रत्युत्तर  देते हैं । उनका लक्ष्य हमेशा बड़ा होता है । उनके लक्ष्य में संपूर्ण राष्ट्र और विश्व के लोकमंगल की कामना होती है –

                                               हम बड़े बन जायें इसकी है नहीं इच्छा जरा भी,

                                            किंतु यह तय है कि हम तुमको बड़ा कर जायेंगे ।

आचार्य शुक्ल एक श्रेष्ठ और असाधारण मनुष्य के रूप में समादृत हैं । आपके पास कीर्ति संपदा,वाणी सम्मोहन,कांति,विद्या,उत्कर्षिनी शक्ति,नीर-क्षीर विवेक,कर्मण्यता,विनय,सत्य धारणा तथा अनुग्रह क्षमता जैसी दस श्रेष्ठ कलाएं विद्यमान हैं । ये कलाएं बहुत कम ही मनुष्यों में पायीं जाती हैं । भगवान राम में बारह और भगवान कृष्ण में सोलह कलाएं थीं ।

           बहुज्ञ भाषाविद प्रो.रजनीश कुमार शुक्ल की विलक्षण भाषा दृष्टि पर यदि चर्चा न की जाय तो बात अधूरी रहेगी । प्रो.शुक्ल के लेखन, बात व्यवहार,भाषणों और व्याख्यानों की भाषा अलग-अलग देखने को मिलती है । वह कसी हुई भाषा का प्रयोग बहुत सावधानी से करते हैं । बहुआयामी व्यक्तित्व के धनी प्रो.शुक्ल पूरे देशभर में भारतीय ज्ञान परंपरा के मर्मज्ञ आधिकारिक विद्वान् माने जाते हैं । जब वह लिखने बैठते हैं तो सृजनात्मक गद्य की भाषा का प्रयोग करते हैं लेकिन जब बातचीत करते हैं तो लोक व्यवहार की भाषा का प्रयोग करते हैं ; किंतु जब वह भाषण और व्याख्यान दे रहे होते हैं तो तत्सम शब्दों का अधिक प्रयोग करते हुए वैज्ञानिक भाषा का प्रयोग करते हैं।वह भाषा की चित्रमयी अभिव्यंजना भी करते हैं।आप अनेक पुरस्कार एवं सम्मान जिनमें प्रमुख हैं-कांट त्रिशताब्दी सम्मान,उत्तर प्रदेश भाषा सम्मान,करपात्र गौरव सम्मान ,वाग्योग सम्मान तथा मोस्ट डेडीकेटेड वाइस चांसलर अवार्ड आदि से सम्मानित हो चुके हैं ।

कुल मिलाकर कह सकते हैं कि आचार्य रजनीश कुमार शुक्ल ज्ञानराशि का संचित कोश हैं । प्रो.रजनीश कुमार शुक्ल योग्य माता-पिता के योग्य आज्ञाकारी पुत्र होने के साथ ही आदर्श पति,पिता एवं भाई भी हैं । वह बाहर से जितने विनम्र दिखते हैं भीतर से उतने ही कोमल और सहृदय हैं । उनके समूचे जीवन का कार्य ईश्वरीय कार्य है । भगवान से प्रार्थना है कि भक्ति, ज्ञान और कर्म की त्रिवेणी आचार्य रजनीश कुमार शुक्ल सर की अखंड ज्योति ऐसे ही अनवरत जलती रहे । भगवान की कृपा उन पर बनी रहे ।

(लेखक महात्मा गांधी अंतरराष्ट्रीय हिंदी विश्वविद्यालय ,वर्धा में काम करते हैं ‘बहुवचन’ के पूर्व सह संपादक तथा ‘वचन’ पत्रिका के संपादक हैं ।)

संपर्क 7278114912

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(लेखक डॉ. प्रकाश त्रिपाठी महात्मा गांधी अंतरराष्ट्रीय हिंदी विश्वविद्यालय ,वर्धा में काम करते हैं ‘बहुवचन’ के पूर्व सह संपादक तथा ‘वचन’ पत्रिका के संपादक हैं संपर्क-7278114912)

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संदर्भ

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