भौतिक भूविज्ञान

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भूपृष्ठीय परिवर्तनों के अध्ययन को बहुधा गतिकीय भूविज्ञान (dynamical geology) भी कहते हैं। स्पष्ट है कि यह नाम पृष्ठीय वातावरण की गतिशील स्थिति की ओर संकेत करता हैं, किन्तु आजकल यह नाम कुछ विशेष प्रचलित नहीं हें और इसके स्थान पर भौतिक भूविज्ञान (Physical geology) अधिक प्रचलित है। इस विज्ञान के तीन मुख्य अंग होते हैं, जो इस प्रकार हैं :

(1) प्राकृतिक कारकों द्वारा पृष्ठीय शैलों का क्षय (decay), अपरदन (erosion) एवं अनाच्छादन (denudation) तथा उससे उत्पन्न अवसाद इत्यादि का परिवहन (transport),

(2) अवसाद का संचयन (accumulation) तथा

(3) संचित अवसाद का संयोजन (cementation) और दृढ़ीभवन

प्राकृतिक कारकों द्वारा क्षय

जो प्राकृतिक कारक पृष्ठीय पदार्थ को प्रभावित करते हैं, वे अपने क्रीडाक्षेत्र की परिस्थिति के अनुसार दो वर्गां में विभाजित किए जा सकते हैं :

(अ) धरातलीय (surface) और

(ब) आंतभौम (subgterranean)

इनमें धरातलीय कारकों की क्रियात्मक ऊर्जा प्रधानतया एवं चरमत: सूर्य से उत्पन्न होती हैं। इस वर्ग में (क) वायुमंडल के विभिन्न अवयव, वर्षा इत्यादि, (ख) आंतभौम जल और सोते, (ग) नदी तथा (घ) हिमनदी, समुद्र तथा झील विशेष उल्लेखनीय हैं। इनका क्रीड़ाक्षेत्र मुख्यत: भुमंडल का थल भाग होता हैं, जिसमें समुद्री तट भी सम्मिलित होंगे। समुद्र के नितल पर इनका कुछ प्रभाव नहीं पड़ता और पृष्ठ के गहरे भागों में भी इनकी प्रवेश्यता अपेक्षाकृत अति सूक्ष्म होती हैं।

आंतभौम कारकों की ऊर्जा का प्रधान स्रोत पृथ्वी की आंतरिक उष्णता ही है। इस वर्ग में पटलविरूपण (diastrophism) ज्वालामुखी क्रीड़ा, उष्ण और भूकंप इत्यादि आते हैं। स्पष्ट है कि इनका मूल क्रीड़ाक्षेत्र धरातल के नीचे है और उनसे उत्पन्न प्रभाव धरातल के ऊपर कभी आ जाते हैं और कभी नहीं आ पाते।

वायुमंडल के विभिन्न अवयव

वायुमंडल में चार ऐसे मुख्य अवयव हैं जो भूपृष्ठ के प्रति कार्यशील रहते हैं: (1) वर्षा, (2) ताप परिवर्तन, (3) तुषार और (4) वायु।

वर्षा

वर्षा एक बहुत सामान्य, किंतु अत्यंत शक्तिमान कारक है। इसके कार्य की विधि कुछ रासायनिक और कुछ बलकृत (mechanical) होती है। पूर्णतया शुद्ध जल में रासायनिक क्रिया करने की क्षमता प्राय: बिल्कुल नहीं होती। यद्यपि वर्षाजल पृथ्वी पर पहुँचने से पूर्व अधिकांश शुद्ध होता है, फिर भी आकाशमार्ग से आते समय उसमें वायुमंडलीय ऑक्सीजन और कार्बन डाइऑक्साइड दोनों ही पर्याप्त मात्रा में विलीन हो जाते हैं। आक्सीकृत और कार्बनीकृत वर्षाजल की अभिक्रिया से पृष्ठीय शैलों के अनेकानेक खनिज अपनी अपनी प्रकृति के अनुसार ऑक्साइडों और कार्बनेटों में परिवर्तित हो जाते हैं। कुछ खनिज, अथवा अनके अणु, जल के साथ रासायनिक यौगिक हाइड्रेट भी बना लेते हैं। इस प्रकार वर्षालय की रासायनिक क्रिया द्वारा शिलाएँ अपघटित (decomposed) हो जाती हैं। नए बने हुए पदार्थों में कुछ विलेय होते हैं और कुछ अविलेय। विलेय अंश बनने के साथ ही जल में विलीन होकर बह जाते हैं और अविलेय अंश जहाँ के तहाँ छूट जाते हैं। अविलेय भाग में मिट्टी के अणु और बालू इत्यादि होते हैं, जो कालांतर में संचित होकर विविध भाँति की मिट्टी के स्तर बनाते हैं।

कभी कभी अविलेय पदार्थ को संचित होने का अवसर ही नहीं मिल पाता, अपितु वर्षा का जल धरातल पर बहते हुए उसे भी पूर्णतया अथवा अंशत:, अपने साथ बहाकर ले जाता है। जब तक जल में पदार्थ को बहा ले जाने की शक्ति रहती है, तब तक वह बहता चला जाता है और शक्ति के क्षीण होने पर वह जहाँ तहाँ बैठ जाता है। इस प्रकार वर्षा के जल द्वारा बहाए हुए पदार्थ को (rain wash) कहते हैं। इसकी मात्रा धरातल की ढाल और वर्षा की गति पर निर्भर होती है। ढाल की प्रवणता और वर्षा की तीव्रता दोनों ही वर्षा के जल के बहाने की शक्ति को वर्द्धित करती हैं।

वर्षा की क्रिया के परिणामों पर स्थानीय जलवायु का भी बहुत प्रभाव पड़ता है, यदि दो प्रदेशों में वार्षिक वर्षा की मात्रा प्राय: समान हो, किंतु एक में हलके हलके छींटे बार बार पड़ते हों और दूसरे में कभी कभी किंतु बहुत तीव्र वर्षा होती हो, तो इन दोनों प्रदेशों में वर्षा का प्रभाव भिन्न भिन्न होगा। इसी प्रकार सूखे और बरसाती मौसमों के एकांतरणवाले प्रदेशों में भी वर्षा का प्रभाव एकदम भिन्न हो जाता है। ताप की विभिन्नता का भी वर्षा की क्रियाशीलता पर प्रभाव पड़ता है। उष्णताप्रधान देशों में वर्षा के जल में अपघटन करने की शक्ति, शीतप्रधान देशों की अपेक्षा, कहीं अधिक होती हैं।

तापपरिवर्तन

बारी बारी से गरमी और सर्दी के प्रभाव में पड़कर चट्टानें शनै: शनै: छिन्न भिन्न होकर मोटे या महीन चूरे के रूप में परिवर्तित हो जाती हैं। द्रव्य का यह साधारण गुण है कि गरमी के प्रभाव से फैलता है और सर्दी पाने पर सिकुड़ता है। फैलने एवं सिकुड़ने की मात्रा द्रव्यविशेष पर निर्भर होती है, अर्थात् कोई द्रव्य अधिक फैलता है और कोई कम। बहुत सी शिलाएँ दो, तीन या और अधिक खनिजों की बनी होती हैं। अत: दिन की गरमी में ये सब खनिज अपने अपने गुणों के अनुसार फैलते हैं और रात्रि में ठंढे होते हुए सिकुड़ते हैं। काई खनिज कम फैलता है, काई अधिक। जो खनिज अधिक फैलता है, वह दूसरों पर एक प्रकार का दबाव डालता है जिससे कण छिन्न भिन्न होने लगते हैं। दिन प्रति दिन इस प्रक्रम के चलते रहने से प्रभाव बढ़ता जाता है और कालांतर में शैलों की ऊपरी परतें चूर्णप्राय हो जाती है। प्रत्यक्ष है कि दिन और रात के ताप में जितना ही अधिक अंतर होगा, उतने ही अधिक वेग से शिलाएँ छिन्न भिन्न होंगी।

इस क्रियामें खनिजों के रासायनिक संघटन में प्राय: बिल्कुल ही परिवर्तन नहीं होता, केवल खनिजों के पारस्परिक बंधन इतने ढीले पड़ जाते हैं कि वे एक दूसरे से पृथक् हो जाते हैं। इसी से इस क्रिया को विघटन (Disintegration) कहते हैं। वर्षा और तापपरिवर्तन दोनों की सम्मिलित क्रिया से, जो बहुधा प्रकृति में होती है,

शिलाओं के अपघटन और विघटन दोनों को प्रोत्साहन मिलता है।

तुषार

तुषार की क्रिया भी केवल बलकृत ही होती है। इस कारक की शक्ति का स्रोत यह सामान्य वृत्त है कि 4 डिग्री सें0 (प्राय: 39 डिग्री फा0) पर जल का आपेक्षिक घनत्व अधिकतम होता है। इससे और अधिक ठंढा होने पर घनत्व कम होने लगता है, अर्थात् दूसरे शब्दों में यह कहना चाहिए कि जल के आयतन में वृद्धि हो जाती है। 0 डिग्री सें0 (32 डिग्री फा0) पर जब जल बर्फ में रूपांतरित होता है, तब उसका आयतन प्राय: दशमांग बढ़ जाता है। अत: कृत्रिम विधि से बर्फ जमाने में इस बात का ध्यान रखना नितांत आवश्यक होता है कि बर्फ के बढ़े हुए आयतन के लिये पात्र में रिक्त स्थान होना चाहिए। इस स्थान के अभाव में फैलती हुई बर्फ के दबाव से पात्र के फूट जाने की आशंका हाती है। इसी वृत के अनुसार शीतप्रधान देशों में जब शिलाएँ तुषार के प्रभाव में आती हैं, तो उनके अंग अंग छिन्न भिन्न हो जाते हैं। शिलाओं के छिद्रों और विदरों में जल घुस जाता है और वह प्रति दिन सर्दी पाने पर जमता है और गरमी पाने पर पिघलता है। इससे कुछ ही काल में चट्टानों की ऊपरी परतों के अवयव कमजोर और प्राय: असंबद्ध हो जाते हैं। बाद में वर्षा तथा वायु आदि के आघात से वे सहज ही चूर चूर हा जाते हैं। बहुधा तुषार का यह प्रभाव विस्फोटी होता है। शीतप्रधान दशों के उन भागों में जहाँ वनस्पति कम हो, खुली, अनाच्छादित चट्टाने इस प्रकार टूटे हुए शैल खंडों से ढकी रहती हैं एवं पहाड़ियों के तलों में इस प्रकार से बने खंडों की बड़ी राशियाँ एकत्रित हो जाती हैं, जिसे शैलमलबा (Talus) कहते हैं। इन खंडों का कोई निश्चित आकार नहीं होता और इनके कोने बहुधा नुकीले एवं पैने होते हैं। शैल विघटन के लिये तुषार बहुत ही शक्तिशाली कारक है, किंतु इसका कार्यक्षेत्र केवल शीतप्रधान प्रदेश ही है।

वायु

वायु के विशिष्ट क्रीड़ाक्षेत्र रेगिस्तान और ऊँचे पार्वत्य प्रदेश हैं, जहाँ यह बहुधा तीव्र गति से बहती है। अनुकूल परिस्थितियों में इसमें बलकृत अपरदन करने की अपूर्व क्षमता होती है। इसकी शक्ति का मुख्य रहस्य इस बात में है कि यह अनगिनती छोटे बड़े बालू और मिट्टी के कणों को बड़ी तीव्र गति से उड़ा ले जाती है। प्रचंड वात में बहते हुए ये कण बारंबार एक दूसरे से टकराते हैं, जिससे अपघर्षण होता है और शनै: शनै: कण लघुतर होते जाते हैं। साथ ही झंझावात के मार्ग में जो पहाड़, चट्टानें एवं पत्थर के खंड आ जाते हैं, उन सबके उपर भी ये बालू झोंका (sand blast) की भाँति आघात करते हैं, जिससे वे सभी अपघर्षित होते रहते हैं।

साधारणतया बालू धरातल से अधिक ऊँचाई तक नहीं उठ पाती। इस कारण वायु की अपरदन-क्रिया-क्षेत्र की ऊँचाई भी उसी अनुपात से सीमित रह जाती है। फलत: बहुधा रेगिस्तानी प्रदेशों में पहाड़ियों और चट्टानों के निचले भाग तो अपघर्षित हो पतले एवं संकीर्ण हो जाते हैं, किंतु ऊपर का धड़ अप्रभावित छूट जाता है। इस प्रकार के अधोरदन (undercutting) से कुकुरमुत्ता आदि सद्दश कुछ विलक्षण आकृतियाँ बन जाती हैं।

रेगिस्तानी प्रदेशों में वायु की दिशा प्राय: बहुत समय तक समान बनी रहती है, जिससे इनकी अपघर्षण और अपरदन की दिशा भी बहुत समय तक अपरिवर्तित रहती है। इस कारण रेगिस्तानों में वायुत्पन्न गोलाश्म (boulder) गोल मटोल न होकर, कोणीय और फलकीय होते हैं। वस्तुत: इनके लिये गोलाश्म शब्द अनुपयुक्त है और उसके स्थान पर जर्मन शब्द ड्रीकैंटर (dreikanter) का प्रयोग करना चाहिए।

वायु में अपरदन के साथ साथ परिवहन की भी विलक्षण शक्ति है। महीन बालू और धूल के कणों को बड़े विशाल परिमाण में वायु वर्ष प्रति वर्ष रेगिस्तानी प्रदेशों से उड़ाकर ले जाती है और ऐसे स्थानों में निक्षेपित कर देती है जहाँ उसका वेग कम हो जाता है और घास एवं झाड़ियाँ उसके मार्ग में रुकावट डालती हैं। इस प्रकार से परिवाहित पदार्थ के निक्षेपों को वायूढ़ बालू (aeolian sand) और वायूढ़ मृत्तिका कहते हैं। उत्तरी चीन में इस प्रकार से बनी वायूढ़ मृत्तिका का एक बड़ा विशाल निक्षेप हैं, जिसकी मोटाई 300 से 450 मीटर तक है और जिसे वायु मध्य एशिया के रेगिस्तानों से उड़ा कर यहाँ ले आई है।

आंतर्भौंम जल ओर सोते

वर्षा द्वारा लाए हुए जल का कुछ भाग वाष्पीकरण से पुन: वायुमंडल में चला जाता है, कुछ धरातल पर बहता हुआ नदियों के मार्ग से समुद्र में पहुँच जाता है और कुछ पृथ्वी में अंत:स्रवित हो जाता है। जो भाग धरातल पर बह जाता है, उसे अपवाह (run off) कहते हैं और जो पृष्ठ में अंत:स्रवित होता है, उसे भूमिगत अथवा आंतभौंम जल (Ground water or Vadose water) कहते हैं। इन तीनों भागों का पारस्परिक अनुपात स्थानीय जलवायु, स्थलाकृति और भौमिकी पर निर्भर रहता है। आद्र्र जलवायु के प्रदेशों में वाष्पीकरण की मात्रा प्रबल होती है। समान जलवायु के प्रदेशों मे स्थलाकृति की विषमता के साथ अपवाहित जल की मात्रा अधिक होती जाती है। भौमिकी का वृत्त भी अत्यंत महत्वपूर्ण होता है, क्योंकि कुछ शिलाएँ बहुत रंध्री तो होती हैं, पर साथ ही उनकी प्रवेश्य (perviousness) बहुत अल्प होती है, जेसे शैल और मृत्तिका। इनके अतिरिक्त एक तीसरी श्रेणी की शिलाएँ न तो रंध्री होती और न प्रवेश्य, जेसे ग्रैनाइट। अत: अंत:स्रवित जल की मात्रा स्थानविशेष के शैलों के भौतिक लक्षणों पर निर्भर होती हैं।

धरातल में कुछ गहराई पर पहुँचने पर, भूमि और शैल जल से संतृप्त हो जाते हैं। संतृप्ति की सतह को भौंमलज स्तर (Water table) कहते हैं। इस स्तर की गहराई क्षेत्रविशेष की वाÐषक वर्षा की मात्रा, स्थालाकृति और स्थानीय भौमिकीय संरचना पर निर्भर होती हैं। साधारणतया भौमजलांतर सूखे प्रदेशों की अपेक्षा आद्र्र क्षेत्रों में धरतल के समीप होता है। समुद्र, झील, सरोवर एवं बड़ी नदियों के समीपस्थ भागों में भी यह स्तर अपेक्षाकृत धरातल के समीप होता है। सूखा पड़ जाने से यह गहराई में चला जाता है और अति वृष्टि होने पर ऊपर आ जाता है।

आंतभौंम जल पृष्ठ में कितनी गहराई तक समा सकता है, यह बात भी स्थानीय शैलों की संरचना पर निर्भर है। जल शैलकणों के बीच के रंध्री स्थानों और विवरों में समा जाता है, अत: जितनी गहराई तक शैलों में रंध्र, अथवा विदर होंगे, उतनी ही दूर तक आंतभौंम शैलों के दबाव के कारण अधिकांश विदर में संधितल बंद हो जाते हैं। रंध्रावकाश भी अल्प हो जा सकता है। ऐसी स्थिति में आंतभौंम जल अधिक गहराई में न जाकर पाश्र्व की ओर अग्रसर होने लगता है। अंतत: इसका लक्ष्य समुद्र है। कभी तो यह भूमिगत मार्गो से ही वहाँ पहुँच जाता है और कभी उसे ऐसे मार्ग मिल जाते हैं, जिनसे वह पुन: धरातल पर सोतों के रूप में पहुँच जाता है।

खुले हुए तथा चौड़े विदरों और संधितलों के अतिरिक्त, अन्यत्र आंतभौंम जल की प्रवाहगति साधाणया अति मंद होती है। इसी कारण उसमें किसी प्रकार की बलकृत क्रिया करने की शक्ति नहीं होती, किंतु अनुकूल परिस्थितियों में यह रासायनिक क्रिया अवश्य कर सकता है। विदर और संधितलों के अनुप्रस्थ आगे बढ़ते हुए यह, वर्षाजल की ही भाँति, दीवारों के शैलों के खनिजों को ऑक्सीकृत, कार्बनीकृत, अथवा जलयोजित कर देता है और इस प्रकार शैल का अपघटन हो जाता है।

जिस भूभाग में चूनापत्थर के शैल हों, वहाँ आंतभौंम जल को कार्य करने का बहुत बड़ा क्षेत्र मिल जाता है। कार्बनीकृत जल में चूनापत्थर विलीन हो जाता है। अत: चूनापत्थर के स्त्तरों में से बहता हुआ जल उसके अनेकानेक भागों को विलीन कर गुफाएँ बना डालता है। कभी कभी इस प्रकर बनी गुफाओं का आकार बड़ा, कई सौ मीटर तक लंबा और 4-5 मीटर गहरा हो जाता है और इनमें से बहता हुआ जल आंतभौंम नदी बना देता है।

कहीं कहीं कार्बोनेटयुक्त जल गुफा की छत से टपकने लगता है। टपकते पानी की कुछ भाग वाष्पीकृत होकर उड़ जाता है और उसमें विलेय कैल्सियम कार्बोनेट टपकनेवाले स्थान पर अवक्षेपित हो जाता है। एक ही स्थान पर बूँदों के बारंबार टपकने ओर उसी स्थान पर कैल्सियम कार्बोनेट के निरंतर अवक्षेपण से एक स्तंभाकर राशि बन जाती है, जिसे स्टैलेक्टाइट (Stal actite) कहते हैं। इसी प्रकार की क्रिया गुफा के फर्श पर टपके हुए जल के वाष्पकरण से भी होती है और उससे भी अवक्षेपित कार्बोनेट से ऐसी स्तंभाकर आकृति बनती है जो फर्श से छत की ओर बढ़ती है। इन आकृतियों की स्टैलेग्माइट (stalgmite) कहते है। कभी कभी स्टैलेग्माइट एक दूसरे की ओर बढ़ते हुए मिलकर गुफा की छत से फर्श तक का सतत स्तंभ बना देते हैं। कभी इस प्रकार अवक्षेपित कार्बोनेट की राशि का कोई विशिष्ट रूप नहीं होता। ऐसी अवस्था में उसे कैल्क निसाद (calc sinter), टूफा (tufa) या ट्रैवर्टाईन (travertine) कहते हैं। किन्हीं किन्हीं गुफाओं में इस प्रकार अवक्षेपित कार्बोनेट की मात्रा इतनी विशाल हो जाती है कि ऐसे कार्बोनेट से व्यवसाय चल सकता है।

सोते

ऊपर यह उल्लेख किया गया है कि कभी कभी आंतभौंम जल सोतों के रूप में पुन: धरातल पर लौट आता है। यह घटना स्थानीय शैलों के विशिष्ट विन्यास के ऊपर निर्भर करती है। यदि कोई बालूपत्थर का रंध्री शैल, र, इस प्रकार विन्यस्त हो कि उसके ऊपर और नीचे पूर्णतया अथवा प्राय: अपारगम्य शैल, मृत्तिका, शेल (shale) या अन्य कोई उसी गुण की शिलाएँ स्थित हों, तो आंतभैंम जल रंध्री शैल में रिसता हुआ, अपारगम्य शिला के ऊपरी संस्पर्श तल तक पहुँचने के बाद, स्तरों की ढाल के अनुसार पाश्र्ववर्ती दिशा में बढ़ने लगेगा। उसी दिशा में जहाँ कहीं वह शैल किसी प्राकृतिक काट (नाला, खड्ड इत्यादि) में अनाच्छादित हो प्रगट होगा, तो उस स्थान पर आंतभौंम जल सोतों के रूप में बहने लगेगा।

बहुधा शैलों में उपस्थित भ्रंशतल भी सोतों के बनने में सहायता देते हैं। यदि किसी भ्रंश के कारण काई अपारगम्य शैल विस्थापित होकर रंध्री और पारगम्य शैल के सान्निध्य में अवस्थित हो जाय तो उस स्थान पर जहाँ भ्रंशतल किसी प्राकृतिक काट (नाला, इत्यादि) के अनुप्रस्थ अनाच्छादित होगा, वहाँ सोते फूटने लगेंगे।

सोतों के पानी में प्राय: सदैव खनिज पदार्थ थोड़ी बहुत मात्रा में विलीन होते हैं। जब इनकी मात्रा भार के अनुसार 1 प्रति शत से अधिक हो, तब उसे खनिज सोता कहते हैं। पर सर्वसाधारण व्यवहार में किसी भी ऐसे सोते को, जिसके पानी में विलीन खनिज पदार्थ के कारण कुछ विशिष्ट स्वाद हो, खनिज सोता कहते हैं। पर सर्वसाधारण व्यवहार में किसी भी ऐसे सोते को, जिसके पानी में विलीन खनिज पदार्थ के कारण कुछ विशिष्ट स्वाद हो, खनिज सोता कहते हैं; किंतु कैल्सियम कार्बोनेट जैसे खनिज बहुत प्रचुर मात्रा में होने पर भी कुछ स्वाद नहीं देते और मैग्नीशियम के लवण अति अल्प मात्रा में भी स्वाद देने लगते हैं।

सोतों का पानी बहुधा दबाव के अधीन होता है। पानी के बाहर आते ही दबाव में कमी हो जाती है और उसके साथ पानी की विलेयता में भी ह्रास हो जाता है। अत: सोतों के उद्गम स्थान पर बहुधा खनिज पदार्थ अवक्षेपित हो जाता है। इस पदार्थ का संघटन प्राय: चूर्णिक अथवा सिलिकीय होता है और ये निक्षेप संघटन के अनुसार, कैल्क निसाद (calc sinter), अथवा सिलिकीय निसाद (siliceous sinter) कहलाते हैं। कभी कभी लौह कार्बोनेट, अथवा अन्य लवण, या गंधक भी अवक्षेपित हो जाते हैं।

किसी किसी सोते का पानी बहुत गरम होता है और कभी कभी पानी रेडियोएक्टिव भी होता है। बिहार राज्य में राजगिरि के गरम पानी के सोते बहुत प्रसिद्ध हैं। इन सोतों का पानी प्रायय: पृष्ठ के बहुत गहरे भागों से आता है। कुछ सोतों का पानी आंतभौंम न होकर मैग्मीय उत्पत्ति का भी होता है, अर्थात् ऐसा जल जो सुदूर गर्भ में मैग्मीय पदार्थ (द्रवीभूत शैल पदार्थ) से निकले हुए वाष्प से युक्त होता है। ऐसे सोते को मैग्मीय (magmatic) सोता कहते हैं।

उत्स्रुत (Artesian) कूप

कहीं कहीं आंतभौंम जल ऐसी विशिष्ट परिस्थिति में विद्यमान होता है कि उस स्थान पर कुआँ बनाने से पानी स्वत: ऊपर चढ़ आता है और कहीं कहीं तो पानी की धार फौवारे की भाँति धरातल से कई मीटर तक ऊपर उछलती हुई निकलती है। इन्हें उत्स्रुत कूप कहते हैं। इनके बनने के लिये अनिवार्य प्रवेश्य प्रतिबंध ये हैं: (1) आंतभौंम जल एक ऐसे रंध्रमय और अप्रवेश्य शैल के अंदर संचित हो जिसके ऊपर और नीचे दोनों ओर अपारगम्य शैल अवस्थित हों, (2) स्तरों के प्रवण की दिशा में जल के बहकर निकल जाने का मार्ग अवरूद्ध हो और (3) जल का मूल स्रोतस्थान, कुँआ बनाने के स्थान से इतनी ऊँचाई पर हो कि वांछनीय तरल स्थैतिक दाब उत्पन्न हो, जिसके प्रभाव से कुआँ बनने पर जल स्वत: धरातल तक ऊपर उठ जाय।

मद्रास प्रांत के दक्षिण आर्कट जिले में नैवेली स्थान पर, जहाँ पीट (peat) के विशाल निक्षेप मिले हैं, बहुत ही उल्लेखनीय उत्स्रुत स्थिति पाई गई है। वहाँ उत्स्रुत जल की दाब और मात्रा दोनों ही इतनी अधिक हैं कि पीट के उत्खनन में बहुत कठिनाई हुई है, तथा जल को नियंत्रित करने के लिये विशेष साधन प्रयुक्त करने पड़े हैं।

नदी

प्राकृतिक कारकों में नदी बहुत ही प्रभावी तथा कार्यशील है। यह अपरदन, परिवहन और निक्षेपण, तीनों ही प्रकार के कार्य अत्यधिक परिमाण में करती है। यद्यपि वर्षाजल के कार्य का महत्व कुछ कम नहीं है, फिर भी नदी की क्रिया लंबी एवं अपेक्षाकृत संकीर्ण घाटियों में संकेंद्रित होने के कारण, इसका प्रभाव व फल अधिक स्पष्ट प्रतीत होता है।

अपरदन

वर्षाजल की भाँति ही नदी का जल भी अपनी घाटी के तल और किनारों के शैलों को रासायनिक क्रिया द्वारा अपघटित कर सकता है। इस प्रकार उत्पन्न अपघटित पदार्थ का विलेय अंश नदी के जल में घुल जाता है और अविलेय भाग भी धार के साथ बह जाता है। यह क्रिया नदी अपने पर्वतीय प्रदेश के मार्ग में सुगमता से करती है, क्योंकि वहाँ घार इतनी वेगवान होती है कि प्राय: सदैव नए, अनपघटित शैलों की स्तरें अनाच्छादित होती रहती हैं जिससे कि वे सहज ही क्रिया के प्रभाव में आती रहती हैं। किंतु मैदानी प्रदेश में धार का वेग कम हो जाने पर, घाटी का तल मृत्तिका और बालू के आवरण से आच्छादित हो जाता है। फलत: अनपघटित शैलों से संपर्क भी कम हो जाता है। जिन प्रदेशों में चूनापत्थर के शैल अधिक हों, वहाँ रासायनिक क्रिया बहुत प्रचुर परिमाण में होती रहती है, क्योंकि कार्बोनेटी जल में चूनापत्थर सहज ही विलीन हो जाता है।

रासायनिक की अपेक्ष बलकृत अपरदन करने की शक्ति नदी में बहुत अधिक होती है। साधारणतया शुद्ध जल शैलों को अपघर्षित नहीं कर सकता, किंतु जब उसमें बालू और बजरी मिली हो तो स्थिति बदल जाती है, क्योंकि वे दोनों एक दूसरे को संबलित करते हैं। नदी का का जल शक्ति प्रदान करता है और बालू एवं बजरी अपघर्षण करते हैं, जिसके प्रभाव से तह और किनारे शनै: शनै: छोटे होते जाते हैं। साथ ही वे स्वयं भी तह के शैलों को अपघर्षित करने में भाग लेते हैं।

नदी की अपघर्षण शक्ति घार की तीव्रता पर निर्भर है और धार की तीव्रता स्थलाकृति पर आधारित है। ढाल जितनी ही प्रवण होती है, धार भी उसी के अनुसार तीव्र होती है। साथ ही जल की मात्रा भी धार की गति को प्रभावित करती है। जल् की मात्रा के साथ धार की गति उसके घनमूल के अनुपात से बढ़ती है, अर्थात् यदि जल की मात्रा आठगुनी हो जाय, तो धार की तेजी दुगुनी हो जाती है। फलत:, जिन देशों में सूखे और बरसाती मौसम पृथक् पृथक् होते हैं, वहाँ नदियों की अपरदन शक्ति बरसात के दिनों में बहुत बढ़ जाती है।

आरंभ में, विशेषकर कठोर चट्टानों के प्रदेश में, नदी के तट प्राय: एकदम खड़े और प्रपाती होते हैं। किंतु वायुमंडलीय कारकों के प्रभाववश, किनारों के ऊपरी भाग शनै: शनै: अपक्षीण होने लगते हैं। इससे उत्पन्न अपघटित और खंडित पदार्थ नदी बहा ले जाती है। इसके फलस्वरूप कालांतर में नदी की घाटी का परिच्छेद ज् आकार का हो जाता है अर्थात् उसके दोनों किनारे तल की ओर ढालू हो जाते हैं।

नदी ऊँचे स्थान से बहकर समुद्र की ओर जाती है, अत: उसका प्रयत्न सदैव यही होता है कि वह थल भाग को काटकर इतना नीचा कर दे कि वह समुद्रतल के बराबर हो जाय। इस तरह नदी के शीर्ष से संगम तक के अनुदैध्र्य परिच्छेद की प्रवणता शीर्ष की ओर सबसे अधिक और संगम के समीप सबसे कम होती है। दूसरे शब्दों में, नदी का ऊध्र्वाधर कटाव घाटी के ऊपरी भागों में सबसे अधिक होता है और समुद्र की ओर बढ़ने पर कम होता जाता है। जब नदियों की घाटी ऐसी स्थित में पहुँच जाती कि ऊध्र्वाधर कटाव एक दम बंद हो जाय और उसकी घाटी का तल समुद्रतल के समान हो जाय, तो वह अपरदन के चरम स्तर (level erosion) पर पहुँच जाती है। वह घाटी, जिसमें ऊध्र्वाधर कटाव तीव्रता से प्रगतिशील हो, तरूण कहलाती है, जो चरमस्तर पर पहुँच चुकी हो उसे वृद्ध एवं इनकी अंतस्थ अवस्था को प्रौढ़ कहते हैं। एक ही घाटी के विभिन्न भागों में तीनों अवस्थाएँ विद्यमान हो सकती हैं।

यदि किसी वृद्ध सरिता की घाटी के प्रदेश में विवेनिक (tectonic) शक्तियों के प्रभाव से स्थलाकृतिक परिवर्तन हो जाए तथा स्थल वैषम्य पुन: उत्पन्न हो जाए तो नदी का पुनर्युक्त हो जाता है और वह एक बार फिर ऊध्र्वाधर कटाई आरंभ कर देती है।

साधारणतया नदी की घाटी की प्रवणता (gradient) क्रमिक हाती है, यद्यपि प्रवणता की मात्रा स्थान स्थान पर घट बढ़ सकती है। किंतु कभी कभी प्रवणनता अक्रमिक भी हो जाती है और जल प्रपात बन जाते हैं। यह स्थिति विशेषकर ऐसे प्रदेशों में होती जहाँ कठोर और मृदु शिलाओं का एकांतरण होता है। मृदु जल सुगमता से अपरदित होकर बह जाता है, जिससे वहाँ घाटी के उत्कीर्णन अधिक मात्रा में हो जाता है। कठोर स्तर अवरोधी है और जहाँ का तहाँ खड़ा रह जाता है। पानी उसके ऊपर से बहता हुआ घाटी के मृदु स्तरवाले अधिक उत्कीर्ण भाग में गिरने लगता है। इस प्रकार घाटी की प्रवणता अक्रमिक हो जाती है और जल प्रपात बन जाते हैं।

बहुधा कालांतर में इन प्रपातों का स्थान भी क्रमश: नदी के शीर्ष की ओर हटता जाता है। होता यह है कि प्रपात के स्थान पर पानी के ऊँचाई से गिरने के कारण नदी की धार में तेजी आ जाती है, जिससे उसकी अपरदन शक्ति और बढ़ जाती है। प्रपात के ठीक नीचे एक प्रकार का दह बन जाता है, जिसमें भँवर पड़ने लगते हैं तथा उनमें तीव्रता से घूमता हुआ पानी प्रपात की दीवार को काटने लगता है। इस प्रकार नीचेवाला मृदू स्तर और भी तेजी से कटता जाता है और एक प्रकार का तलोच्छेदन होने लगता हैं, जिससे कठोर स्तर निरवलंब होकर बाहर को निकल आता है। कालांतर में तलोच्छेदन के और बढ़ जाने पर, कठोर स्तर का सबसे अग्रिम भाग अबलंब के अभाव में टूटकर गिर पड़ता है और प्रपात का स्थान गिरे हुए शैल की नाप के बराबर पीछे हट जाता है। यह क्रिया बारंबार होती रहती है और प्रति बार प्रपात का स्थान क्रमश: पीछे हट जाता है। इस प्रकार के अपरदन के कारण कड़ी चट्टान के टूटने से, प्रपात के प्रारंभिक स्थान से पीछे की ओर एक गहरी धाटी बनती चली जाती है। जबलपुर के सीप नर्मदा नदी की संगमर्मर के शैलों में उत्कीर्ण घाटी और भेड़ाघाट का जलप्रपात इस घटना का सुंदर द्दष्टांत है। विश्वविख्यात न्यागरा नदी का प्रपात इसी प्रकार बना है। वहाँ की गई मापों से मालूम होता है कि प्रपात प्रति वर्ष अपने स्थान से प्राय: डेढ़ मीटर पीछे हट जाता है। अनुमानत: इसी गति से प्राय: 11 किलोमीटर लंबी न्यागरा की घाटी को बनने में 20 से 35 हजार वर्ष तक लगे होंगे। और भी कई परिस्थितियों में जलप्रपात बन सकते हैं, किंतु मूलत: हर अवस्था में घाटी के विभिन्न अवयवों के अपरदन की गति में अंतर होना आवश्यक है। ये जलप्रपात घाटी की तरूण अवस्था के उपलक्षक होते हैं।

अपरदन की चरम स्तर अवस्था में पहुँचने पर नदी की शक्ति अपने पाश्र्वो को काटने में लग जाती है। जब घाटी एकदम सीधी हो, तो दोनों पाश्र्व एक से कटते हैं, किंतु थोड़ी भी वक्रता आ जाने से असमानता उत्पन्न हो जाती है। घाटी के अवतल (concave) पाश्र्व की ओर धार में अधिक तीव्रता होती है और इसलिये उधर कटाव अधिक मात्रा में होता है। इसलिए विपरीत उत्तल (convex) पाश्र्व की ओर धार का वेग कम हो जाने से, न केवल कटाव बंद हो जाता है बल्कि नदी द्वारा विषमता और बढ़ जाती है और नदी का मार्ग अधिकाधिक वक्र होता जाता है। इस प्रकार विसर्पी मोड़ (meander) की उत्पत्ति होती है। बहुधा इन मोड़ों का आयाम (amplitude) अत्यधिक बढ़ जाता है और मोड़ भी बहुत जटिल हो जाते हैं। कभी कभी दो मोड़ एक दुसरे के इतने पास आ जाते है कि उनके बीच की एकदम सीधी दूरी, नदी के अनुप्रस्थ मार्ग की दूरी का दशमांश या और भी कम होती है। ऐसी अवस्था में कभी कभी दो मोड़ों के बीच संकीर्ण ग्रीवा को काटकर, सीधे मार्ग से बहने लगती है और एक या अधीक विसर्पी मोड़ परित्यक्त हो जाते हैं, जिन्हें छाड़न (ox-bow) कहते हैं।

परिवहन

नदी का परिवहन कार्य, प्राय: सभी प्राकृतिक कारकों की अपेक्षा अधिक प्रभावी होता है। निजी अपरदन से उत्पन्न जो शैल चूर्ण, बजरी, बालू और मिट्टी उत्पन्न होती है, वह सब नदी बहाकर समुद्र की ओर ले जाती है, साथ ही वायुमंडलीय कारकों, विशेष कर वर्षा जल द्वारा उत्पन्न शैल चूर्ण तथा खण्ड भी, कालांतर में किसी न किसी मार्ग से नदी की घाटी में पहुँच जाते हैं और उसकी धार में पकड़कर वे सब समुद्र की ओर धीरे धीरे आगे बढ़ते जाते हैं। जिन बड़े बड़े खण्डों को नदी की धार उठाने में असमर्थ होती है, वे तह के अनुप्रस्थ लुढकते हुए चलते हैं और छोटे कण निलंबित बढ़ते हुए चले जाते है।

परिवहन की शक्ति धार की गति पर निर्भर है। यदि गति में वृद्धि की मात्रा व हो, तो परिवहन शक्ति व6 हो जायेगी। अर्थात् यदि गति बढ़कर दुगनी हो जाय, तो परिवहन शक्ति 64 गुणी हो जाएगी। इससे स्पष्ट है कि वर्षाती बाढ़ के समय नदियों की परिवहन शक्ति और साथ साथ विनाश शक्ति की मात्रा बहुत भयानक हो जाती है। गंगा, ब्रहापुत्र इत्यादि बड़ी नदियों के तटवर्ती निवासी इस विनाशकारी शक्ति से भलि भांति परिचित हैं।

निलंबित बालू और मिट्टी के अतिरिक्त अनेकानेक पदार्थ नदियाँ अपने जल में विलीन कर, महादेशीय भागों से समुद्र की ओर ले जाती हैं। जैसा वर्षा जल और आंतभौम जल के प्रकरणों में बताया जा चुका हें, उनकी रासायनिक क्रिया प्रचुर परिमाण में होती हैं, जिससे विलेय पदार्थ भी उसी अनुपात में बनता हैं। यह सभी पदार्थ कालांतर में नदियों में पहुँच जाते हैं। नदियाँ स्वयं भी अपनी क्रिया से कुछ विलेय पदार्थ उत्पन्न करती हैं और यह सब क्रमश: समुद्र में पहुँच जाता हैं।

गणना कर यह अनुमान किया गया है कि गंगा और ब्रहम्पुत्र अपने सम्मिलित मार्ग से प्राय: 1100 न् 106 घन मीटर मिट्टी और बालू प्रति वर्ष बंगाल की खाड़ी में पहुँचा देती है अमरीका की मिसिसिपी नदी द्वारा प्रति वर्ष परिवहित पदार्थ की मात्रा 200न्106 घन मीटर हैं। चीन की ह्वांगहो नदी इतने विशाल परिमाण में मिट्टी ले जाती हैं कि उसके मुहाने के पास का समुद्र मीलों दूर तक पीला बना रहता हैं और इसी से वह पीत सागर (Yellow sea) कहलाता हैं। दक्षिणी अमरीका में अमेजॉन नदी द्वारा बहाई मिट्टी और बालू से उसके मुहाने के सामने समुद्र के तल में जो डेल्टा सद्दश भूमि बन गई हैं, वह प्राय: 200 किलोमीटर लंबी है। अनुमानत:, विश्व की समस्त नदियों द्वारा प्रति वर्ष परिवहित पदार्थ की मात्रा 16 घन किलोमीटर आँकी गई हैं।

निक्षेपण

जैसा पूर्ववर्ती खंड में बताया गया हैं, नदी की परिवहन शक्ति उसकी धार की गति पर निर्भर होती है। अत: ज्योंही उसकी धार की गति में ह्ास होता है, उसकी लाद का कुछ अंश तुरंत निक्षेपित होने लगता है।

नदी के मार्ग में सबसे पहला महत्वपूर्ण निक्षेपण केंद्र पहाड़ के तल में उस स्थान पर होता है जहाँ वह पार्वत्य प्रदेश छोड़कर मैदान में प्रवेश करती है। काफी बड़े बड़े गोलाश्यम और छोटी बड़ी बटियाँ, जो घाटी में पार्वत्य भाग में सुगमता से लुढ़कती हुई चली आती है, नदी के मैदान में प्रवेश करते ही तल में बैठ जाती हैं। इस प्रकार पहाड़ों के तल भाग में एक निक्षेप बन जाता है, जिसे जलोढ शंकु, अथवा पंखा (alluvialo cone or fan) कहते हैं।

दूसरा महत्वपूर्ण गति परिवर्तन का स्थान नदी के संगम के समीप होता है। एक तो घाटी की ढाल वहाँ पहुँचते पहुँचते यों ही बहुत कम हो जाती है, दूसरे समुद्र व झील का पानी भी बहाव को रोकता है। बहुधा धार का वेग इतना कम हो जाता है कि ज्वार का वेग नदी के वेग से अधिक होता है, जिसे ज्वार के समय नदी की धार उल्टी बहने लगती हैं। इसका फल यह है कि संगम के पास के प्रदेश में नदी बड़ी तीव्रता से अवसाद और तलछट निक्षेपित करने लगती है और उसकी अपनी बनाई हुई घाटी ही भरने लगती हैं। अवसाद के जमा होने से नदी का बहना और भी कठिन हो जाता है और नदी कट कटकर कई छोटी धाराओं में विभक्त हो जाती है। कालांतर में इस निक्षेपित अवसाद में एक चौरस मैदान सा बन जाता है, जिसमें से अनेक छोटी धाराएँ अति मंथर गति से बहती हुई समुद्र की ओर जाती हैं। यह मैदान त्रिभुजाकार होता है, जिसका एक शीर्ष नदी की घाटी के उस स्थान पर होता है जहाँ से धारा का विभाजन आरम्भ होता है और उसके सामने वाली आधार रेखा समुद्र के तट के अनुप्रस्थ होती है। इस प्रकार के प्रदेश को डेल्टा कहते हैं।

नदी के संगम पर गति के अवरूद्ध होने से बहुधा बालू दीर्धाकार राशियों में निक्षेपित हो जाता है, जिसे बालुकाभित्ति, अथवा रोधिका (sand bar) कहते हैं।

जलोढ़ शंकु और डेल्टा के बीच के भाग में नदी बहुधा मौसमी बाढ़ और उतार से प्रभावित होती रहती है। बाढ़ के समय नदी में इतना पानी आ जाता है जो उसकी घाटी में नहीं समा सकता। फलत: वह दोनों किनारों के ऊपर से होता हुआ कुछ दूर तक फैल जाता है। जो प्रदेश इस प्रकार बाढ़ के प्रभाव में आ जाता है, उसे बाढ़ मैदान (flood plain) कहते हैं। उस भाग में नदी की धार की गति मुख्य धार की अपेक्षा बहुत कम हो जाती है, जिससे वहाँ प्रचुर मात्रा में मिट्टी और बालू निक्षेपित हो जाती है। इसके विपरीत बाढ़ के समय मुख्य धार की गति साधारण समय की गति से बहुत अधिक होती है, इसलिये वहाँ अपरदन बढ़ जाता है और नदी पहले जमा की हुई बालू और मिट्टी को काटकर ले जाती है।

जैसा पहले उल्लेख किया जा चुका है, नदी की चेष्टा अपनी घाटी को निरंतर गहरा कर, अपरदन के चरमस्तर पर पहुँचाने की होती है। घाटी की गहराई बढ़ जाने पर बहुधा ऐसी स्थिति आ जाती है कि बाढ के समय भी पहले वाली बाढ़ के मैदान तक न पहुँचने पाए। ऐसी दशा में नदी एक नया बाढ़-मैदान बनाती है। पुरानावाला बाढ़-मैदान नदी वेदिका (river terrace) कहलाता है। बहुधा नदी की घाटियों में अभिनव तल से काफी ऊपर दोनों किनारों पर, अथवा एक ही ओर, इस प्रकार की वेदिकाएँ दिखाई पड़ती है। कहीं कहीं तो 2-3 या और भी अधिक वेदिकएँ क्रमश: एक दूसरी के ऊपर विभिन्न तलों पर मिलती हैं। उनके अध्ययन से नदी की घाटी के विकास का इतिहास जाना जा सकता है।

हिमनदी आदि

ऊँचे पर्वतीय भागों और शीतप्रधान देशों में ठंडे मौसम में जल के बदले हिम वर्षा होती है। जिन प्रदेशों में हिम-वर्षा उस मात्रा में अधिक हो जितना गर्मी के समय में हिम पिघलता है, वे प्रदेश सदैव हिमाच्छादित रहते हैं। जिस ऊँचाई पर ऐसा होता है, उसे हिम रेखा कहते है। यह ऊँचाई विभिन्न विभिन्न अक्षांशों और प्रदेशों में विभिन्न होती है, यथा हिमालय में इसकी ऊँचाई प्राय: 4,500 से 5,500 मीटर तक है, आल्प्स पर्वत 2,400 मीटर और नॉर्वे में केवल 1,500 मीटर है। ध्रुवों के पास, विशेष कर दक्षिणी ध्रुव पर तो समुद्र का बहुत बड़ा भाग सदैव हिमाच्छादित रहता है।

आकाश से आते समय हिम रूई के गालों के समान कोमल होता है। वस्तुत: उसमें प्रचुर मात्रा में वायु मिली होती है। जब एक बड़ी राशि एकत्रित हो जाती है, तो ऊपरी स्तरों की दाब से नीचे की स्तरों में से हवा निकल जाती है और हिमकण आपस में मिलकर कठोर बर्फ के रूप में परिवर्तित हो जाते हैं। बहुत विशाल परिमाण में एकत्रित होने पर गुरूत्वाकर्षण के प्रभाव से, अनुकूल स्थलाकृत्ति प्रदेशों में बर्फ की राशि धीरे धीरे नीचे की ओर खिसकने लगती है और इस प्रकार एक नदी सी बन जाती है, जिसे हिमनदी (glacier) कहते हैं। कालांतर में नदी की भाँति वह भी अपने लिये एक घाटी बना लेती है। जिसे वह शनै: शनै: अधिकाधिक गहरा करती जाती है।

ठोस बर्फ से उत्कीर्ण होने के कारण हिमनदी की घाटियों के कुछ विशिष्ट लक्षण होते हैं, जिनमें से तीन प्रमुख है:

(1) उनका नितल चौड़ा और किनारे प्रपाती होते हैं, जिससे उनका ऊध्र्व परिच्छेद छ आकार का होता है,

(2) उनकी घाटियाँ सर्पिल न होकर बहुत दूर तक एकदम सीधी चली जाती है और

(3) मुख्य हिमनदी और सहायक हिमनदी के संगम के स्थान पर दोनों घाटियों का तल क्रमिक न होकर प्रपाती होता है। इस कारण सहायक नदियों की घाटी निलंबी घाटी (hanging valley) कहलाती है।

ठोस होने कारण हिमनदी की गति बहुत कम होती है। कहीं कहीं तो दिनभर में केवल 30 सेंटीमीटर ही आगे बढ़ती है। कभी कभी वेग अपेक्षाकृत अधिक भी होता है। अलास्का में कुछ हिमनदियाँ एक दिन में प्राय: ढाई तीन मीटर बढ़ जाती है। यह गति, नदी की गति के समान ही, बर्फ की मात्रा और प्रादेशिक ढाल की प्रवणता पर निर्भर होती है।

हिमरेखा के नीचे पहुँचने पर बर्फ पिघलने लगती है और साधारण नदी का रूप धारण कर लेती है। हिमालय से आने वाली प्राय: समस्त नदियों के जल का मूल स्रोत यह पिघलती हुई हिमनदियाँ ही हैं। जिन प्रदेशों में हिमरेखा समुद्रतल में प्राय: बराबर ही होती है, वहाँ हिमनदी स्वयं समुद्र में गिर जाती है। ऐसे संगमों पर बहुधा बर्फ की बड़ी बड़ी राशियाँ पीछे से आनेवाली बर्फ के दबाव से मूल नदी से टूटकर पृथक् हो समुद्र में प्रवाहित हो जाती है और बहते बहते काफी दूर निकल जाती हैं। इन राशियों को प्लावी हिमशैल (iceberg) कहते हैं। प्लावी हिमशैल अन्य कारणों से भी बन सकते हैं। बहुत ठंढे प्रदेशों में कभी कभी ऐसा भी होता है कि समुद्र के पास जाने पर भी हिमनदी अपना रूप बनाये रहती है और तट के समीप की समुद्र तह को भी उत्त्कीर्ण कर अपनी घाटी काफी दूर तक आगे बढ़ाती चली जाती है। नार्वे और स्वीडेन में इस प्रकार से बनी घाटियों के बहुत उदाहरण हैं एवं उन्हें फियर्ड (fiord) कहते हैं।

नदी की भाँति, हिमनदी भी चट्टानों को अपरदित तथा उनसे टूटे हुए खंडों का परिवहन करती है। किंतु दोनों की क्रिया विधि में बहुत अंतर है। जहाँ नदी की तह में अनेक छोटे-बड़े रोड़े धार के वेग से लुढ़कते हुए आगे बढ़ते हैं, हिमनदी में उनके लुढ़कने के लिये कोई अवसर नहीं। जो टुकड़ा जिस दशा में बर्फ में फँस जाता है उसी अवस्था में आगे बढ़ता है। यत्र तत्र चट्टानों के बहुत से टुकड़े टूटकर हिमनदी के ऊपर गिर जाते हैं। ज्यों ज्यों हिमधार आगे बढ़ती है, ये खंड भी ज्यों के त्यों पड़े हुए आगे बढ़ते हैं। इस भिन्नता के फलस्वरूप जहाँ नदी द्वारा परिवहित पत्थर कुछ काल लुढ़कते हुए तथा आपस में टकराते हुए गोल मटोल बटिया स्वरूप हो जाते हैं, हिमधार द्वारा ले जाये गये खंड अंत तक कोणीय व नुकीले ही बने रहते हैं।

इसके अतिरिक्त धार की सहायता से नदी अपने परिवहित पदार्थ को आकार और घनत्व के आधार पर पृथक पृथक भागों में विभक्त कर देती है, यथा तेज धार की जगहों पर केवल मोटी बजरी, उससे कम तेज धार में मोटी बालू एवं गति के क्रमश: और कम होने पर महीन बालू और मिट्टी बारी बारी से घाटी की तह में जमा होती है। इसके विपरीत हिमनदी पदार्थ को इसप्रकार छाँट नहीं सकती, अपितु उसकी लाद में बड़े रोड़े, महीन बालू और मिट्टी, विभिन्न आकारों के खंड, सब एक साथ मिले हुए आगे बढ़ते हैं। और जहाँ हिमनदी का पिघलना आरम्भ होता है उसका सबका सब बिना किसी विभाजन के एक साथ निक्षेपित हो जाता है।

हिमनदी में पदार्थ के परिवहन की शक्ति अपरिमित है। शिलाओं के बड़े खंड़ों को भी हिमधार उसी सुगमता से परिवहित कर सकती है जिससे कि छोटे कणों को। इस प्रकार जहाँ नदी की घाटी में मात्र शैल से पृथक् कृत बड़ी बड़ी राशियाँ बिना छोटे खंडों में टूटे हुए विशेष दूर तक आगे नहीं जा सकती, हिमनदी की घाटी में वे निरंतर आगे परिवहित होती रहती है। हिमनदी का जहाँ अंत होता है और बर्फ पिघलती है, वहीं ये बड़े बड़े खंड गिर पड़ते हैं। स्थानीय प्रादेशिक शैलों से इनका कोई मातृ संबंध नहीं होता, इसलिए वे विस्थापित (erratic) खंड कहलाते हैं। हिमनदी से धरातल पर गिरते समय जिस पहल पर भी ये टिक जायँ, उसी पर टिके हुए अनेक काल तक खड़े रह जाते हैं। कभी कभी ये केवल एक छोटे से कोने के बल गिरते हैं और उसी के बल खड़े रह जाते हैं। ऐसी स्थिति में इनका संतुलन बड़ा स्थिर सा दिखाई पड़ता है और इन्हें दु:स्थित (perched) खंड कहते हैं।

घाटी की तह के पास बर्फ में फँसे हुए खंड अपने नुकीले कोनों से तह की शिलाओं को खरोंच डालते हैं। बर्फ के दबाव और शिलाओं की कठोरता के अनुसार, ये खरोंचें कम या अधिक गहरी होती हैं। कभी कभी बहुत से छोटे छोटे खंड पास पास होते हैं। उन सबकी रगड़ से एक ही शिला में अनेक खरोंचें बन जाती हैं। इन खंडों की रगड़ हिमनदी की प्रवाह की दिशा में ही लगती है, इसलिए सब खरोंचे एक दूसरे के समांतर होती है। इस प्रकार खरोंची हुई शिलाओं को रेखान्वित (striated) कहतें हैं। इस विपरीत कभी कभी ऐसा भी होता हैं कि हिमनदी में नितिल के पास फँसा हुआ कोई शैलखंड घाटी की तह की कठोर शिलाओं सें रगड़ खाता हुआ आगे बढ़ता है, जिससे तह से सटा हुआ उसका पाश्र्व चिकना और फलदार हो जाता हैं और अन्य पाश्र्व पूर्ववत् कोणीय व नुकीले छूट जाते है। इस प्रकार हिमनदीरंजित (glaciaed) पहलदार (facetted) खंड बनते हैं। कभी कभी हिमनदी की घाटी में अवस्थित शैलों के टीले, बर्फ के अपघर्षण से काफी चिकने हो जातें हैं और उनके पाश्वीर्य कोने झड़ जाते हैं। अधिकांश चिकनाहट टीले के उस भाग में होती है जो धार की विपरीत दिशा में होता हैं, क्योंकि बर्फ आगे की ओर रगड़ देती हुई बढ़ती हैं। जो भागपाश्र्व की दशा में होता हैं, वह ज्यों का त्यों खुदरा और नुकीला छुट जाता है। इस प्रकार के टीलो को राश मुहाने (rocks montonnecs) कहते हें।

अधिकांशत: हिमनदी चट्टानों के खंडों को अपने ऊपरी तल पर ही परिवहित करती हंै। घाटी के कगारों की चट्टानों तुषार आदि के प्रभाववश समय पर टूटती रहती हैं, जिससे शैलखंड एवं चूर्ण हिमनदी के ऊपर उसके किनारों के पास गिरते रहते हैं और इस तरह हिमनदी के दोनों किनारों पर परिवहित पदार्थ को पाश्र्व मोरेन (lateral moraine) कहते हैं। हिमनदी के मध्य भाग के ऊपर आरंभ में शैलखंड प्राय: बिल्कुल नहीं होते, क्योंकि वह भाग घाटी के किनारों से दूर होता है। पर दो हिम-नदियों का संगम होने पर एक के दाहनी ओर तथा दूसरी के बाई ओर के मोरे न परस्पर मिल जाते हैं और संगम के आगे से मध्य मोरेन बन जाता है। अंत में जहाँ हिमनदी समाप्त होती है और बर्फ के पिघलने से जल बनता है, वहाँ बर्फ की सतह पर और बीच में लाया हुआ समस्त पदार्थ गिरकर एकत्रित हो जाता है। इसे अग्रांतस्थ मोरेन कहते हैं। इसमें स्तरीकरण का नितांत अभाव होता है। यदि जलवायु में परिवर्तन, या किसी और कारण से हिमनदी अपनी पहली सीमा से अग्रगामी होने लगे, तो बर्फ पहले बने हुए अग्रांतस्थ मोरेन की समस्त राशि को आगे ढकेलती हुई चलेगी। इसके विपरीत यदि हिमनदी शीर्ष की ओर हटती हो, तो अग्रांतस्थ मोरेन का एक आस्तर पीछे की ओर बनता चला जाएगा।

समुद्र तथा झील

धरातल के तीन चौथाई भाग पर आधिपत्त्य होते हुए भी समुद्र अपना विस्तार बढ़ाने के लिये निरंतर प्रयत्नशील रहता है। प्रत्यक्षत: उसका कार्यक्षेत्र तटस्थ प्रदेश है, जहाँ वह अपनी प्रबल तरंगों द्वारा चट्टानों को छिन्न भिन्न कर भूमि के ऊबड़ खाबड़पन को नष्ट करता हुआ महादेश को अपनी सतह के बराबर चौरस बनाने का प्रयत्न करता है। यों तो शांत मौसम में भी लहरें बार बार चट्टानों से टकराकर उन्हें आघात पहुँचाती हैं, पर तूफान के समय तो उनकी शक्ति सहस्त्रों गुना अधिक हो जाती है। बड़े बड़े तूफानों की लहरें प्राय: 14-15 मीटर ऊँची उठती हैं। उनके द्वारा फेंका हुआ फेन, बजरी और छोटे रोड़े 40-50 मीटर ऊँचे उछलते हुए देखे गए हैं। प्रत्येक लहर अपनी समस्त जलराशि के भार से तट पर आघात करती है और ऐसा प्रतीत होता है मानो प्रकृति बहुत बड़े घन से तटस्थ प्रदेश को पीट रही हो।

लहरें परोक्ष ढंग से भी अपनी अपरदी क्रिया में सहायता लेती हें। सभी चट्टानों में महीन दरारें और छोटे छोटे छिद्र होते हैं। जब लहरें जोर से आकर अचानक चट्टानों से टकराती हैं, तब इन दरारों और छिद्रों में भरी हुई हवा को बाहर निकलने का अवसर नहीं मिल पाता और वह जहाँ की तहाँ दबकर संकुचित हो जाती है। लहरों की वापसी के समय पानी का दबाव हटने पर हवा फिर फैल जाती है। यह क्रिया इतनी शीध्रता से होती है कि अचानक फैली हुई हवा को बाहर निकलने का मार्ग भी नहीं मिल पाता और वह एक प्रकार से विस्फोटक शक्ति का कार्य करती है। क्रिया के बार बार दुहराने से दरारों और छिद्रों के चारों ओर की चट्टाने फटकर टूटने लगती हैं और छिद्र क्रमश: बड़े होते जाते हैं।

कभी कभी ऐसा भी होता है कि दरारें समुद्र और महादेश दोनों की ओर खुली होती हैं। ऐसी अवस्था में लहरों द्वारा दबाव पड़ने पर दरार की हवा तेजी से जमीन की ओर निकल भागती है और लहरों की वापसी पर उतनी ही तेजी से फिर दरार में घुस जाती है। बार बार ऐसा होने से महीन छिद्र बड़े होते जाते हैं और क्रमश: सुरंगें बन जाती हैं, जिन्हें फ़धमिछिद्रफ़ (blow hole) कहते हैं।

इस प्रकार तटस्थ चट्टानें लहरों की पहुँच की ऊँचाई पर धीरे-धीरे खेखली होने लगती हैं, जिससे ऊपरवाली चट्टानों का अबलंब भी कमजोर होता जाता है और वे भी शनै: शनै: टूटकर गिरने लगतती हैं। गुरूत्वाकर्षण भी इस क्रिया में बहुत कुछ भाग लेता है।

जहाँ चट्टानें कई प्रकार की हों, कुछ कमजोर और कुछ कड़ी, वहाँ लहरों को, वस्तुत: किसी भी प्राकृतिक अभिकत्र्ता को अपना कार्य करने में अधिक सुविधा होती है; क्योंकि जब कमजोर चट्टान कट जाती है, तब उससे संपर्कवाली कड़ी चट्टान का आधार भी कमजोर हो जाता है और उसकी निजी कड़ाई का महत्व कम हो जाता है।

लहरों के प्रभाववश चट्टानों के टूटने से विविध आकार के टुकड़ों को तो लहरें तेजी से लुढ़काकर चट्टानों पर दे मारती हैं, जिससे वे स्वयं भी टूटकर छोटे तथा गोलमटोल हो जाते हैं। इससे समुद्र की आघात करने की शक्ति और भी बढ़ जाती है। कालांतर में टुकड़े बजरी में परिवर्तित हो जाते हैं। उसके बाद लहरें उन्हें पल भर भी विश्राम नहीं लेने देतीं, निरंतर अपने साथ आगे पीछे धसीटती फिरती हैं। फलत: कुछ समय बाद बजरी के टुकड़े बहुत महीन और एकदम गोलाकार हो जाते हैं, कभी कभी इतने छोटे कि तह में बैठ भी नहीं पाते और पानी में लटके रह जाते हैं। कणों के इस प्रकार छोटा व गेलमटोल करने की लहरों की शक्ति नदी की अपेक्षा कहीं अधिक होती है, क्योंकि एक तो नदी की तह में रगड़वाली गति केवल एक ही दिशा में, नदी के बहाव की ओर होती है, दूसरे नदी की घाटी के निचले भाग में धार के कम हो जाने पर बड़े बड़े कण ज्यों के त्यों पड़े रह जाते हैं और इस प्रकार उनकी उत्तरोत्तर छोटे होने की क्रिया बंद हो जाती है।

ज्वारभाटा तथा समुद्री धाराएँ

ज्वारभाटा और अन्य प्रकार से उत्पन्न हुई समुद्री धाराएँ भी लहरों के काम में सहयोग देती हैं। इनका विशेष उल्लेखनीय प्रभाव संगम के पास नदियों की सँकरी घाटियों में होता है, जहाँ ज्वारभाटे के कारण तेज धाराएँ उत्पन्न हो जाती हैं, जो बलुई किनारों और पानी में निमग्न चट्टानों को क्षय करने का प्रयास करती हैं। ये धाराएँ मिट्टी और बालू को नदी के मुहाने तथा समस्त समुद्रतट के पास से बीच समुद्र की ओर बहुत दूर तक बहा ले जाती हैं।

समुद्री अनाच्छादन का मैदान

लहरों के आघात का प्रभाव पानी की सतह से ऊपर निकली हुई भूमि तक ही सीमित नहीं रहता, वरन् समुद्र के छिछले भागों की तह पर भी पड़ता है। अनुभव से मालूम होता है कि प्राय: 30 मीटर की गहराई तक उनकी क्षय करने की शक्ति कार्यशील रहती है। सतह के नीचे लहरों का कार्य प्राय: वैसा ही होता है जैसा बढ़ी हुई घास को हँसिए से काटने का, अर्थात् यों समझना चाहिए कि लहरें अपने आघात से समुद्र में डूबे हुए शैलों की ऊँचाई में असमानता दूर कर एक चौरस स्थान बनाने का प्रयास करती हैं। स्थान स्थान पर समुद्र की गहराई नापने से मालूम होता है कि समस्त भूभाग के चारों ओर प्राय: 30 मीटर की गहराई पर एक चौरस मैदान सा है। इस मैदान की समुद्री अनाच्छादन का मैदान (plain of marine denudation) कहते हैं।

झील

समुद्र और झीलों के प्राकृतिक गुणों में केवल आकार का ही अंतर है। समुद्र जहाँ अति विशाल एवं अथाह जलराशि है, झील अपेक्षाकृत बहुत छोटा जलाशय है। इसी से झील में उठी तरंगों का वेग एवं ज्वारभाटे का परिमाण समुद्र की अपेक्षा अति लघु होता है। फलत: भूपृष्ठ के प्रति झील की अपरदी क्रिया प्राय: समुद्र के समान ही होती है, केवल उसकी मात्रा झील के आकार के अनुरूप लघु हो जाती है।

अवसाद् का संचयन

उपर्युक्त विवरण में विभिन्न प्राकृतिक कारकों की अपरदी और अनाच्छादी क्रिया एवं उससे उत्पन्न अवसाद इत्यादि के परिवहन का वृत बताया गया है। यहाँ यह बात ध्यान देने योग्य है कि प्रत्येक कारक का कार्यक्षेत्र विशिष्ट है। वह अपनी क्रिया से उत्पन्न अपरदित एवं अपघटित पदार्थ को अपने क्रियाक्षेत्र के सबसे निचले स्थान तक ले जाता है, जहाँ से समय एवं वातावरण के अनुसार दूसरा कारक उसे अपने प्रभाव में लेकर अपने क्रियाक्षेत्र की सबसे नीचे की सतह तक ले जाता है। उदाहरणार्थ, वर्षाजल की क्रिया से उत्पन्न अपघटित पदार्थ जल की छोटी छोटी धाराओं एवं नालियों द्वारा नदी में पहुँच जाती हैं और फिर नदी उसे समुद्र अथवा झील में पहुँचा देती है। इस प्रकार तुषार द्वारा उत्पन्न शैलखंड गुरूत्वाकर्षण के प्रभाव से पहाड़ी के तल में पहुँचते हैं और फिर जब तक वह किसी अन्य कारक के प्रभाव में न आ जायँ, वहीं संचित पड़े रहते हैं। हिमनदी अपनी क्रिया से उत्पन्न अवसाद को परिवहित कर अपने गलने के स्थान तक ले जाती है। वहाँ उसका प्रभावक्षेत्र समाप्त हो जाता है और फिर वह अवसाद नदी के प्रभाव में आ जाता है।

भूपृष्ठ का सबसे निचला स्थान समुद्र है। अत: शैलों के अपरदन और अपघटन से उत्पन्न अवसाद का अंतिम ठिकाना समुद्र ही है। अवस्थाविशेष के कारण यह हो सकता है कि यह पदार्थ मार्ग में किसी किसी स्थान पर कुछ काल तक रूकता हुआ आगे बढ़े; फिर भी, देर सबेर, कभी मंद गति से, कभी तेज गति से, वह समुद्र की ओर यात्रा करता ही रहता है।

अवसाद को समुद्र तक पहुँचने का सबसे अधिक भार नदी के ऊपर है। इस बात का पहले उल्लेख किया जा चुका है कि नदी में अपने परिवहित पदार्थ को उसके आकार के आधार पर बजरी, बालू, मिट्टी इत्यादि में वर्गीकृत करने की शक्ति है। अत: अधिकांश अवसाद मोटा, मध्यम और महीन तीन वर्गों में विभक्त हो जाता है, जो क्रमश: तट से अधिकाधिक दूरी पर जाकर निक्षेपित होते हैं, अर्थात् एक ही स्तर के तट के निकटवाले भाग में कण बड़े और दूरवाले भाग में महीन और छोटे होंगे। किसी भी एक स्थान पर ज्यों ज्यों अवसाद अधिक मात्रा में संचित होगा, वहाँ का जल भी अपेक्षाकृत छिछला होता जाएगा और इसके फलस्वरूप धार का वेग भी कुछ बढ़ जाएगा। अत: समस्त अवसाद पहले की अपेक्षा कुछ दूरी पर जाकर अवक्षेपित होगा और प्रत्येक स्थान पर संचित अवसाद कुछ मोटा हो जाएगा, यथा छोटे कंकड़ों तथा बजरी के ऊपर मोटी बालू, मोटी के ऊपर महीन बालू और महीन बालू के ऊपर मिट्टी जमा होगी। कुछ काल के उपरांत और अधिक अवसाद के संचित होने से समस्त प्रदेश फिर और छिछला हो जाएगा और तब अवसाद का निक्षेपण पुन: एक एक पग और आगे पहुँचने लगेंगे।

यदि किसी कारण उपर्युक्त निक्षेपण केंद्र में समुद्र की तह धीरे धीरे खिसककर नीची होने लगे और खिसकने की गति अवसाद के संचित होने की गति के बराबर हो तो अधिकाधिक अवसाद के संचित होने के बाद भी समुद्र की अंतत: गहराई ज्यों की त्यों बनी रहेगी और प्रत्येक स्थान पर एक ही आकार के कणों का निक्षेपण चिरकाल तक अविराम होता रहेगा।

एक और दशा ऐसी भी हो सकती है जब समुद्र की तह के खिसकने की गति अवसाद के संचित होने की गति से अधिक हो जाय। उस अवस्था में प्रभाव उल्टा होगा और अवसाद के संचित होने पर भी समुद्र अधिकाधिक गहरा होता जाएगा। फलत: विभिन्न आकार के कणों के निक्षेपण का स्थान क्रमश: एक एक पग तट की ओर बढ़ता जाएगा।

उपर्युक्त पहली और तीसरी स्थितियों में विभिन्न आकार की राशियों का एकांतरण होता है और दूसरी स्थिति में समान आकार का अवसाद मोटी मोटी राशियों में संचित हो जाता है।

स्तरिकाभवन (Lamination)

अधिकांश नदियों द्वारा लाए हुए अवसाद की मात्रा वर्षा ऋतुओं में बहुत कम होती है। अत: वर्षाकाल में अवसाद बहुत प्रचुर मात्रा में समुद्र में निक्षेपित होता है। बहुधा दो उत्तरोत्तर वर्षा ऋतुओं के बीच की अवधि में संचित अवसाद की मात्रा नगण्य होती है। ऐसी स्थिति में अवसाद संचयन रूक रूककर होता है और एक वर्षा ऋतु में आए हुए अवसाद को दूसरी ऋतु के अवसाद के आने के पूर्व कुछ कड़ा होने तथा दब जाने का अवसर मिल जाता है। उपरिशायी जल के भार से अवसाद को दबने में सहायता मिलती है। फलत: उत्तरोत्तर वर्षा ऋतुओं में आए हुए अवसाद पहले आए हुए अवसादों से एकदम मिश्रित नहीं होते, अपितु पृथक् पृथक् स्तरिकाओं में संचित होते हैं। इस क्रिया को स्तरिकाभवन कहते हैं। प्रतयेक स्तरिका की मोटाई एक वर्षा ऋतु में आए हुए अवसाद की मात्रा पर निर्भर होगी। औसत में यह 2 से 4 मिलीमीटर तक होती है।

स्तरीभवन (Stratification)

यदि अवसाद का निक्षेपण कई वर्षों तक सतत होता रहे, तो स्पष्टतया पतली पतली स्तरिकाओं में स्थान पर कुछ मोटे स्तरों में अवसाद संचित होगा और इन स्तरों की मोटाई अवसाद आने की गति एवं उस अवधि पर निर्भर होगी जिसमें अवसाद का निक्षेपण अविराम होता रहे।

आभासी संस्तरण (False bedding)

स्तरों में संचित अवसाद के कणों की व्यवस्था पर बहाव की गति और दिशा की स्थिरता का प्रभाव भी पड़ता है। महीन मिट्टी और महीन बालू के कण जल में बहुत देर तक निलंबित रहते हैं और बहुत ही शनै: शनै: तह में बैठते हैं। उनका निक्षेपण भी अपेक्षाकृत गहरे पानी में होता है, जहाँ धार एकदम शिथिल पड़ जाती है। ऐसी अवस्था में कणों के संचित होने की व्यवस्था निरंतर एक सी बनी रहती है और स्तर सुव्यवस्थ्ति और नियमित बनते हैं। कणों को जमने के लिये पर्याप्त समय मिलता है और स्तर समुद्रतह के समांतर बनते चले जाते हैं।

इसके विपरीत मोटी बालू और बजरी इत्यादि के संचित होने का स्थान अपेक्षाकृत छिछला होता है। ऐसे स्थानों में धार की गति बहुधा परिवर्तनशील होती है, कभी मंद हो जाती है और कभी तीव्र। मंद अवस्था में संचित अवसाद का ऊपरी भाग, तीव्र गति की अवस्था में अपरिदित होकर बहने लगता है और जहाँ धार मंद हो वहाँ पुन: निक्षेपण हो जाता है। इस प्रकार पुन: निक्षेपित पदार्थ पहले स्तर के समांतर नहीं होता। इसके अतिरिक्त छिछले पानी में, जहाँ इन मोटे कणों का निक्षेपण होता है, बहुधा धार की दिशा भी बदलती रहती है। यह परिवर्तन ज्वारभाटा और प्रचंड पवन इत्यादि के कारण होता रहता है। अत: धार की दिशा के साथ साथ अवसादीय स्तरों की दिशा भी स्थानीयत: बदलती रहती है।

इस प्रकार छिछले पानी में संचित अवसादीय शैलों के स्तर बहुधा समांतर न होकर एक दूसरे से कोण बनाते हैं, जिनकी माप स्थान स्थान पर भिन्न भिन्न हो सकती है। इस घटना को आभासी संस्तरण कहते हैं।

तरंगचिन्ह (ripple marks) पादचिन्ह (foot prints) इत्यादि

कभी कभी अवसाद क्षेत्रों में ऐसी स्थिति होती है कि जल की तरंगों की छाप भी अवसादीय स्तरों में मुद्रित हो जाती है। छिछले प्रदेशों में, विशषकर ज्वारभाटांतर (littoral) कटिबंध में, तरंगों का वेग इतना अधिक हाता है कि वहाँ निक्षेपित बालू और मिट्टी उनके संकेतों पर नाचती फिरती हैं और बहुधा उन्हें भी तरंग रूप दे देती हैं। नए अवसाद के आने से पूर्व यदि इस तरंगित बालू को सूखकर कुछ द्दढ़ होने का अवसर मिल जाय, तो यह तरंग रूप सुरक्षित रह जाता है। भाटे की अवस्था में अवसाद को सूखने एवं द्दढ़ हो जाने का अवसर बहुधा मिल जाता है।

इसी प्रकार केकड़ों, कीड़ों मकोड़ों तथा अन्य जंतुओं के पादचिन्ह भी ज्वारभाटांतर प्रदेश में संचित अवसाद में सुरक्षित रह जा सकते हैं। कभी कभी वर्षाजल की बूँदों से बने आघातचिन्ह भी इन अवसादों में सुरक्षित हो जाते हैं।

चूनेदार अवसाद

समुद्र में रहनेवाले नाना प्रकार के शल्कधारी जंतुओं के मरने के उपरांत उनके शल्क समुद्रतह में संचित होने लगते हैं। तरंगों के प्रवाह से बहुधा ये शल्क इधर उधर लुढ़कते रहते हैं, जिससे कालांतर में वे टूटकर चूर हो जाते हैं और नदी द्वारा लाई हुई बालू और मिट्टी में मिल जाते हैं। अधिकांश शल्क कैल्सियम कार्बोनेट के बने होते हैं और इस प्रकार कैल्सियममय (अर्थात् चूनेदार) अवसाद, बालू और मिट्टी बनती है। शुद्ध मिट्टी, अथवा बालू, के स्तर केवल उन्हीं स्थानों में संचित हो पाते हैं जहाँ शल्कधारी जीव प्राय: अनुपस्थित हों। कभी कभी शल्क टूटने से पूर्व ही अवसाद में दब जाते हैं और उस अवस्था में वे ज्यों के त्यों सुरक्षित हो जाते हैं। इस प्रकार सुरक्षित शल्कों को जीवाश्म (फासिल) कहते हैं।

समुद्र के गहरे भागों में, जहाँ नदी द्वारा लाई हुई बालू और मिट्टी का अवसाद नहीं पहुँच पाता है, शल्कों के चूरे का शुद्ध अवसाद निक्षेपित होता है, जिसकी राशि कालांतर में बहुत प्रचुर हो सकती है।

इस प्रकार बालू के स्तर छिछले पानी में, मिट्टी के स्तर अपेक्षाकृत कुछ गहरे पानी में और चूनेदार अवसाद के शैल अधिक गहरे समुद्री भागों में संचित होते हैं।

लवणीय स्तर

शुष्क एवं उष्णताप्रधान देशों में जलवाष्पन बहुलता से होता है। इन प्रदेशों में यदि कोई ऐसी झील हो जिसमें नदियों एवं वर्षावाह द्वारा लाए हुए जलन की मात्रा भाप बनकर उड़ जानेवाले जल की अपेक्षा कम हो, तो वह झील शनै: शनै: सूखने लगती है और कालांतर में पूर्णतया विनष्ट हो जा सकती है। नदियों के पानी और वर्षावाह में साधारणतया कुछ न कुछ लवण घुले रहते हैं। अत: झील में नदियों द्वारा नित्य प्रति नया लवण पदार्थ आता रहता है। उष्णता के प्रभाव से पानी भाप बनकर उड़ जाता है, परंतु लवण पीछे ही छूट जाता है। अत: झील का पानी उत्तरोत्तर अधिक लवणीय अथवा खारा होता जाता है। कालांतर में लवण इतनी अधिक मात्रा में संचित हो सकता है कि झील का जल उससे संतृप्त हो जाए। इससे अधिक वाष्पन से लवण अवक्षिप्त होने लगेगा, जिससे अवसाद लवणीय हो जाएगा। यदि लवण के अवक्षेपण के समय नदियों द्वारा लाए हुए अवसाद की मात्रा बहुत कम हो, तो प्राय: विशुद्ध लवणीय स्तर अवक्षेपित हो सकते हैं। तिब्बत की अनेकों झीलें इस क्रिया की उदाहरण हैं। वहाँ वर्षा बहुत कम होती है, जिससे झीलें उत्तरोत्तर सूखती जा रही हैं और इनकी तहों में लवणीय स्तर अवक्षेपित हो रहे हैं। पाकिस्तान के सॉल्ट रँज पर्वत में, खेवड़ा के प्रदेश में सँधा नमक तथा जिप्सम के निक्षेप इसी प्रकार किसी प्राचीन सागर की शाखा के सूखने से बने होंगे।

अवसाद का संयोजन एवं दृढ़ीभवन

इसी प्रकार विभिन्न प्राकृतिक अभिकर्ताओं की क्रिया से भू-पृष्ठीय शैलों का क्षय एवं अपरदन निरंतर हो रहा है और उससे उत्पन्न अवसाद अंतत: समुद्र के गर्त में संचित होता जा रहा है। ज्यों ज्यों अवसाद के स्तरों में वृद्धि होती है, नीचेवाले स्तरों के ऊपर नए आए हुए पदार्थ की दाब बढ़ती जाती है। प्राय: 300 मीटर मोटे अवसादीय स्तरों की दाब 80 किलोग्राम प्रति वर्ग सेंटीमीटर होती है। अत: केवल 60 मीटर मौटे स्तरों के संचित होने पर, सबसे नीचे के स्तरों पर प्राय: 13 किलोग्राम प्रति वर्ग सेंटीमीटर की दाब पड़ने लगेगी। जलाशय के पानी की दाब भी कुछ कम नहीं होती। प्रति एक मीटर पानी की दाब 100 ग्राम प्रति वर्ग सेंटीमीटर होती है। इन सभी दाबों के प्रभाव से अवसाद के गुण निकटतम आकर आपस में एक दूसरे से गुँथ जाते हैं। इनके बीच का पानी निकल जाता है और वे शुष्कप्राय हो जाते हैं। जल की पतली पतली झिल्लियाँ कणों से फिर भी चिपकी रह जा सकती हैं और उनका तनाव कणों को परस्पर जुड़ा रखने में सहायता देता है।

संयोजन

जलाशयों अथवा आंतर्भोम जल में साधारणतया कुछ न कुछ लवण विलीन होते हैं1 जब यह जल रिसता हुआ अवसाद में से बहता है, तो कुछ विभिन्न कारणों से (यथा, दाब अथवा कार्बोंलिक अम्ल गैस की मात्रा में हाउस से अथवा अवसादीय पदार्थ और विलीन लवण में पारस्परिक रासायनिक क्रिया होने से) इसमें का कुछ लवण अवसाद के कणों के बीच में अवक्षेपित होकर, उसके मुक्त कणों को आपस में द्दढ़ रूप से संयोजित कर देता है और अवसाद कठोर, सुबद्ध पाषाण में परिवर्तित हो जाता है। इस प्रकार संयोजन करनेवाले लवणों में कैल्सियम कार्बोनेट, लौह ऑक्साइड, एवं सिलिका विशेष उल्लेखनीय है। इनमें से सिलिका का बंधन सबसे सुद्दढ़ होता है। इस प्रकार बने हुए पाषाण की जाति अवसाद के पदार्थ पर निर्भर होगी। यथा बालू के अवसाद से बना शैल (मिट्टी प्रस्तर, mud stone) अथवा शेल (shale), बटियों के समूह के संयोजन से संगुटिकाश्म (conglomerate) इत्यादि बनेंगे। यदि मिट्टी में थोड़ी बालू हो, तो बलुआ शैल इत्यादि शैल बनेंगे।

समुद्र वा अन्य जलाशयों में अवसाद स्तरों अथवा परर्तो में शनै: शनै: संचित होता है। दाब के प्रभाव से उनके संपीडित होने एवं किसी न किसी लवण तथा अन्य आधारक की सहायता से अवसाद के कण संयोजित हो जाते हैं। इस क्रिया में भी अवसाद का स्तरभाव बना रहता है। अवसाद से उत्पन्न होने के कारण इन्हें अवसादीय शैल भी कहते हैं।

अवसादीय शैल पदार्थ समुद्र अथवा अन्य जलाशयों की तह में बहुत काल तक संचित होता रहता है। कालांतर में भूसंचलन आदि किसी वृत के प्रभाव से वह सागर की तह में से ऊपर उठकर, पर्वत का रूप धारण कर, महादेश का भाग बन सकता है। यह एक प्रलयकारी परिवर्तन होता है। ऐसा होने से अवसादीय पदार्थ पुन: प्राकृतिक अभिकर्ताओं की क्रिया की पृष्ठभूमि बनाता है और उनके प्रभाव में आकर फिर से क्षय होता हुआ नए अवसाद को जन्म देता है, जो तत्कालीन सागर की तह में जाकर निक्षेपित होने लगता है। इस प्रकार भूपृष्ठ का पदार्थ निंरतर एक अवसादीय चक्र में भाग लेता रहता है। प्रत्येक चक्र के अंत में सागर और महादेशों का पुनस्संस्थान होता है और इनमें नए थल और जल भागों का निर्माण होता है। इस प्रकार के प्राय: 4 बृहत् और 14 लघु चक्र पृथ्वी के संपूर्ण इतिहास में हो चुके हैं।

इन्हें भी देखें

बाहरी कड़ियाँ