भारतीय संसद

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भारतीय संसद
चित्र:Indian Parliament.svg
प्रकार
प्रकार
सदन राज्य सभा, लोक सभा
इतिहास
स्थापना January 26, 1950; साँचा:time ago (1950-त्रुटि: अमान्य समय।-26)
पूर्व वर्ती भारत की संविधान सभा
नेतृत्व
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Structure
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चुनाव
साँचा:longitem एकल संक्रमणीय मत
साँचा:longitem सरल बहुमत प्रणाली
साँचा:longitem 2 नवंबर 2020
साँचा:longitem 11 अप्रैल - 19 मई 2019
साँचा:longitem 2021
साँचा:longitem मई 2024
बैठक स्थान
संसद भवन, संसद मार्ग, नई दिल्ली, भारत
वेबसाइट
parliamentofindia.nic.in
संविधान
भारत का संविधान

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भारतीय संसद भारत गणराज्य का सर्वोच्च विधायी निकाय है। यह भारत के राष्ट्रपति और दो सदनों: राज्य सभा (राज्यों का सदन) और लोक सभा (लोगों का सदन) से बना एक द्विसदनीय विधानसभा है। राष्ट्रपति को विधायिका के प्रमुख के रूप में अपनी भूमिका में संसद के सदन को बुलाने और सत्रावसान करने या लोकसभा को भंग करने की पूरी शक्ति है। राष्ट्रपति इन शक्तियों का प्रयोग केवल प्रधानमन्त्री और उनकी केंद्रीय मंत्रिपरिषद की सलाह पर ही कर सकता है।

संसद के किसी भी सदन के लिए राष्ट्रपति द्वारा निर्वाचित या मनोनीत लोगों को संसद सदस्य कहा जाता है। संसद, लोक सभा के सदस्य एकल सदस्यीय जिलों में भारतीय जनता के मतदान द्वारा सीधे चुने जाते हैं और संसद सदस्य, राज्य सभा सभी राज्य विधान सभा के सदस्यों द्वारा आनुपातिक प्रतिनिधान द्वारा चुने जाते हैं। संसद में लोकसभा में 543 और राज्यसभा में 245 की स्वीकृत संख्या है, जिसमें साहित्य, कला, विज्ञान और समाज सेवा के विभिन्न क्षेत्रों की विशेषज्ञता से 12 नामांकित व्यक्ति शामिल हैं। संसद नई दिल्ली में संसद भवन में मिलती है।

लोक सभा में राष्ट्र की जनता द्वारा चुने हुए प्रतिनिधि होते हैं जिनकी अधिकतम संख्या 550 है। राज्य सभा एक स्थायी सदन है जिसमें अधिकतम सदस्य संख्या 250 है। राज्य सभा के सदस्यों का निर्वाचन / मनोनयन 6 वर्ष के लिए होता है। जिसके 1/3 सदस्य प्रत्येक 2 वर्ष में सेवानिवृत्त होते रहते हैं। वर्तमान मे लोकसभा के सदस्यों की संख्या 543 है तथा राज्यसभा के सदस्यों की संख्या 245 है।

इतिहास व व्युत्पत्ति

भारत की राजनीतिक व्यवस्था को, या सरकार जिस प्रकार बनती और चलती है, उसे संसदीय लोकतंत्र कहा जाता है। ग्राम-पंचायतें हमारे जन-जीवन का अभिन्न अंग रही है। पुराने समय में गाँवो की पंचायत चुनाव से गठित की जाती थी। उसे न्याय और व्यवस्था, दोनों ही क्षेत्रों में खूब अधिकार मिले हुए थे। पंचायतों के सदस्यों का राजदरबार में बड़ा आदर होता था। यही पंचायतें भूमि का बंटवारा करती थीं। कर वसूल करती थीं। गाँव की ओर से सरकार कर का हिस्सा देती थीं। कहीं कहीं कई ग्राम-पंचायतों के ऊपर एक बड़ी पंचायत भी होती थी। यह उन पर निगरानी और नियंत्रण रखती थी। कुछ पुराने शिलालेख यह भी बताते हैं कि ग्राम-पंचायतों के सदस्य किस प्रकार चुने जाते थे। सदस्य बनने के लिए जरूरी गुणों और चुनावों में महिलाओं की भागीदारी के नियम भी इस पर लिखे थे। अच्छा आचरण न करने पर अथवा राजकीय धन का ठीक ठीक हिसाब न कर पाने पर कोई भी सदस्य पद से हटाया जा सकता था। पदों पर किसी भी सदस्य का कोई निकट-संबंधी नियुक्त नहीं किया जा सकता था।

मध्य युग में आकर संसद सभा और समिति जैसी संस्थाएं गायब हो गईं। ऊपर के स्तर पर लोकतंत्रात्मक संस्थाओं का विकास रूक गया। सैकड़ों वर्षों तक हम आपसी लड़ाइयों में उलझे रहे। विदेशियों के आक्रमण पर आक्रमण होते रहे। सेनाएं हारती-जीतती रहीं। शासक बदलते रहे। हम विदेशी शासन की गुलामी में भी जकड़े रहे। सिंध से असम तक और कश्मीर से कन्याकुमारी तक, पंचायत संस्थाएं बराबर चलती रहीं। ये प्रादेशिक जनपद परिषद् नगर परिषद, पौर सभा, ग्राम सभा, ग्राम संघ जैसे अलग नामों से पुकारी जाती रहीं। सच में ये पंचायतें ही गांवों की ‘संसद’ थीं। सन 1883 के चार्टर अधिनियम में पहली बार एक विधान परिषद के बीज दिखाई पड़े। 1853 के अंतिम चार्टर अधिनियम के द्वारा विधायी पार्षद शब्दों का प्रयोग किया गया। यह नयी कौंसिल शिकायतों की जांच करने वाली और उन्हें दूर करने का प्रयत्न करने वाली सभा जैसा रूप धारण करने लगी।

संविधान सभा की बैठक १९५०
जवाहरलाल नेहरू व अन्य सदस्य भारत की संविधान सभा की मध्य-रात्रि सत्र में शपथग्रहण करते हुए, १५ अगस्त १९४७
अमेरिकी राष्ट्रपति जिमि कार्टर, संसद के केंद्रीय कक्ष में संसद के संयुक्त सत्र को संबोधित करते हुए

1857 की आजादी के लिए पहली लड़ाई के बाद 1861 का भारतीय कौंसिल अधिनियम बना। इस अधिनियम को ‘भारतीय विधानमंडल का प्रमुख घोषणापत्र’ कहा गया। जिसके द्वारा ‘भारत में विधायी अधिकारों के अंतरण की प्रणाली’ का उदघाटन हुआ। इस अधिनियम द्वारा केंद्रीय एवं प्रांतीय स्तरों पर विधान बनाने की व्यवस्था में महत्वपूर्ण परिवर्तन किए गए। अंग्रेजी राज के भारत में जमने के बाद पहली बार विधायी निकायों में गैर-सरकारी लोगों के रखने की बात को माना गया।

1860 और 1870 के दशकों से ही भारतीयों में राजनीतिक चेतना पनपने लगी थी। 1870 के अंत में 1880 के दशक के शुरू में भारतीय जनमानस राजनीतिक रूप से काफी जागरूक हो चुका था। 1885 में इस राजनीतिक चेतना ने करवट बदली। भारतीय राजनीतिक और राजनीति में सक्रिय बुद्धिजीवी, राष्ट्रीय हितों के लिए राष्ट्रीय स्तर पर संघर्ष करने के लिए एक संगठन की जरूरत महसूस किए। इसी कड़ी में ए॰ओ॰ह्यूम ने भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस की स्थापना 1885 में की ताकि कौंसिल में सुधार कर सके। ब्रिटिश संसद ने ‘विधान परिषदों में भारत की जनता को वास्तव में प्रतिनिधित्व देने’ के लिए इंडियन कौंसिल्ज़ अधिनियम 1892 को स्वीकार किया। 1919 में सुधार अधिनियम और उसके अधीन कई नियम बनाए गए। जिनके कारण केंद्र में, भारतीय विधान परिषद के स्थान पर द्विसदनीय विधानमंडल बनाया गया। जिसमें एक थी राज्य परिषद और दूसरा थी विधान सभा। प्रत्येक सदन में अधिकांश सदस्यों का चुनाव होता था। पहली विधान सभा वर्ष 1921 में गठित हुई थी। उसके कुल 145 सदस्य थे। 104 निर्वाचित, 26 सरकारी सदस्य और 15 मनोनीत गैर-सरकारी सदस्य।

1923 में, देशबंधु चितरंजन दास और पंडित मोतीलाल नेहरू ने स्वराज पार्टी बनाई। वे सोचते थे कि ‘शत्रु के कैंप’ में घुसकर व्यवस्था को तोड़ने के लिए परिषदों में स्थान बनाया जाए। इसके लिए चुनाव में भाग लिया गया। स्वराज पार्टी को 1923 के चुनावों में बहुत सफलता मिली। स्वराज पार्टी ने 145 स्थानों में से 45 स्थान जीते। पार्टी केंद्रीय विधानमंडल में थी।

केंद्रीय विधान सभा के नए चुनाव में कांग्रेस 1942 के ‘भारत छोड़ो’ प्रस्ताव को लेकर लड़ा। चुनावों में कांग्रेस को 102 में से 56 सीटें मिलीं। कांग्रेस विधायक दल के नेता शरत चन्द्र बोस थे। भारतीय स्वतंत्रता अधिनियम 1947 के अधीन कुछ परिवर्तन हुए। 1935 के अधिनियम के वे उपबंध काम के नहीं रह गए जिनके तहत गवर्नर-जनरल या गवर्नर अपने विवेकाधिकार के अनुसार अथवा अपने व्यक्तिगत विचार के अनुसार कार्य कर सकता था।

भारतीय स्वतंत्रता अधिनियम, 1947 में भारत की संविधान सभाको पूर्ण प्रभुसत्ता संपन्न निकाय घोषित किया गया। 14-15 अगस्त 1947 की मध्य रात्रि को उस सभा ने देश का शासन चलाने की पूर्ण शक्तियां ग्रहण कर लीं। अधिनियम की धारा 8 के द्वारा संविधान सभा को पूर्ण विधायी शक्ति प्राप्त हो गई। किंतु साथ ही यह अनुभव किया गया कि संविधान सभा के संविधान-निर्माण के कार्य तथा विधानमंडल के रूप में इसके साधारण कार्य में भेद बनाए रखना जरूरी होगा।

संविधान सभा (विधायी) की एक अलग निकाय के रूप में पहली बैठक 17 नवम्बर 1947 को हुई। इसके अध्यक्ष सभा के प्रधान डॉ॰ राजेन्द्र प्रसाद थे। संविधान अध्यक्ष पद के लिए केवल श्री जी.वी. मावलंकर का एक ही नाम प्राप्त हुआ था। इसलिए उन्हें विधिवत चुना हुआ घोषित किया गया। 14 नवम्बर 1948 को संविधान का प्रारूप संविधान सभा में प्रारूप समिति के सभापति बी॰आर॰ अम्बेडकर ने पेश किया। प्रस्ताव के पक्ष में बहुमत था। 26 जनवरी 1950 को स्वतंत्र भारत के गणराज्य का संविधान लागू हो गया। इसके कारण आधुनिक संस्थागत ढांचे और उसकी अन्य सब शाखा-प्रशाखाओं सहित पूर्ण संसदीय प्रणाली स्थापित हो गई। संविधान सभा भारत की अस्थायी संसद बन गई। वयस्क मताधिकार के आधार पर पहले आम चुनावों के बाद नए संविधान के उपबंधों के अनुसार संसद का गठन होने तक इसी प्रकार कार्य करती रही।

नए संविधान के तहत पहले आम चुनाव वर्ष 1951-52 में हुए। पहली चुनी हुई संसद जिसके दो सदन थे, राज्यसभा और लोकसभा मई, 1952 में बनी; दूसरी लोक सभा मई 1957 में बनी; तीसरी अप्रैल 1962 में; चौथी मार्च 1967 में; पांचवी माच 1971 में; 6 मार्च 1977 में; सातवीं जनवरी 1980 में; 8 जनवरी 1985 में; नवीं दिसंबर 1989 में, दसवीं जून 1991 और ग्यारहवीं 1996 में बनी। 1952 में पहली बार गठित राज्यसभा एक निरंतर रहने वाला, स्थायी सदन है। जिसका कभी विघटन नहीं होता।हर दो वर्ष इसके एक-तिहाई सदस्य अवकाश ग्रहण करते हैं

संसद की भूमिका

भारतीय लोकतंत्र में संसद जनता की सर्वोच्च प्रतिनिधि संस्था है। इसी माध्यम से आम लोगों की संप्रभुता को अभिव्यक्ति मिलती है। संसद ही इस बात का प्रमाण है कि हमारी राजनीतिक व्यवस्था में जनता सबसे ऊपर है, जनमत सर्वोपरि है। ‘संसदीय’ शब्द का अर्थ ही ऐसी लोकतंत्रात्मक राजनीतिक व्यवस्था है जहाँ सर्वोच्च शक्ति लोगों के प्रतिनिधियों के उस निकाय में निहित है जिसे ‘संसद’ कहते हैं। भारत के संविधान के अधीन संघीय विधानमंडल को ‘संसद’ कहा जाता है। यह वह धुरी है, जो देश के शासन की नींव है। भारतीय संसद राष्ट्रपति और दो सदनों—राज्यसभा और लोकसभा—से मिलकर बनती है।

राष्ट्रपति

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संसद के संयुक्त सत्र को संबोधित करते हुए तत्कालीन राष्ट्रपति, प्रणब मुख़र्जी

वैसे तो भारत का राष्ट्रपति संसद का अंग होता है, फिर भी वह दोनों में से किसी भी सदन में न तो बैठता है, न ही उसकी चर्चाओं में भाग लेता है। राष्ट्रपति समय समय पर संसद के दोनों सदनों को बैठक के लिए आमंत्रित करता है। दोनों सदनों द्वारा पास किया गया कोई विधेयक तभी कानून बन सकता है जब राष्ट्रपति उस पर अपनी अनुमति प्रदान कर दे। इतना ही नहीं, जब संसद के दोनों सदनों का अधिवेशन न चल रहा हो और राष्ट्रपति को महसूस हो कि इन परिस्थितियों में तुरंत कार्यवाही जरूरी है तो वह अध्यादेश जारी कर सकता है। इस अध्यादेश की शक्ति एवं प्रभाव वही होता है जो संसद द्वारा पास की गई विधि का होता है।

लोकसभा के लिए प्रत्येक आम चुनाव के पश्चात अधिवेशन के शुरू में और हर साल के पहले अधिवेशन के प्रारंभ में राष्ट्रपति एक साथ संसद के दोनों सदनों के सामने अभिभाषण करता है। वह सदनों की बैठक बुलाने के कारणों की संसद को सूचना देता है। इसके अलावा वह संसद के किसी एक सदन अथवा एक साथ दोनों के समक्ष अभिभाषण कर सकता है। इसके लिए वह सदस्यों की उपस्थिति की अपेक्षा कर सकता है। उसे संसद में उस समय लंबित किसी विधेयक के संबंध में संदेश या कोई अन्य संदेश किसी भी सदन को भेजने का अधिकार है। जिस सदन को कोई संदेश इस प्रकार भेजा गया हो वह सदन उस संदेश में लिखे विषय पर सुविधानुसार शीघ्रता से विचार करता है। कुछ प्रकार के विधेयक राष्ट्रपति की सिफारिश प्राप्त करने के बाद ही पेश किए जा सकते हैं अथवा उन पर आगे कोई कार्यवाही की जा सकती है।

राज्यसभा

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जैसा कि इसके नाम से पता चलता है, राज्यसभा राज्यों की परिषद है। यह अप्रत्यक्ष रीति से लोगों का प्रतिनिधित्व करती है। राज्यसभा के सदस्य का चुनाव राज्य विधान सभाओं के चुने हुए विधायक करते हैं। प्रत्येक राज्य के प्रतिनिधियों की संख्या ज्यादातर उसकी जनसंख्या पर निर्भर करती है। इस प्रकार,छत्तीसगढ़ के राज्यसभा में 5 सदस्य हैं, उत्तर प्रदेश के राज्यसभा में 31 सदस्य हैं। मणिपुर, मिजोरम, सिक्किम, त्रिपुरा आदि छोटे राज्यों के केवल एक एक सदस्य हैं। राज्यसभा में 250 तक सदस्य हो सकते हैं। इनमें राष्ट्रपति द्वारा मनोनीत 12 सदस्य तथा 238 राज्यों और संघ-राज्य क्षेत्रों द्वारा चुने सदस्य होते हैं। इस समय राज्यसभा के 245 सदस्य हैं। इनमें से 233 सदस्य निर्वाचित और 12 राष्ट्रपति द्वारा मनोनीत है । राज्यसभा के प्रत्येक सदस्य की कार्यावधि छह वर्ष है। उपराष्ट्रपति, संसद के दोनों सदनों के सदस्यों द्वारा निर्वाचित किया जाता है। वह राज्यसभा का पदेन सभापति होता है। उपसभापति पद के लिए राज्यसभा के सदस्यों द्वारा अपने में से किसी सदस्य को चुना जाता है।

लोक सभा

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लोक सभा के सदस्यों का चुनाव जनता द्वारा सीधे वोट डालकर किया जाता है। 18 साल और उससे अधिक आयु का हर एक भारतीय नागरिक मतदान करने का हकदार होगा। लोक सभा के अधिकतम 530 सदस्य राज्यों से चुनाव क्षेत्रों की प्रत्यक्ष रीति से चुने जाएंगे। अधिकतम 20 सदस्य संघ राज्य क्षेत्रों का प्रतिनिधित्व करेंगे। इसके अतिरिक्त, राष्ट्रपति आंग्ल-भारतीय समुदाय का प्रतिनिधित्व करने के लिए दो से अनधिक सदस्य मनोनीत कर सकता है। इस प्रकार सदन की अधिकतम सदस्य संख्या 552 हो, ऐसी संविधान में परिकल्पना की गई है। लोक सभा में अनुसूचित जातियों तथा अनुसूचित जनजातियों के लिए जनसंख्या-अनुपात के आधार पर स्थान आरक्षित है। आरंभ में यह आरक्षण दस वर्ष के लिए था। नवीनतम संशोधन के अंतर्गत अब यह पचास वर्ष के लिए अर्थात सन २००० तक के लिए हैं। भारत में सदन की कार्यावधि पाँच वर्षों की है। पाँच वर्षों की अवधि समाप्त हो जाने पर सदन खुद भंग हो जाता है। कुछ परिस्थतियों में संसद को पूर्ण कार्यावधि समाप्त होने से पहले ही भंग किया जा सकता है। आपातकाल की स्थति में संसद लोक सभा की कार्यावधि बढ़ा सकती है। यह एक बार में एक वर्ष से अधिक नहीं हो सकती।

संसद भवन के लोकसभा कक्ष में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी संविधान दिवस पर अपना वक्तव्य रखते हुए

संसद के दोनों सदनों को, कुछ मामलों को छोड़कर सभी क्षेत्रों में समान शक्तियां एवं दर्जा प्राप्त है। कोई भी गैर-वित्तीय विधेयक अधिनियम बनने से पहले दोनों में से प्रत्येक सदन द्वारा पास किया जाना आवश्यक है। राष्ट्रपति पर महाभियोग चलाने, उपराष्ट्रपति को हटाने, संविधान में संशोधन करने और उच्चतम न्यायालय एवं उच्च न्यायालयों के न्यायाधीशों को हटाने जैसे महत्वपूर्ण मामलों में राज्यसभा को लोक सभा के समान शक्तियां प्राप्त है। राष्ट्रपति के अध्यादेशों, आपात की उदघोषणा और किसी राज्य में संवैधानिक व्यवस्था के विफल हो जाने की उदघोषणा और किसी राज्य में संवैधानिक व्यवस्था के विफल हो जाने की उदघोषणा को संसद के दोनों सदनों के समक्ष रखना अनिवार्य है। किसी धन विधेयक और संविधान संशोधन विधेयक को छोड़कर अन्य किसी भी विधेयक पर दोनों सदनों के बीच असहमति को दोनों सदनों द्वारा संयुक्त बैठक में दूर किया जाता है। इस बैठक में मामले बहुमत द्वारा तय किए जाते हैं। दोनों सदनों की ऐसी बैठक का पीठासीन अधिकारी लोकसभा का अध्यक्ष होता है।

संसद और सरकार

भारत में प्रधानमंत्री और मंत्री दोनों सदनों में से किसी भी एक का सदस्य हो सकते हैं। किसी ऐसे व्यक्ति को भी प्रधानमंत्री या मंत्री नियुक्त किया जा सकता है जो संसद के किसी भी सदन का सदस्य न हो, परंतु उसे छह मास के पश्चात पद छोड़ना पड़ता है, यदि इस बीच, वह दोनों में से किसी सदन के लिए निर्वाचित न हो जाए। मंत्रिपरिषद सामूहिक रूप से लोक सभा के प्रति उत्तरदायी है। अंत: उसके लिए यह जरूरी है कि लोक सभा का विश्वास खोते ही पद-त्याग कर दें। संसदीय शासन का अर्थ होना चाहिए संसद द्वारा शासन। किंतु संसद स्वयं शासन नहीं करती और न ही कर सकती है। मंत्रिपरिषद के बारे में एक तरह से कहा जा सकता है कि यह संसद की महान कार्यपालिका समिति होती है। जिसे मूल निकाय की ओर से शासन करने का उत्तरदायित्व सौंपा जाता है। संसद का कार्य विधान बनाना, मंत्रणा देना, आलोचना करना और लोगों की शिकायतों को व्यक्त करना है। कार्यपालिका का कार्य शासन करना है, यद्यपि वह संसद की ओर से ही शासन करती है।

संसद सदस्यों का चुनाव

इन्हें भी देखें: भारत में चुनाव
प्रत्येक राज्य व प्रदेश में संसदीय आसनों की संख्या

भारत जैसे बड़े और भारी जनसंख्या वाले देश में चुनाव कराना एक बहुत बड़ा काम है। संसद के दोनों सदनों- लोकसभा और राज्यसभा- के लिए चुनाव बेरोकटोक और निष्पक्ष हों, इसके लिए एक स्वतंत्र निर्वाचन आयोग बनाया गया है। लोक सभा के लिए सामान्य चुनाव जब उसकी कार्यवधि समाप्त होने वाली हो या उसके भंग किए जाने पर कराए जाते हैं। भारत का प्रत्येक नागरिक जो 18 वर्ष का या उससे अधिक हो मतदान का अधिकारी है।

राज्यसभा के सदस्य राज्यों के लोगों का प्रतिनिधित्व करते हैं। इनका चुनाव राज्य की विधान सभा के चुने हुए सदस्यों द्वारा होता है। राज्यसभा में स्थान भरने के लिए राष्ट्रपति, चुनाव आयोग द्वारा सुझाई गई तारीख को, अधिसूचना जारी करता है। जिस तिथि को सेवानिवृत्त होने वाले सदस्यों की पदावधि समाप्त होनी हो उससे तीन मास से अधिक समय से पूर्व ऐसी अधिसूचना जारी नहीं की जाती। चुनाव अधिकारी, चुनाव आयोग के अनुमोदन से मतदान का स्थान निर्धारित और अधिसूचित करता है।

नयी लोक सभा के चुनाव के लिए राष्ट्रपति, राजपत्र में प्रकाशित अधिसूचना द्वारा, चुनाव आयोग द्वारा सुझाई गई तिथि को, सभी संसदीय निर्वाचन क्षेत्रों से सदस्य चुनने के लिए कहता है। अधिसूचना जारी किए जाने के पश्चात चुनाव आयोग नामांकन पत्र दायर करने, उनकी छानबीन करने, उन्हें वापस लेने और मतदान के लिए तिथियां निर्धारित करता है। लोक सभा के लिए प्रत्यक्ष चुनाव होने के कारण भारत के राज्य क्षेत्र को उपयुक्त प्रादेशिक निर्वाचन क्षेत्रों में बांटा जाता है। प्रत्येक संसदीय निर्वाचन क्षेत्र से एक सदस्य को चुना जाता है।

पात्रता

लोकसभा का चुनाव लड़ने के लिए कम से कम आयु 25 वर्ष है और राज्यसभा के लिए 30 वर्ष। यदि एक सदन का कोई सदस्य दूसरे सदन के लिए भी चुन लिया जाता है तो पहले सदन में उसका स्थान उस तिथि से खाली हो जाता है जब वह अन्य सदन के लिए चुना गया हो। इसी प्रकार, यदि वह किसी राज्य विधानमंडल के सदस्य के रूप में भी चुन लिया जाता है तो, यदि वह राज्य विधानमंडल में अपने स्थान से, राज्य के राजपत्र में घोषणा के प्रकाशन से 14 दिनों के भीतर, त्यागपत्र नहीं दे देता तो, संसद का सदस्य नहीं रहता। यदि कोई सदस्य, सदन की अनुमति के बिना 60 दिन की अवधि तक सदन की किसी बैठक में उपस्थित नहीं होता तो वह सदन उसके स्थान को रिक्त घोषित कर सकता है। इसके अलावा, किसी सदस्य को सदन में अपना स्थान रिक्त करना पड़ता है यदि:

  • वह लाभ का कोई पद धारण करता है,
  • उसे विकृत चित्त वाला व्यक्ति या दिवालिया घोषित कर दिया जाता है,
  • वह स्वेच्छा से किसी विदेशी राज्य की नागरिकता प्राप्त कर लेता है,
  • उसका निर्वाचन न्यायालय द्वारा शून्य घोषित कर दिया जाता है,
  • वह सदन द्वारा निष्कासन का प्रस्ताव स्वीकृत किए जाने पर निष्कासित कर दिया जाता है या
  • वह राष्ट्रपति या किसी राज्य का राज्यपाल चुन लिया जाता है।

यदि किसी सदस्य को भारतीय संविधान की दसवीं अनुसूची के उपबंधो के अंतर्गत दल-बदल के आधार पर अयोग्य सिद्ध कर दिया गया हो, तो उस स्थिति में भी उसकी सदस्यता समाप्त हो सकती है।

चुनाव संबंधी विवाद

संसद के या किसी राज्य विधानमंडल के किसी सदन के लिए हुए किसी चुनाव को चुनौती उच्च-न्यायालय में दी जा सकती है। याचिका चुनाव के दौरान कोई भ्रष्ट प्रक्रिया अपनाने के कारण पेश की जा सकती है। यदि सिद्ध हो जाए तो उच्च न्यायालय को यह शक्ति प्राप्त है कि वह सफल उम्मीदवार का चुनाव शून्य घोषित कर दे। प्रभावित पक्ष को उच्च न्यायालय के आदेश के विरूद्ध उच्चतम न्यायालय में अपील करने का अधिकार है।

संसद के सत्र और बैठकें

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लोक सभा प्रत्येक आम चुनाव के बाद चुनाव आयोग द्वारा अधिसूचना जारी किए जाने पर गठित होती है। लोक सभा की पहली बैठक शपथ विधि के साथ शुरू होती है। इसके नव निर्वाचित सदस्य ‘भारत के संविधान के प्रति श्रद्धा और निष्ठा रखने के लिए', 'भारत की प्रभुता और अखंडता अक्षुण्ण रखने के लिए’ और ‘संसद सदस्य के कर्तव्यों का श्रद्धापूर्वक निर्वहन करने के लिए’ शपथ लेते हैं।

राष्ट्रपति द्वारा आमंत्रण

राष्ट्रपति समय समय पर संसद के प्रत्येक सदन को बैठक के लिए आमंत्रित करता है। प्रत्येक अधिवेशन की अंतिम तिथि के बाद राष्ट्रपति को छह मास के भीतर आगामी अधिवेशन के लिए सदनों को बैठक के लिए आमंत्रित करना होता है। यद्यपि सदनों को बैठक के लिए आमंत्रित करने की शक्ति राष्ट्रपति में निहित है तथापि व्यवहार में इस आशय के प्रस्ताव की पहल सरकार द्वारा की जाती है।

संसद के सत्र

सामान्यतः प्रतिवर्ष संसद के तीन सत्र या अधिवेशन होते हैं। यथा बजट अधिवेशन (फरवरी-मई), मानसून अधिवेशन (जुलाई-अगस्त) और शीतकालीन अधिवेशन (नवंबर-दिसंबर)। किंतु, राज्यसभा के मामले में, बजट के अधिवेशन को दो अधिवेशनों में विभाजित कर दिया जाता है। इन दो अधिवेशनों के बीच तीन से चार सप्ताह का अवकाश होता है। इस प्रकार राज्यसभा के एक वर्ष में चार अधिवेशन होते हैं।

राष्ट्रपति का अभिभाषण

नव निर्वाचित सदस्यों की शपथ के बाद अध्यक्ष का चुनाव होता है। इसके बाद, राष्ट्रपति संसद भवन के केंद्रीय कक्ष में एक साथ संसद के दोनों सदनों के समक्ष अभिभाषण करता है। राष्ट्रपति का अभिभाषण बहुत महत्वपूर्ण अवसर होता है। अभिभाषण में ऐसी नीतियों एवं कार्यक्रमों का विवरण होता है जिन्हें आगामी वर्ष में कार्यरूप देने का विचार हो। साथ ही, पहले वर्ष की उसकी गतिविधियों और सफलताओं की समीक्षा भी दी जाती है। वह अभिभाषण चूंकि सरकार की नीति का विवरण होता है अंत: सरकार द्वारा तैयार किया जाता है। अभिभाषण पर चर्चा बहुत व्यापक रूप से होती है। धन्यवाद प्रस्ताव के संशोधनों के द्वारा उन मामलों पर भी चर्चा हो सकती है जिनका अभिभाषण में विशेष रूप से उल्लेख न हो।

अध्यक्ष/उपाध्यक्ष का चुनाव

लोक सभा सदन के दो सदस्यों को अध्यक्ष और उपाध्यक्ष के रूप में चुनती है। कुछ ऐसी परंपरा बनी है कि उपाध्यक्ष विपक्ष के सदस्यों में से चुना जाता है। प्रायः यह कोशिश रहती है कि अध्यक्ष और उपाध्यक्ष तथा राज्यसभा में सभापति और उपसभापति का यह काम है कि वे अपने सदन की कार्यवाही को व्यवस्थित ढंग से नियमों के अनुसार चलाएं।

कार्यक्रम और प्रक्रिया

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संसदीय कार्य दो मुख्य शीर्षों में बांटा जा सकता है: सरकारी कार्य और गैर-सरकारी कार्य। सरकारी कार्य को फिर दो श्रेणियों में बांटा जा सकता है: ऐसे कार्य जिनकी शुरूआत सरकार द्वारा की जाती है, और ऐसे कार्य जिनकी शुरूआत विपक्ष के सदस्यों द्वारा की जाती है परंतु जिन्हें सरकारी कार्य के समय में लिया जाता है जैसे प्रश्न, स्थगन प्रस्ताव, अविलंबनीय लोक महत्व के मामलों की ओर ध्यान दिलाना, विशेषाधिकार के प्रश्न, अविलंबनीय लोक महत्व के मामलों पर चर्चा, मंत्रिपरिषद में अविश्वास का प्रस्ताव, प्रश्नों के उत्तरों से उत्पन्न होने वाले मामलों पर आधे घंटे की चर्चाएं इत्यादि।

गैर-सरकारी सांसदों के कार्य, अर्थात विधेयकों और संकल्पों पर प्रत्येक शुक्रवार के दिन या किसी ऐसे दिन जो अध्यक्ष निर्धारित करे ढाई घंटे तक चर्चा की जाती है। सदन में किए जाने वाले विभिन्न कार्यों के लिए समय की सिफारिश सामान्यतः कार्य मंत्रणा समिति द्वारा की जाती है। प्राय: हर सप्ताह एक बैठक होती है। संसद के दोनों सदनों की कार्यवाही की छपी हुई प्रतियां सामान्यतः बैठक के बाद एक मास के अंदर उपलब्ध करा दी जाती हैं। कार्यवाही को टेप रिकार्ड किया जाता है। वाद विवाद के अधिवेशनवार छपे हुए खंड हिंदी तथा अंग्रेजी भाषा में उपलब्ध होते हैं।

संसद में प्रश्न पूछना

सरकार अपनी प्रत्येक भूल चूक के लिए संसद के प्रति और संसद के द्वारा लोगों के प्रति उत्तरदायी होती है। सदन के सदस्य इस अधिकार का प्रयोग, अन्य बातों के साथ साथ, संसदीय प्रश्नों के माध्यम से करते हैं। संसद सदस्यों को लोक महत्व के मामलों पर सरकार के मंत्रियों से जानकारी प्राप्त करने के लिए पूछने का अधिकार होता है। जानकारी प्राप्त करना प्रत्येक गैर-सरकारी सदस्य का संसदीय अधिकार है। संसद सदस्य के लिए लोगों के प्रतिनिधि के रूप में यह आवश्यक होता है कि उसे अपनी जिम्मेदारियों के पालन के लिए भारत सरकार के क्रियाकलापों के बारे में जानकारी हो। प्रश्न पूछने का मूल उद्देश्य लोक महत्व के किसी मामले पर जानकारी प्राप्त करना और तथ्य जानना है।

दोनों सदनों में प्रत्येक बैठक के प्रारंभ में एक घंटे तक प्रश्न किए जाते हैं। और उनके उत्तर दिए जाते हैं। इसे ‘ प्रश्नकाल’ कहा जाता है। इसके अतिरिक्त, खोजी और अनुपूरक प्रश्न पूछने से मंत्रियों का भी परीक्षण होता है कि वे अपने विभागों के कार्यकरण को कितना समझते हैं। प्रश्नकाल के दौरान प्रश्न पर होने वाले कटु तर्क-वितर्क से सदन का वातावरण सामान्यतः अनिश्चित होता है। कुछ प्रश्नों का मौखिक उत्तर दिया जाता है। इन्हें तारांकित प्रश्न कहा जाता है। अतारांकित प्रश्नों का लिखित उत्तर दिया जाता है। इस काल के दौरान प्रश्नों की प्रक्रिया अपेक्षतः सरल और आसान है। चूंकि प्रश्नों की प्रक्रिया अपेक्षतः सरल और आसान है। अत: यह संसदीय प्रक्रिया के अन्य उपायों की तुलना में संसद सदस्यों में अधिकाधिक प्रिय होती जा रही है।

शून्यकाल

संसद के दोनों सदनों में प्रश्नकाल के ठीक बाद का समय आमतौर पर ‘शून्यकाल’ अथवा जीरो आवर के नाम से जाना जाने लगा है। यह एक से अधिक अर्थों में शून्यकाल होता है। 12 बजे दोपहर का समय न तो मध्याह्न पूर्व का समय होता है और न ही मध्याह्न पश्चात का समय। ‘शून्यकाल’ 12 बजे प्रारंभ होने के कारण इस नाम से जाना जाता है इसे ‘आवर’ भी कहा गया क्योंकि पहले ‘शून्यकाल’ पूरे घंटे तक चलता था, अर्थात 1 बजे दिन में सदन का दिन के भोजन के लिए अवकाश होने तक।

अतः नियमों की दृष्टि से तथाकथित शून्यकाल एक अनियमितता है। प्रश्नकाल के समाप्त होते ही सदस्यगण ऐसे मामले उठाने के लिए खड़े हो जाते हैं जिनके बारे में वे महसूस करते हैं कि कार्यवाही करने में देरी नहीं की जा सकती। हालाँकि इस प्रकार मामले उठाने के लिए नियमों में कोई उपबंध नहीं है। ऐसा प्रतीत होता है कि इस प्रथा के पीछे यही विचार रहा है कि ऐसे नियम जो राष्ट्रीय महत्व के मामले या लोगों की गंभीर शिकायतों संबंधी मामले सदन में तुरंत उठाए जाने में सदस्यों के लिए बाधक होते हैं, वे निरर्थक हैं। आजकल, शून्यकाल में उठाये जाने वाले कुछ मामलों की पहले से दी गई सूचना के आधार पर, अध्यक्ष की अनुमति से, एक सूची भी बनने लगी है।साँचा:citation needed

संसद में जनहित के मामले

साँचा:more

सदन लोक महत्व के विभिन्न मामलों पर अनेक फैसले करता है और अपनी राय व्यक्त करता है। कोई भी सदस्य एक प्रस्ताव के रूप में कोई सुझाव सदन के समक्ष रख सकता है। जिसमें उसकी राय या इच्छा दी गई हो। यदि सदन उसे स्वीकार कर लेता है तो वह समूचे सदन की राय या इच्छा बन जाती है। अंत: मोटे तौर पर विभिन्न प्रकार के संसदीय प्रस्ताव सदन का फैसला जानने के लिए सदन के सामने लाया जाता है।

प्रस्ताव वास्तव में संसदीय कार्यवाही का आधार होते हैं। लोक महत्व का कोई भी मामला किसी प्रस्ताव का विषय हो सकता है। प्रस्ताव भिन्न भिन्न सदस्यों द्वारा भिन्न भिन्न प्रयोजनों से पेश किए जा सकते हैं। प्रस्ताव मंत्रियों द्वारा पेश किए जा सकते हैं और गैर-सरकारी सदस्यों द्वारा भी। गैर-सरकारी सदस्यों द्वारा पेश किए जाने वाले प्रस्तावों का उद्देश्य सामान्यतः किसी मामले पर सरकार की राय या विचार जानना होता है।

भाषा

संसद के कार्य का संचालन करने की भाषाएं हिंदी तथा अंग्रेजी हैं। किंतु पीठासीन अधिकारी ऐसे सदस्य को, जो हिंदी या अंग्रेजी में अपनी पर्याप्त अभिव्यक्ति नहीं कर सकता हो, अपनी मातृभाषा में संसद को संबोधित करने की अनुमति दे सकते हैं। दोनों सदनों में 12 भाषाओं को हिंदी तथा अंग्रेजी में साथ साथ भाषांतर करने की सुविधाएं उपलब्ध हैं।

संसद में बजट

सरकार को शासन, सुरक्षा और जन कल्याण के बहुत से काम करने होते हैं। इन सबके लिए बहुत साधन चाहिए। ये आएं कहाँ से? सरकार जनता से कर वसूलती है। जरूरत पड़ने पर कर्जे भी लेती है। क्योंकि हम संसदीय व्यवस्था में रहते हैं, सरकार के लिए यह जरूरी है कि कोई भी कर लगाने या कोई भी खर्चा करने से पहले वह संसद की मंजूरी ले। इस मंजूरी को लेने के लिए ही हर वर्ष सरकार एक बजट यानी पूरे साल की आमदनी और खर्चे का लेखा जोखा संसद में पेश करती है।

रेल बजट और सामान्य बजट अलग अलग पेश किए जाते हैं। सामान्य बजट प्रायः फरवरी के अंतिम कार्य दिवस पर लाया जाता है। रेल बजट उससे कुछ दिन पहले आ जाता है। वित्तीय वर्ष इस समय प्रत्येक साल की पहली अप्रैल से आरंभ होता है। बजट में इस आशय का प्रस्ताव होता है कि आने वाले साल के दौरान किस मद पर कितना धन खर्च किया जाना है। उसमें कितना धन किस तरीके से आएगा या कहाँ से जुटाया जाएगा। बजट के आगामी वर्ष के लिए अनुदान दिए जाते हैं। सरकार को अपनी वित्तीय और आर्थिक नीतियों तथा कार्यक्रमों और उनकी व्याख्या करने का अवसर मिलता है। साथ ही, संसद को उन पर विचार करने और उनकी आलोचना करने का भी अवसर मिलता है।

बजट पास करने की प्रक्रिया में संसद के दोनों सदनों में गंभीर एवं पूर्ण चर्चा होती है। यह बजट पेश किए जाने के कुछ दिन बाद होती है। चर्चा सामान्य वाद विवाद से आरंभ होती है। यह संसद के दोनों सदनों में तीन या चार दिन तक चलती है। प्रथा यह है कि इस अवस्था में सदस्य सरकार की राजकोषीय और आर्थिक नीतियों के सामान्य पहलुओं पर ही विचार करते हैं। कर लगाने तथा खर्च के ब्यौरे में नहीं जाते। इस प्रकार सामान्य वाद विवाद से प्रत्येक सदन को अपने विचार व्यक्त करने का अवसर मिलता है। सरकार को भी आभास हो जाता है कि किसी प्रस्ताव विशेष के प्रति बाद की अवस्थाओं में क्या प्रतिक्रिया होगी। यह ध्यान देने की बात है कि राज्यसभा को सामान्य चर्चा के अलावा बजट से कोई सरोकार नहीं होता। मांगों पर मतदान केवल लोक सभा में होता है। दूसरी अवस्था अनुदानों की मांगों पर चर्चा और मतदान की है। सामान्यतः प्रत्येक मंत्रालय के लिए प्रस्तावित अनुदानों के लिए अलग मांगे रखी जाती हैं। इन ‘मांगो’ का संबंध बजट के व्यय वाले भाग से होता है। इनका स्वरूप कार्यपालिका द्वारा लोक सभा के लिए किए गए निवेदन का है कि मांगी गई राशि को खर्च करने का अधिकार दिया जाए।

मांगो पर चर्चा रूचिपूर्ण होती है। चर्चा के दौरान मंत्रालय की नीतियों और क्रियाकलापों की बारीकी से छानबीन की जाती है। अनुदानों की मांगों के मूल प्रस्ताव के सहायक प्रस्ताव पेश करके सदस्य ऐसा कर सकते हैं। इन सहायक प्रस्तावों को संसदीय भाषा में ‘कटौती प्रस्ताव’ कहा जाता है।

लेखानुदान

बजट पास करने की प्रक्रिया बजट पेश किए जाने से इस पर चर्चा करने और अनुदानों की मांगे स्वीकृत करने और विनियोग तथा वित्त विधेयकों के पास होने तक सामान्यतः चालू वित्तीय वर्ष के आरंभ होने के बाद तक चलती रहती है। जब तक संसद, मांगें स्वीकृत नहीं कर लेती तब तक के लिए यह आवश्यक है कि देश का प्रशासन चलाने के लिए सरकार के पास पर्याप्त धन उपलब्ध हो। इसलिए ‘लेखानुदान’ के लिए विशेष उपबंध किया गया है। जिसके द्वारा लोकसभा को शक्ति दी गई है कि वह बजट की प्रक्रिया पूरी होने तक किसी वित्तीय वर्ष के एक भाग के लिए पेशगी अनुदान दे सकती है।

विधायिक प्रक्रिया

कानून बनाना संसद का प्रमुख काम माना जाता है। इसके लिए पहल अधिकांशतः कार्यपालिका द्वारा की जाती है। सरकार विधायी प्रस्ताव पेश करती है। उस पर चर्चा तथा वाद विवाद के पश्चात संसद उस पर अनुमोदन की अपनी मुहर लगाती है। सभी कानूनी प्रस्ताव विधेयक के रूप में संसद में पेश किए जाते हैं। विधेयक विधायी प्रस्ताव का मसौदा होता है। विधेयक संसद के किसी एक सदन में सरकार द्वारा या किसी गैर-सरकारी सदस्य द्वारा पेश किया जा सकता है। इस प्रकार मोटे तौर पर, विधेयक दो प्रकार के होते हैं: (क) सरकारी विधेयक और (ख) गैर-सरकारी सदस्यों के विधेयक। विधि का रूप लेने वाले अधिकांश विधेयक सरकारी विधेयक होते हैं। वैसे तो गैर सरकारी सदस्यों के बहुत कम विधेयक विधि का रूप लेते हैं। फिर भी उनके द्वारा यह बात सरकार और लोगों के ध्यान में लाई जाती है कि मौजूदा कानून में संशोधन करने या कोई आवश्यक विधान बनाने की आवश्यकता है।

विधेयक का मसौदा उस विषय से संबंधित सरकार के मंत्रालय में विधि मंत्रालय की सहायता से तैयार किया जाता है। मंत्रिमंडल के अनुमोदन के बाद इसे संसद के सामने लाया जाता है। संबंधित मंत्री द्वारा उसे संसद के दोनों सदनों में से किसी भी सदन में पेश किया जा सकता है। केवल धन विधेयक के मामले में यह पाबंदी है कि वह राज्यसभा में पेश नहीं किया जा सकता। अधिनियम का रूप लेने से पूर्व विधेयक को संसद में विभिन्न अवस्थाओं से गुजरना पड़ता है। प्रत्येक विधेयक के प्रत्येक सदन में तीन वचन होते हैं। अर्थात पहला वाचन, दूसरा वाचन और तीसरा वाचन। विधेयक ‘पेश करना,’ विधेयक का पहला वाचन है। प्रथा के अनुसार इस अवस्था में चर्चा नहीं की जाती है। विधेयक का दूसरा वाचन सबसे अधिक विस्तृत एवं महत्वपूर्ण अवस्था है क्योंकि इसी अवस्था में इसकी विस्तृत एवं बारीकी से जांच की जाती है। जब विधेयक के सभी खंडो पर और अनुसूचियों पर, यदि कोई हों, सदन विचार कर उन्हें स्वीकृत कर लेता है। तब मंत्री यह प्रस्ताव कर सकता है कि विधेयक को पास किया जाए। यह तीसरा वाचन कहलाता है। जिस सदन में विधेयक पेश किया गया हो उसमें पास किए जाने के बाद उसे सहमति के लिए दूसरे सदन में भेजा जाता है। वहाँ विधेयक फिर इन तीनों अवस्थाओं में से गुजरता है।

किसी विधेयक पर दोनों के बीच असहमति के कारण गतिरोध होने पर एक असाधारण स्थिति उत्पन्न हो जाती है। जिसका समाधान दोनों सदनों की संयुक्त बैठक में होता है। जब दोनों सदनों द्वारा कोई विधेयक अलग अलग या संयुक्त बैठक में पास कर दिया जाता है तो उसे राष्ट्रपति के पास भेजा जाता है। यदि राष्ट्रपति अनुमति प्रदान कर देता है तो अनुमति की तिथि से विधेयक अधिनियम बन जाता है। संशोधन के द्वारा संविधान के किसी भी अनुच्छेद में बदलाव लाया जा सकता है। किंतु उच्चतम न्यायालय के निर्णय के अनुसार संविधान के मूल ढांचे या मूल तत्वों को नष्ट या न्यून करने वाला कोई परिवर्तन नहीं किया जा सकता।

संसदीय विशेषाधिकार

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संसदीय विशेषाधिकार वे विशिष्ट अधिकार हैं जो संसद के दोनों सदनों को, उसके सदस्यों को और समितियों को प्राप्त है। विशेषाधिकार इस दृष्टि से दिए जाते हैं कि संसद के दोनों सदन, उसकी समितियां और सदस्य स्वतंत्र रूप से काम कर सकें। उनकी गरिमा बनी रहे, परंतु इसका यह अर्थ नहीं है कि कानून की नजरों में साधारण नागरिकों के मुकाबले में विशेषाधिकार प्राप्त सदस्यों की स्थिति भिन्न है। जहाँ तक विधियों के लागू होने का संबंध है, सदस्य लोगों के प्रतिनिधि होने के साथ साथ साधारण नागरिक भी होते हैं। मूल विधि यह है कि संसद सदस्यों सहित सभी नागरिक कानून की नजरों में बराबर माने जाने चाहिए। जो दायित्व अन्य नागरिकों के हों, वही उनके भी होते हैं और शायद सदस्य होने के नाते कुछ अधिक होते हैं।

संसदों का सबसे महत्वपूर्ण विशेषाधिकार है सदन और उसकी समितियों में पूरी स्वतंत्रता के साथ अपने विचार रखने की छूट। संसद के किसी सदस्य द्वारा कही गई किसी बात या दिए गए किसी मत के संबंध में उसके विरूद्ध किसी न्यायालय में कोई कार्यवाही नहीं की जा सकती। संसदीय विशेषाधिकारों की सूचियां तैयार की जा सकती हैं। वास्तव में ये तैयार भी की गईं हैं परंतु ऐसी कोई भी सूची पूरी नहीं है। थोड़े में कह सकते हैं कि कोई भी वह काम जो सदन के, उसकी समितियों के या उसके सदस्यों के काम में किसी प्रकार की बाधा डाले वह संसदीय विशेषाधिकार का हनन करता है। उदाहरण के लिए, कोई सदस्य न केवल उस समय गिरफ्तार नहीं किया जा सकता जबकि उस सदन का, जिसका कि वह सदस्य हो, अधिवेशन चल रहा हो या जबकि उस संसदीय समिति की, जिसका वह सदस्य हो, बैठक चल रही हो, या जबकि दोनों सदनों की संयुक्त बैठक चल रही हो, या जबकि दोनों सदनों की संयुक्त बैठक चल रही हो। संसद के अधिवेशन के प्रारंभ से 40 दिन पहले और उसकी समाप्ति से 40 दिन बाद या जबकि वह सदन को आ रहा हो या सदन के बाहर जा रहा हो, तब भी उसे गिरफ्तार नहीं किया जा सकता।

संसद के परिसरों के भीतर, सभापति की अनुमति के बिना, दीवानी या आपराधिक कोई कानूनी ‘समन’ नहीं दिए जा सकते हैं। अध्यक्ष/सभापति की अनुमति के बिना संसद भवन के अंदर किसी को भी गिरफ्तार नहीं किया जा सकता है। क्योंकि संसद के परिसरों में केवल संसद के सदन के या अध्यक्ष/सभापति के आदेशों का पालन होता है। यहाँ अन्य किसी सरकारी प्राधिकारी के या स्थानीय प्रशासन के आदेश का पालन नहीं होता। संसद का प्रत्येक सदन अपने विशेषाधिकार का स्वयं ही रक्षक होता है। विशेषाधिकार भंग करने या सदन की अवमानना करने वाले को भर्त्सना करके या ताड़ना करके या निर्धारित अवधि के लिए कारावास द्वारा दंडित कर सकता है। स्वयं अपने सदस्यों के मामले में सदन अन्य दो प्रकार के दंड दे सकता है, अर्थात सदन की सेवा से निलंबित करना और निकाल देना, किसी सदस्य को एक निर्धारित अवधि के लिए सदन की सेवा से निलंबित किया जा सकता है। किसी अति गंभीर मामले में सदन से निकाला जा सकता है। सदन अपराधियों को ऐसी अवधि के लिए कारावास का दंड दे सकता है जो साधारणतः सदन के अधिवेशन की अवधि से अधिक नहीं होती। जैसे ही सदन का सत्रावसान होता है, बंदी को मुक्त कर दिया जाता है। दर्शकों द्वारा गैलरी में नारे लगाकर और/अथवा इश्तिहार फेंककर सदन की अवमानना करने के कारण, दोनों सदनों ने, समय समय पर, अपराधियों को सदन के उस दिन स्थगित होने तक कारावास का दंड दिया है।

सदन का दांडिक क्षेत्र अपने सदनों तक और उनके सामने किए गए अपराधों तक ही सीमित न होकर सदन की सभी अवमाननाओं पर लागू होता है। चाहे अवमानना सदस्यों द्वारा की गई हो या ऐसे व्यक्तियों द्वारा जो सदस्य न हों। इससे भी कोई अंतर नहीं पड़ता कि अपराध सदन के भीतर किया गया है या उसके परिसर से बाहर। सदन का विशेषाधिकार भंग करने या उसकी अवमानना करने के कारण व्यक्तियों को दंड देने की सदन की यह शक्ति संसदीय विशेषाधिकार की नींव है। सदन की ऐसी पंरपरा भी रही है कि सदन का विशेषाधिकार भंग करने या सदन की अवमानना करने के दोषी व्यक्तियों द्वारा स्पष्ट रूप से और बिना किसी शर्त के दिल से व्यक्त किया गया खेद सदन द्वारा स्वीकार कर लिया जाता है। ऐसे में साधारणतः सदन अपनी गरिमा को देखते हुए ऐसे मामलों पर आगे कार्यवाही न करने का फैसला करता है।

सदस्यों के वेतन एवं भत्ते

दोनों सदनों के सदस्य ऐसे वेतन और भत्ते, जिन्हें संसद समय समय पर, विधि द्वारा तय करे, पाने के हकदार है। संसद ने संसद सदस्य (वेतन, भत्ते और पेंशन) अधिनियम के अधीन सदस्यों को पेंशन दिए जाने की स्वीकृति दी है। चार वर्ष के सेवाकाल वाले प्रत्येक सदस्य तो एक हजार चार सौ रूपये प्रति मास की पेंशन दी जाती है। इसके अतिरिक्त पाँच वर्ष के बाद की सेवा के प्रत्येक वर्ष के लिए 250 रूपये और दिए जाते हैं। प्रत्येक सदस्य 1500 रूपये प्रतिमास का वेतन तथा ऐसे स्थान पर, जहाँ संसद के किसी सदन का अधिवेशन या समिति की बैठक हो, ड्यूटी पर निवास के दौरान 200 रूपये प्रतिदिन का भत्ता प्राप्त करने का हकदार है। मासिक वेतन तथा दैनिक भत्ते के अलावा प्रत्येक सदस्य 3000 रूपये मासिक का निर्वाचन क्षेत्र भत्ता और 1000 रूपये प्रतिमास की दर से कार्यालय व्यय प्राप्त करने का हकदार है।

प्रत्येक सदस्य विभिन्न यात्रा –भत्ते पाने का हकदार है जिनमें: रेल द्वारा यात्रा के लिए: एक प्रथम श्रेणी के तथा एक द्वितीय श्रेणी के किराए के बराबर रकम। विमान द्वारा यात्रा के लिए: प्रत्येक ऐसी यात्रा के लिए विमान किराए के सवा गुना के बराबर रकम। सड़क द्वारा यात्रा के लिए: पाँच रूपये प्रति किलोमीटर तथा स्टीमर द्वारा यात्रा के लिए उच्चतम श्रेणी के किराए के अतिरिक्त उसका 3/5 भाग। इसके अलावा, प्रत्येक सदस्य को प्रतिवर्ष देश के अंदर कहीं भी अपनी पत्नी/अपने पति या सहचर के साथ 28 एक तरफा विमान यात्राएं करने की छूट होती है। प्रत्येक सदस्य को देश के अंदर कहीं भी, कितनी भी बार, वातानुकूलित श्रेणी में यात्रा के लिए स्वयं तथा सहचर के लिए एक रेलवे पास भी मिलता है। पत्नी/पति के लिए एक अलग से पास भी मिल सकता है। इसके अलावा, प्रत्येक सदस्य निशुल्क टेलीफोन; एक दिल्ली में तथा दूसरा अपने निवास स्थान पर लगवानें का हकदार है। इसके अलावा, उसे प्रतिवर्ष निशुल्क 50,000 स्थानीय काल करने की छूट होती है। साथ ही प्रत्येक सदस्य को दिल्ली में मकान दिया जाता है। फ्लैटों के लिए कोई शुल्क नहीं है। जबकि बंगलों के लिए नाममात्र लाईसेंस शुल्क लगाया जाता है। कतिपय सीमाओं में बिजली तथा पानी निःशुल्क होते हैं। प्रत्येक सदस्य को उसके कार्यकाल के दौरान वाहन खरीदने के लिए अग्रिम-राशि दी जाती है।

सदस्यों को जो अन्य सुविधाएं प्रदान की जाती हैं उनमें आशुलिपिक तथा टंकण पूल, आयकर में राहत, कैंटीन, जलपान और खानपान, क्लब, कामन रूम, बैंक, डाकघर, रेलवे तथा हवाई बुकिंग तथा आरक्षण, बस परिवहन, एल पी जी सेवा, विदेशी मुद्रा का कोटा, लॉकर, सुपर बाजार आदि शामिल है। संसद परिसर में एकमात्र सदस्यों के लिए एक सुसज्जित प्राथमिक चिकित्सा अस्पताल भी है।

संसद परिसर

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संसद भवन

संसद की इमारतों में संसद भवन, संसदीय सौध, स्वागत कार्यालय और निर्माणाधीन संसदीय ज्ञानपीठ अथवा संसद ग्रंथालय सम्मिलित है। इन सभी को मिलाकर संसद परिसर कहा जाता है इसमें लंबे-चौड़े लान, जलाशय, फव्वारे और सड़कें बनी हुई हैं। यह सारा परिसर सजावटी लाल पत्थर की दीवारों तथा लोहे के जंगलों और लोहे के ही विशाल दरवाजों से घिरा हुआ है।

संसद भवन का निर्माण १९२१-१९२७ के दौरान किया गया था। संसद भवन नई दिल्ली की बहुत ही शानदार भवनों में से एक है। यह विश्व के किसी भी देश में विद्यमान वास्तुकला का एक उत्कृष्ट नमूना है। इसकी तुलना विश्व के सर्वोत्तम विधान-भवनों के साथ की जा सकती है। यह एक विशाल वृत्ताकार भवन है। जिसका व्यास ५६० फुट तथा जिसका घेरा ५३३ मीटर है। यह लगभग छह एकड़ क्षेत्र में फैला हुआ है। भवन के १२ दरवाजे हैं, जिनमें से पाँच के सामने द्वार मंडप बने हुए हैं। पहली मंजिल पर खुला बरामदा हल्के पीले रंग के १४४ चित्ताकर्षक खंभों की कतार से सुसज्‍जित हैं। जिनकी प्रत्येक की ऊँचाई २७ फुट है।

इन्हें भी देखें

बाहरी कड़ियाँ


अन्य शब्दावलियाँ

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