युद्धरत साम्यवाद

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बोल्शेविक क्रांति के पश्चात् रूसी गृह युद्ध के दौरान सोवियत शासन के द्वारा 1918-1921 के मध्य जो नीति तथा राजनैतिक एवं आर्थिक प्रणाली अपनायी गयी, उसे युद्धरत साम्यवाद (War Communism या military communism ; रूसी : Военный коммунизм) के नाम से जाना जता है। इस काल में साम्यवादी आदर्शों के आधार पर व्यवस्था स्थापित करने का प्रयास किया गया।

युद्ध साम्यवाद के तहत भूमि, किसानों और जमींदारों से छीनकर राज्य की घोषित कर दी गई और फिर उसको किसानों में बांट दिया गया। सरकार ने किसानों से जबरन अनाज लेने की नीति अपनाई, अपने खाने लायक अनाज को छोड़कर बाकी संपूर्ण उत्पादन सरकार को देने के लिए किसान बाध्य था। अपने उत्पादन को बाजार में बेचने से रोकने के लिए श्रमजीवियों की सशस्त्र टुकड़ियों को किसानों के अनाजों को जब्त करने के लिए भेजा गया। अनाज संग्रह करने वाले को कठारे सजाएें दी गई। गृह युद्ध और बोल्शेविक सरकार की बलपूर्वक अनाज लेने की नीति के प्रति कृषकों के विरोध के कारण कृषि उत्पादन में भारी गिरावट आई। देश में भूखमरी की स्थिति उत्पन्न हो गई और अकाल पड़े।

उद्योगों के संबंध में भी वोल्शेविक सरकार ने कठोर नीतियां लागू की। कारखानों पर सरकारी नियंत्रण स्थापित किया गया। कारखानों का समस्त उत्पादन सरकार ने अपने नियंत्रण में लेकर जनता को अपनी ओर से माल देना आरंभ किया। इस प्रकार निजी व्यापार भी बंद हो गया। बैंकिंग प्रणाली भी अव्यवस्थित हो गई, क्याेंकि सरकार ने वस्तु विनियम प्रणाली पर बल दिया। इसी प्रकार युद्ध साम्यवाद की शासन व्यवस्था को आतंक तथा स्वेच्छाचारिता से चलाया गया। इस शासन व्यवस्था में रूसी जनता को मिले कष्टों से रूस में असंतोष व्याप्त था जो एक के बाद एक कई कृषक विद्रोहों के रूप में सामने आया। इतना ही नहीं, नौसेनिकों ने भी विद्रोह किया। इस प्रकार गृह युद्ध एवं विश्वयुद्ध की हानियों के कारण पहले से ही जर्जर राष्ट्र को युद्ध साम्यवाद ने और भी ज्यादा दुष्प्रभावित किया। अतः लेनिन ने स्थिति की गंभीरता को समझते हुए असंतोष के कारणों को दूर करने और रूस के आर्थिक पुनर्निर्माण के लिए युद्धरत साम्यवाद (आर्थिक क्रांति) के स्थान पर नई आर्थिक नीति लाई।

नई आर्थिक नीति

विदेशी हमलों और भीतरी षड्यंत्रों के कारण रूस को बड़े जबर्दस्त आर्थिक संकट का सामना करना पड़ा। 1917 ई. में लेनिन ने उत्पादन के सारे साधनों का राष्ट्रीयकरण कर दिया किन्तु बहुत से उद्योग धंधों में उत्पादन बढ़ने की बजाय घटने लगा, कृषि उत्पादन भी आधा ही रह गया था तथा आवश्यक वस्तुओं की भारी कमी हुई। इन भीषण परिस्थितियों से निपटने के लिए लेनिन ने 1921 ई. में एक नई आर्थिक नीति अपनाई जिसे 'नई आर्थिक नीति' कहा जाता है। यह आर्थिक नीति मार्क्सवादी सिद्धांतों से समझौता थी क्योंकि इसमें पूंजीपतियों का भी स्थान सुरक्षित रखा गया।

औद्योगिक क्षेत्र में सुधार

बोल्शेविक सरकार ने नई आर्थिक नीति में राष्ट्रीकरण के साथ-साथ पूंजीवादी व्यवस्था को भी प्रश्रय दिया। जिन छोटे कारखानों में बीस से कम मजदूर कार्य करते थे उन इकाइयों को उनके मालिकों के हाथ में ही रहने दिया गया और पूंजीपतियों को अपने उत्पादन बेचने की भी स्वतंत्रता दी गई। नीति के परिणामस्वरूप रूस के उद्योग धंधों का कायाकल्प हुआ और उत्पादन भी बढ़ा।

कृषि क्षेत्र में सुधार

किसानों से उनके अतिरिक्त उपज की अनिवार्य वसूली बंद की दी गई और उसके स्थान पर कृषि उत्पादन पर कर लिया जाने लगा। कृषकाें को अपनी अतिरित उपज को बाजार में बचेने एवं उससे अर्जित धन को अपने पास रखने की अनुमति दी गई। अब निजी व्यापार का प्रचलन हुआ इससे किसानों की आर्थिक स्थिति में सुधार हुआ।

विदेशी व्यापार पर सरकार का नियंत्रण पूर्ववत बना रहा किन्तु छोटे व्यापरी एवं खुदरा दुकानों पर राज्य ने नियंत्रण नहीं किया। वस्तु विनिमय के स्थान पर मुद्रा का पुनः प्रयोग किया गया। विदेशी पूंजी को आकर्षित करने के लिए सुविधाएें दी गई। विदेशियों को खानों, यातायात के साधनों व कारखानों में धन लगाने हेतु प्रोत्साहित किया गया।

श्रम एवं मजदूर संघ की नीति में परिवर्तन

युद्धरत साम्यवाद के काल में सरकार औद्योगिक श्रमिक को राशन एवं अन्य सामग्री उपलब्ध करवाती थी लेकिन नवीन आर्थिक नीति के अंतर्गत अब श्रमिकों को कुछ नकद मुद्रा भी दी जाने लगी। अब जबरन काम करवाने और बराबर वेतन न देने की नीति समाप्त हो गई। 1922 ई. में श्रमिक संहिता द्वारा मजदूरों को कई लाभ दिये गए। जैसे-प्रतिदिन 8 घंटे का कार्य करना, सामाजिक बीमा लाभ, अवकाश की सुविधा आदि।

लेनिन की नई आर्थिक नीति को आलोचना इस आधार पर की जाती है कि इससे धनी उद्योगपतियो तथा किसानोंं को लाभ पहुंचा रूस पूंजीवादी व्यवस्था अपनाने की ओर अग्रसर हुआ। आचोलकों ने इसे पूंजीवादी के आगे बोल्शेविक सरकार का समर्पण माना। यह बात सत्य है कि नई आर्थिक नीति युद्धरत साम्यवाद की नीति से भिन्न थी क्योंकि इससे अंतर्गत कुछ अंशों में पूंजीवादी व्यवस्था को स्वीकार किया गया था। किन्तु लेनिन इसे पूंजीवाद के समक्ष बोल्शेविक सरकार का आत्मसमर्पण नहीं मानता था। उसकी दृष्टि से नई आर्थिक नीति बोल्शेविक राज्य की शक्ति और राजनीतिक नमनीयता का लक्षण मात्र थी। वस्तुतः लेनिन पक्का मार्क्सवादी था और वह इस यथार्थवादी नीति अपना रहा था। उसने महसूस किया था कि साम्यवाद को बचाने और शक्तिशाली ढंग से आगे बढ़ाने केलिए थोड़ा सा पूंजीवाद को अपनाना पड़ेगा। इस संदर्भ में लेनिन ने कहा था "दो कदम आगे बढ़ाने के लिए कए कदम पीछे हटना चाहिए।" अर्थात् दो कदम आगे बढ़कर एक कदम पीछे हटना एक तरीके से एक कदम आगे रहने के बराबर है। उसका विचार था कि जब आर्थिक व्यवस्था सुधर जाए तो सरकार पुनः साम्यवादी व्यवस्था स्थापित कर लेगी और आगे स्टालिन के समय ऐसा देखा भी गया। नई आर्थिक नीति का उद्देश्य श्रमिक वर्ग और कृषकों के आर्थिक सहयोग को सुदृढ़ बनाना, नगरों तथा ग्रामों के समस्त श्रमजीवी वर्ग को देश की अर्थव्यवस्था का विकास करने के लिए प्रोत्साहित करना तथा अर्थव्यवस्था के प्रमुख तंत्रों का शासन के अधिकार में रखते हुए आंशिक रूप में पूंजीवादी व्यवस्था को कार्य करने की अनुमति देना था।

"नई आर्थिक नीति" से आर्थिक क्षेत्र में स्थिरता आई, मुद्रा पद्धति का सुदृढ़ीकरण हुआ, कृषि उत्पादन और औद्योगिक उत्पादन में वृद्धि हुई। इस तरह रूस का आर्थिक विकास हुआ। इस संबंध में डेविड थामसन ने लिखा कि इस नीति के सर्वाधिक नाटकीय एवं दूरगामी प्रभावों में महत्वपूर्ण यह था कि आर्थिक नीति के परिणामस्वरूप रूस का पुनर्निर्माण संभव हुआ। लेनिन ने आर्थिक नीति के संदर्भ में जो बातें कही भी वह सही साबित हुई, कि रूस जब आर्थिक रूप से सक्षम हो जाएगा तो साम्यवादी व्यवस्था पूर्णतः सशक्त तरीके से स्थापित हो जाएगी। बोल्शेविक पार्टी ने लेनिन की मृत्यु (1924) के पश्चात् 1925 के बाद इसका परित्याग कर दिया और कठोर साम्यवादी नीतियां लागू की।

कुल मिलकर नई आर्थिक नीति ने प्रथम विश्वयुद्ध से उपजी अव्यवस्था तथा क्रांति एवं गृहयुद्ध के समय हुए विनाश से अर्थव्यवस्था को सुधारने में बड़ी मदद की।