भारतीय शैक्षिक प्रशासन
किसी भी देश का शैक्षिक प्रशासन बहुधा उसके राष्ट्रीय हितों के अनुरूप सुनिर्देशित प्रयोजनों से संबद्ध होता है। ब्रिटिश शासन काल में भारत की शैक्षिक नीति एवं प्रशासन विदेशी सत्ता द्वारा संचालित होने के कारण राष्ट्रीय परंपराओं संस्कृति तथा देशवासियों की आवश्यकताओं के अनुकूल न था
भारत सरकार का शैक्षिक प्रशासन १९१९ के अधिनियम से पूर्व पूर्णत: केंद्रीकृत था। इस अधिनियम से आंशिक प्रादेशिक स्वायता प्रदान की गई और तदुपरांत शिक्षा प्रादेशिक मंत्रालयों के अधीन एक अंतरित विषय बन गई। समुचित समन्वय के अभाव में वित्तीय कठिनाइयों के साथ ही इससे प्रादेशिकता की भावना जाग्रत हुई। महत्वपूर्ण विषयों पर सलाह देने के लिये एक केंद्रीय शिक्षा सलाहकार मंडल की स्थापना १९२१ में की गई, पर दो वर्ष उपरांत इसे भंग कर दिया गया। किंतु १९३५ में इसकी पुन: स्थापना हुई। भारतीय शैक्षिक सेवा में भर्ती १८९६ में प्रारंभ की गई थी किंतु १९२४ में इसे स्थगित कर दिया गया। भारत सरकार के १९३५ के अधिनियम ने राज्यों को अधिक स्वायत्तता प्रदान की और इसके फलस्वरूप भारतीय शिक्षा मंत्री अधिक अधिकार संपन्न हो गए। १९४५ से भारत सरकार में शिक्षा के लिए पृथक् विभाग की स्थापना की गई और १९४७ में स्वतंत्रता प्राप्ति के उपरांत स्वर्गीय मौलाना अबुल कलाम अजाद के मंत्रित्व में केंद्रीय शिक्षा मंत्रालय की स्थापना हुई। भारतीय संविधान के निर्माण के समय सन् १९४४ से शिक्षा तथा विश्वविद्यालय राज्य सूची के अंतर्गत रखे गए। केंद्र की गतिविधियों का केंद्रीय विश्वविद्यालयों तथा राष्ट्रीय महत्व की वैज्ञानिक और प्राविधिक शिक्षण संस्थाओं के परस्पर समन्वय तथा उच्च शिक्षा अथवा अनुसंधान एवं वैज्ञानिक और प्राविधिक संस्थाओं के मानकों के संकल्प तक सीमित कर दिया गया। व्यावसायिक तथा श्रमिकों को प्राविधिक शिक्षण केंद्र तथा राज्यों की समवर्ती सूची में रखा गया।
यह अनुभव किया जाता है कि इस नवीन प्रजातंत्र में शैक्षिक प्रशासन का मुख्य कार्य शिक्षा को मानवीय रूप देना एवं जनता को प्रजातांत्रिक विधियों एवं स्थितियों में प्रशिक्षित करना है। नए शिक्षकों तथा निरीक्षण अधिकारियों को ऐसी विशिष्ट दृष्टि से संपन्न करना है, जिससे कि वे सत्ता की धाक जमाए बिना ही शिक्षार्थियों को प्रेरित कर सकें। स्वतंत्रता प्राप्ति के उपरांत देश की परिवर्तित परिस्थतियों के अनुकूल शैक्षिक प्रशासन के सुधार की ओर अपेक्षित ध्यान नहीं दिया जा सका।
वर्तमान काल में राज्यों में शिक्षा की व्यवस्था राज्य के शिक्षा निदेशक की अध्यक्षता में की जाती है, जिसके अधीन अनेक उपनिदेशक एवं सहायक होते हैं। राज्य अनेक मंडलों अथवा अंचलों में विभक्त होता है, प्रत्येक मंडल के अंतर्गत अनेक जिले होते हैं। प्रत्येक मंडल एक निरीक्षक के अधीन तथा हर जिला स्कूल निरीक्षक के अधीन होता है।
इससे निम्न स्तर पर नागरिक तथा ग्रामीण क्षेत्रों में प्राय: प्राथमिक शिक्षा की व्यवस्था स्थानीय निकायों द्वारा की जाती है। पंचायती राज्य के प्रादुर्भाव तथा प्रजातांत्रिक विकेंद्रीकरण के कारण इन निकायों का विशेष महत्व है।
विविध स्तरों पर शिक्षण संस्थाओं के नियंत्रण तथा प्रशासन में प्रवृत स्वैच्छिक अभिकरण भी इस प्रसंग में उल्लेखनीय हैं। सरकारी प्रशासन इन अभिकरणों को मान्यता प्रदान कर अथवा वित्तीय सहायता देकर इन पर नियंत्रण रखता है।
केंद्रीय शिक्षामंत्री राज्यों के शैक्षिक प्रशासन पर परोक्ष रूप से नियंत्रण रखता है। वह समन्वय स्थपना तथा स्तरों में सुधार के अतिरिक्त अन्य विषयों से संबंधित निर्देश नहीं देता। किंतु केंद्रीय शिक्षा सलाहकार बोर्ड तथा भारतीय प्राविधिक शिक्षा परिषद् तथा अन्य समानांतर निकायों के अध्यक्ष के नाते वह इन निकायों के राज्यप्रतिनिधि शिक्षा मंत्रियों को रष्ट्रीय शिक्षानीति में एकरूपता की स्थापना के लिये अवश्य प्रभावित करता है।
हाल में ही सरकार ने राज्यों से परामर्श कर अखिल भारतीय शिक्षा सेवा की स्थापना के लिये महत्वपूर्ण पग उठाया है। इसके फलस्वरूप केंद्र तथा अन्य स्वायत्त संस्थाओं के क्षेत्र में प्रशासनीय अधिकार तत्संबंधी उच्चतम निकाय में निहित रहते हैं। विश्वविद्यालयों के कुलपतियों की नियुक्ति अब कार्यकारी शक्ति के आदेश पर नहीं की जाती वरन् सरकार तथा विश्वविद्यालय को स्वीकार्य प्रक्रिया के अनुसार की जाती है। विश्वविद्यालय अनुदान आयोग इन संस्थाओं की वित्तव्यवस्था के लिये उत्तरदायी है और इन पर परोक्ष रीति में प्रशासकीय नियंत्रण रखता है।