मद्यकरण

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शराब बनाने वाले एक कारखाने का दृश्य

शराब, अल्कोहल युक्त पेय एवं अल्कोहल युक्त ईंधन बनाने की विधि को मद्यकरण (Brewing) कहते हैं। किण्वन की क्रिया द्वारा सूक्ष्मजीव जैसे कवक, शर्करा को अल्कोहल में परिवर्तित करते हैं, इसी सिद्धान्त का प्रयोग मद्यकरण में किया जाता है। मद्यकरण का एक लम्बा इतिहास है। आधुनिक युग में सूक्ष्मजैविकी की तकनीको ने इसे एक लाभजनक औद्दोगिक व्यवसाय का रूप दे दिया है।

ऐल्कोहॉलयुक्त पेय की विशेषता उपयोग में आनेवाले कच्चे माल पर ही निर्भर नहीं करती, वरन् इसके स्वाद तथा सुवास पर बनाने की रीतियों का भी व्यापक प्रभाव पड़ता है। प्रत्येक सुरा की अपनी विशेषता होती है और इसमें उपस्थित ऐल्कोहॉल की मात्रा उतनी महत्वपूर्ण नहीं होती जितना उसका स्वाद, सुवास तथा अन्य "निजी विशेषताएँ"।

इतिहास

आदिकाल से एल्कोहॉल का उपयोग उत्तेजक पेय के रूप में होता आया है। आसवन की क्रिया अपेक्षाकृत बाद में अपनाई गई, परंतु उसके बहुत पहले से फल, ईख, ताड़ आदि के किण्वित रसों का उपयोग उत्तेजक तथा स्वास्थ्यवर्द्धक पेय के रूप में होता था। भारत में भी इस प्रकार के पेय पदार्थों का उपयोग सोमरस, मध्विरा, सुरभित रस (elixir) आदि के रूप में प्राचीन काल में होता था। भारत में विविध प्रकार की जड़ी बूटियों के निष्कर्ष से संमिश्रित सुरा का उपयोग औषध के रूप में होता था तथा आज भी पुराने ग्रंथों में इस प्रकार की संमिश्रित सुराओं को तैयार करने के अनेक नुस्खे मिलते हैं। इनका उत्पादन मुख्यत: संन्यासी, चिकित्सक तथा कीमियागर (alchemist) करते थे तथा उपयोग में आनेवाली जड़ी, बूटियों, फलों तथा अन्य वनस्पति पदार्थों के चयन में विशेष कौशल अपनाया जाता था। इनसे संबंधित बातों को प्राय: गुप्त रखा जाता था। ये पेय विशेष सुवास, स्वाद तथा गुणयुक्त होते थे और भारत इस विद्या में संसार के अन्य देशों में अग्रणी था। सुरा के इस गुण के कारण यूरोप में आसुत सुरा को "जीवन जल" (water of life) का नाम दिया गया, क्योंकि उन लोगों में धीरे धीरे यह विश्वास फैल गया कि इसमें जीवनरक्षा के तत्व उपस्थित हैं।

परिचय

आसुत ऐल्कोहॉलयुक्त पेय दो प्रकार के होते हैं : प्रथम वे पेय हैं, जिनको सीधे आसवन की रीति से प्राप्त किया जाता है। इस वर्ग के पेय मद्यकरण उद्योग में अधिक महत्वपूर्ण हैं। द्वितीय वर्ग में उन पेय पदार्थों को संमिलित किया जाता हैं जिनमें अंतत: प्राप्त होनेवाली सुरा में कुछ विशेष तथा वांछनीय विशेषता लाने के लिये एक या अधिक संघटकों का मूल आसुत में संमिश्रण (blending) किया गया हो। सुरा में ऐल्कोहॉल का संदर्भ एथिल ऐल्कोहॉल से होता है, यद्यपि सभी अपितु सुरा में अल्प मात्रा में उच्चतर ऐल्कोहॉल भी उपस्थित होता है। औद्योगिक उपयोग में आनेवाले ऐल्कोहॉल का उत्पादन शर्करा, अथवा ऐसे पदार्थ से, जिसे शर्करा में परिवर्तित किया जा सके, होता है, जैसे स्टार्च। ऐल्कोहॉलयुक्त पेय तथा आसुत सुरा के उत्पादन में क्रमश: फलों तथा ईख के रस का तथा अनाज का उपयोग होता है। बीयर, ह्विस्की आदि का उत्पादन अनाज से होता है। ब्रैंडी, अंगूर तथा रम, ईख के रस से तैयार की जाती है। सुरा में ऐल्कोहॉल की मात्रा के लिये जिस कच्चे माल का उपयोग होता है, प्राय: वही अंतत: तैयार होनेवाली सुरा की सौरभिक तथा स्वाद संबंधी गुणों की विशेषता का कारण होता है।

पुर्णत: शुद्ध की हुई उदासीन (neutral) सुरा एथिल ऐल्कोहॉल होती है। इसे किसी भी उपर्युक्त लिखे हुए कच्चे माल से 190 डिग्री प्रूफ (proof) पर, अथवा इससे अधिक प्रूफ पर, आसवन करने से प्राप्त किया जा सकता है। आसवन के उपरांत प्राप्त आसुत के प्रूफ को प्राय: कम किया जाता है। ऐल्कोहॉलयुक्त पेय की सांद्रता को प्राय: "डिग्री प्रूफ" अथवा केवल "प्रूफ" में व्यक्त किया जाता है। अमरीका की परिभाषा के अनुसार प्रूफ स्पिरिट उस ऐल्कोहॉलयुक्त द्रव को कहते हैं, जिसमें 60 डिग्री फारेनहाइट ताप पर 0.7939 विशिष्ट गुरुत्व (specific gravity) का ऐल्कोहॉल, द्रव के आयतन के आधे परिमाण में, उपस्थित हो। दूसरे शब्दों में प्रूफ की संख्या ऐल्कोहॉल के आयतन के परिमाण की दुगुनी होती है। ब्रिटेन में प्रूफ स्पिरिट उस ऐल्कोहॉलयुक्त द्रव को कहते हैं जिसका भार 51 डिग्री फारेनहाइट ताप पर समान आयतन के आसुत जल के भार का 92/93 हो।

प्रकार

सुरा दो प्रकार की होती है : (1) ऋजु आसुत सुरा (straight distilled liquor) तथा (2) मध्विरा (liqueur) और कॉर्डियल (cordial)।

(1) ऋजु आसुत सुरा (straight distilled liquor) --इसमें ह्विस्की, ब्रैंडी, रम तथा जिन प्रमुख हैं। पीसे हुए अनाज, अथवा कई प्रकार के अनाजों के मिश्रण, के किण्वित आसुत को ह्विस्की कहा जाता है। ह्विस्की के उत्पादन में जिस अनाज का अधिकतम उपयोग हुआ हो, उसी अनाज के नाम पर ह्विस्की का नाम प्रदान किया जाता है, जैसे गेहूँ की ह्विस्की (wheat whiskey), माल्ट ह्विस्की (malt whiskey) आदि। माल्ट ह्विस्की किण्वत जौ के उपयोग से तैयार की जाती है। ह्स्विकी दो प्रकार की होती है अमिश्रित ह्विस्की (straight whiskey) तथा विशेष गुणयुक्त संमिश्रित ह्विस्की (blended whiskey)।

सामान्यत: फलों के किण्वित रसों से प्राप्त आसुत को ब्रैंडी कहा जाता है। यदि किसी फलविशेष का उल्लेख नहीं किया गया हो, तो ब्रैंडी का आशय अंगूर के रस से प्राप्त आसुत सुरा से होता है। ब्रैंडी में उस फल विशेष की विशेषताएँ, जिसके रस से वह तैयार की गई हो, बहुत कुछ विद्यमान होती है।

ईख तथा ईख के सीरे के किण्वित आसुत को रम कहा जाता है। जूनिपर बेरी (juniper berry) के आक्वाथ तथा अन्य सौरभिक जड़ी बूटियों के आसवन से जिन (gin) का उत्पादन होता है।

(2) मध्विरा (liqueur)-- ऋजु आसुत सुरा के अतिरिक्त अन्य सुरा में मध्विरा तथा कॉर्डियल प्रमुख हैं। इनमें ऐल्कोहॉल की मात्रा के अतिरिक्त 2.5 प्रति शत शर्करा अथवा ग्लुकोज होता है। इनका उत्पादन उदासीन आसव, ब्रैंडी, रम, जिन, अथवा अन्य आसुत सुरा को फलों, फलों के निष्कर्षण तथा अन्य सौरभिक और तीव्र सुवासवाले पदार्थों के मिश्रण से होता है।

स्टार्चवाले पदार्थों से सुरा के उत्पादन में सर्वप्रथम स्टार्च को शर्करा में परिवर्तित करना होता है। परिवर्तन की यह क्रिया माल्ट में उपस्थित डायस्टेस ऐंज़ाइम द्वारा संपन्न की जाती है। प्राय: सभी अनाजों को माल्ट रूप में परिवर्तित किया जा सकता है, परंतु साधारण अवस्था में माल्ट का आशय अंकुरित जौ से होता है। माल्ट की क्रिया का उद्देश्य अनाज में ऐंज़ाइम का विकास करना होता है। माल्ट न केवल स्टार्च को शर्करा में परिवर्तित करता है, वरन् अंतत: तैयार होनेवाली सुरा को सौरभिक सुवास तथा स्वाद प्रदान करता है। माल्ट की उत्पत्ति की रीतियों की विशेषता से स्कॉच ह्विस्की की विशेषता मानी जाती है।

उत्पादन प्रक्रम

बीयर निर्माण की प्रक्रिया

अनाज से सुरा का उत्पादन पाँच क्रमों में होता है। इन क्रमों को क्रमश: पीसना, पाक, शर्कराकरण, अवमिश्रण तथा किण्वन कहा जाता है।

पीसना

अनाज को पीसना प्रथम क्रम है। इसमें चक्कियों में अनाज का बारीक चूर्ण तैयार किया जाता है। यह चूर्ण न तो बहुत मोटा होना चाहिए और न अत्यंत बारीक, क्योंकि दोनों ही अवस्थाओं में उत्पादन की रीतियों में कठिनाई उपस्थित होती है और उपजातों की पुन:प्राप्ति में बाधा पड़ती है। अनाज का चूर्ण का अधिकांश 10-30 अक्षि (mesh) की जाली से निकल सकने योग्य होना चाहिए।

पाक

दूसरा पाक क्रम है, जिसमें अनाज के चूर्ण में पानी मिलाकर उसे विलोडकों द्वारा समांग किया जाता है। इस क्रिया में प्राय: 56 पाउंड अनाज से प्राप्त चूर्ण के लिये 14 गैलन के हिसाब से मृदु जल मिलाया जाता है। समांग बनाने की क्रिया बड़ी बड़ी टंकियों में की जाती है। इन टंकियों में विलोडक लगे रहते हैं तथा इन्हें गरम करने के लिये इनमें भाप की नलिकाएँ होती है। पाक क्रिया में अनाज के चूर्ण तथा जल के समांग मिश्रण को गरम किया जाता है। गरम करने की अवधि में विलोडकों को निरंतर चलाते रहना पड़ता है। पाक की क्रिया से अनाज के चूर्ण का स्टार्च पानी के साथ पक कर लेई बनता है। किण्वन की क्रिया में अनाज के चूर्ण की अपेक्षा लेई का शर्कराकरण शीघ्र होता है। पाक की क्रिया दो प्रकार से की जाती है : पहली रीति में खुली टंकियों में हवा के साधारण दबाव पर 100 डिग्री सेंदृ ताप पर पाक की क्रिया 30 से 60 मिनट तक की जाती है। यह रीति औद्योगीकरण के इस युग में पुरानी हो चुकी है। आजकल आधुनिकतम तथा दूसरी रीति का उपयोग किया जाता है, जिसमें समय की बचत होती है। इस रीति में पाक की क्रिया बंद टंकियों में अधिक ताप पर (120 डिग्री से 135 डिग्री सें ताप पर) तथा अधिक हवा के दबाव में की जाती है। क्रिया के लिये अल्प समय प्राय: पाँच मिनट ही पर्याप्त होता है। कुछ अनाज विशेष, जैसे राई, के उपयोग में पाक की क्रिया अपेक्षाकृत कम ताप (70° सेल्सियस) पर करना आवयक होता है, क्योंकि उच्च ताप पर पकाने से तैयार होनेवाली सुरा का स्वाद अरुचिकर होता है। पाक की दोनों ही रीतियों के उपयोग में इस क्रिया के उपरांत समांग लेई को तत्काल 62 डिग्री सेंदृ ताप तक ठंढा कर लिया जाता है। ठंढा करने के लिये पाक की टंकियों में पानी की नलिकाएँ लगी रहती हैं।

शर्कराकरण

तीसरे क्रम में लेई के रूप में अनाज के स्टार्च का शर्कराकरण किया जाता है। इस क्रिया से स्टार्च माल्टोज़ में परिवर्तित हो जाता है। लेई में पीसे हुए माल्ट की कुछ मात्रा मिलाकर, इस क्रिया का 60 डिग्री सेंदृ ताप पर सूत्रपात कराया जाता है। क्रिया के समय लेई तथा माल्ट के मिश्रण को समांग बनाए रखने के लिये, विलोउकों को निरंतर चलते रहना पड़ता है। शर्कराकरण की यह क्रिया 20 से 60 मिनट के उपरांत बंद कर दी जाती है। इस अवधि में लेई में उपस्थित स्टार्च का 30 से 70 प्रति शत भाग माल्टोज़ में तथा शेष भाग का डेक्सट्रिन के अधिकांश का शर्करा में परिवर्तन हो जाता है।

अवमिश्रण

शर्कराकरण की क्रिया के उपरांत चौथे क्रम में माल्टोज़ का अवमिश्रण किया जाता है। इस क्रिया में शर्कराकरण के उपरांत प्राप्त द्रव्य को किण्वन के लिये तैयार किया जाता है। अत: सर्वप्रथम द्रव्य को किण्वन ताप तक ठंडा किया जाता है और इसकी सांद्रता को पानी, अथवा आसवन की क्रिया से ऐल्कोहॉल की प्राप्ति के बाद के बचे हुए द्रव, को मिलाकर निश्चित सीमा तक लाया जाता है। इस क्रिया को अवमिश्रण कहा जाता है तथा इसका उद्देश्य किण्वन के लिये द्रव के ताप तथा सांद्रता को निश्चित स्तर तक लाना होता है, जिससे किण्वन नियंत्रित अवस्था में संपन्न किया जा सके।

किण्वन

किण्वन की पाँचवीं तथा अंतिम क्रिया मद्यकरण में सर्वाधिक महत्वपूर्ण है। किण्वन की क्रिया शर्करा को ऐल्कोहॉल में परिवर्तित करती है। यह क्रिया जाईमेज (Zymase) ऐंज़ाइम नामक ऐंज़ाइम संकुल (enzyme complex) द्वारा होती है। ऐल्कोहॉल युक्त पेय के उत्पादन में प्राय: खमीर अथवा सैकैरोमाइसीज (Saccharomyces) जाति के यीस्ट का प्रयोग होता है। ज़ाईमेज़ अन्य सूक्ष्म जीवों से भी प्राप्त किया जा सकता है। सैकैरोमाइसीज़ जाति का यीस्ट माल्टोज़ के द्रव में सरलता से उगता है और शीघ्र ही मुकुलन (budding) के द्वारा संवर्धन करता है। सैकैरोमाइसीज़ की अनेक जातियों में से सैकैरोमाइसीज़ सेरिविसिया (Saccharomyces Cerevisiae) ही ऐल्कोहॉल के नियंत्रित किण्वन में सर्वाधिक प्रयुक्त होता है, यद्यपि कभी कभी अन्य विभेद (strain) का भी उपयोग किया जाता है। किण्वन की क्रिया एक जटिल प्रक्रम है। इसमें कार्बनिक पदार्थों के गैस का निकास और ऊष्मा की उत्पत्ति होती है। साधारण रूप में एक अणु ग्लूकोज़ से किण्वन के प्रक्रम के उपरांत दो अणु एथिल ऐल्कोहॉल तथा दो अणु कार्बन डाइऑक्साइड प्राप्त होते हैं। परंतु किण्वन का प्रक्रम इतना सरल नहीं होता और उपर्युक्त प्रक्रम के अतिरिक्त अनेक पार्श्व प्रक्रम भी होते हैं, जिनसे अल्प मात्रा में अनेक गौण उत्पाद प्राप्त होते हैं। पार्श्व प्रक्रम प्रयोग में आनेवाले माल्टोज़ द्रव की सरंचना यस्ट तथा किण्वन की परिस्थितियों पर बहुत कुछ निर्भर करती है। इन गौण उपजातों का मद्यकरण में व्यापक प्रभाव होता है और ये तैयार होनेवाली सुरा में स्वाद तथा सुवास की विशेषता प्रदान करते हैं। गौण उत्पाद अनेक प्रकार के ऐल्डीहाइड, एस्टर, उच्चतर ऐल्कोहॉल तथा वसा अम्ल के रूप में होते हैं। उच्चतर ऐल्कोहॉल को फ्यूज़ेल तेल (Fusel oils) नाम भी दिया जाता है। तैयार होनेवाली आसुत सुरा में गौण उत्पादों का सामूहिक रूप में सप्रजाति (Congenerics) भी कहा जाता है।

किण्वन की क्रिया का समारंभ माल्टोज़ द्रव में दो से तीन प्रतिशत परिपक्व यीस्ट के निवेशन (inoculation) से होता है। यह क्रिया दो से चार दिनों में तीन विशेष प्रावस्थाओं में पूर्ण होती है। प्रथम प्रावस्था में यीस्ट की कोशिकाएँ संवर्धित होती हैं, दूसरी प्रावस्था में माल्टोज़ तथा अन्य शर्करा का मुख्य किण्वन होता है और तीसरी प्रावस्था में माल्टोज़ के साथ उपस्थित डेक्सट्रिन का किण्वन योग्य शर्करा में तथा तदुपरांत पूर्णत: एथिल ऐल्कोहॉल में किण्वन होता है। दूसरी प्रावस्था में तीव्र प्रक्रम होता है, जिसमे द्रव से डाइऑक्साइड गैस अति शीघ्र गति से निकलती है और द्रव उबलता सा मालूम पड़ने लगता है, साथ ही ताप की वृद्धि होती है। अत: किण्वन-द्रव को ठंढा रखना पड़ता है। ताप के प्रति यीस्ट अत्यंत सुग्राही (sensitive) होता है। अत: किण्वन की क्रिया के समय 82 डिग्री से 86 डिग्री फारेनहाइट के बीच सावधानी से ताप का नियंत्रण किया जाता है। यीस्ट के तैयार करने की रीति माल्टोज़ द्रव को तैयार करने के समान है। अंतर केवल इतना है कि इसमें पानी की मात्रा कम होती है और इसलिये पीसे हुए चूर्ण में पानी कम मिलाया जाता है। यीस्ट के चूर्ण तथा पानी के सांद्र मिश्रण का, लैक्टिक अम्ल बैक्टिरिया से 20 घंटे के किण्वन से, अम्लीकरण किया जाता है। इस अम्लीकृत यीस्ट द्रव के प्रति 100 गैलन में 10 से 30 गैलन तक पहले से क्रमबद्ध विकसित यीस्ट का मिलाकर निवेशन किया जाता है।

किण्वन की क्रिया के उपरांत द्रव में ऐल्कोहॉल वांछनीय गौण उत्पाद, अनाज के चूर्ण से शेष ठोस कण, खनिज लवण, तथा अन्य किण्वन के उत्पाद, जैसे ग्लिसरालॅ, लैक्टिक अम्ल, सक्सिनिक अम्ल, टार्टरिक अम्ल तथा वसा अम्ल, उपस्थित होते हैं। आसवन की क्रिया से ऐल्कोहॉल तथा अन्य वांछित गौण उत्पादों को इनसे पृथक किया जाता है। आसवन की क्रिया एक, अथवा दो, आसवनों द्वारा संपन्न होती है तथा अवांछित तत्वों को सुरा से रहित करने के लिये भिन्न भिन्न आसवन स्तंभ (column) एवं बहुकक्षीय परिशोधन स्तंभ का उपयोग किया जाता है। आसवन की मूल क्रिया प्राचीन समय में घट-भभकों में की जाती थी। इनमें एक बड़े घट में ऐल्कोहॉलयुक्त द्रव को भरा जाता था और घट के ऊपर से नलिकाओं द्वारा ऐल्कोहॉल का वाष्प एक अन्य पात्र में संघनित किया जाता था। इस प्रकार की व्यवस्था को रिटॉर्ट (retort) आसवन कहा जाता है। घट भभके से प्राप्त प्रथम आसवन का आसुत अशुद्ध होता है तथा इसमें ऐल्कोहॉल की मात्रा 40 से 50 प्रूफ होती है। इस प्रकार से प्राप्त हलकी सुरा का दो अथवा तीन बार पुन: आसवन किया जाता है, जिससे सांद्र सुरा प्राप्त होती है। ये भभके प्राय: ताँबे के बने होते हैं और इन्हें प्रत्यक्ष अथवा अप्रत्यक्ष रूप से गरम किया जाता है। आज कल सुधार किए हुए घट भभकों का उपयोग ह्विस्की तथा ब्रैंडी के उत्पादन में किया जाता है। अब घट भभकों के उपरांत संतत भभकों का उपयोग होने लगा है। इनमें गरम द्रव का संतत प्रवाह किया जाता है तथा भभके में छिद्रयुक्त प्लेट लगे रहते हैं। गरमी से प्लेटों के ऊपर ऐल्कोहॉल का वाष्प बनता है और आसुत का पुन: आसवन होता रहता है। भभके में प्लेटों के नीचे जानेवाले गरम द्रव का पुन: वाष्पीकरण होता है और भभके के तल पर एकत्रित होनेवाले गाढ़े द्रव तथा तलछट को नीचे से निकाल लिया जाता है।

आजकल के आधुनिक भभकों में सुविधाजनक और उपयोगी अनेक सुधार किए गए हैं, जिनके कारण आसवन की क्रिया न केवल मितव्ययी हो गई है, वरन् सभी स्तरों पर क्रिया को सरलतापूर्वक नियंत्रित किया जा सका है। इससे प्राप्त होनेवाली सुरा की विशेषताओं को इच्छानुसार परिवर्तित किया जा सकता है।

उपजात (byproducts)

मद्यकरण से सुरा के अतिरिक्त उपयोगी उपजात भी प्राप्त किए जाते है। सुरा के आसवन के उपरांत बचे हुए द्रव को, जिसमें से ऐल्कोहॉल एवं अन्य वाष्पशील पदार्थों को पृथक् किया जा चुका हो, भभका द्रव कहा जाता है। भभके जल में अनेक पदार्थ विलयन में अथवा निलंबन की अवस्था में उपस्थित होते हैं। इस द्रव से राइबोफ्लैविन (riboflavin) तथा विटामिन बी-संकुल (Vitamin B Compex) के अन्य संघटनों को प्राप्त किया गया है। इस द्रव का उपयोग पशुओं के भोजन संमिश्रणों में होता है।

बाहरी कड़ियाँ