महानुशासन
मठाम्नाय (मठ+आम्नाय) अथवा महानुशासन (महा+अनुशासन) आदि शंकराचार्य द्वारा विरचित ग्रन्थ है जिसमें अपने द्वारा स्थापित चार मठों की व्यवस्था से सम्बन्धित विधान और सिद्धान्त दिये गये हैं। इसमें ७३ श्लोक हैं।
'आम्नाय' का अर्थ है -[१]
- (१) पवित्र प्रथा या रीति
- (२) वेदों आदि का अध्ययन, अभ्यास और पाठ
- (३) वेद
- (४) अध्ययन के उद्देश्य से किया जाने वाला अभ्यास।
इस ग्रन्थ के महाम्य महानुशासन में इस बारे में स्पष्ट किया है कि कौन शंकराचार्य पद का अधिकारी है और अयोग्य व्यक्ति के लिए क्या व्यवहार होना चाहिए।
महानुशासन में दशनामी संन्यासी को संसार में रहते हुए भी उसमें लिप्त न हो जाने का निर्देश है। महानुशासन में शंकराचार्य ने कहा है, “मठों को संपत्ति का संयम करना चाहिए, इतना अन्न होना चाहिए कि असहाय, पीड़ित और दरिद्रजनों को आश्रय दिया जा सके। मठों में दरिद्रता का नाम भी न दिखाई दे। आचार्य और संन्यासी उस वैभव का उपयोग धर्म-संस्कृति की रक्षा के लिए करें, स्वयं निर्वाह के लिए जितना आवश्यक हो, उतना ही ग्रहण करें।”[२]
महानुशासन में आगे की धर्माज्ञाएं हैं - मठपति अपने राष्ट्र की प्रतिष्ठा के लिए व धर्म-प्रतिष्ठा के लिए आलस्य त्यागकर परिश्रम करें। वे अपने-अपने शासन प्रदेश में सदैव भ्रमण कर लोगों को वर्णाश्रम के कर्त्तव्यों का उपदेश दें, सदाचार बढ़ाएं। एक मठपति दूसरे मठपति के अधिकारक्षेत्र में न जाए। सर्व मठपति बीच-बीच में एकत्रित होकर धर्म-चर्चा करें व देश में धार्मिक सुव्यवस्था बनाए रखने के लिए प्राणपतसे प्रयत्न करें; वैदिक धर्म प्रगतिशील व अखंडित रहे, इसके लिए वे दक्ष रहें।[३]
आचार्य ने अपने इस महानुशासन में देश के विद्वान मंडलियों पर भी एक ज़िम्मेदारी सौंपी है। उनके मतानुसार विद्वान लोग ही धर्म के प्रति नियामक हो सकते हैं। वे इन धर्म-पीठों पर ध्यान रखें, समय-समय पर मठपतियों के आचरण को परखें। विद्वान, चरित्रवान, कर्त्तव्यदक्ष, सद्गुणी,दशनामी संन्यासी को ही पीठाधिष्ठित बनाएं। वह पीठाध्यक्ष कर्त्तव्यच्युत साबित हो, तो विद्वान उसे पीठ से पदच्युत कर दें।
सन्दर्भ
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- ↑ संतवाणी-आद्य शंकराचार्य स्क्रिप्ट त्रुटि: "webarchive" ऐसा कोई मॉड्यूल नहीं है। (अखण्ड ज्योति, जुलाई २०००)
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बाहरी कड़ियाँ
- मठाम्नाय (आर्काइव_डॉट_ओआरजी)
- मठाम्नायसेतु महानुशासनम्
- ऐसे बनते हैं शंकराचार्य (नवभारत टाइम्स)