मुखम्मस
मुखम्मस (अंग्रेजी: Mukhammas) (उर्दू:مخمس) उर्दू कविता का एक प्रारूप है। इसकी उत्पत्ति फ़ारसी भाषा से हुई है ऐसा माना जाता है। इसमें प्रत्येक बन्द या चरण 5-5 पंक्ति का होता है पहले चरण की सभी पंक्तियों में एक-सी लयबद्धता होती है। जबकि बाद के सभी बन्द अपनी अन्तिम पंक्ति में शुरुआती बन्द की आखिरी बन्दिश लय में आबद्ध होते रहते हैं।
निम्न उद्धरण में दिये गये शुरुआती बन्द से यह बात एकदम स्पष्ठ हो जाती है। (शेष अंश नीचे उदाहरण वाले अनुभाग में देखें):
“ | हैफ़ हम जिसपे कि तैयार थे मिट जाने को, यक-ब-यक हमसे छुड़ाया उसी कासाने को, आस्माँ क्या यही बाकी था सितम ढाने को, लाके गुर्बत में जो रक्खा हमें तड़पाने को, क्या कोई और बहाना न था तरसाने को![१] | ” |
उदाहरण
जज्वये-शहीद (बिस्मिल की तड़प[२])
हम भी आराम उठा सकते थे घर पर रह कर, हमको भी पाला था माँ-बाप ने दुःख सह-सह कर, वक्ते-रुख्सत उन्हें इतना भी न आये कह कर, गोद में अश्क जो टपकें कभी रुख से बह कर, तिफ्ल उनको ही समझ लेना जी बहलाने को!
अपनी किस्मत में अजल ही से सितम रक्खा था, रंज रक्खा था मेहन रक्खी थी गम रक्खा था, किसको परवाह थी और किसमें ये दम रक्खा था, हमने जब वादी-ए-ग़ुरबत में क़दम रक्खा था, दूर तक याद-ए-वतन आई थी समझाने को!
अपना कुछ गम नहीं लेकिन ए ख़याल आता है, मादरे-हिन्द पे कब तक ये जवाल आता है, कौमी-आज़ादी का कब हिन्द पे साल आता है, कौम अपनी पे तो रह-रह के मलाल आता है, मुन्तजिर रहते हैं हम खाक में मिल जाने को!
नौजवानों! जो तबीयत में तुम्हारी खटके, याद कर लेना कभी हमको भी भूले भटके, आपके अज्वे-वदन होवें जुदा कट-कट के, और सद-चाक हो माता का कलेजा फटके, पर न माथे पे शिकन आये कसम खाने को!
एक परवाने का बहता है लहू नस-नस में, अब तो खा बैठे हैं चित्तौड़ के गढ़ की कसमें, सरफ़रोशी की अदा होती हैं यूँ ही रस्में, भाई खंजर से गले मिलते हैं सब आपस में, बहने तैयार चिताओं से लिपट जाने को!
सर फ़िदा करते हैं कुरबान जिगर करते हैं, पास जो कुछ है वो माता की नजर करते हैं, खाना वीरान कहाँ देखिये घर करते हैं! खुश रहो अहले-वतन! हम तो सफ़र करते हैं, जा के आबाद करेंगे किसी वीराने को!
नौजवानो ! यही मौका है उठो खुल खेलो, खिदमते-कौम में जो आये वला सब झेलो, देश के वास्ते सब अपनी जबानी दे दो, फिर मिलेंगी न ये माता की दुआएँ ले लो, देखें कौन आता है ये फ़र्ज़ बजा लाने को?
पाद टिप्पणी
भारतीय क्रान्तिकारी राम प्रसाद 'बिस्मिल' का यह उपरोक्त उर्दू मुखम्मस भारतीय स्वतन्त्रता संग्राम के दौरान सर्वाधिक लोकप्रिय हुआ था। यह रचना इतनी भावपूर्ण है कि लाहौर कान्स्पिरेसी केस के समय जब प्रेमदत्त नामक एक कैदी ने अदालत में गाकर सुनायी तो अदालत मे उपस्थित सभी श्रोता रो पड़े थे।[३][४]
इन्हें भी देखें
सन्दर्भ
- ↑ साँचा:cite book
- ↑ साँचा:cite book
- ↑ खलीक अंजुम मुज्तबा हुसैन जब्तशुदा नज्में पृष्ठ-१८
- ↑ नूरनबी अब्बासी जब्तशुदा नज्में पृष्ठ-२९
- खलीक अंजुम मुज्तबा हुसैन जब्तशुदा नज्में १९७६ हिन्द पाकेट बुक्स जी०टी० रोड शाहदरा दिल्ली ११००३२ भारत
- नूरनबी अब्बासी जब्तशुदा नज्में १९९८ साहित्य अकादेमी नई दिल्ली ११०००१ ISBN 81-260-0315-4
सन्दर्भ हेतु पुस्तक-सूची
बाहरी कड़ियाँ
- "दरो-दीवार पे हसरत से नज़र करते हैं" क्रान्तिकारी पण्डित राम प्रसाद 'बिस्मिल' का मुखम्मस- 1977 की फ़िल्म आन्दोलन में भूपिन्दर की आवाज़ में (यू ट्यूब पर)