मूत्ररोग विज्ञान

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चित्र:Male anatomy en.svg
पुरुष जननांग

मूत्र रोग विज्ञान (Urology) आयुर्विज्ञान की वह शाखा है, जो दोनों लिंगों में मूत्रतंत्र तथा पुरूषों के जननांग के रोगों का ज्ञान कराती है। आजकल भ्रूणवैज्ञानिक, लाक्षणिक तथा नैदानिक कारणों से अधिवृक्क (adrenals) के रोगों को भी इसमें सम्मिलित किया जाने लगा है।

जनमूत्र तंत्र (Urogenital System)

भ्रूणविज्ञानी तथा रोग निदान की दृष्टि से मूत्र तथा पुरूष के जनन तंत्रों को पृथक नहीं किया जा सकता है। मूत्र तंत्र में वृक्क, मूत्रकवाहिनी, मूत्राशय तथा मूत्रमार्ग होते हैं। इनकी उत्पत्ति मध्य जनस्तर के मध्यस्थ कोशिका पुंज तथा अवस्कर गुहा (cloaca) के जननमूत्र विवर से होती है। वृक्क उच्च कटि प्रदेश में मेरूदंड के दोनों ओर होते हैं और इनमें मूत्र बनता है। यहाँ से मूत्रवाहिनी के द्वारा मूत्र को मूत्राशय तक पहूँचाया जाता है। मूत्राशय में अल्पकाल के संचय के पश्चात्‌ मूत्रमार्ग से मूत्र बाहर निकाला जाता है।

पुरूष के जनतंत्र में शिश्न, वृषणकोष (scrotum), वृषण (testicle), एपिडिडिमिस (epididymis), वृषण रज्जु (spermatic cord), प्रॉस्टेटा (prostate) ग्रंथि तथा शुक्राशय होते हैं और ये सब जननक्रिया में काम आते हैं|

मूत्ररोग के लक्षण

पीड़ा, रक्तमूत्रता (haematuria) तथा बारंबारता मूत्ररोग के सामान्य लक्षण हैं। पीड़ा मूत्रवाहिनी शूल (colic) तथा मूत्राशय, प्रॉस्टेट ग्रंथि, मूत्रमार्ग, अथवा जनन पथ के रोगों के कारण शरीर के विभिन्न भागों में विभिन्न प्रकार से हो सकती है। रक्तमेह मूत्रतंत्र के किसी अंग के अथवा रक्त के, विकार से हो सकता है। बारंबारता के साथ अतिपात (urgency), हिचकिचाहट (hesitancy), बहुमूत्रकता (polyuria) तथा मूत्रकृच्छ (dysuria) भी कहते हैं। इनके अतिरिक्त मूत्र प्रतिधारण (urinary retention), अमूत्रता (anuria), मूत्र अनिग्रह (incontinence), ज्वर, परिस्पृश्य पुंज (palpable mass), बात मूत्रता (pneumaturia), शोफ़ (oedema), उपघात (injury), तथा रक्तमूत्र विषाक्तता (uraemia) आदि भी मूत्ररोग के लक्षण हो सकते हैं।

मूत्ररोग के निदान

लगभग प्रत्येक रोग के निदान के लिये तीन बातों की आवश्यकता पड़ती है : रोग इतिहास (history) परीक्षा तथा जाँच (investigations)। इन तीनों का वर्णन निम्नलिखित है:

(क) लाक्षणिक (clinical) इतिहास-बच्चों के रोगनिदान में माता पिता से और बड़ों के रोगनिदान में स्वयं उन्हीं से चार भागों में पूरा इतिहास लेना चाहिए :

(१) मुख्य शिकायतें तथा उनकी अवधि,

(२) पूर्व (past) इतिहास, विशेष कर मसूरिका, लोहितज्वर (scarlet fever), कनपेड़ा (mumps) या किसी दीर्घकालिक संक्रमण की अवधि,

(३) वंश वृत्त, विशेष कर क्षयरोग, अतिरुधिर तनाव (hypertension), उपदंश आदि से पीड़ित होने की जानकारी और यदि पहले कोई जाँच, अथवा चिकित्सा हुई हो ते उसका भी ज्ञान करना चाहिए।

(ख) शारीरिक (physical) परीक्षा-व्यापक परीक्षा करने के पश्चात्‌ उदर का निरीक्षण (inspection), परिस्पर्शन (palpation), परिताड़न (percussion) तथा परिश्रवण (auscultation) से वृक्क, मूत्रवाहिनी, मूत्राशय आदि की परीक्षा करनी चाहिए। प्रॉस्टेट ग्रंथि तथा शुक्राशय आदि के लिये मलाशय परीक्षा करनी चाहिए। मूलाधार (perinum), एपिडिडिमिस (epididymis) और वृषणरज्जु की परीक्षा भी आवश्यक है। रक्त चाप तथा ज्वर की भी माप कर लेनी चाहिए।

(ग) मूत्ररोग जाँच (Urologic Investigation) - चार प्रकार से मूत्ररोगों की जाँच की जाती है :

(१) भौतिक, रासायनिक, सूक्ष्मदर्शीय तथा जीवाणु-विज्ञान-संबंधी (bacteriological) मूत्रपरीक्षा,

(२) रक्तपरीक्षा, रक्त यूरिया (blood urea), लसी विद्युत्‌ विश्लेष्य (serum electrolytes) तथा यूरिया सकेंद्रण परीक्षा

(३) उपकरण परीक्षा (instrumental examination), जैसे मूत्रनलिका पारित करना (catheterization), अवशिष्ट मूत्र परिमापन (residual urine estimation), शलाका, पारित करना (bouginage) और मूत्रवाहिनी शलाका पारित करना (catheterzation)

(४) विकिरण परीक्षा (radiological investigations), जैसे उदर तथा श्रोणि सामान्य विकिरण चित्र (plain skiagram of abdomen and pelvis), अंत:- शिरा (intravenous) तथा आरोही (ascending) पाइलोग्राफी (pyelography), ऐऑर्टोग्राफी (aortography), सिस्टोग्रॉफी (cystography) एवं परिवृक्क श्वासगतिविज्ञान (peritenal pneumography) आदि।

मूत्रतंत्र की जन्मजात असंगतियाँ

मूत्ररोग विज्ञान

मनुष्यों में जन्म के समय मूत्रजनन तंत्र में असंगतियाँ विद्यमान होती हैं। स्पाइना बिफिडा ओकल्टा (spina bifida occulta) को छोड़कर शरीर की विकासात्मक त्रुटियाँ 35% से 40% तक मूत्रजनन अंगों में ही होती है।

वृक्क में जन्मजात असंगतियाँ सात प्रकार की हो सकती है:

(१) संख्या में असंगति, एक ही अथवा दो से अधिक वृक्क,

(२) आयतन तथा संरचना की असंगति, जैसे पुटी रोग (cystic disease), अववृद्धि (hypoplasia), अतिवृद्धि (hypertrophy) आदि,

(३) आकार की असंगति, जैसे छोटा, बड़ा या नाल आकार (horse shoe) का वृक्क या एल (L) आकार का वृक्क,

(४) स्थिति की असंगति, जैसे अस्थानी (ectopic) वृक्क, जंगम वृक्क (movable kidney) आदि,

(५) परिभ्रमण (rotation) की असंगति, जैसे कम या अधिक परिभ्रमण,

(६) श्रोणी (pelvis) की असंगति जैसे द्विश्रोणि (double pelvis) आदि, तथा

(७) रुधिर वाहिकाओं की असंगति, जो धमनी या शिरा की हो सकती है।

मूत्रवाहिनी की असंगतियाँ संख्या, उद्भव, सांत आकार, तथा संरचना में हो सकती हैं। उदाहरण के लिये क्रमश: एक ही ओर दो मूत्रवाहिनी, अस्थानी, युरीटरीसील (ureterocele), जन्मजात संकोच (stricture) और जन्मजात विनाल (diverticula) आदि असंगतियाँ होती हैं।

मूत्राशय की उल्लेखनीय जन्मजात असंगतियाँ विनाल, यूरेकस पुटी (urachus cyst), यूरेकस फिस्टुला (fistula) और मूत्राशय त्रिकोण पुट (trigonal folds) हैं। मूत्रमार्ग की असंगति में जन्मजात कपाटिकाएँ, जन्मजात मूत्रमार्ग संकोच आदि होते हैं।

मूत्र की रुकावट

90% से 95% मूत्ररोग के अवरोधन अथवा संक्रमण के कारण होते हैं। बच्चों में अवरोघन प्राय: जन्मजात तथा प्रौढ़ पुरुषों में प्रॉस्टेट ग्रंथि के कारण होता है। अश्मरी (calculi) मूत्रमार्ग संकोच तथा नाना प्रकार के और भी कारण होते हैं, पर जहाँ कहीं भी रुकावट होती है उसके पीछे के मूत्रतंत्र में सर्वदा क्रमश: विस्तारण (dilatation) फिर संक्रमण और अश्मरी निर्माण तथा कभी-कभी अर्बुद भी बन जाते हैं। रुकावट जितनी ही श्रोणि-मूत्र वाहिनी संगम के समीप होगी उतने ही श्घ्रीा हाइड्रोन्फ्रोसिसि (hydronephrosis) हो जायगा। मूत्र रुकावट की चिकित्सा के सिद्धांत ये हैं :

(१) प्रतिधारण (retention) से तुरंत छुटकारा कराना और तरल पदार्थ देना,

(२) सही निदान करना,

(३) वृक्क की सही अवस्था का पता लगाना तथा उसकी कार्यशक्ति को बढ़ाने क प्रयत्न करना और (४) अवरोध को हटाना।

मूत्रतंत के संक्रमण

मूत्रतंत्र के संक्रमण सबसे सामान्य मूत्र रोग हैं। यह जीवाणुओं के कारण होता है तथा मूत्र का अवरोध इसके लिये सबसे बड़ा पुर:प्रवर्तक कारक (predisposing factor) है। मूत्रतंत्र की प्रमुख समस्याओं में ९० प्रतिशत भाग संयुक्त रूप से संक्रमण तथा अवरोध का होता है। ये समस्याएँ तीन प्रकार की होती हैं:

(१) अगुलिकार्तीय (non tuberculous),

(२) गुलिकार्तीय (tuberculous) तथा

(३) असामान्य (unusual)।

मूत्रतंत्र के अगुलिकार्तीय संक्रमण प्रत्येक आयु में हो सकते हैं, पर दो वर्ष के पहले तथा ४० वर्ष के पश्चात्‌ सबसे अधिक होते हैं। ग्राम-ऋणी दंडाणु (gram-negative-bacilli) एशरिकिया कोलाई (escherichia coli), 50%-75% रोगियों में पाए जाते हैं। स्यूडोमोनैस एरोजेनीज, प्रोटियस, शिगेल्सा, सालमोनेल्ला गुच्छ गोलाणु (staphylococcus), मनका गोलाणु (streptococcus) इत्यादि भी मूत्र के संक्रमण उत्पन्न करते हैं। ये संक्रमण रुधिरजन्य (haematogenous) मूत्रजन्य (urogenous), लसीकाजन्य (lymphogenous), सीधे अथवा विस्तरण (extension) से होश् सकते हैं। वृक्क में तरुण (acute) अथवा जीर्ण (chronic) संक्रमण हो सकते हैं। पाइओन्फ्रेसिस (pyonephrosis) में पूरा वृक्क पूय की थैली बन जाता है। वृक्क तथा परिवृक्क फोड़े वृक्क संक्रमण के और भी उदाहरण हैं। मूत्रवाहिनी में पाइओयूरेटर (pyoureter) हो सकता है। मूत्राशयश् में युरेथराइटिस (urethritis) हो सकता है।

मूत्रतंत्र में क्षयरोग अब उन्नतोन्मुख देशों में धीरे धीरे कम होता जा रहा है। यह मूत्रतंत्र के किसी या सब अंगों में हो सकता है। यह तरुण, अथवा जीर्ण या ्व्राण रूपों इत्यादि में हो सकता है। उपदंश, ब्रूसेलोसिस (brucellosis) तथा ्थ्राश (thrush, actinomycosis) मूत्रतंत्र के असामान्य संक्रमण हैं।

मूत्रतंत्र के उपघात (injuries)

ये दुर्घटनाएँ युद्ध तथा उपकरण उपघात से हो सकती हैं। यदि ठीक चिकित्सा समय पर न की गई, तो बुरे परिणाम हो सकते हैं। वृक्क, मूत्रवाहिनी, मूत्राशय तथा मूत्रमार्ग में कहीं भी अकेले, अथवा और किसी अंग के समेत, उपघात हो सकता है।

मूत्र अश्मरी रोग (Urinary Calculous Disease)

मूत्र अश्मरी फॉस्फेट, कार्बोनेट, यूरिक अम्ल, यूरेट आक्सलेट के प्रकार की होती है। कभी कभी सिस्टिन, जैंथीन और अन्य असामान्य प्रकार की भी होती हैं। यह वृक्कद्रोणि, मूत्रवाहिनी तथा मूत्राशय में साधारणतया होती है, पर मूत्रतंत्र के अन्य भागों में भी हो सकती है। इसके होने के मुख्य कारण विटामिन ए की कमी, अतिपरावटुता (hyperparathyroidism), जीवाणु संक्रमण (bacterial infection) श्तथा मूत्र अवरोध होते हैं। छोटी अश्मरी कभी कभी अपने आप बाहर निकल आती है, पर बड़े आकार की अश्मरियों को शल्य से निकाला जा सकता है। अश्मरियों को निकाल देने के पश्चात्‌ उनके फिर से न बनने का उपाय करना चाहिए।

मूत्रजनन तंत्र के अर्बुद (tumours)

मनुष्य के सारे अर्बुदों में मूत्रजननतंत्र के अर्बुद २०% से 25% तक होते हैं, इस तंत्र के 93% श्से 95% श्तक के अर्बुद दुर्दम्य (malignant) होते हैं। इस कारण प्रथम लक्षण परिस्पृश्य पुंज (palpable mass), अथवा रक्तमेह (heamaturia) आदि प्रकट होने पर तुरंत पूरी जाँच तथा ठीक चिकित्सा होनी चाहिए। वृक्क के अर्बुदों में हाइपरने ्फ्रोमा (hypernephroma) प्रौढ़ अवस्था में तथा विल्म का अर्बुद (Wilm's tumour) बचपन में साधारणतया होते हैं। वृक्कद्रोणि तथा मूत्रवाहिनी में पैपिलोमा (papilloma), पैपिलरी कोर्सिनौमा (papillary carcinoma) तथा शल्कायकोशिका कैंसर (squamous cell cancer) होते हैं। मूत्राशय के अर्बुदों में पैपिलोमा तथा पैपिलरी कार्सिनोमा उल्लेखनीय है। प्रॉस्टेट ग्रंथि की सुदम्य अधिवृद्धि (benign hyperplasia) तथा कैंसर प्रौढ़ों में मूत्र अवरोध के सामान्य कारण हैं। इस संबंध में प्रॉस्टेट ग्रंथीय सूत्रणरोग (fibrosis) तथा मूत्राशय के अग्रभाग में रुकावट का भी स्थान है।

अंड ग्रंथि में सेमिनोमा (seminoma) और टेराटोमा अर्बुद प्राय: होते हैं। शुक्राशय, मूत्रमार्ग, शिश्न तथा अन्य भागों में भी सुदम्य तथा दुर्दम्य दोनों ही प्रकार के अर्बुद निकल सकते हैं।

पेशी तंत्रिका के (neuromuscular) रोग-पेशी तंत्रिका के रोग, जैसे मूत्रवाहिनी अतानता (atony) मूत्राशय की पेशी तंत्रिका के रोग, विशेषकर स्पाइना बाइफिडा (spina bifida) तथा मेरुरज्जु के कार्य आदि में पर्याप्त संयोग होता है और ये गंभीर हो जा सकते हैं। इनकी चिकित्सा भी अच्छी प्रकार से नहीं हो पाती। कुछ में तो जीवन की कोई आशा नहीं रह जाती।

पुरुष जनतंत्र के रोग

शिश्न में फिमसिस (phimosis), पाराफिमोसिस (paraphimosis), पॉस्थिटिस (posthitis), शिश्नाग्रशोथ, कर्कट आदि रोग हो सकते हैं।

मूत्रमार्ग के सामान्य रोग युरेथ्राइटिस (urethritis) तथा संकोच है। अंडकोष की त्वचा में कोथ, श्लीपद आदि रोग हो सकते हैं। अंडघर कंचुक (tunica vaginalis) में हाइड्रोसील (hydrocele), काइलोसील (chylocele), पाइओसील (phocole) आदि रोग होते हैं। अंडग्रंथि में अंडशोथ, ऐंठन (torsion) तथा अर्बुद हो सकते हैं। अध्यंड में शोथ तथा वृषण रज्जु में शोथ आदि प्रॉस्टेट ग्रंथि तथा शुक्राशय में शोथ, अर्बुद आदि रोग उत्पन्न हो सकते हैं।

अधिवृक्क (Adrenals)

अधिवृक्क वे हैं जिनके हॉरमोन जीवन के लिये नितांत आवश्यक होते है और ये भ्रौणिकी तथा नैदानिक दृष्टि से मूत्रजनन तंत्र के अभिन्न भाग हैं। शारीरिक संरचना तथा क्रियात्मक दृष्टि से अधिवृक्क के दो भाग होते हैं: बाहरी वल्कुट तथा भीतरी मज्जका। अधिवृक्क के बल्कुट से लगभग ३० हारमोन निकाले जा चुके हैं, जिनके मुख्य कार्य विद्युद्विश्लेय का संतुलन और कार्बोहाइड्रेट उपापचय को ठीक रखना है। इनकी कमी से ऐडिसन का रोग (Addison's disease) तथा अधिकता से सिंड्रोम (syndrome) हो जाता है। अधिवृक्क की मज्जका से गैग्लिओन्युरोमा (ganglioneuroma), न्यूरोब्लास्टोमा (neuroblastoma) और फोइओक्रोमोसिटोमा (phoeochromoccytoma) अर्बुद निकलते है।

== स्त्रियों के मूत्ररोग == अवरोधन, संक्रमण, अश्मरी, अर्बुद आदि रोग स्त्रियों में भी होते हैं, पर उनमें कुछ रोग, जैसे वेसिकी वैजिनल (vesico-vaginal) फिस्टुला (fistula), वल्वाइटिस (vulvitis) आदि विशेषकर होते हैं, जिनके निदान तथा चिकित्सा करने में कभी कभी कठिनाई पड़ सकती है। == स्त्रियांच्या मूत्ररोगविषयक रोग == ब्लॉकिंग, इन्फेक्शन, वल्गारिस, ट्यूमर इत्यादि देखील स्त्रियांमध्ये आढळतात, परंतु त्यांना काही रोग आहेत, जसे की वेसिको-योनि फिस्टुला, व्हल्व्हिटिस इ. कधीकधी निदान आणि उपचारात अडचण येऊ शकते.

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