मैथिली लोक साहित्य

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परिचय

साहित्य सृजन एक नैसर्गिक प्रतिभा है इसके लिए अक्षर ज्ञान हो, यह आवश्यक नहीं। प्रकृति प्रदत्त यह प्रतिभा जिस व्यक्ति के भीतर होता है उसके भीतर से साहित्य, ज्वालामुखी से लावा के समान स्वतः बाहर आता है । ऐसे ही नैसर्गिक प्रतिभा संपन्न व्यक्तियों द्वारा लोक साहित्य की रचना समय समय पर की गई जो की आज प्रचूर मात्रा में उपलब्ध है।

मैथिली भाषा में 'लोक' शब्द बहुत ही प्रचलित शब्द है जिसका प्रमाण लोकाचार, लोक-वेद, लौकिक-पारलौकिक आदि शब्दों के आम बोलचाल में बहुलता से प्रयुक्त होने से मिलता है। परंतु आलोच्य पद 'लोक साहित्य' में लोक शब्द का अर्थ किंचित विशिष्ट है। यहाँ इसका अभिप्राय 'सामान्य मानवीय' अर्थात 'आम जन' से है। साहित्यिक इतिहासकारों का मानना है कि जब मुख्यधारा के साहित्यकारों ने तथाकथित दलित दमित शोषित वर्ग के लोगों को मुख्य धारा साहित्य के सृजन तो दूर उसे पढ़ने तक से भी वंचित कर दिया तो उन्होंने अपने प्रयोजनार्थ एवं मनोरंजनार्थ लोक साहित्य की रचना की । चूँकि लोक साहित्य का सृजन ऐसे व्यक्ति द्वारा किया जाता है जो अक्षर ज्ञान की दृष्टि से अपढ, निरक्षर होता है अत: इसमें शिष्ट साहित्य की तरह पांडित्यपूर्ण भाषा, अलंकार, रस एवं छंदों का बंधन आदि नहीं होता अपितु इसमें आमजन के कोमल एवं निरीह भावों का संस्कृत काव्य के नियमों से मुक्त सरल, सहज तथा स्वभाविक भाषा में अभिव्यक्ति रहता है। अत: जिस प्रकार से लिंकन ने लोकतंत्र को "जनता का, जनता के लिए, जनता के द्वारा" शासन कहा है, उसी प्रकार से लोक साहित्य के लिए यह कहना कदापि अनुचित नहीं होगा कि- "लोक साहित्य, आम जनता द्वारा, आम जनता के लिए, आम जनता की भाषा मे सृजित साहित्य है"।

मैथिली लोक साहित्य के खोज की ऐतिहासिक यात्रा

1764 ई. के बक्सर के युद्ध के पश्चात् जब अंग्रेजों ने अपने औपनिवेशिक साम्राज्य का विस्तार करना प्रारंभ किया तो उन्हें भारत के आम जनमानस से संपर्क स्थापित करने की आवश्यकता महसूस हुई किंतु ऐसा तब तक संभव न था जब तक की भारत में प्रचलित विभिन्न भाषाओं, उपभाषाओं, बोलियाँ का सम्यक ज्ञान न हो। अतः अंग्रेज अधिकारियों तथा ईसाई मिशनरियों ने भारत की विभिन्न भाषाओं तथा उनके साहित्य के अध्ययन एवं अनुशीलन की योजना बनाई। इसी क्रम में सर विलियम जोन्स के अथक परिश्रम के पश्चात 1784 ई. में कलकत्ता में 'एशियाटिक सोसाइटी ऑफ बंगाल' की स्थापना हुई। ऐसे ही संस्थाओं के निर्देशन और निरीक्षण में भारतीय भाषाओं एवं उनके साहित्य का अनुसंधान, अनुशीलन एवं परिशीलन प्रारंभ हुआ। इसी क्रम में मैथिली भाषा साहित्य का उल्लेख सर्वप्रथम डॉ. कोलब्रुक ने संस्कृत एवं प्राकृत से संबंधित अपने निबंधों में किया। इनके इन निबंधनों का उल्लेख सर जॉर्ज अब्राहम ग्रियर्सन ने भी अपनी पुस्तकों में किया है। कोलब्रुक के पश्चात सर्वप्रथम सिरामपुर मिशनरी के व्यवस्थापकों ने 1816 ई. के छठे विवरण में आर्यभाषाओं के तुलनात्मक अध्ययन के क्रम में मैथिली के प्रसंग में भी विवरण प्रस्तुत किया है किंतु मैथिली लोक साहित्य के संकलन के प्रसंग में सर्वाधिक योगदान सर जॉर्ज अब्राहम ग्रियर्सन का है।

ग्रियर्सन की सबसे महत्वपूर्ण कृति है 'लिंग्विस्टिक सर्वे ऑफ इंडिया' जिसमें उन्होंने भारतीय भाषा साहित्य का विस्तार से परिचय प्रस्तुत किया है तथा इसी क्रम में मैथिली भाषा का शास्त्रीय अध्ययन भी प्रस्तुत किया गया है। किंतु इनके द्वारा किए गए लोक साहित्य के संकलन का सर्वप्रथम प्रकाशन है मैथिली क्रिस्टोमैथी जिसका प्रकाशन 1881 ई. में हुआ था। इसमें पर्याप्त मात्रा में मैथिली लोकगीतों का संग्रह किया गया है , जिसमें कुछ उच्चकोटि की रचनाएँ हैं। इसके पश्चात् 'सम बिहारी फोक सॉन्ग्स" में भी बिहारी भाषा के विभिन्न प्रकार के लोकगीतों का संग्रह 1884 ईस्वी में प्रकाशित करवाया। इसी वर्ष 'विजयमल्ल' नाम से लोक गाथा का संकलन बंगाल के 'एशियाटिक सोसाइटी' की पत्रिका में प्रकाशित हुआ। इसके एक वर्ष पश्चात 1885 ई. में 'द सॉन्ग ऑफ आल्हाज मैरिज' इंडियन एंटीक्वेरी में प्रकाशित हुआ। इसी वर्ष उन्होंने 'टू वर्ज़न ऑफ द सॉन्ग ऑफ गोपीचंद' भी प्रकाशित कराया । इसके चार वर्ष पश्चात 1889 में ग्रियर्सन महोदय ने जर्मनी के एक सुप्रसिद्ध पत्रिका में 'नैका बंजारा' की गाथा को प्रकाशित करवाया। सन 1903 ई. के इंडियन एंटीक्वेरी में भी मैथिली से संबंधित आलेख सब प्रकाशित कराए गए जिसमें मैथिली के लिए तिरहुतिया शब्द का प्रयोग किया गया था। ग्रियर्सन महोदय की सबसे नवीन प्रकाशन है, 'बिहार पीजेंट लाइफ' जिसमें ग्रामीण जन जीवन से संबंधित शब्दावलियों का संग्रह किया गया है।

सर जॉर्ज अब्राहम ग्रियर्सन के प्रयासों के बहुत वर्षों पश्चात तक भी स्वयं मिथिलावासीयों का ध्यान अपने लोक साहित्य के इस विपुल भंडार की ओर नहीं गया। मैथिली लोकवांग्मय के महत्ता और विशिष्टता की ओर मैथिल विद्वानों का ध्यान बीसवीं शताब्दी के चौथे दशक के पश्चात जाकर ही गया । इस संदर्भ में डॉक्टर अमरनाथ झा का 1942 ई. में मैथिली साहित्य परिषद के दरभंगा अधिवेशन में दिए गए अध्यक्षीय भाषण ऐतिहासिक महत्व रखता है। डॉक्टर झा ने मैथिली लोकवांग्मय के प्राचीनता विविधता और महत्ता पर प्रकाश देते हुए मैथिली साहित्य परिषद के तथा परिषद के माध्यम से मिथिला के विद्वत वर्ग को मैथिली लोकवांग्मय के संकलन प्रकाशन और अध्ययन अनुशीलन की दिशा में महत्वपूर्ण कार्य योजना के संदर्भ में परामर्श दिया।[१]

मैथिली लोक साहित्य की विषयवस्तु

साहित्य समाज का दर्पण कहलाता है अतः हम लोक साहित्य को समाज का निर्मलतम दर्पण मान सकते हैं । शिष्ट साहित्य में हृदय की अनेक भावनाओं की अभिव्यक्ति कई बार संभव नहीं हो पाता क्योंकि शिष्ट साहित्य के स्थापित साहित्यकार सामाजिक कोप अथवा कटु आलोचना के डर से प्रायः अपने नैसर्गिक भावों को मौलिक रूप में अभिव्यक्त नहीं कर पाते।किंतु लोक साहित्यकार की भाषा पहाड़ से अवतरित हुई नदी के वेग के समान निर्भयता के साथ निकल पड़ती है। लोक साहित्य में नि:संकोच भाव से सुख-दुख, राग-द्वेष, जय-पराजय आदि का वर्णन मिलता है। इसमें गृहस्थ जीवन के विविध रूपों, धन-दरित्रता, शोषण-उत्पीड़न,जाति-पातिँ, रीति-रिवाज, व्रत-उत्सव आदि का सजीव चित्रण मिलता है।

मैथिली लोक साहित्य का वर्गीकरण

मैथिली लोक साहित्य के सुव्यवस्थित अध्ययन का सर्वप्रथम प्रयास डॉक्टर जयकांत मिश्र ने, 1951 ई में दो भागों में प्रकाशित अपनी पुस्तक इंट्रोडक्शन टु दि फोक लिटरेचर ऑफ मिथिला के रूप में किया था। इस पुस्तक के पहले भाग में मैथली के लोककाव्य के विभिन्न भेदों का परिचय दिया गया है तथा दूसरे भाग में मैथिली के गद्यात्मक लोक साहित्य के विभिन्न भेदो की विवेचना की गई है। इस आधार पर यह कह सकते हैं कि डॉक्टर जयकांत मिश्र ने मैथिली लोक साहित्य को दो प्रमुख वर्गों में वर्गीकृत किया है- (क) पद्य और (ख) गद्य ।[२]

उन्होंने पद्य साहित्य के अंतर्गत निम्नलिखित भेद-उपभेद गिनाए हैं

1. गीत साहित्य- (क) भजन, (ख) देवी-देवता संबंधी गीत, (ग) पावनि(त्यौहार) गीत (घ) जन्म गीत

(ङ) संस्कार गीत- (i) मुंडन गीत (ii) उपनयन गीत (iii) विवाह गीत (कन्या विवाह/ वर विवाह/ द्विरागमन) (iv) गोदनागीत

(च) ऋतु गीत (i) चैतावर (ii) फागु (iii)फागु वा होरी (iv) पावस (v) मलार (vi) वसंत

(छ) लगनी

2. गाथा या कथात्मक गीत

3. प्रकरण संबंधी कथात्मक गीत

4. शिशुगीत, पिहानी, कहबी और सूक्ति

5. नाट्य गीत

डॉ अणिमा सिंह ने अपने एक निबंध में मैथिली लोक साहित्य को सात वर्ग में विभाजित किया है-

1.लोक गीत   2. लोकगाथा   3. लोककथा   4. लोकनाट्य   5. बुझौअलि  6. फकरा  7. वचन


मैथिली लोक साहित्य की प्रमुख विधाएँ

लोकगीत

मिथिला की अपनी सामाजिक, धार्मिक एवं सांस्कृतिक परंपरा रही। अतः इस कारण से भारतवर्ष कि सभ्यता और संस्कृति के प्राचीनता एवं परंपरा को सुरक्षित रखने में मिथिला का योगदान महत्वपूर्ण रहा है। मैथिली लोकगीत मैथिली सभ्यता और संस्कृति की धरोहर हैं। डॉ अणिमा सिंह अपने मैथिली लोकगीत संकलन में कहती हैं कि- वे गीत ही वास्तव में लोकगीत माने जा सकते हैं जो मुख्यतः लोक मध्य प्रचलित हो तथा लोक निर्मित हो। यदि किसी विशेष अवधि के लोकगीत कालांतर में शिष्ट साहित्य के मध्य स्थान प्राप्त कर लें तो और इन गीतों का सम्बंध लोक जीवन से टूट जाए तो ऐसे लोक गीतों को लोकगीत की सीमा से बाहर किया जा सकता है।

लोक गीतों का केवल मौखिक प्रचार ही होता आया है इनको लिखकर रखने की परिपाटी नहीं रही है। लोक गीत एक कंठ से दूसरे कंठ और एक पीढ़ी से दूसरी पीढ़ी तथा एक युग से दूसरे युग तक मौखिक रूप से ही प्रवाहमान रही है किंतु वर्तमान में आकर इसके संकलन की ओर साहित्यकारों का ध्यान गया है। मैथिली लोक गीतों के संग्रह में डॉक्टर अणिमा सिंह का मैथिली लोकगीत, संपादक इंद्रकांत झा का मैथिली व्यवहार गीत संग्रह, श्रीमती उमा देवी द्वारा संकलित तथा श्री गोपीकांत झा 'उमापति' द्वारा संपादित मैथिली लोकगीत, स्वर्गीय भोला झा का मिथिला गीत संग्रह, स्वर्गीय सीताराम झा का मैथिली गीतांजलि, श्री लोकनाथ मिश्र का मैथिली में व्यवहार गीत श्रीमती कामेश्वरी देवी का मिथिला संस्कार गीत और विभूति आनंद/ ज्योत्सना आनंद का गीत नाद उल्लेख करना उचित है।

मैथिली लोकगीतों में नौ रसों में से प्रत्येक रस से युक्त गीत प्राप्त होते हैं। विवाह संस्कार, कजली, मलार, झूमर, बारहमासा, रास, बटगमनी आदि गीत शृंगार रस से संबंधित है। खेल संबंधी गीत, शिशु गीत, डहकन, नचारी आदि में हास्य रस का पुट मिलता है। करुण रस की सृष्टि में तो मैथिली लोकगीतकार अत्यंत सफल हैं, इसके अंतर्गत समदाउन, मृत्यु गीत, ताजिया संबंधित गीत आदि आते हैं। असुरों पर कुपित, संहार निरत क्रोधदीप्त काली के स्वरूप का वर्णन जिन लोक गीतों में मिलता है वे रौद्र रस का उदाहरण है। गोसाउनि के गीतों में माँ काली और माता दुर्गा संबंधी कुछ गीत ऐसे भी मिलते है जो देवी के युद्धवीर तथा शत्रुमर्दन रूप का सुंदर चित्रण करते हैं, ऐसे गीतों में वीर रस की प्रधानता होती है । शिव के बारात में आए विभिन्न आकार-प्रकार के भूत-प्रेतों तथा उनके क्रियाकलापों के वर्णन में विभत्स रस देखने को मिलता है । महादेव के विचित्र वेशभूषा देख के विस्मत लोगो के वर्णन में अद्भुत रस का समावेश है। देवी देवता संबंधित गीतों भजनों आदि में शांत रस का सुन्दर चित्रण पाया जाता है।

मैथिली लोक गीतों का वर्गीकरण

मिथिला और मैथिली में लोक गीत का अक्षय भंडार है, जिसे विभिन्न विद्वानों ने विभिन्न रूपों में विभिन्न विषय और संदर्भ के आधार पर विभाजित किया है। किंतु बोधगम्यता में सहजता के लिए मैथिली लोक गीतों को उनके उद्देश्य के आधार पर निम्नलिखित भागों में बांटा जा सकता है-

1.  भक्तिपरक या देवी देवता संबंधी मैथिली लोकगीत

ऐसे लोग गीतों में गोसाउनिक गीत सर्वाधिक महत्वपूर्ण स्थान रखता है जिसमे भगवती की स्तुति की जाती है साथ ही उनके स्मरण के संग-संग भक्त सांसारिक क्लेश को दूर करने की प्रार्थना करते हैं। इसके अतिरिक्त देवी देवता संबंधी गीतों में हनुमान गीत, धर्मराज गीत, गणेशजी से संबंधित गीत, कमला माई से संबंधित गीत, गंगाजी से संबंधित गीत, ब्रह्मा गीत, महेशवाणी (जिसके अंतर्गत शंकर जी के दांपत्य जीवन की चर्चा रहती है) तथा नचारी (इनमें भी शिव-विषयक गीत होते हैं किंतु इनका भाव शिव-भक्ति होता है), तजिया संबंधी गीत आदि आते हैं।

2. व्रत और उत्सव विशेष संबंधी गीत 

ऐसे गीतों के अंतर्गत अवसर विशेष पर गाए जाने वाले गीतों को रखा जा सकता है, जिसके अन्तर्गत त्योहारों के अवसर पर गाए जाने वाले गीत जैसे कि छठ गीत, सामा चकेवा गीत, बरसाइत गीत, मधुश्रावणी गीत, नागपंचमी गीत, अनंत चतुर्दशी गीत आदि आते हैं । होली के अवसर पर गाए जाने वाले गीतों को फागु कहा जाता है, सुबह गाए जाने वाले गीतों को पराती कहते हैं तथा शाम में गाए जाने वाले गीतों को मलार कहते। रास्ते में चलते चलते गाये जाने वाले गीत बटगमनी, जन्म के अवसर पर गाए जाने वाले गीत सोहर तथा राधा-कृष्ण के नोक झोंक से संबंधित गीत को ग्वालरी कहा जाता है।

3. संस्कार गीत 

ऐसे गीतों में 16 संस्कारों से संबंधित समस्त गीतों को रखा जा सकता है जिनमें मुंडन, उपनयन, विवाह, कोजागरा, दुरागमन, कन्यादान, मधुश्रावणी वट-सावित्री द्विरागमन, डहकन, नैना-जोगिन, आदि प्रमुख हैं।

4. ऋतु गीत या ऋतु संबंधी गीत 

प्रायः प्रत्येक भाषा के साहित्य में ऋतु गीत का स्थान महत्वपूर्ण होता है । मैथिली में भी ऋतु गीत बहुत प्रसिद्ध जिनमें ऋतुओं से संबंधित गीत आते हैं। इसके अंतर्गत होली के अवसर पर गाये जाने वाला फागु, वसंत, कजरी, चैतारी, चौमासा, छ:मासा, बारहमासा आदि आते हैं। ऋतु संबंधी गीतों में मिथिला के किसानों के दरिद्रता का वर्णन यथार्थपरक रूप से देखने को मिलता है। इन गीतों में संयोग-वियोग शृंगार का मधुर और सरस चित्रण देखने को मिलता है।

5. श्रम संबंधी गीत 

ऐसे गीतों को श्रमसाध्य कार्य करते समय श्रम परिहारणार्थ उद्देश्य से मैंथिल ललनाओं द्वारा गाया जाता है। इसके अंतर्गत लगनी, रोपनी, चरखा कातते समय के गीत, ओखली कूटते समय के गीत, गेहूँ पीसते समय के गीत, धान कूटते समय के गीत आदि आते हैं।

6. अन्य विविध गीत  

ऐसे गीतों के अंतर्गत उपरोक्त वर्गीकरण से वंचित लोकगीतों को रखा जा सकता है। साथ ही उपरोक्त वर्गीकरण में आने वाले कई गीत भी इस वर्गीकरण के अंतर्गत रखे जा सकते हैं। इन के अंतर्गत प्रमुख गीता है झूमर, तिरहुत, आरती, मृत्यु गीत, तंत्र-मंत्र संबंधी गीत आदि।

लोकनाट्य

मुख्य स्रोत

  1. सिंह, प्रेमशंकर; मैथिली भाषा साहित्य : बीसम शताब्दी, श्रुति प्रकाशन, दिल्ली [३]
  2. झा, रामदेव; मैथिली लोक साहित्य : स्वरूप ओ सौन्दर्य, मिथिला रिसर्च सोसाइटी, दरभंगा[४]
  3. हरिमोहन झा, लोक साहित्य एवं ब्रजकिशोर वर्मा मणिपद्म; एमए मैथिली, पेपर XIII,ललित नारायण मिथिला विश्वविद्यालय, दरभंगा[५]

यह भी देखें