भारत के महाराज्यपाल

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भारत के महाराज्यपाल या गवर्नर-जनरल (१८५८-१९४७ तक वाइसरॉय एवं गवर्नर-जनरल अर्थात राजप्रतिनिधि एवं महाराज्यपाल) भारत में ब्रिटिश राज का अध्यक्ष और भारतीय स्वतंत्रता उपरांत भारत में, ब्रिटिश सम्प्रभु का प्रतिनिधि होता था। इनका कार्यालय सन 1773 में बनाया गया था, जिसे फोर्ट विलियम की प्रेसीडेंसी का गवर्नर-जनरल के अधीन रखा गया था। इस कार्यालय का फोर्ट विलियम पर सीधा नियंत्रण था, एवं अन्य ब्रिटिश ईस्ट इंडिया कंपनी के अधिकारियों का पर्यवेक्षण करता था। सम्पूर्ण ब्रिटिश भारत पर पूर्ण अधिकार 1833 में दिये गये और तब से यह भारत के गवर्नर-जनरल बन गये।

१८५८ में भारत ब्रिटिश शासन की अधीन आ गया था। गवर्नर-जनरल की उपाधि उसके भारतीय ब्रिटिश प्रांत (पंजाब, बंगाल, बंबई, मद्रास, संयुक्त प्रांत, इत्यादि) और ब्रिटिष भारत, शब्द स्वतंत्रता पूर्व काल के अविभाजित भारत के इन्हीं ब्रिटिश नियंत्रण के प्रांतों के लिये प्रयोग होता है।

वैसे अधिकांश ब्रिटिश भारत, ब्रिटिश सरकार द्वारा सीधे शासित ना होकर, उसके अधीन रहे शासकों द्वारा ही शासित होता था। भारत में सामंतों और रजवाड़ों को गवर्नर-जनरल के ब्रिटिश सरकार के प्रतिनिधि होने की भूमिका को दर्शित करने हेतु, सन १८५८ से वाइसरॉय एवं गवर्नर-जनरल ऑफ इंडिया (जिसे लघुरूप में वाइसरॉय कहा जाता था) प्रयोग हुई। वाइसरॊय उपाधि १९४७ में स्वतंत्रता उपरांत लुप्त हो गयी, लेकिन गवर्नर-जनरल का कार्यालय सन १९५० में, भारतीय गणतंत्रता तक अस्तित्व में रहा।

१८५८ तक, गवर्नर-जनरल को ब्रिटिश ईस्ट इंडिया कंपनी के निदेशकों द्वारा चयनित किया जाता था और वह उन्हीं को जवाबदेह होता था। बाद में वह महाराजा द्वारा ब्रिटिश सरकार, भारत राज्य सचिव, ब्रिटिश कैबिनेट; इन सभी की राय से चयन होने लगा। १९४७ के बाद, सम्राट ने उसकी नियुक्ति जारी रखी, लेकिन भारतीय मंत्रियों की राय से, ना कि ब्रिटिश मंत्रियों की सलाह से।

गवर्नर-जनरल पांच वर्ष के कार्यकाल के लिये होता था। उसे पहले भी हटाया जा सकता था। इस काल के पूर्ण होने पर, एक अस्थायी गवर्नर-जनरल बनाया जाता था। जब तक कि नया गवर्नर-जनरल पदभार ग्रहण ना कर ले। अस्थायी गवर्नर-जनरल को प्रायः प्रान्तीय गवर्नरों में से चुना जाता था।

इतिहास

वार्रन हास्टिंग्स, भारत के प्रथम गवर्नर-जनरल फोर्ट विलियम के( 1774-1785) भारत के कई भागों पर ईस्ट इंडिया कंपनी का राज था, जो नाममात्र को मुगल बादशाह के प्रतिनिधि के तौर पर राज करती थी।1773 में, कंपनी में भ्रष्टाचार के चलते, ब्रिटिश सरकार ने, रेगुलेशन एक्ट अधिनियम के तहत, भारत का प्रशासन आंशिक रूप से अपने नियंत्रण में ले लिया था। बंगाल में फोर्ट विलियम की प्रेसेडेंसी के शासन हेतु एक गवर्नर-जनरल, तथा एक परिषद का गठन किया गया। प्रथम गवर्नर-जनरल एवं परिषद का नाम अधिनियम में लिखित है। उनके उत्तराधिकारी ईस्ट इंडिया कंपनी के निदेशकों द्वारा चयनित होना तय हुआ था। इस अधिनियक्म के अनुसार गवर्नर-जनरल तथा परिषद का पांच वर्षीय कार्यकाल निश्चित किया गया था। परंतु शासन को उन्हें मध्यावधि में हटाने का पूर्णाधिकार था।

१८३३ के चार्टर एक्ट अधिनियम ने फोर्ट विलियम के गवर्नर-जनरल एवं परिषद को बदल कर भारत का गवर्नर-जनरल एवं परिषद बना दिया। लेकिन उन्हें चयन करने की सामर्थ्य निदेशकों को ही रखी, केवल उसको शासन के अनुमोदन का विषय बना दिया।

१८५७ के संग्राम के बाद, ईस्ट इंडिया कंपनी समाप्त कर दी गयी और भारत ब्रिटिश शासन के अधीन आ गया। गवर्न्मेंट ऑफ इंडिया एक्ट १८५८ अधिनियम के द्वारा, गवर्नर-जनरल को नियुक्त करने का धिकार दिया गया। भारत और पाकिस्तान को १९४७ में स्वतंत्रता मिली, परन्तु गवर्नर-जनरल फिर भी जारी रहे, जब तक कि दोनों देशों के संविधान नहीं बन गये। माउंटबैटन कुछ समय भारत का गवर्नर-जनरल बना रहा। लेकिन दोनों देशों के अपने गवर्नर-जनरल बने। बाद में भारत १९५० में धर्म-निरपेक्ष गणतंत्र बना और १९५६ में पाकिस्तान इस्लामी गणराज्य बना।

गवर्नर-जनरल के प्रकार्य

लॉर्ड कर्जन, भारत के वाइसरॉय की वेशभूषा में, जो पद १८९९-१९०५ तक चला

गवर्नर-जनरल को पहले पहल, केवल बंगाल प्रेसीडेंसी पर ही अधिकार था। रेगुलेटिंग अधिनियम द्वारा, उन्हें विदेश संबंध एवं रक्षा संबंधी कई अतिरिक्त अधिकार दिये गये। ईस्ट इंडिया कंपनी की अन्य प्रेसीडेंसियों जैसे मद्रास प्रेसीडेंसी, बंबई प्रेसीडेंसी, एवं बेंगकुलु प्रेसीडेंसी (बैनकूलन) को, बिना फोर्ट विलियम के गवर्नर-जनरल एवं परिषद की अग्रिम अनुमोदन के; ना तो कोई युद्ध की घोषणा के अधिकार थे, ना ही किसी भारतीय रजवाड़ॊं से शांति संबंध बनाने के अधिकार दिये गये थे।

गवर्नर-जनरल की विदेश मामलों के अधिकार इंडिया एक्ट १७८४ के द्वारा बढ़ाये गये। इस अधिनियम के तहत, कंपनी के अन्य गवर्नर नातो कोई युद्ध घोषित कर सकते थे, ना ही शांति प्रक्रिया, ना ही कोई संधि प्रस्ताव या अनुमति किसी भी भारतीय राजाओं से, जब तक कि गवर्नर-जनरल या कम्पनी के निदेशकों से अनुमति या आदेश ना मिला हो।

हालांकि गवर्नर-जनरल विदेश नीतियों का संचालक बन गया, परन्तु वह भारत का पूर्ण अध्यक्ष नहीं था। यह स्थिति केवल चार्टर एक्ट १८३३ के तहत आयी, जिसने उसे पूरे ब्रिटिश भारत पर नागरिक एवं सैन्य शासन के पूर्ण अधीक्षण, निर्देशन, एवं नियंत्रण के अधिकार दिये। इस अधिनियम से उसे वैधानिक अधिकार भी मिले।

लॉर्ड डफरिन, भारत के वाइसरॉय।

१८५८ उपरांत, गवर्नर-जनरल भारत का मुख्य प्रशासक और ब्रिटिश शासन का प्रतिनिधि बन गया। भारत को कई प्रांतों में बांटा गया, प्रत्येक के एक गवर्नर या प्रशासक नियुक्त हुए। गवर्नर ब्रिटिश सरकार द्वारा नियुक्त हुए थे, जिनके वे सीधे जवाबदेही थे। लेफ्टिनेंट गवर्नर, चीफ कमिश्नर (मुख्य आयुक्त) एवं प्रशासक (एदमिनिस्ट्रेटर) नियुक्त हुए, जो कि गवर्नर के अधीन कार्यरत थे।

लॉर्ड मैटकाफ, भारत के वाइसरॉय।

गवर्नर-जनरल सबसे शक्तिशाली राज्य भी स्वयं देखता था, जैसे:-हैदराबाद के निजाम, मैसूर के महाराजा, ग्वालियर के सिंधिया महाराजा, बड़ौदा के गायक्वाड महाराजा, जम्मू एवं कश्मीर के महाराजा, इत्यादि। शेशः रजवाड़े या तो राजपूताना एजेंसी]] एवं सेंट्रल इंडिया एजेंसी देखती थी (जो कि गवर्नर-जनरल के प्रतिनिधि की अध्यक्षता में होता था), या प्रान्तीय शासन।

एक बार भारत के स्वतंत्रता प्राप्त करने के उपरांत, भारतीय मंत्रीमण्डल (कैबिनेट) के दिन पर दिन अधिकार प्राप्त करते रहने पर, गवर्नर-जनरल की भूमिका केवल औपचारिक रह गयी थी। राष्ट्र के गणतंत्र बनने पर, गैर-कर्यपालक भारत के राष्ट्रपति ने वही प्रकार्य जारी रखे।

परिषद

गवर्नर-जनरल को अपने वैधानिक एवं कार्यपालक अधिकारों के प्रयोग हेतु, सर्वदा ही परिषद की सलाह मिली। गवर्नर-जनरल को, कईप्रकार्यों के दौरान, गवर्नर-जनरल इन कॉन्सिल कहा जाता था।

विलियम डैनिसन, भारत के वाइसरॉय।
  • रेगुलेटिंग एक्ट १७७३ अधिनियम ने ईस्ट इंडिया कम्पनी के निदेशकों को चुनावों द्वारा, चार सलाहकार नियुक्त कराये। गवर्नर-जनरल के पास इन सलाहकारों सहित, एक मत (वोट) का अधिकार था, जिसके साथ ही उसे समान मत संख्या की स्थिति में उठे विवाद को सुलझाने हेतु, एक अतिरिक्त मत दिया गया था। परिषद का निर्णय गवर्नर-जनरल को मान्य होना था।
  • १७८४ में, परिषद को तीन सदस्य तक सीमित कर दिया गया, जबकि गवर्नर-जनरल के पास अभी भी दो वोट थे। १७८६ में, गवर्नर-जनरल के अधिकार और बढ़ाये गये, औइर परिषद के निर्णय अब उसके लिये बाध्य नहीं थे।
  • चार्टर एक्ट १८३३ से परिषद के ढांचे में और बदलाव आये। यह प्रथम अधिनियम था, जिसके तहत गवर्नर-जनरल की कार्यपलक एवं वैधानिक उत्तरदायित्वों में अन्तर बताया गया। इसके तहत परिषद में चार सदस्य होने चाहिये थे, जो कि निदेशकगण चुनते थे। प्रथम तीन सदस्य प्रत्येक अवसर पर भाग लेते थे, परन्तु चौथे सदस्य को केवल विधान के बहस के दौरान ही बैठने की अनुमति थी।
  • १८५८ में निदेशकगण के अधिकार घटा दिये गये। उनका परिषद के सदस्य चुनने का अधिकार बंद हो गय। इसके स्थान पर, चौथे सदस्य, जिसे केवल वैधानिक बैठक में मत देने का अधिकार था, उसे शासक ही चुनते थे और अन्य तीन सदस्य भारत के राज्य सचिव चुनते थे।
विलियम डैनिसन, भारत के वाइसरॉय।
  • इंडियन काउंसिल एक्ट १८६१ अधिनियम द्वारा परिषद के संयोजन में कई बदलाव किये गये। तीन सदस्य भारत के राज्य सचिव द्वारा नियुक्त होना तय हुआ और दो सदस्य मुख्य शासक द्वारा (१८६९ में पांचों सदस्यों के चुनाव का अधिकार ब्रिटिश सम्राट के पास चला गया)। गवर्नर-जनरल को अतिरिक्त छः से बारह सदस्य (१८९२ में छः से दर हुए और १९०९ में दस से बारह)। भारतीय सचिव द्वारा चुने गये पांच लोग कार्यपालक विभाग के मुख्य होते थे, जबकि गवर्नर-जनरल द्वारा चयनित सदस्य बहस में और विधान में मत देने का कार्य करते थे।
  • १९१९ में, राज्य परिषद एवं वैधानिक सभा के संयोजन से बना भारतीय विधान अस्तित्व में आया, जिसने गवर्नर-जनरल की परिषद के वैधानिक प्रकार्यों का कार्य संभाला। गवर्नर-जनरल को विधान के ऊपर महत्वपूर्ण अधिकार था। वह विधान की सहमति के बिना भी आर्थिक व्यय को अधिकृत कर सकता था। यह केवल भूमि (राजनैतिक), रक्षा आदि उद्देश्यों हेतु, एवं आपातकाल में सभी निर्णयों में, सीमित था। यदि उसने संस्तुति की है, लेकिन केवल एक ही चैम्बर ने कोई बिल पास किया है, तो भी वह दूसरे चैमब्र के आपत्ति करने पर भी उस बिल को अध्यादेश बना कर जारी कर सकता था। विधान को विदेश मामलों एवं रक्षा में कोई अधिकार नहीं था। राज्य परिषद का अध्यक्ष, गवर्नर-जनरल द्वारा नियुक्त किया जाता था। विधान सभा अपना अध्यक्ष चुनती थी, लेकिन इसका चुनाव, गवर्नर-जनरल की सहमति से ही होता था।

शैली एवं उपाधि

लॉर्ड हार्डिंग, भारत के वाइसरॉय।

गवर्नर-जनरल (जब वे वाइसरॉय थे १८५८ से १९४७ तक के समय समेत) एक्सीलेंसी की शैली प्रयोग किया करते थे, एवं भारत में, अन्य सभी सरकारी अधिकारियों पर वर्चस्व रखते थे। उन्हें योर एक्सीलेंसी से सम्बोधित किया जाता था, तथा उनके लिये हिज़ एक्सीलेंसी प्रयोग किया जाता था। १८५८-१९४७ के काल में, गवर्नर-जनरल को फ्रेंच भाषा से रॉय यानि राजा और वाइस अंग्रेज़ी से, यानि उप, मिलाकर वाइसरॉय कहा जाता था। यह उपाधी सर्वप्रथम रानी विक्टोरिया ने विस्कस कैनिंग के नियुक्ति के समय की थी।[१] इनकी पत्नियों को वाइसराइन कहा जाता था। उनके लिये हर एक्सीलेंसी, एवं उन्हें योर एक्सीलेंसी कहकर सम्बोधित किया जाता था। परन्तु ब्रिटेन के महाराजा के भारत में होने पर, यह उपाधियां प्रयोग नहीं होती थीं। [२]

सन १८६१ में, जब ऑर्डर ऑफ द स्टार ऑफ इंडिया, वाइसरॉय को ग्रैंड मास्टर एक्स ऑफीशियो (पदेन या पदानुसार) घोषित किया गया। गवर्नर-जनरल को १८७७ में, पदेन ग्रैंड मास्टर ऑफ ऑर्डर ऑफ इंडियन एम्पायर भी घोषित किया गया। [३]

अधिकांश गवर्नर-जनरल एवं वाइसरॉय पीयर थे। जो नहीं थे, उनमें सर जॉन शोर बैरोनत, एवं कॉर्ड विलियम बैंटिक लॉर्ड थे, क्योंकि वे एक ड्यूक के पुत्र थे। केवल प्रथम और अंतिम गवर्नर-जनरल वार्रन हास्टिंग्स तथा चक्रवर्ती राजगोपालाचार्य और कुछ अस्थायी गवर्नर-जनरल, को कोई विशेष उपाधि नहीं थी।

ध्वज

ब्रिटिश राज का ध्वज, जिस पर स्टार ऑफ इंडिया अंकित है।

१८८५ के लगभग, गवर्नर-जनरल को संघीय ध्वज फहराने की अनुमति दे दी गयी जिसमें बीच में स्टार ऑफ इंडिया के ऊपर एक मुकुट लगा हुआ था। यह ध्वज, गवर्नर-जनरल का निजी ध्वज नहीं था, यह गवर्नर, लेफ्टिनेंट गवर्नर, चीफ कमिश्नर (मुख्य आयुक्त) एवं भारत में अन्य ब्रिटिश अधिकारियों द्वारा भी प्रयोग किया जाता था। समुद्री यात्रा के दौरान, केवल गवर्नर-जनरल ही इस ध्वज कि मुख्य ध्वज स्तंभ पर फहराता था, अन्य उसे गौण स्तंभों से ही फहराते थे।

१९४७ से १९५० तक, भारत के गवर्नर-जनरल, एक शाही ढाल (एक मुकुट पर सिंह आसीन) सहित एक नीला ध्वज प्रयोग किया करते थे। इस चिन्ह के नीचे शब्द “भारत” सुनहरे अक्षरों में अंकित होता था। यही नमूना कई अन्य गवर्नर-जनरल द्वारा भी प्रयोग किया गया। यह किसी गवर्नर-जनरल का अंतिम निजी ध्वज था।

आवास

पूरी उन्नीसवीं शताब्दी के दौरान गवर्न्मेंट हाउस ही गवर्नर-जनरल का सरकारी आवास हुआ करता था।

फोर्ट विलियम के गवर्नर-जनरल बैल्वेडेर हाउस, कलकत्ता में आरम्भिक उन्नीसवीं शताब्दी तक रहा करते थे। फिर गवर्न्मेंट हाउस का निर्माण हुआ। १८५४ में, बंगाल के लेफ्टिनेंट गवर्नर ने वहां अपना आवास बनाया। अब बेलवेडेर हाउस में भारतीय राष्ट्रीय पुस्तकालय है।

लॉर्ड कैन्निंग

लॉर्ड वैलेस्ली, जिन्होंने कहा था, कि भारत को एक महल से शासित होना चाहिये, ना कि एक डाक बंगले से; ने एक एक वृहत हवेली बनवायी, जिसे गवर्न्मेंट हाउस कहा गया। यह १७९९-१८०३ के बीच निर्मित हुआ। यह हवेली सन १९१२ तक प्रयोग में रही, जब तक की राजधानी कलकत्ता में रही। फिर राजधानी दिल्ली स्थानांतरित की गयी। तब बंगाल के लेफ्टि. गवर्नर को गवर्नर का पूर्णाधिकार दिया गया और गवर्न्मेंट हाउस में आवास दिया गया। अब यही भवन, वर्तमान पश्चिम बंगाल का राज्यपाल आवास है। इसे अब इसी नाम के हिन्दी रूपान्तर, राज भवन कहा जाता है।

१८५४ में, बंगाल के लेफ्टिनेंट गवर्नर ने गवर्न्मेंट हाउस में, अपना आवास बनाया। अब बेलवेडेर हाउस में भारतीय राष्ट्रीय पुस्तकालय है।

जब राजधानी को कलकत्ता से दिल्ली स्थानांतरित किया गया, वाइसरॉय ने नव-निर्मित सर एड्विन लूट्यन्स द्वारा अभिकल्पित, वाइसरॉय हाउस में आवास किया। हालांकि निर्मान १९१२ में आरम्भ हुआ, परन्तु वह १९२९ तक भी पूर्ण ना हो सका; और १९३१ तक भी उसका औपचारिक उद्घाटन नहीं सम्पन्न हो पाया। इसाखी अंतिम लागत पाउण्ड ८,७७,००० (आज के अनुसार साढ़े तीन करोड़ पाउण्ड) थी। वर्तमान में, यह आवास, अपने वर्तमान हिन्दी नाम “राष्ट्रपति भवन” से प्रसिद्ध है।

पूरे ब्रिटिश प्रशासन के दौरान, गवर्नर-जनरल शिमला स्थित वाइसरीगल लॉज (देखें “राष्ट्रपति निवास”) में ग्रीष्म ऋतु बिताते थे। पूरी सरकार ग्रीष ऋतु की गर्मी से बचने हेतु, हर वर्ष शिमला जाते थे।

गवर्नर-जनरल की सूची

फोर्ट विलियम प्रेसीडेंसी

यहां के गवर्नर-जनरल की सूची, 17741833
लॉर्ड राइपन

गवर्नर-जनरल

भारत के गवर्नर-जनरल

1833–1858
वेवल, भारत के गवर्नर जनरल

भारत के वाइसरॉय एवं गवर्नर-जनरल

1858–1947

भारत के गवर्नर-जनरल

1947–1950

पाकिस्तान के गवर्नर-जनरल

1947–1958

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अधिचिह्न

इन्हें भी देखें

सन्दर्भ

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  1. स्क्रिप्ट त्रुटि: "citation/CS1" ऐसा कोई मॉड्यूल नहीं है।
  2. Arnold P. Kaminsky, The India Office, 1880–1910 (Greenwood Press, 1986), p. 126.
  3. H. Verney Lovett, "The Indian Governments, 1858–1918", The Cambridge History of the British Empire, Volume V: The Indian Empire, 1858–1918 (Cambridge University Press, 1932), p. 226.