मुद्रा (करंसी)

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विभिन्न देशों की मुद्राएँ

मुद्रा (currency, करन्सी) पैसे या धन के उस रूप को कहते हैं जिस से दैनिक जीवन में क्रय और विक्रय होती है। इसमें सिक्के और काग़ज़ के नोट दोनों आते हैं। आमतौर से किसी देश में प्रयोग की जाने वाली मुद्रा उस देश की सरकारी व्यवस्था द्वारा बनाई जाती है। मसलन भारत में रुपया व पैसा मुद्रा है।

मुद्रा के बारे में हम उसके द्वारा किये जाने वाले कार्यों के आधार पर बात कर सकते हैं। सामान्यतः हम मुद्रा के कार्यो में विनिमय का माध्यम, मूल्य का मापक तथा धन के संचय तथा स्थगित भुगतानों के मान आदि को शामिल करते है। विभिन्न अर्थशास्त्रियों ने मुद्रा की परिभाषा उसके द्वारा किये जाने वाले कार्यों के आधार पर दी है। मुद्रा में सामान्य स्वीकृति के गुण का होना बहुत जरूरी है यदि किसी वस्तु में सामान्य स्वीकार होने की विशेषता नहीं है तो उस ‘वस्तु’ को मुद्रा नहीं कहा जा सकता। इस प्रकार, मुद्रा से अभिप्राय कोई भी वह वस्तु है जो सामान्य रुप से विनियम के माध्यम, मूल्य के माप, धन के संचय तथा ऋणों के भुगतान के रुप में स्वीकार की जा सकती है।

परिभाषा

मुद्रा की कोई भी ऐसी परिभाषा नहीं है जो सर्वमान्य हो। विभिन्न अर्थशास्त्रियों ने मुद्रा की अलग-अलग परिभाषाएँ दी है। प्रो. जॉनसन ने मुद्रा की परिभाषाओं की चार अलग-अलग भागों में अपनी पुस्तक 'एस्सेज ऑन मॉनेतरी इकनॉमिक्स' ( 'Essays on Monetary Economics') में बताया है जो इस प्रकार है :

परम्परागत दृष्टिकोण

इस दृष्टिकोण में मुद्रा की परिभाषाएँ उसके द्वारा किये गये कार्यों के आधार पर दी गई है।

  • 1. क्राउथर के अनुसार, "मुद्रा वह चीज है जो विनिमय के माध्यम के रूप में सामान्यतया स्वीकार की जाती है और साथ में मुद्रा के माप तथा मुद्रा के संग्रह का भी कार्य करे।"
  • 2. हार्टले विदर्स तथा वाकर के अनुसार, ”मुद्रा वह है जो मुद्रा का कार्य करे।“
  • 3. जे. एम. केन्ज के अनुसार, "मुद्रा में उन सब चीजों को शामिल किया जाता है जो बिना किसी प्रकार के सन्देह अथवा विशेष जांच के वस्तुओं तथा सेवाओं को खरीदने और खर्च को चुकाने के साधन के रूप में साधारणतः प्रयोग में लाई जाती है।"

मुद्रा के परम्परावादी दृष्टिकोण में हम समय जमा को मुद्रा में शामिल नहीं करते, मुद्रा में परम्परावादी अर्थशास्त्री केवल नोट सिक्के तथा बैकों में मांग जमा को ही सम्मिलित करते है।

शिकागो विचारधारा

शिकागो दृष्टिकोण में मिल्टन फ्रीडमैन का ही नाम सामने आता है। शिकागो दृष्टिकोण परम्परागत दृष्टिकोण से बहुत अधिक विस्तृत है। इस दृष्टिकोण के अनुसार मुद्रा में समय जमा को भी शामिल किया जाता है।

मुद्रा = नोट + सिक्के + बैंको में मांग जमा + समय जमा

परम्परागत दृष्टिकोण में मुद्रा के संचय कार्य को बिल्कुल भी ध्यान में नही रखा। वे केवल मुद्रा के विनिमय कार्य के बारे में बात करते है जबकि शिकागो विचारधारा में मुद्रा के संचय कार्य को अधिक महत्व दिया गया है।

गुरले तथा शॉ दृष्टिकोण

गुरले तथा शॉ ने अपनी पुस्तक 'Money in a Theory of Finance' में मुद्रा के बारे में बताया है। गुरले एवं शॉ ने मुद्रा में उसके सभी निकट प्रतिस्थापनों को शामिल किया है। यह दृष्टिकोण शिकागो दृष्टिकोण से भी विस्तृत है इस दृष्टिकोण में मुद्रा में बचत बैंक जमा, शेयर, बॉण्ड तथा साख पत्र आदि को शामिल करते है।

मुद्रा = नोट + सिक्के + मांग जमा + समय जमा + बचत बैंक जमा + शेयर + बाण्ड + साख पत्र
रैडक्लिफ दृष्टिकोण

केन्द्रीय बैंकिग दृष्टिकोण को ही हम रैडक्लिफ दृष्टिकोण कहते है। इस दृष्टिकोण में हम मुद्रा की विभिन्न एजेन्सियों द्वारा दी गई साख को शामिल करते है। केन्द्रीय बैकिग दृष्टिकोण में मुद्रा में नोट, सिक्के, मांग जमा, समय जमा, गैर बैंकिग वित्तीय मध्यस्थों तथा असगठित संस्थाओं द्वारा दी गई साख को शामिल करते है।

मुद्रा = नोट + सिक्के + मांग जमा + समय जमा + बचत बैंक जमा + शेयर बाण्ड + असंगाठित क्षेत्रों द्वारा जारी की गई साख

इरंविग फिशर ने सन् 1911 में अपनी पुस्तक The Purchasing Power of Money में मुद्रा के परिमाण सिद्धान्त के बारे में बताया। उन्होंने बताया कि मुद्र की पूर्ति तथा कीमत स्तर के बीच प्रत्यक्ष तथा आनुपातिक सम्बन्ध होता है। अगर मुद्रा की पूर्ति बढ़ती है तो कीमत स्तर में भी वृद्धि होती है और अगर मुद्रा की पूर्ति कम होती है तो कीमत स्तर भी कम होता है फिशर ने मुद्रा की पूर्ति को सक्रिय तथा कीमत स्तर के निर्धारण में मुद्रा की मांग को अधिक महत्वपूर्ण माना है। परम्परावादी अर्थशास्त्री मुद्रा के केवल विनिमय माध्यम की बात करते है तथा कैम्ब्रिज अर्थशास्त्रियों ने बताया कि मुद्रा को संचय भी कर सकते हैं। केन्ज ने बताया कि मुद्रा की मात्रा तथा कीमत स्तर के बीच अप्रत्यक्ष सम्बन्ध होता है। मुद्रा की मात्रा में परिवर्तन होने के फलस्वरूप सबसे पहले ब्याज की दर में परिवर्तन होता है और ब्याज की दर में परिवर्तन होने से निवेश प्रभावित होता है और फिर आय, उत्पादन, रोजगार बढ़ता है। केन्ज के अनुसार पूर्ण रोजगार से पहले मुद्रा की मात्रा में वृद्धि होने पर उत्पादन तथा कीमतें दोनों बढ़ती है परन्तु पूर्ण रोजगार के बाद मुद्रा की मात्रा में वृद्धि होने पर केवल कीमतें हीं बढ़ती है।

== मुद्रा के कार्य ==का प्रकार आज के समय में बिना मुद्रा के हम अपना एक दिन भी नहीं गुजार सकते है क्योंकि मुद्रा के द्वारा किये जाने वाले कार्यों के द्वारा हम अपने जीवन को सुव्यवस्थित व्यतीत करते है। मानव सभ्यता के विकास में मुद्रा के कार्यों का बहुत अधिक महत्व है। प्रो. किनले ने मुद्रा के कार्यों को तीन भागों में बांटा है-

मुद्रा के प्राथमिक कार्य

प्राथमिक कार्यां में मुद्रा के उन सब कार्यों को शामिल करते है जो प्रत्येक देश में प्रत्येक समय मुद्रा द्वारा किये जाते हैं इसमें केवल दो कार्यों को शामिल किया जाता है।

1. विनिमय का माध्यम

विनिमय के माध्यम का अर्थ होता है कि मुद्रा द्वारा कोई भी व्यक्ति अपनी वस्तुओं को बेचता है तथा उसके स्थान में दूसरी वस्तुओं को खरीदता है। मुद्रा क्रय तथा विक्रय दोनों को बहुत आसान बना देती है। जबसे व्यक्ति ने विनिमय के माध्यम के रूप में मुद्रा का प्रयोग किया है, तभी से मनुष्य की समय तथा शक्ति की बहुत अधिक बचत हुई है। मुद्रा में सामान्य स्वीकृति का गुण भी है इसलिए मुद्रा का विनिमय का कार्य आसान बन जाता है।

2. मूल्य का मापक

मुद्रा के द्वारा हम वस्तुओं तथा सेवाओं के मूल्यों को माप सकते हैं बहुत समय पहले जब वस्तु विनिमय प्रणाली होती थी उसमें वस्तुओं के मूल्यों को मापने में बहुत कठिनाई होती थी। अब वर्तमान में हम मुद्रा का प्रयोग करते है तो वस्तुओं और सेवाओं के मूल्यों को मापने ये कोई कठिनाई नहीं आती है क्योंकि मुद्रा का मूल्य के मापदण्ड के रूप में प्रयोग किया गया है। व्यापारिक फर्मे अपने लाभ, लागत, हानि, कुल आय आदि का अनुमान आसानी से लगा सकती है। मुद्रा के द्वारा किसी भी देश की राष्ट्रीय आय प्रति व्यक्ति आय की गणना की जा सकती है तथा भविष्य के लिए योजनायें भी बनाई जा सकती हैं।

गौण कार्य

गौण कार्य वे कार्य होते हैं जो प्राथमिक कार्यों की सहायता करते है। धीरे -धीरे जब अर्थव्यवस्था विकसित होती है तो सहायक कार्यों की भूमिका बढ़ जाती है सहायक कार्यों में हम निम्नलिखित कार्यो को शामिल करते हैं।

1. स्थगित भुगतानों का मान

मुद्रा के इस कार्य में हम उन भुगतानों को शामिल करते है जिनका भुगतान वर्तमान में न करके भविष्य के लिए स्थगित कर दिया जाता है। स्थगित भुगतानों में ऋणों के भुगतानों को भी शामिल किया जाता है, वस्तु विनिमय प्रणाली में जब हम ऋण लेते थे उसमें मूलधन तथा ऋण का निर्धारण करना बहुत मुश्किल होता था परन्तु मुद्रा के प्रचलन के बाद हमें इस तरह की किसी भी समस्या का सामना नहीं करना पड़ता है और मुद्रा में सामान्य स्वीकृति का भी गुण पाया जाता है। इससे किसी भी देश के व्यापार तथा वाणिज्य का विकास संभव हो जाता है औैर जब मुद्रा स्थगित भुगतानों के रूप में कार्य करती है तो पूंजी निर्माण तथा साख निर्माण भी बहुत अधिक होता है।

2. मूल्य का संचय

जब वस्तु विनिमय प्रणाली प्रचलित थी उस समय केवल वस्तुओं को आपस में विनिमय कर सकते थे वस्तुओं को संचयित नहीं कर सकते है, परन्तु अगर आपको मुद्रा का खर्च करने का विचार न हो तो आप मुद्रा को संचय भी कर सकते है। जब हम मुद्रा के रूप में बचत करते है तो हमें बहुत कम स्थान की आवश्यकता पड़ती है और मुद्रा को सब लोग सामान्य रूप से स्वीकार भी करते है, और मुद्रा के मूल्य में परिवर्तन भी नहीं होता है। परम्परागत अर्थशास्त्री मुद्रा को केवल विनिमय का माध्यम ही मानते थे जबकि कैम्ब्रिज अर्थशास्त्री मुद्रा के संचय कार्य पर अधिक बल देते थे।

3. मूल्य का हस्तांतरण

मुद्रा के द्वारा मूल्य का हस्तांतरण आसानी से हो जाता है मुद्रा में सामान्य स्वीकृति तथा तरलता का गुण होने के कारण हम इसको आसानी से हस्तांतरित कर पाते है। वस्तु विनिमय प्रणाली में वस्तुओं का हस्तांतरण करना बहुत मुश्किल कार्य होता था जब लोगों के पास ज्यादा धन होता है तो वे इसको उधार देकर ऋण के रूप में आय प्राप्त कर सकते है और जिन लोगों को मुद्रा की आवश्यकता है वे मुद्रा के द्वारा अपनी आवश्यकता की पूर्ति कर सकते है।

आकस्मिक कार्य

आकस्मिक कार्यो की भूमिका देश के आर्थिक विकास के साथ बढ़ती जाती है। आकस्मिक कार्य निम्नलिखित है।

1. अधिकतम सन्तुष्टि

मुद्रा को खर्च करके एक व्यक्ति अधिकतम सन्तुष्टि प्राप्त करता है क्योंकि मुद्रा से वह वस्तुएं तथा सेवायें खरीदता है तथा उससे उपयोगिता प्राप्त करता है। इसी प्रकार उत्पादक भी अधिकतम लाभ प्राप्त करता है तथा समाज मुद्रा से अपने कल्याण को भी बढ़ा सकता है। मुद्रा के द्वारा हम वस्तुओं को उनकी सीमान्त उपयोगिता तथा साधनों को उनकी सीमान्त उत्पादकता के बराबर कीमत देकर अधिकतम सन्तुष्टि तथा लाभ प्राप्त कर सकते है।

2. राष्ट्रीय आय का वितरण

मुद्रा के द्वारा राष्ट्रीय आय का वितरण करना भी बहुत आसान हो गया है प्रत्येक साधन को उसकी सीमान्त उत्पादकता के बराबर कीमत देकर राष्ट्रीय आय का विवरण कर सकते है परन्तु जब वस्तु विनिमय प्रणाली प्रचलित थी उस समय राष्ट्रीय आय का वितरण तथा माप करना बहुत कठिन था । मुद्रा के द्वारा हम मूल्य को माप भी सकते है और राष्ट्रीय आय का अनुमान आसानी से लगा सकते है। राष्ट्रीय आय को मुद्रा द्वारा मजदूरी लगान, ब्याज तथा लाभ के रूप में वितरित भी कर सकते हैं।

3. पूंजी की तरलता में वृद्धि

वस्तु विनिमय प्रणाली में वस्तुओं में तरलता का गुण नहीं होता था परन्तु मुद्रा में सामान्य स्वीकृति होने के कारण मुद्रा हमारी पूंजी को तरल बनाये रखती है। हम वस्तुओं के रूप में पूँजी को लेने से मना कर सकते है परन्तु मुद्रा में सामान्य स्वीकृति होने से उसे आसानी से ग्रहण कर लेते हैं। केन्ज ने बताया कि हम मुद्रा का तीन उदेश्यों के लिए मुद्रा की मांग करते है - 1. सौदा उद्देश्य 2. सावधानी उद्देश्य 3. सट्टा उद्देश्य

4. साख का आधार

वस्तु विनिमय प्रणाली में साख का निर्माण संभव नहीं था परन्तु जबसे मुद्रा का प्रचलन हुआ है। मुद्रा द्वारा हम साख का निर्माण भी कर सकते है। वर्तमान समय में विश्व के लगभग सभी देशों में चेक ड्राफ्ट, विनिमय पत्र इत्यादि साख पत्रों का प्रयोग किया जाता है। लोग अपनी अतिरिक्त आय को बैंकों में जमा करवाते है और इन्हीं जमाओं के आधार पर बैंक साख का निर्माण करते हैं।

5. शोधन क्षमता की गारन्टी

मुद्रा का एक कार्य यह भी है कि यह किसी फर्म संस्था या व्यक्ति की शोधन क्षमता की गारन्टी भी देती है। प्रत्येक व्यक्ति, फर्म संस्था आदि को अपनी शोधन क्षमता की गारन्टी बनाये रखने के लिए अपने पास कुछ न कुछ मुद्रा जरूर रखनी पड़ती है। अगर उस व्यक्ति संस्था अथवा फर्म के पास मुद्रा नहीं है तो उसे दिवालिया घोषित कर दिया जाता है।

मुद्रा का महत्व

वर्तमान समय में मुद्रा इतनी आवश्यक तथा महत्वपूर्ण हो गई है कि मुद्रा के गुण व दोषों का अध्ययन ही अर्थशास्त्र के अध्ययन का प्रमुख भाग बन गया है। मुद्रा के महत्व को हम निम्नलिखित तीन भागों में बांट सकते हैं।

आर्थिक क्षेत्र में मुद्रा का प्रत्यक्ष महत्व

वर्तमान समय में मुद्रा का अर्थशास्त्र के प्रत्येक क्षेत्र में बहुत महत्व है बिना मुद्रा के हम वर्तमान समय में एक दिन भी नहीं गुजार सकते। आर्थिक क्षेत्रों में मुद्रा का प्रत्यक्ष महत्व निम्नलिखित हैः

उपभोग क्षेत्र में महत्व

अर्थशास्त्र में अगर किसी व्यक्ति के पास मुद्रा नहीं है तो वह अपनी इच्छानुसार वस्तुएं नहीं खरीद सकता है। व्यक्ति को जो आय काम करने से प्राप्त होती है वह मुद्रा के रूप में होती है और इसी आय को वह अपनी इच्छानुसार खर्च करके अधिकतम सन्तुष्टि प्राप्त करता है एक उपभोक्ता विभिन्न वस्तुओं अपनी आय को इस प्रकार खर्च करता है कि वस्तुओं में मिलने वाली उपयोगिता उनकी कीमत के बराबर हो।

उत्पादन के क्षेत्र में महत्व

उत्पादन के क्षेत्र में यदि उत्पादक के पास मुद्रा है तो वह बड़े पैमाने पर उत्पादन कर सकता है। उत्पादन के क्षेत्र में मुद्रा महत्वपूर्ण भूमिका निभाती है। उत्पादक उसी वस्तु का उत्पादन करता है जिसकी बाजार में मांग हो तभी वह अपने लाभ को अधिकतम कर सकता है। अधिकतम लाभ प्राप्त करने के लिए प्रत्येक साधन की सीमान्त उत्पादकता तथा साधनों को मुद्रा के रूप में दी जाने वाली साधन कीमत का अनुपात भी बराबर होना चाहिए।

विनिमय के क्षेत्र में महत्व

वस्तु विनिमय प्रणाली में हम प्रत्येक वस्तु की कीमत तथा लागत का अनुमान नहीं लगा पाते थे परन्तु जब से मुद्रा का प्रचलन हुआ है तब से मुद्रा ने वस्तु विनिमय प्रणाली के दोषों को दूर कर दिया है। मुद्रा के द्वारा हम प्रत्येक वस्तु की कीमत, लागत तथा उत्पादक की आय को अनुमान लगा सकते है वर्तमान समय में मुद्रा का विनिमय के क्षेत्र में बहुत अधिक महत्व है।

व्यापार के क्षेत्र में महत्व

मुद्रा के विकास के कारण अन्तर्क्षेत्रीय तथा अन्तर्राष्ट्रीय व्यापार में बहुत अधिक वृद्धि हुई है। वस्तु विनिमय प्रणाली में व्यापार करते समय हमें बहुत अधिक कठिनाइयों का सामना करना पड़ता था और हमारे व्यापार का क्षेत्र बहुत सीमित होता था। मुद्रा के विकास के कारण उत्पादन का पैमाना भी बढ़ गया है। उत्पादन अधिक होने से बाजारों का विकास हुआ और अन्तर्क्षेत्रीय तथा अन्तर्राष्ट्रीय व्यापार का आकार बड़ा है।

वितरण के क्षेत्र में महत्व

मुद्रा के आविष्कार के कारण राष्ट्रीय आय के वितरण में उत्पादन के साधनों को उनका भाग देना बहुत आसान हो गया है। मुद्रा के रूप में पूंजी को ब्याज, श्रम को मजदूरी, भूमि को लगान तथा उद्यमी को लाभ देना सरल होता है। वस्तु विनिमय प्रणाली में उत्पादन के साधनों को उनका भाग देना इतना सरल काम नहीं था।

पूंजी निर्माण

वस्तु विनिमय प्रणाली में बचत और निवेश करना संभव नहीं था। मुद्रा के आविष्कार के कारण हम आसानी से बचत तथा निवेश कर सकते है। व्यक्ति की आवश्यकताओं की पूर्ति के बाद जो आय बच जाती है उसे बचत कहते है। इसी बचत से निवेश हो पाता है और निवेश के द्वारा ही पूंजी निर्माण संभव हो पाता है।

आर्थिक क्षेत्र में मुद्रा का अप्रत्यक्ष महत्व

अप्रत्यक्ष रूप से मुद्रा हमारे दिन प्रतिदिन के जीवन को बहुत अधिक प्रभावित करती है। आर्थिक क्षेत्र में मुद्रा का अप्रत्यक्ष महत्व निम्नलिखित है।

वस्तु विनिमय की असुविधाओं से छुटकारा

वस्तु विनिमय प्रणाली के अन्तर्गत मूल्य का मापन तथा संचय करना संभव नहीं था। परन्तु मुद्रा के विकास के कारण अब हम मूल्य को माप भी सकते है तथा मुद्रा को संचय भी कर सकते है और मुद्रा के प्रचलन के बाद हमारे समय तथा धन की बचत संभव हुई है और इसी धन को हम आगे निवेश करते है।

साख निर्माण

मुद्रा के प्रचलन के बाद ही साख का निर्माण संभव हो पाया है। व्यक्ति अपनी अतिरिक्त आय को बैकों में जमा करता है और इसी प्राथमिक जमाओं के आधार पर व्यापारिक बैंक साख का निर्माण करते है। मुद्रा के द्वारा ही साख का निर्माण हो सकता है।

आर्थिक विकास का सूचकांक

मुद्रा के द्वारा ही हम प्रति व्यक्ति आय राष्ट्रीय आय का अनुमान लगा सकते है और यह भी देख सकते है कि क्या राष्ट्रीय आय के वितरण में समानता है और अगर राष्ट्रीय आय के वितरण में समानता है तो हम कह सकते है कि आर्थिक विकास हो रहा है मुद्रा के द्वारा ही हम विभिन्न देशों के आर्थिक विकास की तुलना कर सकते हैं।

पूंजी की गतिशीलता में वृद्धि

वस्तु विनिमय प्रणाली में वस्तुओं की एक स्थान से दूसरे स्थान पर ले जाने में बहुत कठिनाई होती थी मुद्रा के द्वारा हम पूंजी को एक स्थान से दूसरे स्थान, एक उद्योग से दूसरे उद्योग में आसानी से ले जा सकते है। पूंजी के गतिशील होने के कारण पूंजी की उत्पादकता बढ़ती है और देश का उत्पादन बढ़ता है।

सामाजिक कल्याण का मापक

वर्तमान समय में विश्व के सभी देशों को सरकारों का लक्ष्य आधिकतम सामाजिक कल्याण तथा देश में उपलब्ध संसाधनों का कुशलतापूर्वक विदोहन करना है और सरकार मुद्रा द्वारा ही तय कर पाती है कि राष्ट्रीय आय में से कितना भाग सामाजिक कल्याण पर खर्च करना है। सामाजिक कल्याण में शिक्षा, बिजली पानी मनोरंजन, आवास, सामाजिक सुरक्षा आदि पर व्यय शामिल करते है।

अनार्थिक क्षेत्र में मुद्रा का महत्व

मुद्रा ने न केवल आर्थिक क्षेत्र को प्रभावित किया बल्कि सामाजिक और राजनैतिक क्षेत्र में भी अपनी अमित छाप छोड़ी है। मुद्रा का अनार्थिक क्षेत्र में महत्व निम्नलिखित हैः

सामाजिक क्षेत्र में महत्व

मुद्रा के विकास के कारण लोगों को सामाजिक तथा आर्थिक दासता से छुटकारा मिल गया है। सामान्तवादी युग में जब मुद्रा का विकास नहीं हुआ था लोग बड़े जमीदारों के पास सेवकों के रूप में काम करते थे ओर वे अपने व्यवसाय को बदल नहीं सकते थे लेकिन मुद्रा के विकास के बाद लोग अपना व्यवसाय अपनी इच्छा से चुन सकते है और उनमें आत्मसम्मान की भावना का भी विकास हुआ।

राजनैतिक क्षेत्र में मुद्रा का महत्व

लोग मुद्रा के रूप में सरकारों को कर देते है और सरकार को जो करों से प्राप्त आय होती है उसे सार्वजनिक व्यय के रूप में जनता के ऊपर खर्च किया जाता है। कर देने के कारण ही लोगों में राजनैतिक चेतना का विकास हुआ मुद्रा द्वारा ही सरकार देश के विकास के लिए कल्याणकारी योजनाएं शुरू कर सकती है।

कला के क्षेत्र में मुद्रा का महत्व

मुद्रा द्वारा ही कला का मूल्यांकन करना संभव हो पाया है। प्रत्येक कल्याणकारी देश की सरकार मुद्रा के रूप में उस देश के कला प्रेमियों को प्रोत्साहन देती है ताकि वे अपनी कला को विकसित कर सके इस प्रकार कहा जा सकता है कि मुद्रा के द्वारा ही कला का विकास संभव हो पाया है।

मुद्रा का परिमाण सिद्धान्त

मुद्रा के परिमाण सिद्धान्त में मुद्रा के मूल्य का निर्धारण प्राचीन काल से कैसे होता आया है या विभिन्न अर्थषास्त्रयों ने मुद्रा के मूल्य के निर्धारण में अपने क्या-2 विचार प्रदर्शित किये इन सब बातों का अध्ययन किया जाता है। मुद्रा के परिमाण सिद्धान्त का प्रतिपादन सबसे पहले 1566 में जीन बोडीन जो एक फ्रेंच अर्थशास्त्री द्वारा किया गया। सन् 1691 में अंग्रेज अर्थशास्त्री जॉन लोक तथा सन् 1752 में डेविड हयूम ने इस सिद्धान्त की व्याख्या की। 20वीं शताब्दी में मुद्रा के परिमाण सिद्धान्त की व्याख्या इंरविग फिशर मार्शल पीगू और रोबर्टसन आदि अर्थशास्त्रियों आदि ने की। मुद्रा के आधुनिक परिमाण सिद्धान्त की व्याख्या मिल्टन फ्रिडमैन द्वारा की गई। मुद्रा के परिमाण के अनुसार मुद्रा की पूर्ति तथा मुद्रा के मूल्य में विपरीत संबंध है तथा मुद्रा की पूर्ति तथा कीमत स्तर में सीधा या प्रत्यक्ष संबंध है।

मुद्रा के परिमाण सिद्धान्त का समीकरण

मुद्रा के परिमाण सिद्धान्त के दो समीकरण हैः 1. फिशर का समीकरण 2. कैम्ब्रिज समीकरण

फिशर का समीकरण

इरंविग फिशर ने अपने नकद व्यवसाय दृष्टिकोण का प्रतिपादन सन् 1911 में प्रकाशित अपनी पुस्तक 'The Purchasing Power fo Money' में किया। फिशर के नकद व्यवसाय दृष्टिकोण के अनुसार व्यापार की मात्रा तथा चलन वेग के स्थिर रहने पर मुद्रा की पूर्ति तथा कीमत स्तर में प्रत्यक्ष सम्बन्ध पाया जाता है। फिशर के अनुसार कीमत स्तर का निर्धारण वहाँ होता है जहाँ मुद्रा की मांग तथा मुद्रा की पूति एक दूसरे के बराबर हो। (मुद्रा की मांग = मुद्रा की पूर्ति)

PT=MV+M'V'

जहाँ, P = मुद्रा का मूल्य

T = वस्तुओं ओर सेवाओं की कुल मात्रा जो मुद्रा के द्वारा खरीदी जायेगी

M = करेन्सी की मात्रा

M' = साख मुद्रा की मात्रा

V = मुद्रा का चलन वेग

V' = साख मुद्रा का चलन वेग

ऊपर लिखे हुए समीकरण में बताया गया है कि ( MV + M'V' ) मुद्रा की कुल पूर्ति है तथा ( PT ) मुद्रा की मांग को प्रदर्षित करती है।

मुद्रा की पूर्ति

मुद्रा की पूर्ति में हम मुद्रा की मात्रा तथा मुद्रा के चलन वेग को शामिल करते है।

मुद्रा की मात्रा में हम करेन्सी की मात्रा तथा साख मुद्रा की मात्रा को शामिल करते हैं।

M + M' = नोट + सिक्के + साख मुद्रा

मुद्रा की चलन गति से अभिप्राय यह है कि मुद्रा की एक इकाई द्वारा एक वर्ष में कितनी बार वस्तुंए तथा सेवायें खरीदी जाती है।

चलन गति = कुल राष्ट्रीय उत्पाद/प्रचलन में मुद्रा
मुद्रा की मांग

मुद्रा द्वारा हम विभिन्न आवष्यकताओं की पूर्ति करते हैं इसलिए मुद्रा की मांग करते है। फिशर के विनिमय समीकरण में मुद्रा की मांग में व्यापारिक सौदे तथा कीमत स्तर को शामिल करते है।

1. व्यापारिक सौदों से अभिप्रायः एक वर्ष में बाजार मे ब्रिकी के लिए आने वाले सभी सेवाओं तथा वस्तुओं की कुल मात्रा से है।

2. कीमत स्तर से अभिप्राय एक निश्चित समय में व्यापारिक सौदों की प्रत्येक इकाई की औसत कीमत से है।

फिशर का समीकरण बताता है कि अगर मुद्रा की पूर्ति में वृद्धि होती है तो कीमत स्तर भी बढ़़ जायेगा तथा मुद्रा की पूर्ति और मुद्रा के मूल्य में विपरीत संबंध होता है।

फिशर के समीकरण की आलोचना

फिशर के समीकरण की निम्नलिखित आलोचनाएँ हैः

1. अवास्तविक मान्यताएँ

फिषर ने अपने समीकरण में कई अवास्तविक मान्यताओं को शामिल किया है। जैसे कीमत स्तर को निष्क्रिय तत्व तथा मुद्रा की पूर्ति को सक्रिय तत्व माना गया है और व्यापारिक सौदों तथा मुद्रा की चलन गति को स्थिर मान लिया गया है।

2. मुद्रा की पूर्ति को अधिक महत्व

इरविंग फिशर ने अपने सिद्धान्त में मुद्रा की मांग की अपेक्षा मुद्रा की पूर्ति को अधिक महत्व दिया है। फिशर ने बताया कि मुद्रा की पूर्ति में वृद्धि होने पर कीमत स्तर परिवर्तित होता है जबकि मुद्रा की माँग का कीमत स्तर पर कोई प्रभाव नहीं पड़ता है। इस प्रकार फिशर केवल मुद्रा के पूर्ति पक्ष को अधिक महत्व देते है।

3. कीमत स्तर को निष्क्रिय मानना

इरविग फिशर ने कीमत स्तर की एक निष्क्रिय तत्व माना है बल्कि कीमत स्तर एक सक्रिय तत्व है। कीमत स्तर में परिवर्तन होने में अर्थव्यवस्था के कई क्षेत्र प्रभावित होते है। कीमत स्तर में वृद्धि होने से उद्यमी के लाभ के स्तर पर भी वृद्धि होती है। इस प्रकार कीमत स्तर को निष्क्रिय तत्व मानना गलत बात है।

4. पूर्ण रोजगार

फिशर का परिमाण सिद्धान्त केवल पूर्ण रोजगार की अवस्था में लागू होता है। परन्तु प्रो. केन्ज के अनुसार पूंजीवादी अर्थव्यवस्था में अपूर्ण रोजगार की अवस्था पाई जाती है और यह सिद्धान्त अपूर्ण रोजगार की अवस्था में लागू नहीं होगा।

5. व्यापार चक्रों की व्याख्या करने में असफल

फिशर का परिमाण सिद्धान्त व्यापार चक्रों की व्यख्या करने में असफल रहा है। यह मंदी तथा तेजी की स्थिति में मुद्रा की पूर्ति तथा कीमत स्तर की व्याख्या नहीं कर पाता है क्योंकि यह व्यापारिक सौदों का आकार तथा मुद्रा की चलन गति को स्थिर मान लेता है।

6. ब्याज की दर के प्रभाव की अवहेलना

इरविंग फिशर का सिद्धान्त कीमतों पर ब्याज की दर के प्रभाव की व्याख्या नहीं कर पाता है। सबसे पहले मुद्रा की पूर्ति बढ़ती है मुद्रा की पूर्ति में वृद्धि होने से ब्याज की दर कम होती है ब्याज की दर में कमी होने से निवेश बढ़ता है निवेश बढ़ने से आय तथा उत्पादन बढ़ता है आय तथा उत्पादन बढ़ने से कीमत स्तर बढ़ता है परन्तु फिशर ने मुद्रा की पूर्ति तथा कीमत स्तर में सीधा संबंध बताया है तथा ब्याज की दर के प्रभाव की अवहेलना की है।

7. अमौद्रिक तत्वों के प्रभाव की अवहेलना

कीमत स्तर को कई संस्थागत राजनैतिक, अन्तर्राष्ट्रीय, तकनीकी तथा मनोवैज्ञानिक तत्व प्रभावित करते हैं परन्तु फिशर ने इन सब तत्वों की अवहेलना की है। फिशर मानता है कि कीमत स्तर पर केवल मुद्रा की पूर्ति का ही प्रभाव पड़ता है।

मुद्रा के परिमाण सिद्धान्त की मान्यताएँ

1. करेन्सी तथा बैंक रोजगार की स्थिति में होती है।

2. अर्थव्यवस्था पूर्ण रोजगार की स्थिति मे होती है।

3. व्यापारिक सौदों की मात्रा को स्थिर मान लिया गया है।

4. मुद्रा की पूर्ति को सरकार तथा केन्द्रीय बैंक द्वारा निर्धारित किया जाता है।

5. मुद्रा की मात्रा को सक्रिय तत्व माना गया है।

6. कीमत स्तर को निष्क्रिय तत्व माना गया है।

7. फिशर का विनिमय समीकरण दीर्घकाल से संबंध रखता है।

नकद शेष समीकरण

नकद शेष समीकरण कैम्ब्रिज विश्वविद्यालय के अर्थशास्त्रियों से सम्बन्धित है। इसमें मार्शल, पीगू रोबर्टसन तथा केन्ज आदि को शामिल किया जाता है। कैम्ब्रिज सिद्धान्त मुद्रा की मांग को अधिक महत्व प्रदान करता है। इस सिद्धान्त के अनुसार मुद्रा के मूल्य पर मुद्रा की मांग का अधिक प्रभाव पड़ता है क्योंकि मुद्रा की पूर्ति तो स्थिर रहती है। इस सिद्धान्त को हम मुद्रा की मांग सिद्धान्त भी कह सकते है। इस सिद्धान्त का अध्ययन करने से पहले मुद्रा की मांग और पूर्ति को समझना बहुत जरूरी है।

1. मुद्रा की पूर्ति- कैम्ब्रिज समीकरण में मुद्रा की पूर्ति में नोट सिक्के तथा मांग जमा को शामिल करते है तथा मुद्रा की पूर्ति का संबंध समय के बिन्दु से हाते है।

2. मुद्रा की मांग- नकद समीकरण के अनुसार मु्रदा के संचय भी किया जा सकता है जबकि फिषर का सिद्धान्त मुद्रा के विनिमय कार्य पर ही प्रकाष डालता था।

विभिन्न नकद शेष समीकरण

  • 1. मार्शल का समीकरण
  • 2. पीगू का समीकरण
  • 3. रोबर्टसन का समीकरण
  • 4. केन्ज का समीकरण
नकद शेष समीकरण की आलोचनाएं

नकद शेष समीकरण की निम्नलिखित आलोचनाएं हैं

1. इस सिद्धान्त में कुछ मान्यतायें अवास्तविक है जैसे ज्ञ और ज् को स्थिर मान लिया है। परन्तु ज्ञ और ज् वास्तविक जीवन में स्थिर नहीं होते है।

2. नकद शेष समीकरण में ब्याज की दर के प्रभाव को अवहेलना की गई है। इस सिद्धान्त में मुद्रा की मात्रा तथा कीमत स्तर के प्रत्यक्ष संबंध को दिखाया गया है जबकि ब्याज की दर की अवहेलना की गई है।

3. इस सिद्धान्त में मुद्रा के मूल्य पर वास्तविक तत्वों जैसे बचत, निवेश, आय आदि के प्रभाव की अवहेलना की गई है।

4. इस सिद्धान्त के द्वारा हम व्यापार चक्रों के सिद्धान्त की व्याख्या नहीं कर सकते।

केन्ज का मुद्रा सिद्धान्त

समष्टि अर्थषास्त्र के पिता जे. ए. केन्ज ने अपनी पुस्तकों 'A Trealise on Money' तथा 'The General Theory fo Employment Interest and Money' में मुद्रा के सिद्धान्त को प्रतिपादित किया। मुद्रा के परम्परागत परिमाण सिद्धान्त के अनुसार मुद्रा के परिमाण में परिवर्तन का कीमतों के साथ सीधा सम्बंध होता है। परन्तु केन्ज के मुद्रा सिद्धान्त के अनुसार कीमतों तथा मुद्रा के परिमाण में विपरीत संबंध होता है केन्ज ने अपने रोजगार के सिद्धान्त में अपूर्ण रोजगार सन्तुलन की बात की है इसलिए जब पूर्ण रोजगार से पहले मुद्रा की मात्रा को बढ़ाया जाता है उत्पादन उसी अनुपात में बढ़ जाता है परन्तु पूर्ण रोजगार की स्थिति में पहुंचने के बाद कीमत स्तर उसी अनुपात में बढ़ता है।

केन्ज के मुद्रा सिद्धान्त का आधारभूत समीकरण

केन्ज ने राष्ट्रीय आय को उत्पादन के साधनों को किये जाने वाले भुगतान तथा आकस्मिक लाभ को जोड़ बताया है

Y=E + Q
Y = राष्ट्रीय आय
E = उत्पादन के साधनों को किया गया भुगतान
Q = आकस्मिक लाभ

2. कुल उत्पादन को पूंजीगत वस्तुएँ तथा उपभोग वस्तुओं का जोड़ बताया है।

O = R + C
O = उत्पाद
R = उपभोग वस्तुएं
C = पूंजीगत वस्तुएं
केन्ज के मुद्रा सिद्धान्त की व्याख्या

केन्ज ने अपने मुद्रा के सिद्धान्त की व्याख्या दो आधारभूत तत्वों के द्वारा की है।

1. केन्ज के अनुसार कीमत स्तर तथा मुद्रा की मात्रा के बीच विपरीत संबंध होता है।

2. पूर्ण रोजगार की स्थिति से पहले जितना मुद्रा की मात्रा को बढ़ाया जाता है उतना ही उत्पादन बढ़ता है तथा पूर्ण रोजगार के बाद मुद्रा की मात्रा में वृद्धि होने पर कीमत उसी अनुपात में बढ़ता है।

केन्ज ने बताया कि जब हम मुद्रा की मात्रा में परिवर्तन करते है तो सबसे पहले ब्याज की दर प्रभावित होती है। इसके बाद निवेश, उत्पादन, लागत तथा कीमतें प्रभावित होती है अतः हम कह सकते हैं कि मुद्रा की मात्रा तथा कीमत स्तर में अप्रत्यक्ष संबंध है।

मुद्रा की मात्रा में परिवर्तन - ब्याज की दर में परिवर्तन - निवेश में परिवर्तन - आय उत्पादन तथा रोजगार में परिवर्तन - लागत में परिवर्तन - कीमतों में परिवर्तन।

केन्ज के अनुसार जब हम मुद्रा की मात्रा में परिवर्तन करते है तो सर्वप्रथम ब्याज दर कम हो जाती है और ब्याज की दर के कम होने से निवेश बढ़ जाता है और जब किसी अर्थव्यवस्था में निवेष के स्तर में वृद्धि होती है तो आय, उत्पादन तथा रोजगार भी बढ़ता है और इसमें उत्पादन की लागतों में कमी आती है जिसके कारण हमारी कीमतें प्रभावित होती है। पूर्ण रोजगार से पहले उत्पादन और कीमतें दोनों बढ़ती है परन्तु पूर्ण रोजगार के बाद केवल कीमतें ही बढती है।

लार्ड केन्ज ने अपने रोजगार के सिद्धान्त में अपूर्ण रोजगार संतुलन की बात की हो इसलिए उन्होंने बताया कि पूर्ण रोजगार के स्तर से पहले अगर मुद्रा की पूर्ति को बढ़ाया जाता है तो उत्पादन और रोजगार में वृद्धि होती है परन्तु पूर्ण रोजगार के स्तर पर पहुँचने के बाद केवल कीमत स्तर पर वृद्धि होती है, कीमतें के बढ़ने के ओर भी कारण हो सकते है जैसे घटते प्रतिफल के नियम के कारण, सीमान्त लागत के बढ़ जाने के कारण, बाजार की अपूर्णताओं के कारण आदि।

केन्ज के मुद्रा सिद्धान्त की मान्यताएं

केन्ज के मुद्रा सिद्धान्त की निम्नलिखित मान्यताएं हैः

1. उत्पादन के साधनों की पूर्ति कीमत लोचदार होती है।

2. इस सिद्धान्त में बेरोजगारी के समय उत्पादन की पूर्ति लोच की इकाई के बराबर माना गया है।

3. पूर्ण रोजगार की स्थिति में साधनों की पूर्ति को नहीं बढ़ाया जा सकता।

4. इस सिद्धान्त के अनुसार साधनों में पूर्ण स्थानापन्नता का गुण पाया जाता है।

5. मुद्रा की पूर्ति को बढ़ाकर प्रभावपूर्ण मांग को बढ़ाया जा सकता है।

6. उत्पादन में पैमाने के समान प्रतिफल लागू होते हैं।

केन्ज के मुद्रा सिद्धान्त की आलोचना

केन्ज के मुद्रा सिद्धान्त की निम्नलिखित आलोचनाएं हैः

1. केन्ज का मुद्रा का सिद्धान्त पूर्ण रोजगार की मान्यता पर आधारित है परन्तु वास्तविक जीवन में कभी पूर्ण रोजगार सन्तुलन नहीं पाया जाता है।

2. इस सिद्धान्त में बताया गया है कि जब मुद्रा की पूर्ति को बढ़ाया जाता है तो ब्याज की दर कम हो जाती है। जिसके कारण निवेश बढ़ जाता है परन्तु निवेष तब बढ़ेगा जब MEC, MPC दोनो स्थिर रहे।

3. केन्ज ने अपने मुद्रा के सिद्धान्त में ब्याज की दर को अधिक महत्व दिया है।

4. केन्ज उत्पादन के साधनों को पूर्ण स्थानापन्न मानते है परन्तु उत्पादन के साधन पूर्ण स्थानापन्न नहीं होते हैं।

5. उस सिद्धान्त में कई अवास्तविक मान्यताओं को शामिल किया गया है जो ठीक नहीं है।

इन्हें भी देखें

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